________________
१२२
जैन धर्म है । जैनतत्त्व चिन्तको की उस विवेचन एवं विश्लेषण मे महत्त्वपूर्ण देन है । जैनशास्त्रो में लेश्या का जो विवेचन है, वह पुरातन कालीन मनोविज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण और मौलिक अध्याय है, जो आज के मानस-शास्त्रियो के लिए बड़ा रुचिकर और बोधप्रद है । लेश्या का यह विवेचन हजारो वर्ष पहले तव लिपिवद्ध हो चुका है, जब आज के मनोविज्ञान का जन्म ही नही हुआ था।
लेश्या-विचार मे यह देखा जाता है कि मानसिक वृत्तियो का कैसा वर्ण होता है ? मनोविचारो को कितने वर्गो मे वाटा जा सकता है । मनोविचारो का उद्गमस्थल क्या है ? उनमे वर्ण आता कहा से है ? आदि-आदि ।
__ मन के विचारो मे किसी-न-किसी प्रकार का वर्ण होता है, क्योकि मानसिक चचल लहरिया पुद्गलो से सम्मिश्रित होती है और पुद्गल मूर्त है । वैचारिक समूह का द्रव्य रूप पुदगलमय होता है । जैसे विचार वैसा वर्ण और जैसा-जैसा विचार वैसे-वैसे पुद्गल का आकर्षण ।
प्रतिक्षण परिवर्तित होने वाले मन के अध्यवसाय असख्य है। कभी वह शुद्ध शुभ्र श्वेत होते है, तो कभी एकदम काले और कभी मिश्रित होते है । जैनधर्म की परिभापा वे वह मानसिक, वाचिक और कायिक परिणमन 'लेश्या' कहलाते है । (ग्रावश्यक चूर्णी)
स्फटिक स्वरूपत. उज्ज्वल होता है, परन्तु उसके निकट जिस वर्ण के पुष्प रख दिए जाते है, स्फटिक उसी वर्ण का प्रतिभासित होने लगता है ।
आत्मा भी स्फटिक के समान ही उज्ज्वल और निर्मल है। मगर आत्मा के पास जिस वर्ण के परिणाम होगे, वह उसी वर्णवाली प्रतिभाति होने लगेगी।
यद्यपि साधारण तौर पर लेश्या का अर्थ मनोवृत्ति, विचार या तरंग हो सकता है, किन्तु आचार्यों ने कश्लेिष के कारण भूत शुभाशुभ परिणामों को ही लेश्या कहा है। कोई-कोई आचार्य उसे योग के अन्तर्गत स्वतत्र द्रव्य मानते है । मगर यह असदिग्ध है कि द्रव्य लेश्या पौद्गलिक है ।
लेश्याओ के वर्ण मन मे उठने वाले शुभाशुभ परिणामो के द्योतक है। यद्यपि परिणाम असंख्य है, अतएव उनके सूक्ष्म तारतम्य के आधार पर लेश्यानो के भी असख्य विकल्प हो सकते है, किन्तु उन्हे मोटे तौर पर छ. भागो मे विभक्त कर दिया गया है । इन छ. भागों की तरतमता दिखलाने के लिए एक जैनागम-प्रसिद्ध उदाहरण लीजिए :
छह पुरुप जामुन खाने चले । फलो से लदे जामुन वृक्ष को देखकर