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जैन धर्म
२ उपाधि-उगे जाने योग्य व्यक्ति के समीप जाने का विचार। ३. निकृति-छलने के अभिप्राय से अधिक सम्मान करना । ४ वलय-वक्रतापूर्ण वचन। ५. गहन-ठगने के विचार से अत्यन्त गूढ भाषण करना। ६ नूम-उगाई के उद्देश्य से निकृष्टतम कार्य करना। ७ कल्क-दूसरे को हिंसा के लिए उभारना । ८. कुरूप-निन्दित व्यवहार । ६. जिह्मता-ठगाई के लिए कार्य मन्द करना। १०. किल्विषिक-मॉडों की भाति कुचेष्टा करना। ११. आदरणता-अनिच्छित कार्य भी अपनाना । १२. गहनता-अपनी करतूत को छिपाने का प्रयल करना। १३. वचकता-ठगी। १४. प्रतिकुचनता-किसी के मरल रूप से कहे गये वचनो का खडन करना। १५ सातियोग-उत्तम वस्तु मे हीन वस्तु मिश्रित करना । यह सव माया की ही विभिन्न अवस्थाए है।
--भगवती, श० १२, अ० ५, पा० ४। ४ लोभ--मोहनीय कर्म के उदय से चित्त मे उत्पन्न होने वाली तृष्णा या लालसा लोभ कहलाती है। लोभ की सोलह अवस्थाएं होती हैं
१. लोभ-संग्रह करने की वृत्ति । २. इच्छा-अभिलाषा। ३. मूर्छा-तीव्रतम सग्रहवृत्ति । ४. काक्षा-प्राप्त करने की आशा। ५. गृद्धि-प्राप्त वस्तु मे आसक्ति होना। ६. तृष्णा-जोडने की इच्छा, वितरण की विरोधी वृत्ति । ७. मिथ्या-विषयो का ध्यान । ८. अभिध्या-निश्चय से डिग जाना। ६. आशसना-इष्टप्राप्ति की इच्छा करना। १०. प्रार्थना-अर्थ आदि की याचना। ११ लालपनता-चाटुकारिता। १२. कामागा-काम की इच्छा। १३. भोगाशा- भोग्य पदार्थों की इच्छा ।