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जैन धर्म की विशेषताएं
२४१ णीय होना चाहिए और अवगुणो के कारण अनादरणीय एव अप्रतिष्ठित होना चाहिए। इस मान्यता के पोपक जैनागमो के कुछ वाक्य ध्यान देने योग्य है
___ मस्तक मुडा लेने से ही कोई श्रमण नहीं हो जाता, प्रोकार का जाप करने ___ मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं बन सकता, अरण्यवास करने से ही कोई मुनि नही होता ___ और कुग-चीर के परिवानमात्र से कोई तपस्वी का पद नही पा सकता ।
(उनगध्ययन अ० २५ सूत्रकृताग १ श्रु०, अ० १३, गा० ६, १०, ११) ।
समभाव के कारण श्रमण, ब्रह्मचर्य का पालन करने से ब्राह्मण, जान की उपासना करने के कारण मुनि, और तपश्चर्या मे निग्त रहने वाला तापस कहा जा मकता है।
क्रर्म (आजीविका) से ब्राह्मण होता है. कर्म मे क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है, और कर्म मे शूद्र होता है।
मनुष्य-मनुष्य में जानि के आधार पर कोई पार्थक्य दृष्टिगोचर नहीं होता मगर तपस्या (मदाचार) के कारण अवश्य ही अन्तर दिखाई देता है।
(उत्तराध्ययन) इन उद्धरणो से स्पष्ट होगा कि जैन धर्म ने जन्गगत वर्णव्यवस्था एव जाति__ पाति की क्षुद्र भावनायो को प्रश्रय न देकर गुणो को ही मत्त्व प्रदान किया है।
इसी कारण जैन मघ ने मनुष्य-मात्र का वर्ण एव जाति का विचार न कगते हुए समान-भाव से स्वागत किया है। वह आत्मा और परमात्मा के बीच मे भी कोई अलव्य दीवार स्वीकार नहीं करता तो आत्मा-अात्मा और मनुप्य-मनुष्य के बीच कैमे स्वीकार कर सकता है।
अपरिग्रहवाद मसार का कोई भी धर्म परिग्रह को स्वर्ग या मोक्ष का कारण नही मानता है। किन्तु सब धर्म एक स्वर मे इसे हेय घोपित करते है। ईसाई धर्म की प्रसिद्ध पुस्तक बाइबिल का यह उल्लेख प्राय सभी जानते है कि -"सूई की नोक मे से ऊँट कदाचित् निकल जाय, परन्तु धनवान् स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर सकता।" परिग्रह की यह कडी-मे-कडी आलोचना है। इधर भारतीय धर्म भी परिग्रह को समस्त पापो का मूल और आत्मिक पतन का कारण कहते है। किन्तु जैन धर्म मे अपरिग्रह को व्यवहार्य रूप प्रदान करने की एक बहुत सुन्दर प्रणाली निर्दिष्ट की गई है।