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________________ जैन धर्म वीरयक्ष संजय, एणेयक, सेय, शिव, उदयन तथा शंख, इन आठ समकालीन राजानो ने प्रव्रज्या ग्रहण की थी। अभय कुमार, मेघकुमार आदि अनेक राजकुमारो ने प्रभु का शिष्यत्व स्वीकार किया। स्कन्धक प्रभृति अनेक तापस तपस्या का रहस्य जानकर भगवान की गरण मे आये, राजकुमारी चन्दनवाला, देवानन्दा अादि छत्तीस हजार नाग्यिा माध्वी-सघ मे प्रविष्ट हुई। भगवान् के गृहस्थ अनुयायियो मे मगधाधिपति श्रेणिक, कूणिक (अजातशत्रु), वैशालीपति चेटक (महावीर के मामा), अवंतीपति चण्डप्रद्योत आदि अनेक भूपति थे । आनन्द, काम देव आदि लाखो श्रावक थे, जिनमे शकटाल जैसे धर्मनिष्ठ कुंभार भी सम्मिलित थे। हरिकेगी और मेतार्य जैसे अतिशूद्र भी भगवान् के सघ मे सावुपद प्राप्त कर सके थे। कहना न होगा कि उस जमाने मे यह एक जवर्दस्त क्रान्ति थी। अब तक के ज्ञात इतिहास मे भगवान् महावीर ही प्रथम महापुरुष है, जिन्होने अस्पृश्यता के विरुद्ध तीन और सष्ट स्वर मे अावाज उठाई और अस्पृश्यो को अपने मघ मे उच्च पद प्रदान किया। महावीर की देन १ जाति-पॉति की भेदभाव भरी दरारो को दूर कर मानव समाज के लिए मार्वभौमिक एव सर्वसुलभ धर्मव्यवस्था स्थापित करना । ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र, क्षत्रिय वर्णों का अभिमान आदि बुराइयो को मिटाकर गुण विकास की पोर मानव-जाति को उन्मुख करना ही महावीर का अधिक लक्ष्य रहा है। २ विगट विश्व मे सचराचर (जगम एवं स्थावर) समस्त प्राणीवर्ग मे एक शाश्वत स्वभाव है और वह है जीवन की प्राकांक्षा, सुख की गोध, महान् बनने की उत्प्रेरणा और परमानन्द प्राप्त करने की उद्भावना । इसलिए किमी को "मा हणो" न कप्ट ही पहुँचायो और न किसी अत्याचारी को प्रोत्माहन ही दो। ३ याचार मे अहिंगा, बुद्धि मे समन्वय और व्यवहार में अपरिग्रह का आदर्ग नाकार करो। ४ आत्मा का स्वभाव ही धर्म है और विभाव ही प्रवर्म है, यही गण है कि भगवान् ने पुरुपो की तरह स्त्रियो के भी विकाम के लिए पूर्ण जनता प्रदान की है।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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