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________________ सम्यग्ज्ञान ८२ संमारी प्राणी ने अब तक कागी अपना अमूर्त स्वभाव प्राप्त नहीं किया है और जब वह उसे प्राप्त कर लेता है तो फिर कभी कर्मवद्ध नहीं होता। खनिन स्वर्ण का गिट्टी के साय कब नयोग हुआ, नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार मात्मा के नाथ पहले-पहा कब कर्मों का बन्ध हुआ, यह भी नही कहा जा सकता। इस सम्बन्ध में जो कुछ कहा जा सकता है, वह यही कि इनका सम्बन्ध अनादिकालीन है। जैसे चिकने पदार्थ पर रजकण पाकर चिपक जाते है, उसी प्रकार राग-द्वेप की चिकनाट के कारण कर्म प्रात्मा से वद्ध हो जाते है । राग-द्वेप, मोह आदि जो विकृत भाव कर्मपुद्गलो के बन्ध मे कारण है, वे भाव वन्ध है, और कर्म पुद्गलो का आत्मप्रदेशो के साथ एकमेक होना न्य बन्ध है। पुद्गल की अनेक जातियो में एक 'कार्मण' जाति है । इस जानि के पुद्गल सूक्ष्मतर रज के रूप मे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है। जब प्रात्मा मे रागादि विभाव का आविर्भाव होता है, वह पुद्गल वही के आत्मप्रदेशो से बद्ध हो जाते है, जहाँ वे पहले से मौजूद थे। यही नन्ध का स्वरूप है। बन्ध के समय उन कर्मों में चार बाते नियत होती है, जिनके कारण बन्ध के भी चार प्रकार' कहे जाते है। गाय घाम खाती है, और अपनी प्रौदर्य यन्त्रप्रणाली द्वारा उसे दूध के रूप में परिणत कर देती है। उस दूध मे चार वाते होती है - १ दूध की प्रकृति (मधुरता) २ कालमर्यादा--दूध के विकृत न होने की एक अवधि। ३ मधुरता की तरमता, जैसे भैस के दूध की अपेक्षा कम, और बकरी के दूध की अपेक्षा अधिक मधुरता होना आदि। ४ दूध का परिमाण सेर, दो सेर आदि । इसी प्रकार कर्म में एक विशेष प्रकार का स्वभाव उत्पन्न हो जाना प्रकृतिवन्ध है। कर्म के स्वभाव असरय है, फिर भी उन्हे आठ भागो मे विभक्त किया गया है, जिनका स्पष्टीकरण पृथक् परिच्छेद मे दिया गया है। स्वभाव-निर्माण के साथ ही उसके बद्ध रहने की काल अवधि भी निश्चित हो जाती है, जिसे स्थिति बन्व कहते है । फल (रस) देने की तीव्रता अथवा १. समवायाग, समवाय ४॥
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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