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सम्यग्ज्ञान
यद्यपि जगत् मे मूलभूत तत्व दो ही है । जीव-चेतनात्मक और अजीवअचेतनात्मक, किन्तु दोनों ही अपने अपने स्वभाव मे, गुणो मे और पर्यायो मे अनन्तता से सम्पन्न है।
बात कठिन-सी मालूम होती है, मगर सत्य की आत्मा को पूरी तरह समझ लेना सरल नही है । फिर भी मनुष्य की दृष्टि सम्पन्न हो, तो दैनिक व्यवहार मे आने वाली वस्तुप्रो से भी वह बहुत कुछ सीख सकता है।
___ मिट्टी के एक कण को लीजिए। एक-एक कण मे अनन्त-अनन्त स्वभावोंका सम्मिश्रण है। उसका एक स्वरूप नही, एक आस्वाद नहीं, एक रग-रूप नही । एक फुट वर्गाकार भूखड मे किसान कभी कडवी तीखी और चरपरी मिर्च बोता है, कभी मधुर ईख बोता है, और कभी संतरे या नीबू का पेड लगाता है । यह सभी चीजे मिट्टी के उन कणों में से ही अपना-अपना पोषण, . स्वाद, रूप, रग, सब कुछ प्राप्त करती है । मिट्टी एक है । खाने मे चाहे मिट्टी का स्वाद मिट्टी जैसा है, किन्तु भिन्न बीजो की शक्ति, उसी मिट्टी मे से, अपनी अपनी शक्ति के अनुसार अपने स्वभावानुकूल अभीष्ट तत्व को खीच लेती है । ऐसी स्थिति मे अगर कोई कहता है कि मिट्टी कटुक ही है, तो उसका ऐसा कहना असत् व्याख्यान होगा, और यदि कोई यही गाठ बाप कर बैठ जाय कि मिट्टी में एक ही स्वाद होता है, और एक ही रग-रूप होता है, तो यह होगी अाग्रह की जडता। यद्यपि यह कथन तत्व के नाते सापेक्ष सत्या हो सकता है, तथापि गुण और पर्याय के नाते वह मिथ्या ही रहेगा।
यह हुई जड पदार्थ की वात । अब एक चेतन पुरुष के विपय मे भी विचार कर लीजिए, एक ही पुरुष के कितने नाते होते है ? वह किसी का पिता, किसी का पुत्र, किसी का भाई, किसी का पति, श्वसुर, देवर, जेठ, मामा, भागिनेय, दादा और पोता होता है । न जाने कितने सम्बन्धो का अम्बार उस पर लदा है ? परिवार के बाहर वह दुकानदार है, ग्राहक है, साहूकार है, देनदार है, गुरु है, शिष्य है, किसी सस्था का मत्री, कोषाध्यक्ष और सभापति है । न जाने क्या-क्या है ? इस प्रकार एक पुरुष अनेक रूपो मे हमारे समक्ष आता है। यद्यपि पितृत्व और पुत्रत्व आदि धर्म परस्पर विरोधी जान पड़ते है। मगर अपेक्षा भेद उस विरोध का मथन कर देता है। अनेकान्त की खूबी ही यह है कि प्रतीत होने वाले विरोध का वह निवारण कर दे ।
तो जिस प्रकार एक पुरुष मे परस्पर विरुद्ध से प्रतीत होने वाले