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सम्यग्ज्ञान
ससारी प्राणी ने अब तक कभी अपना अमूर्त स्वभाव प्राप्त नहीं किया है, और जब वह उसे प्राप्त कर लेता है तो फिर कभी कर्मबद्ध नहीं होता।
खनिज स्वर्ण का मिट्टी के साथ कव सयोग हुआ, नही कहा जा सकता। इसी प्रकार प्रात्मा के साथ पहले-पहल कव कर्मों का बन्ध हुआ, यह भी नही कहा जा सकता। इस सम्बन्ध मे जो कुछ कहा जा सकता है, वह यही कि इनका सम्बन्ध अनादिकालीन है।
जैसे चिकने पदार्थ पर रजकण आकर चिपक जाते ह, उसी प्रकार राग-द्वेष की चिकनाहट के कारण कर्म आत्मा से बद्ध हो जाते है ।
राग-द्वेष, मोह आदि जो विकृत भाव कर्मपुद्गलो के बन्ध मे कारण है, वे भाव बन्ध है, और कर्म पुद्गलो का आत्मप्रदेशो के साथ एकमेक होना द्रव्य बन्ध है।
पुद्गल की अनेक जातियो मे एक 'कार्मण' जाति है । इस जाति के पुद्गल सूक्ष्मतर रज के रूप मे सम्पूर्ण लोक मे व्याप्त है। जब आत्मा मे रागादि विभाव का आविर्भाव होता है, वह पुद्गल वही के आत्मप्रदेशो से बद्ध हो जाते है, जहाँ वे पहले से मौजूद थे। यही बन्ध का स्वरूप है। बन्ध के समय उन कर्मो मे चार बाते नियत होती है, जिनके कारण वन्ध के भी चार प्रकार' कहे जाते है।
गाय घास खाती है, और अपनी औदर्य यन्त्रप्रणाली द्वारा उसे दूध के रूप मे परिणत कर देती है। उस दूध मे चार बाते होती है -
१ दूध की प्रकृति (मधुरता) २ कालमर्यादा-दूध के विकृत न होने की एक अवधि। ३ मधुरता की तरमता, जैसे भैस के दूध की अपेक्षा कम,
और वकरी के दूध की अपेक्षा अधिक मधुरता होना आदि। ४ दूध का परिमाण सेर, दो सेर आदि । - इसी प्रकार कर्म मे एक विशेष प्रकार का स्वभाव उत्पन्न हो जाना प्रकृतिबन्ध है। कर्म के स्वभाव असख्य है, फिर भी उन्हे पाठ भागो मे विभक्त किया गया है, जिनका स्पप्टीकरण पृथक् परिच्छेद मे दिया गया है। स्वभाव-निर्माण के साथ ही उसके बद्ध रहने की काल अवधि भी निश्चित हो जाती है, जिसे स्थिति बन्ध कहते है । फल (रस) देने की तीव्रता अथवा
१ समवायांग, समवाय ४।