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जन धम
आत्मा अपने स्वरूप से भ्रष्ट हो जाता है, मनोविज्ञान की भाषा में वह कषाय है । प्रवेश और लालसा की वृत्तिया कषाय को जन्म देती है । वह वृत्तियां भी अनेक प्रकार की है । मगर जैनधर्म में उन्हें चार भागो में बांटा गया है ।
भगवान् महावीर ने गौतम स्वामी से कहा - " हे गौतम! कपाय चार है
१ क्रोध, २ मान, ३ माया, ४. लोभ ।
जैनागमो मे इन कषायो का वैज्ञानिक पद्धति से विवेचन मिलता है ।
१ क्रोध -- क्रोध एक मानसिक किन्तु उत्तेजक सवेग है । उत्तेजित होते ही व्यक्ति भावाविष्ट हो जाता है, जिससे उसकी विचार क्षमता और तर्क शक्ति बहुत कुछ शिथिल हो जाती है । भावात्मक स्थिति में बढ़े हुए प्रवेश की वृत्ति युयुत्सा को जन्म देती है । युयुत्सा श्रमर्ष को और अमर्प श्राक्रमण को उत्पन्न करता है । क्रोध और भय मे यही प्रधान अन्तर है कि कोव के प्रवेश में आक्रमण का, और भय के प्रवेश मे ग्रात्म रक्षा का प्रयत्न होता है ।
क्रोध का प्रवेश होते ही शारीरिक स्थिति परिवर्तित हो जाती है । श्रामाशय की मयन क्रिया, रक्तचाप, हृदय की गति, औौर मस्तिष्क के ज्ञानतन्तुसव अव्यवस्थित हो जाते है, और भय के वढने पर ग्रामाशय काम करना ही वद कर देता है । मगर क्रोध में रक्त का वढना, हृदय का धड़कना और ज्ञानतन्तु का शन्य होना विशेष क्रियाए है । ग्रत भगवान् महावीर फरमाते है'क्रोध - चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला, उचित अनुचित का विवेक नष्ट कर देने वाला, प्रज्वलनरूप ग्रात्मा का परिणाम क्रोध कहलाता है ।'
क्रोध के नाना रूप होते हैं । उन्हें प्रदर्शित करने के लिए शास्त्र मे क्रोध के दस नाम गिनाये गए है - जो मोटे तौर पर समानार्थक होने पर भी क्रोध के भिन्न-भिन्न रूपो के निदर्शक है । वे यह है
१. क्रोध - सवेग की उत्तेजनात्मक अवस्था ।
२ कोप- क्रोध से उत्पन्न स्वभाव की चचलता ।
३. रोप- क्रोध का परिस्फुट रूप ।
४ दोप- स्वय पर या पर पर दोप थोपना ।
५ ग्रक्षमा-प्रपराध को क्षमा न करना - उग्रता ।
६. सज्वलन - वार-बार जलना, तिलमिलाना ।
७. कलह-जोर-जोर से बोल कर अनुचित भाषण करना ।