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जैन धर्म
भनेकान्त दृष्टि दर्शन शास्त्र का उद्देश्य शुद्ध सोध की उपलब्धि और उसके द्वारा समस्त बधनो से विमुक्ति पाना है। मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य मुक्ति है, क्योकि मुक्ति के विना शाश्वत बान्ति की प्राप्ति नही हो सकती। बोव मुक्ति का साधन है, मगर यह भी स्मरणीय है कि वह दुवारी खड्ग है । जान के साथ अगर नम्रता है, उदारता है, निप्पक्षता है, सात्विक जिज्ञासा है, सहिष्णुता है, तो ही जान, आत्मविकास का माधन बनता है। इसके विपरीत जान के साथ यदि उद्दडता, सकीर्णता, पक्षपान एव अमहिष्णुता उत्पन्न हो जाती है तो वह अध पतन का कारण बन जाता है। मानवीय दाबल्य से उत्पन्न यह अवाछनीय वृत्तियाँ अमृत को भी विष बना देती है।"
जैनधर्म ने उस कला का प्राविष्कार किया है, जो जान को विपाक्त बनने से रोकती है। वह कला जान को सत्य, गिव, और सुन्दर बनाती है, उम कला को जैनदर्शन ने अनेकान्तदप्टि का नाम दिया है, जिसका निरूपण पहले किया जा चुका है। यह दृष्टि पररपर विरोधी वादो का साधार समन्वय करने वाली, परिपूर्ण सत्य की प्रतिष्ठा करने वाली और बुद्धि मे उदारता, नम्रता, महिष्णुता और सात्त्विकता उत्पन्न करने वाती है। दार्शनिक जगत् के लिए यह एक महान् वरदान है।
___ अहिंसा मानव जाति को मामभक्षण की अवाछनीयता एव अनिप्टकरता समझा कर मासाहार से विमुख करने का सूत्रपात जैन धर्म ने ही किया है। समस्त धर्मों का आधारभूत और प्रमुख सिद्वान्त अहिंसा ही है। यह मन्तव्य बनाने का अवकाश जैन धर्म ने ही दिया है। जैनधर्म ने अहिसा को इतनी दृढता और सवलता के साथ अपनाया, और जैनाचार्यों ने अहिसा का स्वरूप इतनी प्रखरता के साथ निरूपण किया, कि धीरे-धीरे वह सभी धर्मों का अग बन गई। जैन धर्मोपदेगको की यदि मवये बड़ी एक सफलता मानी जाय, तो वह अहिंसा की साधना ही है। उनकी बदौलत ही ग्राज अहिंसा विश्वमान्य सिद्धान्त है। देश-काल के अनुसार उसकी विभिन्न गाग्वाएं प्रस्फुटित हो रही है। जैन धर्म की, अहिंसा के रूप मे एक महान् दन है, जिसे विश्व के मनीपी कभी भूल नही सकते।
यो तो भगवान् ऋपभदेव के युग मे ही अहिमा तत्त्व, प्रकाश में आ चुका था मगर जान पडता है कि मध्यकाल में पुन हिसा-वृत्ति उत्तेजित हो उठी।