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________________ चारित्र योर नीतिशास्त्र द्विविध धर्म १ चारित्र का महत्त्व -- ज्ञान, दर्शन और चारित्र की त्रिवेणी धारा सीधी मुक्ति की ओर वही जा रही है किन्तु मानव अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार उसकी गहराई में प्रवेश करता है । उद्देश्य सिद्धि के सही पथ को पहचान लेना, ज्ञान की बात रही, और उस पर विश्वास प्रकट करना श्रद्धा की वात, किन्तु चलना तो अपनी-अपनी शक्ति पर ही निर्भर है । कोई मन्दगति से चल पाता है, किन्तु कोई तीव्रगति से चलने में समर्थ होता है | तीव्र चलने वाले को अपनी तमाम मनोवृत्तियो को केन्द्रित, इन्द्रियों को नियन्त्रित, तथा उपाधि को स्वल्प - स्वल्पतर करके भागना पडता है। यदि भागना सम्भव नही हो तो मन्द मन्द चलना सुविधानुसार भी हो सकता है । भगवान् महावीर ने यही तथ्य यो व्यक्त किया है- धम्मे दुविहे पण्णत्ते, तजहा - अगारवम्मे चेव, अणगार - धम्मे चैव । ठाणागसुत, स्था० २ | १. तत्वार्थ सूत्र, अ० १, सू० १ ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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