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जैन धर्म
जन्म लेता है, तो कभी नरक का कीडा बन जाता है। इस दृष्टिकोण से
आत्मा अनित्य भी है। यहा नित्यताग्राही नय अगर अनिन्यताग्राही नय का विरोध न करे, उसके प्रति उपेक्षा रखे और सिर्फ अपने दृष्टिकोण के प्रतिपादन तक ही सीमित रहे तो वह सम्यकनय कहा जाएगा। इसके विपरीत, जब एक नय अपन दृष्टिकोग के प्रतिपादन के साथ दूसरे नयो के दृष्टिकोण का विरोध करता है तो ऐसा करनेवाला नय गिथ्यानय बन जाता है।
सरल शब्दो मे कहना चाहिए-कोई नय तभी तक सच्चा है, जब तक वह दूसरे को झूठा नही कहता । जव उसने दूसरे को जूठा कहा तो वह स्वय झूठा हो गया।
३. नयभेदः--कहा जा चुका है कि एक वस्तु मे अनन्त-अनन्त धर्म है और उसमे एक एक धर्म को ग्रहण करने वाला अभिप्राय नय कहलाता है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि जब धर्न अनन्न है तो नव भी अनन्त होने चाहिए। वास्तव मे ऐसा ही है। जगत् मे प्रचलित अभिप्राय या वचन-प्रयोग गणना म नही जा सकते तो उनको गहण करने वाले नयो की गगना भी सम्भव नही । इसीलिए जैनदर्शन कहता है -
'जावइया वयणपहा, तावइया चेव हुंति नयवाया।' अर्थात्-जितने वचन के पथ है, या वस्तु सम्बन्धी अभिप्राय है, उतने ही नय के प्रकार है।
फिर भी वर्गीकरण के सिद्धान्त का उपयोग किया जाय तो उन समस्त नयो को दो भागो मे वाटा जा सकता है ।
१ व्याथिकनय और २ पर्यायाथिक नय ।
मूल पदार्थ द्रव्य कहलाता है और उसकी विभिन्न और देशो और कालो मे होने वाली नाना अवस्थाए पर्याय कहलाती है। समस्त विचारो की प्रवृत्ति या तो द्रव्य के द्वारा या पर्याय के द्वारा होती है, अतएव मूलभूत दो ही है।
द्रव्य नित्य है, अतएव नित्यता को ग्रहण करनेवाला नय द्रव्याथिक नय कहलाता है।
- १ से कि तं गए ? सत्तमूलणया पण्णता अनुयोगहार नयद्वारम्,