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अतीत की झलक तत्पश्चात् अचेलक होकर विचरने लगे। सर्वथा वस्त्र रहित विचरण करने लगे। वे न तो पराए पात्र में भोजन करते थे, मानापमान का सर्वथा त्याग कर, स्वय भगवान् गृहस्थो के रसोईघर मे जाकर निर्दोप आहार की गवेपणा करते थे।
उपर्युक्त पाठ द्वारा प्रमाणित होता है कि भगवान् महावीर साधनावस्था में सर्वथा अचेल और उपकरण रहित थे, किन्तु भगवान् महावीर ने प्राचाराग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध मे साधुअो की वस्नैषणा मे वस्त्र रखने का स्पष्ट विधान किया है । प्राचाराग' मूत्र १४ अध्याय प्रथम उद्देशे में इसका स्पष्टीकरण मिलता है कि सा ऊन का, पान का, कपास और रूई का वस्त्र ग्रहण कर सकता है।
भगवान् द्वारा अचेलत्व की प्रशंसा लेकिन वस्त्र-विधान करने पर भी भगवान् महावीर आचाराग के छठे अध्याय के ३ उद्देशे मे अचेलक साधु की प्रशमा करते है और साधु के तीन मनोरयो मे पहला मनोरथ 'अचेल भयो आवई' के द्वारा अचेलक बनने की अोर साधु को उत्प्रेरित करते है। किन्तु, इन उद्धरणो से स्पष्ट अचेलकत्व का ऐकान्तिक आग्रह रखने वालो के लिए वस्त्र- विधान किया और अचेलकत्व को आदर्श रखा इससे ऐकान्तिक किसी भी सिद्धान्त सचेलकत्व व पूर्ण अचेलकत्व की पुष्टि नही होती है। इसलिए शास्त्र में पार्वापात्यिक परम्परा में से निकल कर महावीर संघ में सम्मिलित होने वाले साधु और स्थविरो का, जहा सभी परिवर्तनो का उल्लेख आता है, वहा पर उनका सचेलकत्व से अचेलकत्व की ओर आने का कोई निर्देश प्राप्त नहीं होता। जबकि उनके चारयाम के स्थान पर पाच महाव्रत और रात्रिदिवस के प्रतिक्रमण का स्पष्ट विधान किया गया है । हमने उपर्युक्त स्पष्टीकरण इसलिए आवश्यक समझा है कि श्वेताम्बर आम्नाय मे वस्त्र पर और दिगम्बर अाम्नाय मे अवस्त्र पर जोर दिया गया है। लेकिन भगवान् महावीर न सचेलकत्व और अचेलकत्व के आग्रही थे, न विरोधी ।
क्योकि भगवान् महावीर को वस्त्रविवाद मे कुछ रस नही था और न पारमार्थिक सिद्धि मे वस्त्रो का कुछ भी उपयोग वे मानते थे। उन्हे तो साधक के लिए अन्त शुद्धि की अधिकतम अपेक्षा थी। यही कारण है कि उस समय वस्त्रावस्त्र के विवाद को समन्वयात्मक दृष्टिकोण से सुलझा लिया गया , हा,