Book Title: Gagar me Sagar
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwww B0000 ०७ गागर Deli 0000ODO Educ Spenti में सागर देवेन्द्र मुनि शास्त्री Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तारक गुरु जैन अन्यमाला पुष्य १९६ गागर में सागर लेखक उपाध्याय राजस्थानकेसरी अध्यात्मयोगी श्री पुष्करमुनि जी म० के सुशिष्य देवेन्द्र मुनि शास्त्री प्रकाशक श्री तारक मुरुजन ग्रन्यालय शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राज.) Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय राजस्थानकेसरी अध्यात्मयोगी श्री पुष्कर मुनिजी म० की दीक्षा स्वर्ण-जयन्ती समारोह पर प्रकाशित पुस्तक गागर में सागर लेखक देवेन्द्र मुनि शास्त्री प्रकाशक श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राजस्थान) पिन ३१३ ००१ प्रथम संस्करण .. सन् १९७९ अक्टूबर विजय दशमी मूल्य: तीन रुपये मात्र मुद्रक प्रकाश कम्पोजिम हाउस के लिए प्रवीन प्रिन्टर्स, नौबस्ता, आगरा. Jain Education InteFoatonate & Personal User@rainelibrary.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •**** उदार अर्थ सहयोगी **** धर्मानुरागिणी अखण्ड सौभाग्यवती श्रीमती श्री राजदेवी धर्मपत्नी-श्री नोरातारामजी जैन नरवाना NORATARAM BHIMSAIN 66, 2nd Main Road, New Tharagupet BANGALORE-560 002 .***********************. प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन में आपका उदार अर्थ सहयोग प्राप्त हुआ एतदर्थ बहुत-बहुत धन्यवाद Jain Education Intefpatronate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intefloatonate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिनका दिव्य-भव्य ज्ञानदर्शन और चारित्र जन-जन के लिए पथ प्रदर्शक है। जिनकी अमोघवाणी पतितों का उद्धार करने में पूर्ण समर्थ है। जो संयम-सत्य शील व प्रज्ञा की साक्षात् प्रतिमा है। उन्हीं परम श्रद्ध य सद्गुरुवर्य राजस्थानकेसरी अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी जी म० के पवित्र कर कमलों में सश्रद्धा, सविनय सभक्ति समर्पित -देवेन्द्र मुनि Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intefloatonate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय साहित्य की सर्वमान्य परिभाषा-"हितेन सहितं साहित्यं" के अनुसार जो हित से, कल्याण व उत्थान की भावना से युक्त है, वही साहित्य हैं। हमारे ग्रन्थालय ने मानव मात्र के हित एवं कल्याण की भावना से दर्शन, इतिहास, चरित्र, काव्य तथा कथासाहित्य आदि विविध विधाओं में अब तक लगभग ११० से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन किया है । सभी पुस्तकें जनता के लिए उपयोगी व लाभदायी सिद्ध हुई हैं। । पिछले तीन वर्ष में जैन कथा साहित्य की लगभग ६० से अधिक पुस्तकें पाठकों की सेवा में हमने भेंट की । इसी के साथ कुछ पाठकों की मांग आयी कि विश्व साहित्य की ऐसी हजारों कहानियाँ, संस्मरण-घटनाएँ भी बड़ी रोचक व शिक्षाप्रद हैं, जो जैन कथा साहित्य के उद्देश्य के निकट ही नहीं, बल्कि पूरक भी हैं। ऐसी कहानियाँ भी संकलित कर प्रकाशित की जाये तो उपयोगी होंगी। . समर्थ साहित्यकार श्रीदेवेन्द्र मुनिजी शास्त्री ने पाठकों व जिज्ञासुओं की इस भावना को लक्ष्य में रखकर सैकड़ों लघु कथाओं का चयन किया है। जिन्हें हम स्वतन्त्र रूप में पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। ..... . -मन्त्री Jain Education Internationate & Personal Ubev@ņainelibrary.org Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की कलम से साहित्य जीवन का अभिनव आलोक है। वह भूले-भटके जीवन साथियों के लिए सच्चा पथ-प्रदर्शक है । मुझे दार्शनिक, ऐतिहासिक, साँस्कृतिक साहित्य के प्रति जितनी रुचि रही है, उसी प्रकार कथा व रूपक साहित्य के प्रति भी रुचि रही है। जब कभी भी अनुसन्धानपरक शोधप्रधान साहित्य लिखते समय मुझे थकान का अनुभव होता है तो उस समय मैं कथासाहित्य लिखता हूँ या पढ़ता हूँ जिससे थकान मिटकर नई ताजगी का अनुभव होता है । दक्षिण भारत की विहार यात्रा करते समय पर ही नहीं, मस्तिष्क भी थकान का अनुभव करता रहा । प्रतिदिन की विहार यात्रा में मैंने कथा-साहित्य लिखने का निश्चय किया। मेरा यह प्रयोग बहुत ही उपयोगी सिद्ध हआ। जैन-कथाएँ के सम्पादन के अतिरिक्त अन्य अनेक कथाओं की पुस्तक भी लिख गया जो पाठकों के समक्ष हैं। कथा-साहित्य के अनुशीलन-परिशीलन से मेरे अन्तर्मानस में ये विचार सुदृढ़ हो चुके हैं कि मानव के व्यक्तित्व और कृतित्व के विकास के लिए, उसके पवित्र-चरित्र के निर्माण के लिए कथा-साहित्य अत्यन्त उपयोगी है। कथा-साहित्य की सुमधुर शैली मानव के अन्तर्मानस को सहज रूप से प्रभावित Jain Education Internationate & Personal Usevorajnelibrary.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) करती है, प्रभावित ही नहीं करती, पर बाद में उसके मानस पर ऐसी अमिट छाप छोड़ देती है जो वर्षों तक अपना असर दिखाती है । यह एक ज्वलंत सत्य है कि यदि उत्तम व श्रेष्ठ कथा साहित्य पढ़ने को दिया जाय तो उसके मन में उत्तम संस्कार अंकित होते हैं । यदि बाजारु घासलेटी - साहित्य पढ़ा गया तो उससे बुरे संस्कार अपना असर दिखाते हैं। मुझे लिखते हुए हार्दिक खेद होता है कि आधुनिक उपन्यास व कहानी जिसमें रहस्य-रोमांस, मारधाड़ और अपराधी मनोवृत्तियों का नग्न चित्रण हो रहा है, वह भारत की भावी पीढ़ी को किस गहन अन्धकार के महागर्त में धकेलेगा यह कहा नहीं जा सकता । आज किशोर युवक और युवतियों में उस घासलेटी सस्ते साहित्य पढ़ने के कारण उनके अन्तर्मानस को वासना के काले नाग फन फैलाकर डस रहे हैं, जिनका जहर उन्हें बुरी तरह से परेशान कर रहा है। उनका मेरी दृष्टि से उस जहर की उपशान्ति का एक उपाय है और वह है उन युवक और युवतियाँ को घासलेटी साहित्य के स्थान पर स्वस्थ मनोरंजक श्रेष्ठ साहित्य दिया जाय । प्राचीन ऋषि महर्षि, मुनि व साहित्य-मनीषी उत्तम साहित्य के निर्माण हेतु अपना जीवन ख़पा कर श्रेष्ठतम साहित्य देते रहे हैं । मेरा भी वह लक्ष्य है । मैं भी कथा - रूपक व उत्तम उपन्यास के माध्यम से जनजन के मन में संयम और सदाचार की प्रतिष्ठा करना चाहता te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( } 1 न्यायनीति, सभ्यता, संस्कृति का विकास करना चाहता हूँ। मेरा यह स्पष्ट मत है कि साहित्य साहित्य के लिए नहीं अपितु जीवन के लिए है । जो साहित्य जीवनोत्थान की पवित्र प्रेरणा नहीं देता वह साहित्य नहीं है वह तो एक प्रकार का कूड़ा-कचरा है । मैंने पूर्व भी इस दृष्टि से कथा - साहित्य की विधा में अनेक पुस्तकें लिखी थीं और ये पुस्तकें भी इसी दृष्टि से लिखी गई है । अपने इस लक्ष्य की पूर्ति के प्रेरणा स्रोत, मेरे गुरुदेव अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी महाराज के असीम उपकार को मैं ससीम शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता । श्री रमेश मुनि जी, श्री राजेन्द्र मुनि जी और श्री दिनेश मुनि जी प्रभृति मुनिवृन्द की सेवा सुश्रूषा को भी भुलाया नहीं जा सकता जिनके हार्दिक सहयोग से ही साहित्यिक कार्य करने में सुविधा रही है, मैं उन्हें साधुवाद प्रदान करता हूँ और आशा करता हूँ कि भविष्य में भी उनका इसी प्रकार मधुर सहयोग सदा मिलता रहेगा। श्री 'सरस' जी ने प्रेस की दृष्टि से पुस्तकों को अधिक से अधिक सुन्दर बनाने का प्रयास किया है वह भी सदा स्मृतिपटल पर चमकता रहेगा । २६-४-७६ - देवेन्द्र मुनि जैन स्थानक हैदराबाद (आंध्र ) 1 te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम १. धर्म से घृणा क्यों २. क्रोध-चण्डाल ३. साधक और सेवक ४. मन की शक्ति ५. तुम नाराज के अयोग्य हो ६. अद्वैत का रहस्य ७. बैल और गधा ८. जितना काम उतना दाम ६. दुःख का मूल-ममता १०. परमात्मा के दर्शन ११. मोक्ष का अधिकारी १२. कला का मर्म १३. नैतिकता और राजाज्ञा १४. मित्र के लिए त्याग १५. जैसा संग वैसा रंग १६. अत्याचार क्यों १७. गुरु का गौरव १८. सचाई १६. पाप की स्मृति Jain Education Internatiroinedte & Personal UssVDnaynelibrary.org Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) २०. छाता किस काम का २१. अद्भुत कलाकार २२. आत्मज्ञान २३. अपना निर्माण २४. अनूठी विशेषता २५. साहस २६. भारतीय संस्कृति २७. श्रेष्ठ शासन का रहस्य २८. कहाँ से सीखा २६. रिश्वत नहीं लूंगा ३०. न्याय का गला न घोंटे ३१. श्रेष्ठ पुत्र ३२. महामानव ३३. भाषण कला ३४. सच्चा मानव ३५. प्रशंसा-पतन का मार्ग ३६. धैर्य की महत्ता ३७. देश का हित ३८. मुर्दो से वातालाप ३६. प्रामाणिकता ४०. पराई-वस्तु ४१. बोलना कम सोचना अधिक ७८ Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ७. Wa ९८ १०० १०२ १०४ ४२. सुनें अधिक और बोर्ले