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________________ मुक्ति मार्ग ४ मिथ्यादृष्टियो की प्रशसा, और ५. मिथ्यादृष्टियो का घनिष्ठ परिचय । मुक्ति की साधना का मूल सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन से ही आध्यात्मिक विकास प्रारभ होता है । यह स्वाभाविक है कि जब तक लक्ष्य शुद्ध न हो, और दृष्टि निर्दोष न बन जाय, तब तक मनुष्य की सारी जानकारी और उसके आधार पर किया जाने वाला प्रयास, सफल नहीं होता । इसी के कारण सम्यगदर्शन मुक्ति का प्रथम सोपान माना गया है। जब अन्तःकरण में सम्यग्दर्शन की ज्योति प्रकाशमान होती है तो अनादिकालीन अन्धकार सहसा विलीन हो जाता है, और समग्र तत्व अपने वास्तविक रूप मे उद्भासित होने लगते है। तभी आत्मा के प्रति प्रगाढ रुचि का आविर्भाव होता है, और सासारिक भोग नीरस प्रतीत होने लगते है। यह शुद्ध-दृष्टि के लिए मुक्ति का द्वार खोल देती है । सम्यग्दृष्टि जीवन मे प्रशम, सवेग, निर्वेद (विरक्ति), अनुकम्पा और आस्तिक्य की पचपुटी भावना आविर्भूत हो जाती है। वह सब प्रकार की मूढतानो से ऊपर उठ जाता है । और शुद्ध मुक्तिमार्ग को पहचान लेता है । सम्यग्दर्शन के आठ अंग जैसे शरीर अपने अगोपागो मे समाहित है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन भी अपने अगो मे समाहितहै । सम्यग्दर्शन के आठ अग है, और उनका स्वरूप समझने से सम्यग्दर्शन का स्वरूप समझ मे आ जाता है। उन अगो का सक्षिप्त परिचय इस प्रकार है १ नि शकित' वीतराग और सर्वज परमात्मा के वचन कदापि मिथ्या नही हो सकते। कपाय अथवा अज्ञान के कारण ही मिथ्या भाषण होता है। जो निकषाय, वीतराग और सर्वज्ञ होने के कारण पूर्णजानी है, उनके वचन सत्य ही होते है । इस प्रकार वीतराग वचन पर दृढ श्रद्धा होना, नि शकित अंग है। २ नि काक्षित ----किसी प्रकार के प्रलोभन मे पडकर परमत की अथवा सासारिक सुखो की अभिलाषा करना, काक्षा है । काक्षा न होना, नि काक्षित धर्म है। १. "निस्संकोय" --उत्तराध्ययन, अ० २८, गा० ३१
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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