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मनोविज्ञान
११७ जैन तर्कशास्त्र मे इन्द्रियो की न्यूनाधिक संख्या का निरसन किया गया है, और भली-भाँति सिद्ध किया गया है कि यह पाँचो इन्द्रियाँ परस्पर कथचित् भिन्न-भिन्न है, और आत्मा के साथ भी इनका कथचिन् भेद और अभेद ही है ।।
पाचो इन्द्रिया दो-दो प्रकार की है '-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । इन्द्रियो का बाह्य पौद्गलिक रूप द्रव्येन्द्रिय कहलाता है, और आन्तरिक चिन्मय रूप भावेन्द्रिय।
द्रव्येन्द्रिय के भी दो भाग है २ 'निवृत्ति' अर्थात् इन्द्रियो की विविध आकार की रचना, और 'उपकरण' अर्थात् संवेदन मे सहायक स्वच्छ पुद्गलो की शक्ति । यो तो जैनाचार्यों ने इन्द्रियो के सम्बन्ध मे भी काफी गहन विचार प्रदर्शित किए है और निवृत्ति-इन्द्रिय का भी बाह्य निवृत्ति और प्रान्तरिक निवृत्ति के रूप में विश्लेपण किया है, परन्तु हम यहाँ उस गहराई में नहीं उतरना चाहते।
आत्मा की संवेदनात्मक शक्ति और सवेदना का व्यापार भावेन्द्रिय हैं, जिसे क्रमशः लब्धि और उपयोग का नाम दिया गया है। आवरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाली शक्ति लव्धि भावेन्द्रिय है, और उस शक्ति का व्यापृत होना उपयोगभावेन्द्रिय है।
नेत्र इन्द्रिय अन्य इन्द्रियो से कुछ भिन्न प्रकार की है। चार इन्द्रियाँ वाह्य पदार्थों के अर्थात् अपने-अपने विषय के ससर्ग से उत्तेजित होकर अपने ग्राह्य विषय को ग्रहण करती है, किन्तु नेत्र को ससर्ग की अावश्यकता नही होती। वह प्रकाश एव रग के आधार से ही सवेदन करती है । इस प्रकार चार इन्द्रियाँ 'प्राप्यकारी' और चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है ।
इन्द्रियो के विषय--"श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है। शब्द तीन प्रकार का माना गया है--जीव का गब्द, अजीव का शब्द और मिश्रशब्द ।
शब्द एक प्रकार के पुद्गल परमाणुप्रो का कार्य है। वह परमाणु
१. प्रज्ञापनासूत्र इन्द्रियपद १५वा । २ प्रज्ञापना, इन्द्रियपद १५वा । ३ प्रज्ञापना सूत्र, इन्द्रियपद, १५वा । ४ तत्वार्थ सूत्र, १११९ । ५ प्रज्ञापना सूत्र, इन्द्रियपद १११९ । ६ प्रज्ञापना सूत्र भाषापद १११९