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सम्यग्ज्ञान
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से, विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करने से, क्षया आदि धर्मो का आचरण करने से, अन्त.करण मे विरक्ति जगाने से, कष्ट-सहिष्णुता और सम्यक् चारित्र का अनुष्ठान करने से होता है।
कोई भी साधक योग-क्रिया को सर्वथा निरुद्ध नही कर सकता। उठना, वैठना, खाना-पीना, सभाषण करना आदि जीवन के लिए अनिवार्य है। जैनगास्त्र इन प्रवृत्तियों की मनाही नही करता, परन्तु इन पर अकुश अवश्य लगाता है, और वह अकुग है विवेक का। साधक जो भी प्रवृत्ति करे, वह विवेकपूर्ण होनी चाहिए, उसमे विवेक की आत्मा बोलनी चाहिए, वह समस्त क्रियाए प्रास्रव है जिनके पीछे अविवेक काम करता है, इसके विपरीत विवेकपूर्ण की जाने वाली क्रियाये धर्म और संवरमय है ।
निर्जरा:-१ सवर नवीन पाने वाले कर्मों का निरोध है, परन्तु अकेला संवर मुक्ति के लिए पर्याप्त नही। नौका मे छिद्रो द्वारा पानी पाना आस्रव है। छिद्र वन्द करके पानी रोक देना संवर समझिए। मगर जो पानी या चुका है, उसका क्या हो? उसे धीरे-धीरे उलीचना पडेगा । बस, यही निर्जरा है। निर्जरा का अर्थ है-जर्जरित कर देना, झाड देना । पूर्वबद्ध कर्मों को झाड़ देना, पृथक् कर देना निर्जरा तत्त्व है। कर्मनिर्जरा के दो प्रकार है-- प्रौपक्रमिक और अनौपक्रमिक ।
परिपाक होने से पूर्व ही तप प्रयोग आदि किसी विशिष्ट साधना से, बलात्कर्मो को उदय मे लाकर झाड देना औपक्रमिक निर्जरा है। अपनी नियमअवधि पूर्ण होने पर स्वतः कर्मों का उदय मे पाना और फल देकर हट जाना अनौपक्रमिक निर्जरा है। इसका दूसरा नाम सविपाक निर्जरा है। यह प्रत्येक प्राणी को प्रतिक्षण होती रहती है । बन्ध और निर्जरा का प्रवाह अविराम गति से बढ़ रहा है, किन्तु साधक सवर द्वारा नवीन प्रास्रव को निरुद्ध कर, तपस्या द्वारा पुरातन कर्मो को क्षीण करता चलता है। वह अन्त मे पूर्णरूप से निष्कर्म बन जाता है।
मगर यह साधना सरल नही है। इसके लिए सभी पर पदार्थो मे
१. स्थानांग, स्था० ५, उ० १, सूत्र ४०९ । २. जहा महातलागस्स, उत्तराध्ययन, अ० ३०, गा० ५। ३ उत्तराध्ययन, अ० १३, गा० १६ । .