कम ४३. मौन की महत्ता ४४. आदर्श पत्नीव्रत ४५. उदारता ४६. देश प्रेम ४७. प्राणोत्सर्ग ४८. तृष्णा ४६. पुरस्कार नहीं ले सकता ५०. सत्य नहीं-झूठ ५१. छल ५२. चिन्ता ५३. अपने आपको परखो ५४. चातुर्य ५५, बुद्धिमान बनिया ५६. बुद्धिमान पुत्र ५७. प्रेरणा स्रोत ५८. आत्मवत् सर्वभूतेषु ५६. परिश्रम ही सच्चा विद्यालय ६०. गलतियों का परिष्कार ६१. उपदेश का प्रभाव ६२. राष्ट्रहित ६३. वस्तु एक, नाम अनेक १०६ १०८ १०६ १११ ११३ ११५ ११७ १२० १२२ १२४ Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) ६४. सेनापति का अनुशालनपालन ६५. नेहरू जी की उदारता ६६. नींव का पत्थर ६७. असुर और ससुर ६८. पराधीनता का कारण ६६. सेठ की बुद्धिमानी ७०. समझ का फेर ७१. क्षणों का सदुपयोग ७२. हृदय परिवर्तन ७३. न्यायपरायणता ७४. पढ़ना और गुनना ७५. ईमानदार राजभक्त ७६. सलाह नहीं, सहयोग ७७. करुणा ७८. अनूठा उपाय ७६. सच्चा स्नेह ८० अहंकार और प्रदर्शन ८१. सफलता का मूल्यांकन 0 O १२६ १२७ १२६ १३१ १३३ १३४ १३६ १३८ १४० १४३ १४६ १४८ १५१ १५३ १५६ १५६ १६१ १६३ te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म से घृणा क्यों? एक स्थान पर सर्वधर्म सम्मेलन था। सभी धार्मिक नेता अपने धर्म की प्रशंसा और दूसरे धर्म की निन्दा कर रहे थे। मैंने देखा वह धर्म सम्मेलन एक प्रकार से धर्म का अखाड़ा बन चुका था। जब मुझे बोलने के लिए कहा गया तब मैंने कहा-एक व्यक्ति के मकान में आग लग गई है। आग बुझाने के लिए अनेक टोलियाँ वहाँ आ रही हैं। एक टोली कहे कि हम आग बुझा सकते हैं। दूसरी कहे कि वह नहीं, हम बुझा सकते हैं । इस प्रकार आग न बुझाकर परस्पर लड़ती रहें तो वह मकान देखते ही देखते जलकर भस्म हो जायेगा। यही स्थिति आज हमारी है। प्रत्येक धर्म वाला अपने धर्म की प्रशंसा करता है, प्रशंसा के साथ ही वह . Jain Education Internationate & Personal Usevwnanelibrary.orge Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गागर में सागर दूसरे धर्म की निन्दा भी करता है, उनके धर्मग्रन्थों के प्रति मलतफहमी भी पैदा करने का प्रयास करता है। इस प्रकार हम आग न बुझाकर आग लगाने का प्रयास करते हैं जिससे धार्मिक व्यक्तियों से ही आज का युवकें षणा कर रहा है। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ आचार्य रामानुज एक बार मन्दिर की परिक्रमा कर रहे थे। एक चाण्डाल स्त्री उनके सामने आ गई। चाण्डाल स्त्री को देखते ही आचार्य जी के पैर वहीं ठिठक गये। परिक्रमा करते हुए जो पाठ वे कर रहे थे उसे विस्मृत होकर उनके मुंह से अपशब्द निकल पड़े। दूर हट चाण्डालिन ! मेरे मार्ग को अपवित्र न कर । चाण्डालिन वहीं पर खड़ी हो गई। वह अपने वचनों में मिश्री घोलते हुए बोली-भगवन् ! कृपा कर बताइए, मैं अपनी अपवित्रता किधर ले जाऊं? . उसकी विनम्रता ने रामानुज के विवेक की आँख खोल दी। रामानुज उससे क्षमा मांगते हुए बोलेमां! तुम वस्तुतः परम पावन हो । मेरे में रहे हुए क्रोध चाण्डाल ने ही तुम्हारा भयंकर अपराध किया है, तुम मझे क्षमा करो। te & Personal Ubav@jainelibrary.o123 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधक और सेवक श्रावस्ती के पास ही अचिरवती नदी कल-कल छल-छल बह रही थी। प्रकृति की उस सूरम्य गोद में एक आश्रम था, उसमें पांच सौ साधक थे जो सदैव प्रशान्त व ध्यान में तल्लीन रहते थे। उन साधकों की सेवा के लिए पांच सौ सेवक थे, जो इतना कोलाहल करते थे कि सुनने वाले परेशान हो जाते थे। किसी जिज्ञासु ने तथागत बुद्ध से इस वैषम्य का कारण पूछा तो बुद्ध ने एक उदाहरण देते हुए कहा वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त विजय-वैजयन्ती फहराकर जब वाराणसी पुनः लौटे तो उन्होंने अपने अनुचरों को आदेश दिया कि वे सैन्धव अश्वों को पर्याप्त मात्रा में अंगूर का रस पिलाएं। अनुचरों ने उसी क्षण अंगूर का रस उन्हें पिलाया किन्तु वे घोड़े किञ्चित् मात्र भी उन्मत नहीं हुए। उस रस में से Jain Education Interfoa tromate & Personal Ubev@nainelibrary.org Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधक और सेवक थोड़ा-सा रस भारवाही गधों को पिलाया गया तो वे उन्मत्त होकर रेंकने लगे, इधर-उधर भागने लगे। - ब्रह्मदत्त ने अमात्य से इस वैषम्य का कारण पूछा। अमात्य ने कहा-जो अनुशासित है उनके लिए द्राक्षारस रसायन है किन्तु जो स्वभाव से ही उद्धत हैं, दुःशील हैं वे यत्किञ्चित् भी उत्तेजना पाते ही उन्मत्त हो जाते हैं। ___ अपनी बात का उपसंहार करते हुए बुद्ध ने कहाजो साधक हैं वे तो अनुशासित सैन्धव घोड़े के समान हैं, और जो सेवक हैं वे उन गधों के समान हैं। यही साधक और सेवक में अन्तर है। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrainelibrary.org Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४: मन की शान्ति जोशुआ लेबमेन जब युवक थे उस समय उन्होंने जीवन की सफलता के लिए जिन बातों की आवश्यकता है, उनकी एक सूची बनाई । उसमें लिखा- स्वास्थ्य, : सुयश, सम्पदा और शक्ति ये चार बातें मेरी दृष्टि से मुख्य हैं । वर्षों तक वे इन चारों के पीछे लगे रहे किन्तु जैसी चाहिए वैसी सफलता प्राप्त न हो सकी । उन्होंने अनुभवी चिन्तक से एक दिन पूछा- ऐसी कौन-सी बात रह गई है जिससे मुझे सफलता देवी के दर्शन नहीं हुए हैं ? अनुभवी ने कहा- जो मुख्य बात है उसे तुम भूल गये हो, वह है मन की शान्ति । te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम नाराजगी के अयोग्य ही - एक छात्र से भूल हो गई, वह भय से कांपता हुआ पण्डित मदनमोहन मालवीय के पास पहुंचा और गिड़गिड़ाने लगा कि आप मेरे से नाराज तो नहीं हो गये हैं ? मालवीयजी ने मुस्कराते हुए कहा-मैं तुम्हारे से क्यों नाराज होऊँगा ? मैं बड़ा हूँ और तुम छोटे हो। यदि मुझे नाराज ही होना है तो ब्रिटिश सरकार से नाराज होऊंगा, या किसी बहुत बड़े शत्रु से नाराज होऊँगा, तुम पर मैं नाराज होऊँ इसके योग्य तुम नहीं हो। जाओ, और मन लगाकर अपना कार्य करो एवं सफलता प्राप्त करो। Jain Education Internatironcate & Personal Usevoneinelibrary.orat Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६: अद्वैत का रहस्य आचार्य शंकर अपने प्रियशिष्यों के साथ वाराणसी की एक संकरी गली में से जा रहे थे । सामने से ही एक हरिजन आता हुआ दिखाई दिया । दूर से ही शंकराचार्य ने उसे चेतावनी देते हुए कहा - अरे शूद्र ! मार्ग में से दूर हट जा, नहीं तो तेरा स्पर्श या तेरी छाया हो मुझे अपवित्र बना देगी । कदम आगे बढ़ाते सुना है कि आप उस हरिजन ने तेजी से अपने हुए और मुस्कराते हुए कहा- मैंने प्राणी मात्र में परमात्मा की दिव्य छाया देखते हैं । क्या आपका अद्वैतवाद शब्दों का मायाजाल ही है. या वास्तविक है ? आप मेरे से घृणा क्यों कर रहे हैं ? आचार्य शंकर को अपनी भूल ज्ञात हुई, हरिजन का अभिवादन करते हुए बोले- तू तो मेरा सच्चा गुरु है । आज तूने मुझे अद्वैत का सच्चा रहस्य बताया है । ୮ te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैल और गधा एक सेठ के घर दो पण्डित पहुंचे। सेठ ने स्नेह से सत्कार कर उन्हें भोजन का आमन्त्रण दिया। पण्डितों के अन्तर्मानस की परीक्षा करने के लिए सेठ ने हाथ धुलाने के बहाने एक पण्डित को दूर ले जाकर पूछा-पण्डितजी ! मुझे तो आपके साथ वाले पण्डित प्रबल प्रतिभा के धनी ज्ञात होते हैं, साथ ही स्वभाव से भी अत्यन्त सज्जन प्रतीत होते हैं। अपने साथी की प्रशंसा सुनकर वह पण्डित ईर्ष्याग्नि से जल उठा। उसने मुह की विचित्र भावभंगिमा करते हुए कहा-सेठजी ! आपका अनुमान मिथ्या है, वह तो मेरे साथ आ गया है पर वह पण्डित नहीं, निरा बेवकूफ है। मैं सच कहता हूँ कि उसमें और बैल में कोई भी फर्क नहीं है। सेठ ने इसी प्रकार दूसरे पण्डित की भी परीक्षा के लिए उसे भी कहा । दूसरे पण्डित ने कहा-अरे ___te & Personal UseVWDainelibrary.org Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गागर में सागर वह तो बिल्कुल ही गधा है उसमें अक्ल का तो दिवाला है । सेठ ने दोनों के मानस को समझ लिया कि मे दोनों परस्पर ईर्ष्याग्नि में जल रहे हैं। उन्हें प्रतिबोध दिन के लिए भोजन के थाल में घास और भूसा रख दिया । ज्योंही दोनों पण्डितों ने घास और भूसा देखा तो आगबबूला हो गये । सेठ ने मुस्कराते हुए कहाआप दोनों ने ही तो एक दूसरे का बैल और गधे के रूप में परिचय दिया है और उसी के अनुकूल मैंने यह भोजन परोसा है । दोनों लज्जित हो गये । उन्हें अपनी नल ज्ञस्त हो गई । 