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१. स्वरूप :-जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान चैतन्यस्वरूप है। वह आत्मा का स्वाभाविक गुण है और इसलिए आत्मा से अभिन्न है । यद्यपि आत्मा और ज्ञान मे गुणी-गुण संबध है, तथापि गुणी और गुण मे जैन-दर्शन भेद नही मानता। अतएव प्रात्मा ज्ञानमय है । उस मे अनन्त ज्ञानशक्ति स्वभाव से ही विद्यमान है, किन्तु ज्ञानावरण कर्म से आच्छादित होने के कारण ज्ञान का पूर्ण प्रकाश नही होता । ज्यो-ज्यो आवरण हटता जाता है, ज्ञान प्रकाश बढता जाता है। जब आवरण पूर्ण रूप से नष्ट हो जाता है तो आत्मा का सर्वज्ञ रूप प्रकट हो जाता है।
कोई भी ज्ञान नेत्र की भाति केवल परप्रकाशक नही होता, और न स्वप्रकाशक ही जैनधर्म ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय की त्रिपुटी मे एकान्ततः पार्थक्य स्वीकार नहीं करता । प्रात्मा ज्ञाता तो है ही, अपने ज्ञान गुण से अभिन्न होने के कारण ज्ञान रूप भी है, और स्वय प्रतिभा सम्पन्न होने के कारण ज्ञेय भी है। इसी प्रकार ज्ञान वस्तु के बोध में कारण होने से ज्ञान है, और स्वप्रकाश्य होने से ज्ञेय भी है, और कर्तृत्व की विवक्षा से ज्ञान भी है।
१ "स्व पर प्रकाशकं ज्ञानम्", (जैनन्याय तर्क संग्रह)