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अतीत को सलक
इन उल्लेख ने भगवान् ऋषभदेव के जन्म की प्राचीनता का समर्थन होता
भ० रुपमदेव के पश्चात् चौवे प्रारे मे गेप २३ तीर्थकर हुए है, जिनमे भगवान महावीर पन्तिम थे।
प्रथम पीर अन्तिम तीर्थकर का कालिक अन्तर जैनशास्त्रो मे कोटि-कोटि सागर बतलाया गया है। नागर (प्रकाशवर्ष की तरह) सख्यातीत वर्षों के समूह की सजा है।
इस अवपिणी युग में जैनधर्म के प्रादि प्रणेता समाजस्रष्टा और नीतिनिर्माता भगवान् ऋषभदेव हुए है।
भगवान् ऋषभदेव
भूतकाल की बात है। भूतकाल भी इतना पुराना कि वहाँ इतिहास की पहच नहीं । उस समय इस भरतक्षेत्र में न धर्म था, न परिवार-प्रथा थी, न समाजव्यवस्था थी, न राज्यगासन था, न नीति और न कला का उद्भव हुआ था। उस समय की प्रजा वृक्षो के फलो पर अवलम्बित थी, जिन्हे कल्पवृक्ष की मंजा प्रदान की गई है। जैनगास्त्रो मे वह युगलकाल के नाम से प्रसिद्ध है, क्योकि मनुष्य का मनुप्य के साथ अगर कोई सम्पर्क था तो वह नर और नारी का ही था।
भगवान् ऋपभदेव के पिता महाराज नाभि ये जो इस काल के अन्तिम कुलकर ये। उनकी माता का नाम मरुदेवी था । युगलिक सभ्यता में ही उनका बाल्यकाल व्यतीत हुआ।
कालचक्र तेजी के साथ घूम रहा था। प्रकृति में आमूल परिवर्तन हो रहा था। मानवप्रकृति मे भोगलिप्सा का विकास हो रहा था। और भौतिक प्रकृति की फलदायिनी शक्ति का ह्रास हो रहा था। इस दोहरे परिवर्तन के कारण पहली वार अशान्ति का उद्भव हुआ। जो वृक्ष उस समय की प्रजा के जीवननिर्वाह के माधन थे, वे पर्याप्त फल नहीं देते थे और कृषिकर्म आदि से लोग अनभिज्ञ थे। इस परिस्थिति में एक भारी प्राण सकट आ उपस्थित हया। उस संकट का मामना करने के लिए युगानुकूल जो नूतन व्यवस्था की गई, उसने भोगभूमि को कर्मभूमि मे परिणत कर दिया ।
गुण-कर्म के आधार पर भ० ऋपभदेव ने मानवव्यवस्था की ओर कर्म