1 १० ME te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितना काम, उतना दाम पण्डित सदासुख जयपुर के निवासी थे। जैन दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान थे। ग्रन्थ लेखन की उनकी स्वाभाविक अभिरुचि थी। वे जयपुरनरेश सवाई रामसिंह जी के कोषाध्यक्ष थे। एक दिन किसी चुगलखोर ने राजा से यह शिकायत की कि पण्डित सदासुख अच्छी तरह से कार्य नहीं करते हैं, जब देखो तभी धार्मिक ग्रन्थ पढ़ते रहते हैं। राजा पण्डितजी की विद्वत्ता पर मुग्ध थे पर उनकी कार्य के प्रति शिथिलता व प्रमाद की बात उन्हें तनिक मात्र भी प्रिय नहीं थी। वे मध्याह्न के समय बिना पूर्वसूचना दिये कोषालय में पहुंचे। यकायक राजा को अपने सामने देखकर कर्मचारियों के पर के नीचे की जमीन खिसकने लगी। राजा ने आते ही सर्वप्रथम पं० सदासुखजी के बहीखाते और रजिस्टर देखने प्रारम्भ किये। किन्तु आदि से अन्त तक कही Jain Education InteFoat fonalte & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ गागर में सागर पर भी स्खलना व भूल नहीं थी। इतना सुन्दर और व्यवस्थित कार्य था कि राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ, और बोला-पण्डितजी ! तुम्हारे कार्य से मैं अत्यन्त प्रसन्न है। आज से तुम्हें जो पारिश्रमिक मिलता है उससे अब सवाया मिलेगा। पण्डित सदासुख ने बहुत ही नम्र शब्दों में निवेदन करते हुए कहा-आपकी अपार कृपादृष्टि मेरे पर है परन्तु एक प्रार्थना है ? __राजा-बताओ, तुम्हारी क्या इच्छा है ? तुम चाहोगे उतना पारिश्रमिक बढ़ा दूंगा। पण्डितजी-राजन् ! मैं चाहता हूँ कि इस समय मुझे जो पारिश्रमिक मिल रहा है उसमें से एक चौथाई पारिश्रमिक कम कर दिया जाय। . राजा सहित सभी पण्डितजी की विचित्र प्रार्थना को सुनकर चकित हो गये। उन्होंने ऐसी विचित्र प्रार्थना अपने जीवन में प्रथम बार सुनी थी। राजा-पण्डितजी ! तुम इस प्रकार की प्रार्थना किस अपेक्षा से कर रहे हो? ' पण्डितजी-राजन् ! अब से मैं प्रतिदिन दो घण्टे विलम्ब से दफ्तर में आना चाहता है। कारण यह है कि मैं एक ग्रन्थ लिख रहा हूँ और उसे शीघ्र पूर्ण करना चाहता हूँ, अतः राज्य को हानि न हो एतदर्थ Jain Education Internationate & Personal Uwav@rainelibrary.org Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितना काम, उतना वाम . १३ मैंने यह प्रार्थना की है। काम कम करूं तो फिर दाम अधिक क्यों लूँ ? महाराजा रामसिंह ने कहा-अच्छा तो कागज लाओ, मैं तुम्हारे लिए आदेश लिख देता हूँ। महाराजा ने आदेश लिखा-आज से पण्डित सदासुख को वर्तमान पारिश्रमिक से सवाया पारिश्रमिक दिया जाए, और इन्हें यह विशेष छूट दी जाती है कि जब यह कार्यालय में आना चाहें तब आयें, इनका कार्य आज से केवल बही-खाते और रजिस्टर देखने का है उसमें किसी भी प्रकार की भूल न हो। इसके अतिरिक्त अवशेष कार्य अन्य कर्मचारी करें। इस आदेश को पढकर पण्डितजी श्रद्धा से नत हो गये। वे ज्योंही चरणस्पर्श करने के लिए आगे बढ़ना चाहते थे कि राजा साहब कोषालय से बाहर चले गये । पण्डितजी पर आकर अत्यन्त तन्मयता के साथ अपने ग्रन्थों के लेखन में लग गये। उन्होंने भगवती आराधना-सार, तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्डश्रावकाचार प्रभृति ग्रन्थों पर विराट टीकाएँ लिखीं और अन्य मौलिक साहित्य का भी सृजन किया। Jain Education Interfoatponate & Personal Uwev@rjainelibrary.org Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःख का मूल : ममता एक बार तथागत बुद्ध अपने शिष्यों के साथ श्रावस्ती के विहार में ठहरे हुए थे। उस समय उनकी परम भक्ता, विराट् वैभव की मालकिन विशाखा तथागत के दर्शनार्थ आई। पर आज उसके शरीर पर चमकते हुए वस्त्र और दमकते हुए आभूषण नहीं थे। उसने गीले वस्त्र धारण कर रखे थे, और सिर के बाल भी अस्त-व्यस्त थे। उसका चेहरा मुरझाया हुआ था। तथागत बुद्ध ने यह सब देखा, उन्होंने साश्चर्य पूछाविशाखे ! आज तुम्हारी यह विचित्र वेशभूषा कैसे है ? विशाखा ने धीरे से कहा-भन्ते ! आज मेरे पौत्र का देहान्त हो गया है। बुद्ध-विशाखे! मैं एक बात तुम्हें पूछना चाहता है कि श्रावस्ती नगरी में जितने मनुष्य हैं उतने यदि तुम्हारे पुत्र और पौत्रादि हो जाएं तो कितनी प्रसन्नता होगी? Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःख का मूल : ममता .. भन्ते ! मेरी प्रसन्नता का पारावार न रहेगा। मैं आनन्द विभोर होकर नाचूंगी। बुद्ध---अच्छा, विशाखे ! जरा यह बताओ कि श्रावस्ती में प्रतिदिन कितने व्यक्ति मरते होंगे ? विशाखा-भगवन् ! कम से कम एका मरम ही होगा। बुद्ध-तो फिर तुम प्रतिदिन इसी प्रकार गीले वस्त्र, अस्त-व्यस्त बाल और मुहर्रमी सूरत बनाये रखना पसन्द करोगी? विशाखा-नहीं भन्ते ! बुद्ध-जिसके जितने अधिक समे हैं उतने ही अधिक दुःख हैं, संसार में जिसका कोई सगा नहीं है उसको कोई भी दुःख नहीं है । दुःख का मूल ममता है, जहाँ ममता है वहाँ दुःख है, अतः सत्य-तथ्य समझ । विशाखा को नई दृष्टि मिल गई । उसका दुःख कपूर की तरह उड़ गया। बाद में जीवन में कैसे भी प्रसंग आए वह कभी भी शोकातुर नहीं हुई। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १० : परमात्मा के दर्शन इब्राहीम आदम बलख के अत्यन्त सादगीप्रिय, धर्मनिष्ठ बादशाह थे । वे प्रतिपल प्रतिक्षण परमात्मा की अन्वेषणा में लगे रहते थे। उनके महल के द्वार प्रजा के लिए हर समय खुले रहते थे । उनके पास कोई भी व्यक्ति बिना किसी भी संकोच के पहुँच सकता था। किसी के लिए इन्कारी नहीं थी । महल एक पहाड़ी पर बना हुआ था । ये एक बार रात्रि में सो रहे थे । उन्हें महल में किसी के पैर की आहट सुनाई दी। वे चौंककर उठ बैठे । उन्होंने अंधेरे में देखा कि एक मानवाकृति उनके पास आ रही है । इब्राहीम ने पूछा- आप कौन हैं ? और इस प्रकार आपका आगमन किस कारण से हुआ है ? मानवाकृति ने कहा- - मैं आपका ही मित्र हूँ, te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा के दर्शन मेरा ऊंट खो गया है, उसकी अन्वेषणा करने के लिए आया हूँ। इब्राहीम-मित्र ! इतने ऊंचे महल में ऊँट किस प्रकार आयेगा? महल में ऊँट खोजना क्या पागलपन नहीं है ? मानवाकृति ने मुस्कराते हुए कहा-इब्राहीम ! तुम्हें मेरा पागलपन तो ज्ञात हो गया। जैसे ऊँचे महल में ऊँट का खोजना पागलपन है वैसे ही ऊँचे महल में बैठकर भगवान को ढूँढ़ना पागलपन नहीं है ? क्या कभी तूने इस पर भी चिन्तन किया है ? इब्राहीम उसके मुँह को देखने के लिए ज्योंही उठा त्योंही वह मानवाकृति अंधकार में कहीं विलीन हो गई। इब्राहीम रातभर करवटें बदलते रहे। उनकी नींद नष्ट हो चुकी थी। आगन्तुक के शब्द उनके कर्णकुहरों में गंजते रहे कि माया और वैभव के इस साम्राज्य में लिप्त रहकर परमात्मा के दर्शन नहीं किये जा सकते। प्रातःकाल होते ही वे घोड़े पर बैठकर राजमहल को छोड़कर एकान्त जंगल में चल दिये। सारे राजकीय वस्त्राभूषण उतारकर फकीरी का वेष धारण कर Jain Education Interinatiroinedte & Personal Usevojainelibrary.org Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गागर में सागर आध्यात्मिक साधना करने लगे। नौ वर्ष तक निरन्तर उसी स्थान पर बैठकर जप व ध्यान की साधना की और विशिष्ट ज्ञान की उपलब्धि होने पर लोगों के अत्याग्रह से वे मक्का गये और जीवन के अन्तिम क्षण उन्होंने वहां पर व्यतीत किये । उनका अभिमत था कि अमीरी और धन-दौलत में शैतान का निवास है और गरोबो व फकीरी में फरिश्ते का, जो खुदा के दरबार में पहुँचाते हैं । जो माया से नाता तोड़ता है वही खुदा को पाता है। Jain Education Interpatronate & Personal Usav@rainelibrary.org Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :११: मोक्ष का अधिकारी तथागत बुद्ध का पीयूषवर्षी प्रवचन चल रहा था। प्रवचन के पश्चात् एक युवक ने तथागत को नमस्कार कर पूछा-भन्ते ! इस विराट् विश्व में जितने जीव हैं उन सभी को मोक्ष प्राप्त हो सकता है ? बुद्ध-अवश्य ही, सभी जीवों को मोक्ष मिल सकता है। युवक-तो फिर सभी मुक्त क्यों नहीं हो जाते ? बुद्ध-तुम कल प्रातः आना, मैं इसका रहस्य तुम्हें बताऊँगा। प्रातः होते ही युवक बुद्ध के श्रीचरणों में पहुंचा। बुद्ध ने उसे एक कलम और कागज थमाते हुए कहायुवक ! आज नगर में प्रत्येक व्यक्ति के पास में जाओ, उससे मिलो, और जानो कि कौन क्या चाहता है ? यह सूची तैयार कर मेरे पास लाओ। Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गागर में सागर जब युवक सूची तैयार करके लौटा तो बुद्ध ने पूछा-बताओ कौन क्या चाहता है ? __ युवक-किसी को धन की कामना है, किसी को वभव की तमन्ना है, किसी को सन्तान की चाह है, तो किसी को स्त्री की इच्छा है, कोई स्वास्थ्य की प्रार्थना करता है तो कोई मकान आदि की ? बद्ध-नगर के इतने लोगों में से कितने लोगों ने मोक्ष की इच्छा की है ? युवक-भगवन् ! किसी ने भी नहीं। बुद्ध-जो मोक्ष की ओर आँख उठाकर देखना भी पसन्द नहीं करते, तुम ही बताओ उन्हें मोक्ष किस प्रकार मिल सकता है ? युवक-जिसकी इच्छा नहीं उसे नहीं मिल सकता। बुद्ध-केवल मोक्ष को चाहने से हो मोक्ष नहीं मिलता उसके लिए श्रद्धापूर्वक प्रबल प्रयत्न भी अपेक्षित है। युवक को बुद्ध का समाधान पसन्द आया और वह नमस्कार कर बोला-वस्तुतः आपका कथन सत्य है। Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१२: कला का मर्म एक महान कलाकार धनवानों की गगनचम्बी . अट्टालिकाओं से घिरी हुई एक नन्ही-सी झोंपड़ी में रहता था। जब भी वह उस मोहल्ले में से निकलता तब वह सभी श्रेष्ठियों को नमस्कार करता। श्रेष्ठी लोग परस्पर वार्तालाप करते-बेचारा यह कलाकार कितना गरीब है ? हम सभी को प्रतिदिन नमस्कार करता है। एक दिन नगर के सभी श्रेष्ठियों को राजदरबार में आमन्त्रण मिला। वे सभी सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर राजदरबार में पहुँचे। राजकर्मचारियों ने उनका भव्य स्वागत किया। वे सभी गर्व से फूले नहीं समा रहे थे कि हमारा कितना सन्मान किया गया है। कुछ समय के पश्चात् वह गरीब कलाकार भी राजदरबार में पहुँचा। कलाकार को देखते ही राजा :२१: Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गागर में सागर स्वयं उठा, और अपने सन्निकट उसे सम्मान सहित बिठाया । श्रेष्ठियों ने जब राजा के द्वारा कलाकार को सन्मान देखा तो वे चकित हो गये । २२ दूसरे दिन प्रातः जब कलाकार अपनी झौंपड़ी से बाहर निकला तो सभी श्रेष्ठियों ने उस कलाकार को घेर लिया और बोले - हम तो तुम्हें बहुत ही साधारण आदमी समझ रहे थे, किन्तु हमें तो कल ज्ञात हुआ कि तुम्हें तो राजा भी सम्मान देते हैं । तुमने यह बात हमें पहले क्यों नहीं बताई ? कलाकार ने मुस्कराते हुए कहा - यह बताने जैसी विशेष बात नहीं थी । जो लोग कला के मर्म को समझते हैं वे मुझे नमस्कार करते हैं और जो नहीं समझते हैं उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ । श्रेष्ठियों के पास कलाकार के उत्तर का कोई प्रत्युत्तर नहीं था । te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १३ : नैतिकता और राजाज्ञा राजवैद्य चरक की विश्रुति भारत के एक अंचल से दूसरे अंचल तक फैल रही थी। उन्होंने आयुर्वेद जगत में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया था । उन्हें राजा की ओर से विशेष अधिकार प्राप्त हुआ था कि वे बिना किसी भी संकोच के, बिना स्वामी की अनुमति के भी कोई भी वनस्पति ले सकते थे । वे नित नई वनस्पतियों का निरीक्षण करते और नित्य नूतन औष धियों का निर्माण करते रहते थे । - एक दिन वे अपने मुख्य शिष्य सोमशर्मा के साथ एक जंगल से दूसरे जंगल में घूम रहे थे । भयानक जंगल में एक खेत था और उसमें उन्होंने एक विचित्र पुष्प देखा । चरक के पैर वहीं पर रुक गये । वे उस फूल को लेना चाहते थे । सोमशर्मा ने निवेदन कियागुरुदेव ! यदि आप आदेश दें तो वह फूल में खेत में से तोड़कर ले आऊं ? : २३ : te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ गागर में सागर चरक ने प्रतिवाद करते हुए कहा-वत्स! खेत के मालिक की आज्ञा के बिना फूल तोड़कर लेना चोरी है। पर गुरुदेव ! आपको तो राजाज्ञा प्राप्त है, आप कहीं से भी, कोई भी वनस्पति ले सकते हैं। चरक-वत्स ! तुम्हारा कहना सही है । नैतिक आचरण और राजाज्ञा ये दोनों पृथक-पृथक हैं। यदि यह फूल में ले लूंगा तो मुझे राजा के द्वारा दण्ड नहीं मिलेगा किन्तु नैतिक दृष्टि से तो पाप लगेगा ही। राजाज्ञा से भी अधिक महत्त्व नैतिक आचरण का है। सोमशर्मा के पास इसका कोई उत्तर नहीं था। वह दूर ही नहीं, बहुत दूर खेत के स्वामी के घर पहुँचा और उसकी अनुमति प्राप्त कर पुष्प तोड़कर राजवैद्य चरक को समर्पित किया। चरक के इस आचरण का यह प्रभाव पड़ा कि बाद में उनके किसी भी शिष्य ने बिना अनुमति के कोई भी चीज लेना उचित नहीं समझा। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १४: मित्र के लिए त्याग बंगाल के नदिया ग्राम में एक सुन्दर विद्यालय था। उस विद्यालय में से जितने भी विद्यार्थी तैयार हुए उन्होंने उस विद्यालय के नाम को रोशन कर दिया। उस विद्यालय में रघनाथ और निमाई दो परम मेधावी छात्र पढ़ते थे। दोनों ने न्यायदर्शन का तलस्पर्शी अध्ययन किया। दोनों छात्रों में अपार स्नेह था। उन छात्रों की तेजस्वी प्रतिभा को देखकर विद्यालय के प्राचार्य ने उन दोनों को आदेश देते हुए कहातुम दोनों न्याय पर पृथक्-पृथक् ग्रन्थ लिखो। जिसका ग्रन्थ सर्वोत्कृष्ट होगा उस लेखक का अत्यधिक सन्मान किया जायेगा, और उसके ग्रन्थ को पाठ्यक्रम में भी नियुक्त किया जाएगा। प्राचार्य के आदेश को शिरोधार्य कर दोनों छात्र ग्रन्थ-लेखन में जुट गये । रात-दिन श्रम कर दोनों ने :२५: . . . Jain Education Interpatronate & Personal usev@jainelibrary.org Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गागर में सागर ग्रन्थ पूर्ण किये। दोनों ने परस्पर ग्रन्थ देखने को लिये । निमाई के ग्रन्थ का भाषा लालित्य, विषय की गहराई और शैली के माधुर्य को देखकर रघुनाथ का चेहरा मुरझा गया। उसने कहा-मित्र निमाई ! तुम्हारा ग्रन्थ तो बेजोड़ है, तुम्हारे ग्रन्थ के सामने मेरा ग्रन्थ तो इस प्रकार प्रतीत होता है कि देवाङ्गना के सामने कोई कुरूपा खड़ी हो। उसकी सुनहरी आशा के हवाई महल ढह गये। निमाई ने मित्र के चेहरे को देखा। उसकी भाव भंगिमा से उसके अन्तर्मानस के विचार जाने। उसने मित्र से कहा- रघुनाथ ! चलो जरा नौका विहार कर आवें। दोनों नौका में बैठकर नदी के मध्य में पहुंचे। निमाई ने अत्यन्त परिश्रम से लिखे हए अपने ग्रन्थ को पानी की धार में बहाते हुए कहा--जो ग्रन्थ मित्र की कीति में बाधक हो वह ग्रन्थ किस काम का! रघुनाथ चिल्लाया-निमाई ! यह क्या पागलपन कर रहे हो, जिस ग्रन्थ के कारण तुम विश्व-विश्रुत नयायिक हो सकते थे, जिसे लिखने के लिए कितना श्रम किया उसे इस प्रकार बहा दिया। निमाई ने स्नेह से अपने मित्र रघुनाथ को अपनी बाहों में कसते हुए कहा-मित्र की प्रसन्नता बड़ी है । Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्र के लिए त्याग रघुनाथ के मुँह से शब्द न निकल सके, उसकी आंखों से आँसू बह रहे थे, जो कृतज्ञता प्रकट कर रहे थे। जब रघुनाथ का सम्मान हुआ तब निमाई आनन्द से झूम रहा था। वही निमाई बाद में महाप्रभु चैतन्य हुए । रघुनाथ ने अपने आपको उनके चरणों में समर्पित कर दिया और वह उनका प्रमुख शिष्य बन गया। यही कारण है कि आज भी बंगाल में महाप्रभु चैतन्य के नाम के साथ लोग रघुनाथ की भी जय बोलते हैं। . Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१५: जैसा संग, वैसा रंग शेखसादी अपने शिष्यों के साथ प्रातः परिभ्रमण हेतु जा रहे थे। वार्तालाप चल रहा था सत्संग के महत्त्व पर किन्तु शिष्यों को सत्संग का महत्त्व समझ में नहीं आ रहा था। शेखसादी ने उसी समय मार्ग के सन्निकट लगे हुए गुलाब के फूल को देखा। उन्होंने उसी समय गुलाब के पौधे के नीचे एक मिट्टी का ढेला पड़ा हुआ देखा। उसे उठा लिया और शिष्य को देते हुए कहाजरा इसे सूंघो, इसमें कैसी गंध आ रही है। एक शिष्य ने सूंघते हुए कहा-गुरुदेव ! इसमें गुलाब की महक आ रही है। शेखसादी-वत्स ! मिट्टी तो निर्गन्ध होती है फिर यह गंध कहाँ से आई ? :२८: Jain Education Intefpatronate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसा संग, वैसा रंग २६ शिष्य-गुरुदेव ! प्रस्तुत ढेले पर गुलाब के फूल टूट-टूटकर गिरते रहे हैं। निरन्तर गुलाब के स्पर्श के कारण यह मिट्टी भी सुगन्धित हो गई है ? शेखसादी ने अपने मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए कहा-जैसे मिट्टी निर्गन्ध होने पर भी फूलों की संगति से वह भी सौरभयुक्त हो गई, वैसे ही मानव का भी जीवन है । वह भी जैसी संगत करता है, वैसा ही उसका जीवन हो जाता है। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १६: अत्याचार क्यों ? गुरु नानक एक बार परिभ्रमण करते हुए बगदाद पहुँचे । वहाँ का शासक खलीफा था । जो महान् अत्याचारी था । वह नीति को भूलकर, जनता-जनार्दन को त्रस्त कर अपने खजाने को भरता था । उसने सुना कि गुरु नानक आये हैं । वह उनके दर्शनार्थ पहुँचा । गुरु नानक ने सुना सुना कि वह आ रहा है तो उसे प्रतिबोध देने हेतु अपने सामने सौ कंकड़ चुनकर एकत्रित किये । कंकड़ों को देखकर खलीफा सोचने लगा कि मैंने तो सुना था कि यह बहुत ही बुद्धिमान हैं पर मैं तो विपरीत देख रहा हूँ । बालकों की तरह इन्होंने भी कंकड़ इकट्ठे कर रखे हैं ? उसने गुरु के समक्ष अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत की कि आपने इन कंकड़ों को क्यों इकट्ठा किया है ? नानक- मैं तुम्हारे पास इनको अमानत रखना चाहता हूँ । खलीफा ने पूछा- आप पुनः इन्हें कब ले जायेंगे ? : ३० : te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्याचार क्यों? नानक-मुझे शीघ्रता नहीं है। जब आप कयामत के दिन खुदा के दरबार में उपस्थित होवेंगे उस दिन इन्हें भी साथ लेते आवें, उस समय मैं इन्हें ले लूंगा। . खलीफा-आप यह क्या फरमा रहे हैं ? क्या कयामत के दिन कोई वस्तु साथ ले जाई जा सकेगी? यह तो बहुत ही तुच्छ वस्तु है । __ गुरु नानक- खलीफा साहव ! आपका कहना पूर्ण सत्य है कि कयामत के दिन कोई भी वस्तु साथ में नहीं ले जा सकते। उस दिन तो खाली हाथ खुदा के सामने उपस्थित होना होता है और स्वयं की करनी का फल प्रस्तुत करना होता है। पर मुझे आश्चर्य है कि प्रजा को त्रस्त कर आप जो विराट वैभव एकत्रित कर रहे हैं क्या उसे भी आप यहीं पर छोड़ जायेंगे ? जब आप अपना विराट वैभव साथ में लायेंगे तो मेरे कंकड़ भी साथ में लेते आना। खलीफा को अपनी भूल भरी करनी का ध्यान आ गया। भविष्य में उसने अपना जीवन सुधार लिया और बाद में कभी भी अत्याचार नहीं किया। Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १७: गुरु का गौरव - सिकन्दर सम्राट अपने गुरु अरस्तू के साथ घने जंगल में से होकर जा रहे थे। वे कुछ ही दूर पहुंचे कि एक उफनता हुआ बरसाती नाला रास्ते में आ गया। परस्पर गुरु-शिष्य में यह बहस छिड़ गई कि इस नाले को पहले कौन पार करे। सिकन्दर का आग्रह था कि वह नाले को पहले पार करेगा, जिससे गुरुदेव को बना बनाया मार्ग मिल जाये। अरस्तू को सिकन्दर की बात माननी पड़ी। पहले सिकन्दर ने नाला पार किया और उसके पश्चात् अरस्तू ने भी उसी रास्ते से नाले को पार किया। पार होने पर अरस्तू ने कहा-सिकन्दर ! आज तुमने मेरा भयंकर अपमान किया है। मेरे से आगे चलने में तुझे क्या मजा आया ? । सिकन्दर ने अपना सिर अरस्तू के चरणों में रखते हुए कहा-गुरुदेव ! मेरे अपराध को क्षमा करें। मेरे Jain Education Internationate Personal usev@njainelibrary.org Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु का गौरव #1 कर्तव्य ने मुझे यह कार्य करने के लिए उत्प्रेरित किया । यदि अरस्तू संसार में रहेगा तो हजारों सिकन्दर तैयार हो सकते हैं किन्तु सिकन्दर के रहने पर एक भी अरस्तू तैयार नहीं हो सकता । अरस्तु सिकन्दर की बात सुनकर मदुग हो गया। उसने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा- शाबाश सिकन्दर ! शाबाश । O te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक ने छात्रों को एक गणित का सवाल देकर कहा-इस सवाल को कल हल करके लाना। सवाल अत्यधिक कठिन था। लड़कों ने बहुत प्रयास किया, पर हल न कर सके। दूसरे दिन अध्यापक ने देखा कि किसी ने भी सही रूप से प्रश्न का हल नहीं किया। केवल एक लड़के ने प्रश्न का सही उत्तर लिखा है। अध्यापक ने उस लड़के की पीठ थपथपाते हुए कहा-तुम जैसे प्रतिभासम्पन्न लड़के को देखकर मेरा मन प्रसन्न है। आज से तुम सबसे आगे बैठा करो। किन्तु लड़का फफक-फफककर रोने लगा। जब अध्यापक ने रोने का कारण पूछा तो उसने सिसकियां भरते हुए कहा-गुरुजी ! आप मेरी प्रशंसा न करें, मैं Jain Education Interivationate & Personal Usevorajnelibrary.org Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सचाई इस प्रशंसा के योग्य नहीं है। इस सवाल का उत्तर मैंने अपने मित्र के सहयोग से निकाला है। अध्यापक ने जब यह सुना तो वे और भी अधिक प्रसन्न हुए और उसकी सचाई की प्रशंसा करने लो। अध्यापक के हत्तंत्री के तार झनझना उठे-कि तू देश के नाम को उज्ज्वल करेगा.। वही बालक बड़ा होने पर गोपालकृष्ण गोखले के नाम से प्रसिद्ध हुआ। Jain Education Intelroatponate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १६ : पाप की स्मृति एक वृद्धा माँ का पुत्र बुरी संगति के कारण डाकू बन गया । जब वह कहीं पर डाका डालकर लौटता तो बूढ़ी माँ एक कमरे में एक लोहे की कील गाड़ देती थी । जब कभी भी वह कोई भी बुरा कार्य करके लौटता तब भी वह उसी प्रकार कील गाड़ देती थी । वह पूरा कमरा कीलों से भर गया था । एक दिन उसका लड़का उस कमरे में पहुँचा । सम्पूर्ण कमरे को कीलों से गड़ा हुआ देखकर आश्चर्य चकित हो गया । उसने पूछा- माँ ! यह सारा कमरा कीलों से क्यों भरा है ? इतनी सारी कीलें इसमें क्यों गाड़ी हैं ? वत्स ! ये सारे तेरे बुरे कार्य हैं । जब भी तू कोई बुरा कार्य करता, मैं उसी समय एक कील गाड़ देती रही । देख ले तेने अपनी छोटे से जीवन में कितने बुरे काम किये हैं, सारा कमरा कोलों से भर गया है । te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप की स्मृति उसने उसी समय बुरे कार्य न करने की प्रतिक्षा ग्रहण की और श्रेष्ठ कार्य करने लगा। जब वह कोई भी श्रेष्ठ कार्य करके लौटता तो माँ उस कमरे में से गड़ी हुई एक कील निकाल देती। कई वर्षों तक यह क्रम चलता रहा । एक दिन लड़के ने देखा कि में एक भी कील नहीं है । उसे मन में बहुत ही शान्ति हुई। उसने पूछा- माँ ! अब तो मेरे जीवन में कोई भी पाप न रहा न ! पुत्र ! कीलें तो सभी निकल गई हैं पर उनके दाग अभी भी विद्यमान हैं जो तुम्हारे पाप की स्मृति दिला रहे हैं अतः ऐसे कार्य करो जिससे ये दाग भी मिट जायें । 0 te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२०: छाता किस काम का? ____ कांग्रेस का अधिवेशन पूर्ण हुआ । नेतागण पण्डाल से निकलकर अपने स्थानों पर जा रहे थे। तेज वर्षा आ रही थी । एक कोने में दुबककर खड़े हुए व्यंकटेशनारायण तिवारी वर्षा के रुकने की प्रतीक्षा कर रहे थे। अनेक नेतागण उनके सामने से गुजरे और सभी ने एक ही प्रश्न उनके सामने दुहराया-क्या आप छाता नहीं लाये हैं ? ___अन्त में मदन मोहन मालवीयजी आये। उन्होंने कोने में सिमटे तिवारीजी को खड़े देखकर कहाक्यों व्यंकटेश ! तुम यहाँ खड़े हो ? आओ छाते में हो लो। तिवारीजी संकोच करने लगे। मालवीयजी ने उन्हें खींचकर छाते में ले लिया और बोले-अरे ! यह छाता किस काम के लिए है ? Jain Education Internatiroineete & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२१: VA अदभुल कलाकार 7 . TO ' ' A y .... . . - एक राजा सिंहासन पर आरूढ़ था'। सभा'लंगी हुई थी। दो कलाकारों ने सभा में प्रवेश किया । राजा ने दोनों का योग्य सम्मान किया और उनसे पूछा। आपका आगमन किस उद्देश्य से हुआ? आगन्तुकों में से प्रथम ने कहा- मैं चित्रकार है। मैं भीत पर ऐसे चित्र बनाता है कि दर्शक देखकर आनन्द विभोर हो जाता है। - दूसरे ने कहा- मैं विचित्रकार हूँ. मैं बिना तूलिका के ही दीवाल पर ऐसे चित्र अंकित कर देता हूँ कि दर्शक का मन-मयूर नाच उठता है।। राजा ने दोनों कलाकारों को आदेश दिया मेरे नव्यु-भव्य महल को दीवालों पर तुम अपनी कला का प्रदर्शन करो। दोनों ने राजा के प्रस्ताव को सहर्ष क को दी गई और . . - - - MANE स्वीकार लिया एक दीवाल Jain Education Interfoa tomate & Personal Ubev@ņainelibrary.org Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गागर में सागर दूसरी दीवाल दूसरे को दी गई । एक दूसरे को न देख ले इसलिए बीच में पर्दा लगा लिया गया। दोनों ही कलाकार अपनी कमनीय कला को मूर्त रूप देने में संलग्न हो गये और कुछ ही दिनों में पमा कार्य पूर्ण कर दिया । राजा उनकी कला को देखने के लिए अत्यधिक उत्सुक हो रहा था। कलाकारों की सूचना पाते ही राजा देखने के लिए चल दिया। उसने सर्वप्रथम चित्रकार की कृति को देखा। एक सजीव बोलते हुए चित्र को देखकर राजा अत्यधिक प्रसन्न हुआ और चित्रकार की सुक्तकंठ से प्रशंसा की। राजा दूसरे कलाकार के पास पहेचा किन्तु उसने दीवाल पर कोई रंग नहीं लगाया था, कहीं पर तुलिका का प्रयोग भी नहीं किया था, केवल दीवाल स्फटिक की तरह चमक रही थी। राजा ने विचित्रकार को पूछा-आपने अभी तक दीवाल पर कोई चित्र नहीं बनाया है? " विचित्रकार ने कहा-राजन् ! यही तो मेरी अद्भुत कला है, बीच में जो यह पर्दा है आप उसे हटवा दीजिए, फिर देखिये मेरी कला का चमत्कार । पर्दा हटते ही सामने की दीवाल पर जो चित्र था, वह चित्र उसमें प्रतिबिम्बित हो उठा। चित्र Jain Education InteFoatonate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितना सुन्दर दीखता था उससे कई गुना अधिक प्रतिबिम्ब सुन्दर दीख रहा था। चित्रकार ने तुलिका का चमत्कार दिखाया तो विचित्रकार ने रासायनिक पदार्थ विशेष से भींत को प्रतिबिम्ब ग्रहण करने में सक्षम बना दिया था। राजा विचित्रकार की महान कला की देखकर अत्यधिक चकित था। उसने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा-तुम वस्तुतः अद्भुत हो । तुम्हारी कला कमाल की है। