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जैन धर्म
और धर्म का ह्रास होने पर उसका मनार में होता है। उस समय वह परमात्मा में प्रात्मा का रूप ग्रहण करता है। जैन श्रम अवतारवाद की उस मान्यता को स्वीकार नहीं करना । जैन धर्म प्रत्येक ग्रात्मा की परमात्मा बनने का अधिकार प्रदान करता है। और परमात्मा बनने का मार्ग भी प्रस्तुत करना है, किन्तु परमात्मा के पुन भावतरण का विरोध करता है। इस प्रकार हमारे समक्ष उच्च से उच्च जो आदर्श सभव है, उसकी उपलब्धि का ग्राश्वासन और पथप्रदर्शन जैनधर्म मे मिलता है। वह आत्मा के अनन्त विकास की सभावनायो को हमारे समक्ष उपस्थित करना है। जैन धर्म का यह प्रत्येक नर को नारायण, और भक्त को भगवान्, बनने का अधिकार देना ही उसकी मौलिक मान्यता है ।
गुणपूजा
जैनधर्म सदैव गुणपूजा का पक्षपाती रहा है। जाति, कुल, वंग गथवा बाह्य वेष के कारण वह किसी व्यक्ति की महत्ता ग्रगीकार नहीं करता । भारतवर्ष मे प्राचीन काल मे एक ऐसा वर्ग चला आता है जो वर्णव्यवस्था के नाम पर ग्रन्य वर्गों पर अपनी मत्ता स्थापित करने के लिए, तथा स्थापित की हुई मत्ता को
क्षुण्ण बनाये रखने के लिए एक ग्रखण्ड मानव जाति को अनेक खडों में विभक्त करता है। गुण और कर्म के आधार पर, समान की सुव्यवस्था का ध्यान रखते हुए विभाग किया जाना तो उचित है, जिसमे व्यक्ति के विकास को अधिक-सेare raकाश हो परन्तु जन्म के आधार पर किसी प्रकार का विभाग करना सर्वथा अनुचित है ।
" एक व्यक्ति दुशील, अज्ञान और प्रकृति मे तमोगुणी होने पर भी प्रमुक वर्ण वाले के घर मे जन्म लेने के कारण समाज मे पूज्य श्रादरणीय, प्रतिष्ठित श्रीर ऊँचा समझा जाय. और दूसरा व्यक्ति सुगील ज्ञानो और मनोगुणी होने पर भी केवल अमुक कुल में जन्म लेने के कारण नीच और, तिरस्करणीय माना जाय, यह व्यवस्था समाज-वातक है। इतना ही नहीं, ऐसा मानने से न केवल समाज के एक बहुसंख्यक भाग का ग्रपमान होता है । प्रत्युत यह गद्गुण और सदाचार का भी घोर अपमान है । इस व्यवस्था को अगीकार करने से दुराचार, सदाचार मे ऊँचा उठ जाता है, ग्रज्ञान, ज्ञान पर विजयी होता है और तमोगुण मतोगुण के मामने आदरास्पद बन जाता है । यही ऐसी स्थिति है जो गुणग्राहक विवेकी जनो को ना नही हो सकती ।" (निर्ग्रन्थ प्रवचन भाष्य, पृष्ठ २८६ )
अतएव जैन धर्म की मान्यता है कि गुणों के कारण, कोई शक्ति ग्रादर