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९. कर्मवाद
१५५-१७३
१. जैन दर्शन में कर्म का स्थान - कर्म के भेद (द्रव्यकर्म, भावकर्म ), कर्मबन्ध के दो मुख्य कारण, कर्मों का वर्गीकरण, कर्मो का स्वभाव (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म, अन्तरायकर्म ), कर्मक्षय से लाभ, पुनर्जन्म की प्रक्रिया |
१०. चारित्र और नीतिशास्त्र
१. द्विविध धर्म -- प्रगार धर्म, अनगार धर्म, २. व्रतविचारव्रत की परिभाषा, व्रत की आवश्यकता, ३. मूलभूतदोष -- हिंसा, सत्य, श्रदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, ४ गृहस्थ धर्म की पूर्व भूमिका - संघ का विभाजन, श्रावक पद का अधिकार, ५. गृहस्थ धर्म, ६. अणुव्रत - अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्या - णुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, परिग्रह-परिमाण अणुव्रत (गुणव्रत और शिक्षाव्रत ), ७. श्रावक के तीन प्रकार -- पाक्षिक, नैष्ठिक, साधक, ८. जीवन नीति, ६. जीवन का मूलाधार प्रहिसा, १०. मुनि धर्म, ११ पांच महाव्रत, १२. पाच समिति, १३. तीन गुप्ति, १४. अनाचीर्ण, १५. बारह भावनायें, १६. चार भावना, १७, दशविध धर्म, १८. निर्गन्थो के प्रकार, १६. आवश्यक क्रिया, २० साधना की कठोरता, २१ साघना का आधार, २२. मृत्युकला (सलेखनाव्रत ) ।
१७५-२१७
११. जैनधर्म की परम्परा
२१९-२३०
१. जैन सम्प्रदाय, २ भारत के आध्यात्मिक निर्माण मे जैनाचार्यों का योग, ३ राजाओं का योगदान, ४. मंत्री और सेनापति, ५. जैन धर्म का प्रसार ।
१२. जैनवर्स को विशेषताएँ
२३१-२४२
१. जैन धर्म की वैज्ञानिकता, २ सृष्टि रचना, ३ पृथ्वी का आधार, ४ स्थावर-जीव, ५ लोकोत्तर- ज्ञान, ६ अनेकान्त दृष्टि, ७. ग्रहिसा, ८ अवतारवाद ६ गुणपूजा, १०. अपरिग्रहवाद |