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२२: आत्म-ज्ञान ___ एक शिष्य के अन्तर्मानस में विचार उद्भूत हुआ कि गुरुदेव बहुत ही वृद्ध हैं, उनकी सेवा में पहुंचकर मुझे आत्म-ज्ञान की कला प्राप्त करनी चाहिए। वह आश्रम में पहुँचा। गुरु शिष्य को देखकर आनन्द विभोर हो उठे। उसने एक दिन समय देखकर गुरुदेव से आत्म-ज्ञान के लिए प्रार्थना की। गुरु एक पहुँचे हए योगी थे । शिष्य की प्रार्थना पर गुरु कूछ मुस्कराये, और उसकी ओर कुछ क्षणों तक देखते रहे किन्तु शिष्य गुरु के हार्द को न समझ सका। कुछ समय के पश्चात् गुरु अपनी कुटिया में चले गये और वह भी अपने स्थान पर चला गया। ___ वह प्रतिदिन गुरु के सामने अपनी प्रार्थना को दुहराता और गुरु उसकी ओर देखकर मुस्करा देते । शिष्य निराश हो जाता कि गुरु मुझे आत्मज्ञान क्यों नहीं बताते हैं। एक दिन शिष्य ने पुनः प्रार्थना की कि मैं Jain Education Interpatronate & Personal UbavDjainelibrary.org Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-ज्ञान ४३ आपका शिष्य हूँ, मेरी प्रार्थना की आप इतनी उपेक्षा क्यों करते हैं ? गुरु ने कहा-अच्छा चलो, जरा हम नदी पर घूम आते हैं। कल-कल छल-छल करती हुई नदी बह रही थी, पानी काफी गहरा था । गुरु ने शिष्य को आदेश दिया कि जरा पानी में डुबकी लगाओ ! शिष्य ने उसी क्षण गुरु के आदेश का पालन किया। वह ज्योंही पानी की गहराई में पैठा, गुरु ने उसके सिर को जोर से दबा दिया। शिष्य गर्दन को पानी से बाहर निकालना चाहता था पर गुरु कुछ समय तक उसे रोकते रहे। पानी में हवा प्राप्त न होने से शिष्य का दम घुटने लगा और वह पानी से बाहर निकलने के लिए छटपटाने लगा। जब गुरु ने देखा कि अब वह पानी में नहीं रह सकता तब उन्होंने अपने हाथ को कुछ ढोला छोड़ा और वह शीघ्र ही बाहर निकल आया । • सांस लेकर कुछ आश्वस्त हुआ। गुरु के चेहरे पर पहले की भाँति ही मुस्कान अठखेलियाँ कर रही थी। उन्होंने शिष्य को प्रेम से सम्बोधित कर पूछा-जब तुम पानी में थे तब तुम्हारी सबसे तीव्र इच्छा क्या थी। शिष्य ने उत्तर दियाउस समय मैं सांस लेने के लिए हवा चाहता था । पर गुरुदेव आपने मेरे प्रश्न का तो उत्तर नहीं दिया। मैं Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गागर में सागर आपसे आत्म-ज्ञान चाहता हूँ और आप दूसरी ही बात कर रहे हैं। गुरु ने मुस्कराते हुए कहा-वत्स ! पानी मैं तुझे हवा की जितनी चाह थी, क्या आत्म-ज्ञान के लिए भी उतनी तड़फ है, यदि है तो तुझे कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं है। यह तड़फ ही तेरा मार्ग स्वतः बना देगी। आत्म-ज्ञान कहीं बाहर नहीं, अन्दर ही है। Jain Education Intefoatinate & Personal Usev@ņainelibrary.org Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपना निर्माण एक अध्यापक छात्रों को भूगोल का अध्ययन करा रहा था, उसने एक नक्शे के पाँच-छह खण्ड छात्रों को देते हुए कहा-इन्हें इस प्रकार जोडिए जिससे संसार का सही मानचित्र बन जाये। अध्यापक के आदेश का पालन करने के लिए सभी छात्र तन्मयता से जुट गये। वे एक-एक द्वीप को बिठाने का प्रयास करने लगे किन्तु सफल नहीं हो रहे · थे। यदि एशिया का मानचित्र ठीक बैठ जाता तो यूरोप का गलत हो जाता, यदि यूरोप का ठीक होता, तो अमेरिका गलत हो जाता। सभी छात्र परेशान हो गये । उन्होंने कहा-यह कार्य हमारे वश का नहीं है, यदि आप मार्गदर्शन करें तो सम्भव है सफलता प्राप्त हो सकती है। अध्यापक ने कहा-अच्छा, इसके पीछे मानव . Jain Education Interipatroinedte & Personal Usevoranelibrary.org Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬ तुम पहले उसे का मानचित्र भी है, करो । मानव का चित्र यदि बना 'चित्र भी बन जायेगा । गागर में सागर बनाने का प्रयास सके तो संसार का छात्रों ने तन्मयता से मानव के चित्र को बनाना प्रारम्भ किया और शीघ्र ही मानव के चित्र को व्यवस्थित बना दिया । सभी छात्र अपनी सफलता पर झूम उठे । अध्यापक ने कहा - अच्छा तो अब इस नक्शे को यथावत् उलट दो । ज्योंही मानचित्र उलटा किया तो वे सभी आश्चर्यचकित हो गये । संसार का मानचित्रपूर्ण रूप से बन चुका था । अध्यापक ने रहस्य का समुद्घाटन करते हुए कहा- पहले मानव का निर्माण करो, संसार का निर्माण तो स्वतः हो जाता है । तुम संसार के निर्माण की पहले चिन्ता न करो, अपने आपका निर्माण करो । te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २४ : अनूठी विशेषता जवाहरलाल नेहरू कैम्ब्रिज में अध्ययन कर रहे थे। वे एक दिन वहाँ के राजपथ पर होकर जा रहे थे । राजपथ के सन्निकट एक बिल्ली मरी हुई थी, उसके शरीर में कीड़े कुलबुला रहे थे, भयंकर दुर्गन्ध से सारा मार्ग व्याप्त था, लोग आते और नाक-भौं सिकोड़कर आगे बढ़ जाते किन्तु किसी ने भी उस बिल्ली को उठाकर एक ओर फिंकवाने का प्रयास नहीं किया। नेहरूजी ने देखते हो उसी समय एक दूर खड़े हुए सिपाही को बुलाकर कहा - यदि मैं तुम्हारे स्थान पर यहाँ होता तो यह गन्दगी यहाँ पर नहीं रह सकती थी । सिपाही ने नेहरूजी की भव्य मुखमुद्रा देखकर समझा यह तो ब्रिटेन का राजकुमार लगता है । te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ गागर में सागर वह चोटी से एड़ी तक कांप उठा। उसने अत्यन्त नम्रता से कहा-मैं बहुत ही शीघ्र इसे उठवाकर दूर एकान्त स्थान में फिकवा देता हूँ। यह है महान व्यक्तित्व की अनूठी विशेषता। Jain Education Internationedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २५ साहस सुप्रसिद्ध दार्शनिक बोजाक से किसी ने पूछाविश्व में सबसे बड़ी वस्तु क्या है जिससे जीवन चमकता है। उसने कहा-साहस ही जीवन है, क्योंकि मेरी माँ ने मुझसे कहा था 'वत्स ! मैं तुझे अपने अनुभवों की मंजूषा से एक अनमोल हीरा देना चाहती हूँ।' मैंने पूछा-माँ ! वह हीरा कौन-सा है ? वत्स ! उस हीरे का नाम है साहस । साहसी व्यक्ति को ही भगवान के संदर्शन हो सकते हैं। । उस दिन मेरी आठवीं वर्षगाँठ थी। तब से मैं प्रतिपल-प्रतिक्षण उसकी बात को स्मरण कर माँ को नमस्कार करता हूँ। Jain Education Internatronate & Personal Usavornainelibrary.org In Education Interna : 8€ : Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २६ : भारतीय संस्कृति स्वामी विवेकानन्द अमेरिका में थे । मध्याह्न का समय था । चिलचिलाती धूप तप रही थी । स्वामीजी उस समय एक कब्रिस्तान के पास से होकर जा रहे थे । उन्होंने देखा कि उस भयंकर गर्मी में एक महिला एक कब्र पर पंखा झल रही है । स्वामीजी ने उसका कारण जानना चाहा तो महिला ने कहा - महात्मन ! मरते समय मेरे पति ने मेरे से यह शपथ दिलवाई थी कि उसकी कब्र जब तक अच्छी तरह सूख न जाये तब तक मैं दूसरा विवाह नहीं करूं । इसलिए मैं कब्र को शीघ्र सुखाने का प्रयास कर रही हूँ, क्योंकि मैं एकाकी जीवन से ऊब गई हूँ । स्वामीजी ने जब यह सुना तो उन्हें अपनी पवित्र भारतीय संस्कृति पर हार्दिक गर्व हुआ कि जहाँ पत्नी केवल त्याग करना ही जानती है । उसमें कितनी निर्मल भावना है । O : ५० : te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २७ : श्रेष्ठ शासन का रहस्य सन्त कन्फ्यूशियस से 'लू' के राजा ने पूछा-आपके 'चुंगटू' के शासक बनते ही जन-जीवन में सुख की बंशी किस प्रकार बजने लगी ? उन्होंने कहा- मैंने सदा ही सज्जन व्यक्तियों को प्रोत्साहन दिया और दुर्जनों को दण्ड दिया । जो प्रतिभासम्पन्न बुद्धिमान व्यक्ति थे, उन्हें जनता की सेवा के लिए नियुक्त किया। जिससे जनता का नैतिक जीवन सुधर गया और वे अपने आपको सुखी अनुभव करने लगे । O : ५१ : te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२८ः कहाँ से सीखा? लुकमान हकीम से किसी ने पूछा कि आपमें इतना विनय, अनुशासन व प्रामाणिकता है, वह आपने कहाँ से सीखी? लुकमान हकीम ने कहा-उन व्यक्तियों से जिनका जीवन अभिमानी था, अप्रामाणिक व अनुशासनहीन था। प्रश्नकर्ता असमंजस में पड़ गया। उसने पुनः प्रश्न किया कि यह कैसे हो सकता है ? क्या कभी उन व्यक्तियों से कोई कुछ सीख सकता है ? लुकमान ने कहा-मित्र ! इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । मैंने उन व्यक्तियों में जो बुरी बातें देखीं जिनसे उनका जीवन कलुषित था, उन बातों : ५२ : Jain Education InteFoatonate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहाँ से सीखा ? से मैंने अपने आपको सदा ही दूर रखा । जो जिज्ञासु है, जिसमें चिन्तन करने की शक्ति है वह कहीं से भी सीख सकता है और जो जड़बुद्धि है उसे चाहे कितना भी सिखाया जाय तब भी कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता । ५३ te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिश्वत नहीं लूंगा गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में श्री हरिलाल सीतलभाई नाम के एक उच्च पदाधिकारी थे। वे प्रातः अपने मकान के बाहर घूमते हुए सुनहरी धूप का आनन्द ले रहे थे। उसी समय एक सेठ ने एक लाख रुपये की थैली उनके सामने रखते हुए कहालीजिए यह मेरी तुच्छ भेंट, आप अपना निर्णय मेरे पक्ष में दीजियेगा। मैं आपका उपकार जीवन भर विस्मृत नहीं होऊँगा। श्री सीतलभाई ने कहा- श्रीमान् ! मैं कैसी भी परिस्थिति में सत्य के विपरीत निर्णय नहीं कर सकता । मुझे जो बात सत्य प्रतीत होगी मैं उसी पक्ष में अपना निर्णय दंगा। मैं आपसे सनम्र निवेदन करता हूँ कि भविष्य में आप इस प्रकार का दुःसाहस कभी भी न करें। :५४ : Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिश्वत नहीं लूंगा ___ सेठजी पूरे घुटे-घुटाये व्यक्ति थे। वे कहां पोछे हटने वाले थे। उन्होंने कहा-श्रीमान् ! आपको पता है ये एक लाख रुपये हैं, आप जीवन भर श्रम करके भी न कमा पायेंगे । स्मरण रहे, यह सुवर्ण अवसर आपश्री को मिला है, इसे अपने हाथ से न जाने दें। __ सीतलभाई ने मधुर मुस्कान बिखेरते हुए कहासेठजी! मैं रिश्वत लेकर कभी भी मिथ्या निर्णय नहीं कर सकता। सेठजी को अपने धन पर गर्व था, अतः वे अपनी मूंछों पर ताव देते हुए बोले-याद रखियेगा, इतनी बड़ी रकम देने वाला आपको इस जीवन में अन्य कोई व्यक्ति नहीं मिलेगा। सीतलभाई ने कहा-इतनी और इससे भी अधिक रकम देने वाले एक नहीं अनेक माई के लाल मिल जायेंगे पर लेने से इन्कार करने वाले व्यक्ति बहत ही कम मिलेंगे। अतः आप बिना आगे कुछ कहे पलटे पांवों लौट जाइए। मेरा वही निर्णय होगा जो सत्य पर आधारित होगा। Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय का गला न घोंटें : ३० : सेंट स्टीफेन कालेज के प्रिंसिपल पद के लिये दो श्रेष्ठतम उम्मीदवार थे — दीनबन्धु एण्ड्र ज और प्रोफेसर सुशीलकुमार रुद्र ; किन्तु चुनाव अधिकारी लाहौर के लार्ड बिशप लेफ्रोम पर रंगभेद का भूत चढ़ा हुआ था । उन्होंने एण्ड्रज को अपने सन्निकट बुलाकर कहाआप अवश्य ही विजयी होंगे क्योंकि हम किसी अंग्रेज को ही प्रिंसिपल बनाने के पक्ष में हैं क्योंकि हिन्दुस्तानी कालेज में अनुशासन नहीं रख सकता । ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ श्री एण्ड्रज ने सुना । उन्होंने बहुत ही गंभीरता से कहा - श्रीमान् ! आपका यह सोचना बिल्कुल ही अनुचित है । आप अपने दिमाग से रंगभेद की नीति निकाल दीजिये । प्रोफेसर सुशील कुमार रुद्र मेरे से : ५६ : I te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय का गला न घोंटें अधिक योग्य व्यक्ति हैं, मैं उनकी प्रबल प्रतिभा से प्रभावित हूँ। यदि आपने पूर्वाग्रहवश न्याय का गला घोंट दिया तो मैं अपने पद से त्याग-पत्र दे दूंगा। ___अन्त में सुशीलकुमार रुद्र ही प्रिंसिपल के पद लिए चुने गये। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३१ : श्रेष्ठ पुत्र तीन महिलायें पनघट पर पानी भर रही थीं । वे तीनों अपने प्यारे पुत्रों की प्रशंसा कर आनन्दित हो रही थीं । एक महिला ने कहा- बहिन ! मेरा पुत्र बारह वर्ष काशी में अध्ययन कर घर आया है । उसकी विद्वत्ता से गाँव के सारे सुज्ञजन प्रभावित हैं । वह ऐसा मुहूर्त निकालता है कि उसी क्षण कार्य हो जाता है । उसे आकाश के तारे, धरती के फल-फूल सभी के नाम स्मरण हैं । स्वर्ग और नरक की उसे जानकारी है । दूसरी महिला ने कहा- - मेरे पुत्र की तू बात सुनेगी तो चकित रह जायेगी । वह पहलवान है । सुबह उठकर पाँचसौ दण्ड-बैठक लगाना उसके लिये बहुत ही सरल कार्य है । जब वह अखाड़े में उतरता है तो बड़े से बड़ा पहलवान भी उसके सामने टिक नहीं : ५८ : te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेष्ठ पुत्र सकता। जब वह हाथी की तरह झूमता हुआ चलता है तो देखते ही बनता है। ___ तीसरी महिला मौन होकर उन दोनों की बात सुन रही थी। दोनों ने उपहास करते हुए कहा-- बहिन ! तू चुप क्यों है ? क्या तेरा बेटा कपूत है ? उसने धीरे से कहा-मेरा बेटा बहत ही भोलाभाला है। दिन भर वह खेत में काम करता है और मेरी खूब सेवा करता है । आज वह दूसरे गाँव चला गया था इसलिए मुझे पानी भरने के लिए आना पड़ा। तीनों महिलाएं अपने-अपने घड़े सिर पर रख कर घर की ओर चलने लगीं। तभी दूसरी सड़क से पहली महिला को अपना प्यारा पुत्र आता दिखाई दिया। माँ रुक गई। उसने सन्निकट आकर कहामाँ ! आज मुझे अभी कितना अच्छा शकुन हुआ है। घर जाते समय भरे हुए कुभ का मिलना अत्यन्त शुभ है। लगता है आज खूब धन की वर्षा होगी। और उसने अपने कदम तेजी से घर की ओर बढ़ा दिये। दूसरी महिला को भी दूसरी सड़क से अपना पहलवान पुत्र आता हुआ दिखाई दिया। उसने अपनी सहेलियों से कहा-देखो, वह गजराज की गति से Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गागर में सागर चलता हुआ मेरा बेटा आ रहा है । बातों ही बातों में वह पास में आ गया और अपनी माँ को देखकर बोला - माँ ! तुम बहुत ही धीमे-धीमे चल रही हो । देखो, मैं अभी दंगल में एक पहलवान को पछाड़ कर आया हूँ । मुझे बहुत ही जोर से भूख सता रही है अतः जल्दी घर पर पहुँची । मैं सीधा घर ही जा रहा और यह कह वह आगे बढ़ गया । 1 इतने में तीसरी महिला का पुत्र भी आ गया जो दूसरे गाँव गया हुआ था । उसने आते ही सर्वप्रथम माँ के सिर से घड़ा ले लिया और कहा - माँ ! तू क्यों पानी भरने आई, मैं गांव से आ ही तो रहा था । और वह घड़ा लेकर आगे बढ़ गया । दोनों महिलाएँ उसके इस व्यवहार को देखकर विस्मित थीं । वे मन ही मन तुलना कर रही थी अपने अपने पुत्रों से कि सच्चा मातृभक्त पुत्र कौन है । — te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३२: महामानव गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में थे। सत्याग्रह के कारण उन्हें सपरिश्रम कारागृह की सजा हुई। गांधी जी अपना कार्य अत्यन्त लगन के साथ करते थे। एक दिन उनका कार्य बहुत ही शीघ्र सम्पन्न हो गया। अतः वे पुस्तक लेकर पढ़ने लगे। कारागृह के अधिकारी ने कहा-खाली क्यों बैठो हो ? गांधीजी ने कहा-मैं अपना कार्य समाप्त कर चुका हूँ। मुझे कार्य करना तो आता है पर कार्य का ढोंग करना नहीं आता। इसलिए पढ़कर अपने समय का सदुपयोग कर रहा हूँ। यदि आप काम बता दें तो मैं पढ़ना बन्द कर कार्य पहले करूँगा। ___कारागृह के अधिकारी ने कहा-मैं तुम्हें कार्य करने के लिये नहीं कह रहा हूँ किन्तु जिस समय Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गागर में सागर गवर्नर आवें उस समय तुम कार्य करने का अभिनय अवश्य ही किया करो। गांधीजी ने स्थैर्यता के साथ कहा-मैं इस प्रकार मिथ्या नहीं बोल सकता और न इस प्रकार का पाखण्ड करना ही मुझे पसन्द है। . जब गवर्नर कारागृह का निरीक्षण करने आये तब गांधीजी ने स्पष्ट रूप से कहा कि यहाँ कार्य बहुत ही कम है। अतः मुझे पत्थर फोडने का कार्य दीजिये। गवर्नर गांधीजी के चेहरे की ओर देखकर आश्चर्यचकित हुआ। उसके हृदय-तन्त्री के तार झनझना उठे-वस्तुतः यह मानव ही नहीं अपितु महामानव है। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषण-कला सन् १९१७ का प्रसंग है। नासिक में कांग्रेस समिति का अधिवेशन था। स्वराज्य पर दादासाहब खापरडे और दादासाहब केलकर ने बहुत ही लम्बे भाषण दिये । जनता उनके भाषणों से ऊब चुकी थी। अन्त में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक का भाषण था। तिलक ने अनुभव किया कि जनता भाषण सुनने के मूड में नहीं है। उन्होंने अपना भाषण प्रारम्भ करते हुए कहा-'मेरे प्यारे मित्रो! आप इतने समय तक दो दादाओं के उपदेश सुन रहे थे। इन दादाओं के पश्चात् मैं बालक आपको क्या उपदेश दूँ ? श्रोताओं ने इतना सुनते ही हंसी के फव्वारे फूंक दिये और फिर उन्होंने जो भाषण दिया उससे जनमानस मंत्र-मुग्ध हो उठा। यह है भाषण-कला का चमत्कार । Jain Education Intelfpatronate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चा मानव : ३४ : सम्राट ने जन-जन के अन्तर्मानस पर विजय प्राप्त करने हेतु उपाधि प्रदान करने की योजना बनाई और उसने हजारों व्यक्तियों को उपाधियाँ प्रदान कर अपने आपको एक लोकप्रिय शासक अनुभव किया । सम्राट सिंहासन पर बैठे थे । उस समय एक महत्त्वाकांक्षी युवक ने राजसभा में प्रवेश किया । सम्राट को नमस्कार कर युवक ने कहा- राजन् ! मैंने सुना है आप उपाधियाँ प्रदान करते हैं । कृपया मुझे भी उपाधि प्रदान कीजिये । सम्राट ने युवक की ओर देखा । उसके चेहरे पर अपूर्व तेज चमक रहा था । तन के कण-कण में सौन्दर्य अंगड़ाइयाँ ले रहा था । सम्राट उसके दिव्य भव्य रूप को निहार कर अत्यन्त प्रभावित हुआ और उसने उपाधियाँ प्रदान करने के लिए सहज स्वीकृति प्रदान Jain Education Inteffipatronaersonal Usev@rjainelibrary.org Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चा मानव की, पर युवक ने सम्राट के द्वारा दी गई कोई भी उपाधि पसन्द नहीं की। उसने कहा-मुझे ऐसी उपाधि चाहिए जो सबसे बढ़कर हो । सम्राट ने कहा-बोलो, तुम्हें कौन-सी उपाधि चाहिये ? उसने कहा-मुझे अन्य उपाधियाँ नहीं चाहिये । आप मुझे ऐसी उपाधि दें जिससे मैं एक सच्चा मानव बनूं। ____ सम्राट ने सुना और कुछ क्षण तक चिन्तन करने के पश्चात् कहा-मैं तुम्हें महामात्य की उपाधि से समलंकृत कर सकता हूँ, अन्य भी अनेक उपाधियाँ दे सकता हूँ किन्तु मानव बनने की उपाधि नहीं दे सकता। __ आज का मानव एम० ए० (M. A.) तो बन रहा है मैन (MAN) नहीं, यही सबसे बड़ी बिडम्बना है। ___ सच्चा मानव ही विश्व के लिए प्रकाश-स्तम्भ बन सकता है। