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मनोविज्ञान
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जैन धर्म मे कपाय और लेश्या का अत्यन्त सूक्ष्म विवेचन किया गया है, द्रव्य और भाव रूप से लेश्या और कपाय के वर्णन मे पास्परिक सामञ्जस्य इस प्रकार हो गया कि दोनो को पृथक् करना दुप्कर बन गया है। फिर भी उदाहरण के द्वारा जैनाचार्यों ने उसे इस प्रकार समझाया है कि जैसे पित्त के प्रकोप से कोष भडक उठता है उसी प्रकार लेश्या के द्रव्य, कषायो को उत्तेजित करते है । परिणामो, विचारो तथा मानसिक उद्वेगो को लेश्या द्वारा रग, गध, रम नया स्पर्श आदि सभी कुछ प्राप्त होता है। जैसे कृष्ण लेश्या में काजल जैमा रग होता है, नील लेण्या मे मोर की गर्दन जैसा नीला रग रहता है, कापोन लेश्या मे कबूतर जैमा, तेजोलेग्या मे मनुप्य रक्त जैसा, पद्म लेश्या मे चम्पा के फल जैसा, तथा शुक्ल लेश्या में चन्द्रमा जैसा रग रहता है । इसी प्रकार रसास्वाद मे भी अन्तर होता है। कृष्ण लेश्या वाले पुरुष को कडवी तूम्बी जैमा, नील वाले को मिर्च, कपोत वाले को दाडिम, तेजो वाले को पके हुए ग्राम, पद्म वाले को इक्षु रस, और शुक्ल लेण्या वाले को मिश्री जैसा आस्वाद अनुभव होता है। उसी प्रकार लेश्यानो में सुगध और दुर्गन्ध का भी सहभाव पाया जाता है। लेश्या के पुद्गलो का स्पर्श अप्रशस्त तीन का कर्कश, और प्रशस्त तीन का नवनीत जैसा कोमल होता है।
जैनाचार्यों ने लेश्या और कषाय द्वारा मनोमय वैचारिक जगत् का विलक्षण वर्णन किया है, आधुनिक विज्ञान मे जो रग विज्ञान के द्वारा मानसिक रुचि का परिज्ञान किया जाता है, किन्तु भगवान् महावीर ने तो लेश्यानो के सूक्ष्म विश्लेषण द्वारा हमारे अन्तर्जगत् का स्पष्ट चित्र खैच कर हमारे सामने रख दिया है। लेश्याप्रो के ज्ञान से जगत् अशुभ से शुभ की ओर प्रयाण करे यही सम्यग्ज्ञान का प्रयोजन है।
कषाय कषाय का अर्थ-कषाय जैनधर्म का एक पारिभाषिक शब्द है। यह 'कष' और 'पाय' इन दो शब्दो के मेल से बना है। कष का अर्थ है 'कर्म' अथवा 'जन्म-मरण' । जिससे कर्मो का आय या बन्धन होता है, अथवा जिससे जीव को पुन पुन जन्म-मरण के चक्र मे पड़ना पडता है, वह कषाय कहलाता है
जो मनोवृत्तिया आत्मा को कलुषित करने वाली है, जिनके प्रभाव से