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सम्यग्ज्ञान
नयवाद के द्वारा परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले विचारों के अविरोध का मूल खोजा जाता है, और उनका समन्वय किया जाता है ।
नय विचारो की मीमासा है। वह एक पोर विचारो के परिणाम, और कारण का अन्वेषण करते है, और दूसरी ओर परस्पर विरोधी विचारो मे अविरोध का वीज खोज कर समन्वय स्थापित करते है।
क्या आत्मा-परमात्मा और क्या जड़ पदार्थ, सभी विषयो मे परस्पर विरोधी मन्तव्य उपलब्ध होते है। एक जगह विधान है कि आत्मा एक है, तो दूसरी जगह कहा गया है कि आत्माए अनन्त-अनन्त है । ऐसे विरुद्ध दिखाई देने वाले मन्तव्यो के विषय मे नयवाद अपेक्षा की नीति अपनाता है। वह विचार करता है कि किस दृष्टिकोण से आत्माए अनेक है ? इस प्रकार के दृष्टिकोणो का अन्वेषण करके उन विचारो की सचाई का आधार खोज निकालना ही नय का काम है, अतएव नय विविध विचारो के समन्वय की पीठिका तैयार करता है । इसलिए नयवाद अपेक्षावाद भी कहलाता है।
जगत के विचारो के आदान-प्रदान का साधन नय है । प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्म-स्वभाव गुण विद्यमान है । उनके विषय मे अनन्त अभिप्रायो को विषय करने वाले नय भी अनन्त होते है ।
अभिप्राय यह है कि अनन्त धर्मात्मक वस्तु को अखण्ड रूप में जानने वाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है, तो उसी वस्तु के किसी एक धर्म को जानने वाला ज्ञान नय कहलाता है। प्रमाण अनेकाश ग्राही है, तो नय एक अश का ग्राहक है।
२. नय की सत्यता--कहा जा सकता है कि अनेक अशो में से सिर्फ एक अश को ग्रहण करने वाला नय मिथ्याजान है। नय यदि मिथ्याज्ञान है तो वह वस्तुतत्त्व के निर्णय का आधार कैसे बन सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर यही दिया जा सकता है कि किसी भी नय की यथार्थता इस बात पर अवलम्बित है, कि वह दूसरे नय का विरोधी न हो। उदाहरण के लिए आत्मा को लीजिए। एक नय से आत्मा नित्य है और दूसरे नय से आत्मा अनित्य है । आत्मा का प्रात्मव शाश्वत है, उसका कभी विनाश सभव नही है, इस दृष्टिकोण से आत्मा नित्य है। किन्तु आत्मा शाश्वत होता हुआ भी अनेक रूपो में परिवर्तित होता रहता है। कभी मनुष्य के पर्याय मे उत्पन्न होता है, कभी पशु-पक्षी की योनि मे