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जैन धर्म परमपावनी त्रिवेणी है। जिसमे स्नान करने वाला साधक निर्मल, निर्विकार और निष्कलुष बन जाता है।
जीवन शोधन और मुक्ति लाभ के लक्ष्य की उपलब्धि के लिए अग्रसर होने वाले साधक के जीवन मे ज्ञान, आलोक, परमसत्य की श्रद्धा एवं इन दोनो से प्रेरित प्रवृत्ति, व्यवस्थित रूप से कार्य करती है, जो इस त्रिपुटी' का अवलम्बन लेता है, वही ससार मे सच्चा आध्यात्मिक यात्री है, मुमुक्षु है और वही अन्त में चरमसीमा का अात्मविकास प्राप्त कर सकता है।
आर्यावर्त के सभी आस्तिक धर्मो का उद्देश्य अन्तत मुक्तिलाभ करना है, फिर चाहे उसे परमतत्व की उपलब्धि कहा जाय, चरमपुरुषार्थ की प्राप्ति कहा जाय, मुक्ति या सिद्धि कहा जाय अथवा ब्रह्मलाभ आदि कुछ और कहा जाय । जैनधर्म प्रत्येक आत्मा मे ईश्वरीय गुणो की सत्ता को दृढतापूर्वक स्वीकार करता है, और उन गुणो की स्वाभाविक अभिव्यजना को ही मुक्ति या सिद्धि मानता है। सिद्धिलाभ के लिए वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र की त्रिपुटी की अनिवार्यता स्वीकार करता है और स्पष्ट शब्दो मे घोषणा करता है कि ज्ञान विहीन: कोई भी कर्मकाण्ड क्रियाकलाप तप, जप, काम-क्लेश, देहदमन आदि जैसे उद्देश्य की सिद्धि नही हो सकती, उसी प्रकार क्रियाहीन ज्ञान से भी लक्ष्य की प्राप्ति नही हो सकती। परमात्मदशा प्राप्त करने का एकमात्र मार्ग तीनो का जीवन मे समन्वय होना ही है ।
वस्तुत ज्ञान और विश्वास का सार शुद्धाचार है। मानव-जीवन मे चारित्र का सर्वाधिक महत्व है। जीवन की ऊचाई उसके कोरे ज्ञान या विश्वास से नही आकी जा सकती। दिव्यता की ओर होने वाली यात्रा का मुख्य मापदण्ड चारित्र ही है। यही क्यो, दैनिक जीवन व्यवहार में भी हम देखते है कि विश्वास और जान जब तक मनुष्य के जीवन में साकार नही हो जाते तव तक मनुष्य किसी भी सांसारिक उद्देश्य में सफलता प्राप्त नही कर सकता।
संसार एक अनन्त अविराम प्रवाह है, तो क्या जीव उसमे पाषाणखंड की भाँति बहता लुढकता और टक्करे खाता ही रहेगा? क्या मानव को इस
१ तिविधै सम्मे पण्णत्ते, तंजहा, नाण सम्मे, दसण सम्मे चारित्तसम्मे।
--स्थानांग, स्था० ३, उ० ४, सू० १९४ २ निब्बाण सेना जह सव्वधम्मा, --सूत्रकृताग, अ० ६, गा० ३ नाणेन विनान हुँतिचरण गुणा, -उत्तराध्ययन, अ० २८, गा०