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जैन धर्म
मन्दता 'अनुभागबन्ध' या 'रस बन्ध' है, और कर्मप्रदेशों का समूह 'प्रदेश वन्व" कहलाता है ।
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इन चार बन्धो में से प्रकृतिवन्ध और प्रदेशवन्ध योगो की चचलता पर निर्भर होते हैं, अर्थात् कितने कर्मदल बन्ध, और उनमे किस प्रकार स्वभाव उत्पन्न हो, वह बात मानसिक, वाचिक और कायिक स्पन्दन के तारतम्य के अनुसार निश्चित होती है । कर्म कितने समय तक आत्मा के साथ वद्ध रहे, और कितना मन्द, मध्यम या उग्र फल प्रदान करे, यह नियति कषाय की तीव्रता - मन्दता पर ग्रवलम्वित है ।
मोक्ष - संवर द्वारा नवीन कर्मों का श्रागमन रुक जाने और निर्जरा द्वारा पूर्ववद्ध समस्त कर्मों के क्षीण हो जाने के फलस्वरूप आत्मा को पूर्ण निष्कर्म दशा प्राप्त हो जाती है । जब कर्म नही रहते तो कर्मजनित उपावियाँ भी नही रहती, और जीव अपने विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । यही जैनधर्म-सम्मत मोक्ष है ।
मुक्त दशा में आत्मा ग्रशरीर, ग्रनिन्द्रिय, अनन्त चैतन्यघन, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और अनन्त आत्मिक वीर्य से सम्पन्न हो जाता है । वह सब प्रकार की क्षुद्रताओं से प्रतीत विराट् स्वरूप की उपलब्धि है ।
विकार ही विकार को उत्पन्न करते हैं, जो आत्मा सर्वथा निर्विकार हो जाता है वह फिर कभी विकारमय नही होता । वह श्रास्रव और बन्ध केकारणो से सदा के लिए मुक्त हो जाता है । इसी कारण मुक्त दशा शाश्वतिकहै । मुक्तात्मा फिर कभी ससार मे अवतीर्ण नही होते वह जन्म-मरण से श्रात्यन्तिक निवृत्त है ।
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ग्रात्मा स्वभावत. ऊर्ध्वगतिशील है । जिस प्रकार मृत्तिका से लिप्ततूवा जल में छोड देने पर नीचे की ओर चला जाता है, और ठेठ पैदे पर जा टिकता है, किन्तु लेप गल जाने पर हल्का होकर पानी की सतह पर ना जाता है, और जैसे ग्रग्निशिखा स्वभावत. ऊर्ध्वगति करती है, उसी प्रकार आत्मा कर्मलेप से मुक्त होते ही स्वभावतः ऊर्ध्वगमन करती है ।
१ उत्तराध्ययन, अ० २९, सूत्र ७२ । २. उत्तराध्ययन, अ० ३६, गा० ६७ । ३ दशाश्रुतस्कघ, अ० ५, गा० १३ ।