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जैन धर्म
प्रमाणो का यह वर्गीकरण तर्कानुसारी होने पर भी प्रागमिक है । पश्चाद्वर्ती तार्किक प्राचार्यों ने प्रमाण का वर्गीकरण दूसरे प्रकार से किया है। उनके अनुसार प्रमाण दो प्रकार के है, प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष प्रमाण के भी दो भेद है --साव्यवहारिक प्रत्यक्ष, और पारमार्थिक प्रत्यक्ष' । परोक्ष प्रमाण पाच प्रकार का है -
१. स्मृति, २ प्रत्यभिज्ञान, ३. तर्क'४ अनुमान और ५ आगम ।
स्मरण रखना चाहिए कि इस वर्गीकरण मे भी पूर्वोक्त वर्गीकरण से कोई मौलिक या वस्तुगत पार्थक्य नही है। इसमे उपमान प्रमाण को पृथक स्थान नहीं देकर, प्रत्यभिज्ञान मे सम्मिलित कर लिया गया है ।
स्मरण, प्रत्यभिज्ञान और तर्क उस वर्गीकरण के अनुसार साव्यवहारिक प्रत्यक्ष के अन्तर्गत है।
नयवाद
१. नय स्वरूप --विश्व के समस्त दर्शनशास्त्र वस्तुतत्त्व की कसौटी के रूप मे प्रमाण को अगीकार करते है । किन्तु जैनदर्शन इस सम्बन्ध मे एक नयी सूझ देता है। उसकी मान्यता है कि प्रमाण अकेला वस्तुतत्त्व को परखने के लिए पर्याप्त नही है। वस्तु की ययार्थता का निर्णय प्रमाण और नय के द्वारा ही हो सकता है। जैनेतर दर्शन नय को स्वीकार न करने के कारण ही एकान्तवाद के समर्थक बन गये है, जव कि जैनदर्शन नयवाद को अगीकार करने से अनेकान्तवादी है।
प्रमाण वस्तु की समग्रता को, उसके अखण्ड एक रूप को विषय करता है । नय उसी वस्तु के अगो को, उसके खड-खड रूपो को जानता है ।
किसी भी वस्तु का पूरा और सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसका विश्लेषण करना अनिवार्य है। विश्लेपण के बिना उसका परिपूर्ण रूप नहा जाना जा सकता । तत्त्व का विश्लेषण करना और विश्लिप्ट स्वरूप को समझना नय की उपयोगिता है।
१. जैन न्याय तर्क सग्रह (यनोविजय) प्रमाण मन्ड ।
णमन्त।