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जैन धर्म पाच इन्द्रियो वाले होते है। नमार के समस्त जीव स और स्थावर विभागों में सम्मिलित हो जाते है।
मुनि दोनो प्रकार के जीवो की हिंसा का पूर्ण रूप से त्याग करते हैं। परन्तु गृहस्थ ऐसा नहीं कर सकते, अतएव उनके लिए स्थूल हिंसा के त्याग का विधान किया गया है । निरपराध त्रस जीव की संकल्पपूर्वक की जाने वाली हिंसा को ही गृहस्थ त्यागता है।
जैनगास्त्रो मे हिंसा चार प्रकार की वतलाई गई है।
१ प्रारम्भी हिंसा, २ उद्योगी हिंसा, ३ विरोधी हिना और ४ संकली हिंसा।
१. जीवन निर्वाह के लिए, आवश्यक भोजन-पान के लिए, और परिवार के पालन-पोषण के लिए अनिवार्य रूप से होने वाली हिसा प्रारम्भी हिसा है ।
२. गृहस्थ अपनी आजीविका चलाने के लिए, कृपि, गोपालन, व्यापार आदि उद्योग करता है और उन उद्योगो में हिसा की भावना त होने पर भी जो हिसा होती है, वह उद्यमी या उद्योगी हिसा कहलाली है।
३. अपने प्राणो की रक्षा के लिए, कुटम्ब-परिवार की रक्षा के लिए अथवा अाक्रमणकारी शत्रुनो से देश की रक्षा करने के लिए की जाने वाली हिसा विरोधी हिंसा है।
४. किसी निरपराध प्राणी की, जान-बूझ कर, मारने की भावना स हिसा करना संकल्पी हिसा है ।
चार प्रकार की इस हिसा मे गृहस्थ पहले व्रत मे सकल्पी हिंसा का त्याग करता है और शेष तीन प्रकार की हिसा मे यथाशक्ति त्याग करके अहिंसा व्रत का पालन करता है।
अहिसा व्रत का शुद्ध रूप से पालन करने के लिए पाच दोपो से बचते रहना चाहिए।
१. किसी जीव को मारना, पीटना, त्रास देना, २. किसी का अगभग करना, अपग बनाना, विरूप करना। ३ किसी को वन्वन मे डालना, यथा-तोते के पीजरे मे वन्द करना, कुत्तो
१. प्रश्न व्याकरण आश्रव द्वार, २. उपासक दशांग अ० १।