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशंसा : पतन का मार्ग है - शीबलि नाम के एक सुशील सन्त थे। उनका जीवन सद्गुणों का आगार था जिसके कारण वे जनजन के पूज्य हो चुके थे। लोग उनकी प्रशंसा करते हुए अघाते नहीं थे। एक बार वे अपने सद्गुरुदेव के दर्शन हेतु उनके आश्रम में पहुँचे। सत्संग चल रहा था। सैकड़ों व्यक्ति बैठे हुए थे। उन्होंने ज्योंही शीबलि को देखा-जयजयकार कर उठे। 'धन्य भाग्य है आज हमारा जो आप जैसे सन्त श्रेष्ठ के दर्शन हुए।' दूसरे ने कहा-'आप इन्सान नहीं साक्षात् भगवान हैं।' शीबलि मौन थे। ज्योंही शीबलि ने गुरु के चरणों में अपना सिर नमाया, त्योंही सद्गुरु ने उच्च स्वर से कहा-इस शीबलि को शीघ्र ही यहाँ से निकाल दो। मैं इसका मुंह देखना नहीं चाहता। यह महान दुराचारी है। Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशंसा : पतन का मार्ग है ६७ शीबलि ने सुना, और धीरे से वे आश्रम से बाहर निकल गये । उनके चेहरे पर वही मधुर मुस्कान अठखेलियाँ कर रही थी जो प्रशंसा के समय थी । सारे सत्संगी आश्चर्यचकित हो गये । वे मन ही मन कहने लगे - लगता है गुरुजी का मन ईर्ष्या की आग से जल रहा है । अपने सद्गुणी शिष्य के यश को वे सहन नहीं कर सके, इसलिए सभा के सामने उसका भयंकर अपमान किया है । एक भावुक भक्त ने दुःख से जिज्ञासा प्रस्तुत की, कि गुरुदेव शीबलि ने कौन सा ऐसा अपराध किया जिसके कारण आप इतने रुष्ट हो गये । ऐसा सद्गुणी शिष्य कहाँ मिलने का है । गुरु की धीर-गंभीर वाणी झंकृत हो उठीअपराध शीबलि का नहीं किन्तु तुम्हारा था । तुम उसे पतन के महागर्त में गिरा रहे थे । तुम्हारे में इतनी भी बुद्धि नहीं कि किसी भी व्यक्ति की मुँह पर प्रशंसा नहीं करनी चाहिए । स्व-प्रशंसा सुनकर व्यक्ति को अहंकार का काला नाग इस देता है और वह जहर उसके सद्गुणों का विनाश कर देता है । उसे जहर न चढ़े, इसीलिए सभी के सामने मैंने उसका अपमान किया, किन्तु तुम उस रहस्य को समझ न सके । वह मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारा है । मैं उसकी निर्मल यशचन्द्रिका को बढ़ते हुए देखना चाहता हूँ । D te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धैर्य की महत्ता एक महान विचारक एकान्त-शान्त क्षणों में बैठा हुआ चिन्तन कर रहा था कि महिलाएं कानों में चमचमाते हुए स्वर्ण के आभूषण पहनती हैं और आँख जो शरीर में सबसे अधिक कीमती अंग है उसमें काला अंजन लगाती हैं इसका क्या रहस्य है ? क्या आँख से भी कान का अधिक महत्त्व है ? तभी प्रज्ञा ने उत्तर दिया-महत्त्व कान का नहीं अपितु आँख का है; पर आँख में कान की अपेक्षा एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि उसे तीक्ष्ण शस्त्र से छेदा भी जाता है तब भी वह घबराता नहीं है किन्तु आँख में वह धैर्य कहाँ है ? जरा-से रजकण के गिर जाने से वह घबरा जाती है और आँसू बहाने लगती है। दूसरी बात आँख में चपलता भी है इसी कारण उसको काला किया जाता है। e personal Usev@rainelibrary.org Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धैर्य की महत्ता जीवन का यह परखा हुआ सत्य तथ्य है कि जिसके जीवन में धैर्य है जो कष्टों का हंसते-मुस्कराते हुए स्वागत कर सकता है उसका सर्वत्र स्वागत होता है और जो महान होकर भी धैर्यवान नहीं है उसका सर्वत्र तिरस्कार होता है। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३७ : देश का हित जार्ज वाशिंगटन अमरीका के राष्ट्रपति थे । शासन के एक उच्चतम पद के लिए एक विशिष्ट व्यक्ति की आवश्यकता थी । उस पद के अधिकारी का वेतन बहुत था अतः आवेदन-पत्रों का ढेर लग गया । उसमें एक आवेदन-पत्र राष्ट्रपति के घनिष्ठ मित्र का भी था। सभी को यह आशा थी कि इस पद के लिए राष्ट्रपति अपने मित्र का ही चुनाव करेंगे । जब परिणाम प्रकाशित हुआ तो सभी लोग आश्चर्यचकित हो गये । वाशिंगटन ने जिस व्यक्ति को चुना था वह व्यक्ति विरोधी दल का एक सदस्य था । कुछ व्यक्ति अप्रसन्न होकर वाशिंगटन के पास पहुँचे और कहा- आपने भयंकर भूल की है । आपने न तो अपनी पार्टी का ध्यान रखा और न अपने मित्र का ही विचार किया । te Personal Usev@rjainelibrary.org Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश का · त वाशिंगटन ने कहा-पार्टी और मित्र दोनों के प्रति मेरा हार्दिक सन्मान है। मैं उन्हें बहुत ही आदर का स्थान देता हूँ किन्तु इस समय मेरे सामने देश के हित का प्रश्न मुख्य है। इस पद के लिए मैंने जिस व्यक्ति को चुना है उससे बढ़कर योग्य कोई अन्य व्यक्ति नहीं है। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३८: मुर्दो से वार्तालाप ___ सुलतान कुतुबद्दीन अपने बढ़िया घोड़े पर बैठकर कब्रिस्तान में से होकर कहीं जा रहे थे। कब्रिस्तान में एक फकीर बैठा हुआ था। सुलतान ने अपना घोड़ा वहीं पर खड़ा कर दिया और फकीर से पूछा-तुम यहाँ पर क्या करते हो ? __ फकीर ने अपनी ही मस्ती में झूमते हुए कहाबादशाह प्रवर ! मैं यहाँ पर कब्रिस्तान के मुर्दो से वार्तालाप किया बादशाह ने पूछा-क्या मुझे भी बता सकते हो कि तुम क्या वार्तालाप करते हो? वे तुम्हारे से क्या कहते हैं ? फकीर ने कहा-वे कहते हैं कि हम भी एक दिन हाथी-घोड़े पर बैठकर अभिमान के साथ निकलते थे . :७२ : Jain Education Intelfpatinate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुर्दो से वार्तालाप पर आज उससे बिल्कुल ही विपरीत हो गया है। पहले हम जमीन पर सवार थे तो आज हमारे पर जमीन सवार है। ___फकीर की बात सुनते ही बादशाह का अभिमान नष्ट हो गया। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३६ : प्रामाणिकता अबू - खलीफा कपड़े के व्यापारी थे । उन्होंने एक थान देखा जो बीच में से खराब था । उन्होंने अपने अनुचर से कहा - यह थान बीच में से कुछ खराब है, जब भी कोई ग्राहक आये उसे स्पष्ट रूप से बता देना कि यह खराब है और इसका मूल्य आधा लेना । कार्याधिक्य के कारण अनुचर इस बात को भूल गया और उसने वह थान पूरी कीमत में ही ग्राहक को बेच दिया । जब संध्या के समय उन्होंने अनुचर को पूछा तो उसने अपनी भूल स्वीकार की । खलीफा ने कहा - यह तूने बहुत ही अनुचित किया है । वे स्वयं ग्राहक की अन्वेषणा करने लगे । उन्हें पता लगा कि ग्राहक हजाज के काफिले में मिलकर मध्याह्न में ही यहाँ से चल दिया है । वे उसी समय : ७४ : te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाणिकता ७५ तेज ऊँट पर बैठकर चल दिये। एक दिन तक निरन्तर चलने के पश्चात् वे ग्राहक को पकड़ सके। उन्होंने ग्राहक को थान की खराबी बताई और उसकी आधी कीमत उसे पुनः लौटा दी तथा अनुचर के द्वारा किये गये अपराध को क्षमा-याचना की। जब वे वापिस लौटने लगे तो ग्राहक उनके चरणों में गिर कर बोला- हम आप पर जितना भी गर्व करें उतना ही कम है। आप वस्तुतः खुदा के सच्चे बन्दे हैं । Jain Education IntelFoatponate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४०: पराई वस्तु सिमन बेन शैताह एक विचारक थे। वे अपने रहने के लिए मकान का निर्माण कर रहे थे और उसके लिए वे अपने हाथ से ईंटें ला रहे थे। उनके शिष्यों ने यह देखा तो उन्होंने उनके लिए एक गधा खरीद लिया जिससे उन्हें ईंटें लाने में कष्ट न हो। सिमन बेन शैताह ने गधे को देखा। उसके गले में एक कीमती मोती बंधा हुआ था और वह बालों में ढका हुआ था। उन्होंने मोती को लेकर अपने शिष्यों को कहा-क्या गधे का मालिक इस मोती के सम्बन्ध में जानता था। शिष्यों ने कहा-नहीं । तो इसी समय जाओ और यह मोती उसके मालिक को लौटा दो। : ७६ : Jain Education Interpatronate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराई वस्तु हुना शिष्यों न तर्क पेश करते हुए कहा- -रख्वी ने तो कहा है यदि तुम्हें कोई वस्तु मिलती है जिसे तुमने चुराया नहीं है तो वह तुम सहर्ष रख सकते हो । ----- सिमन बेन शैताह ने कहा- क्या तुम मुझे हैवान समझते हो ? हमारे ग्रन्थों में यह भी कहा है कि तुम्हारे पड़ोसी तुम्हारे भाई के समान हैं । तुम ही बताओ हमने उसकी वस्तु चुराई नहीं है किन्तु पड़ौसी के माल को हजम करना भाई के माल को हजम करने के समान है । ऐसा काम मैं कदापि नहीं कर सकता । O te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४१ बोलना कम : सोचना अधिक - एक व्यक्ति बाजार में से होकर जा रहा था। एक दूकान के सामने उसके पाँव ठिठक गये। वहाँ पर पालतू पक्षी बिका करते थे। एक पिंजरे में एक दुबलासा तोता था और उसकी कीमत सिर्फ १०० रुपये लिखी हुई थी। वह सोचने लगा कि इसकी कीमत सौ रुपये कैसे ? उसने दूकानदार से पूछा-महाशय ! इसकी कीमत इतनी अधिक क्यों है ? । दुकानदार ने मुस्कराते हुए कहा—यह अनेक भाषाएँ बोल सकता है और बहुत-सी बातें कर सकता है। वह व्यक्ति यह सुनकर आगे बढ़ गया। कुछ समय के पश्चात् वह एक बहुत सुन्दर तोते को लेकर आया। उसने दूकानदार से कहा-देखिए, :७८ : Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलना कम : सोचना अधिक ७६ यह तोता बड़ा ही अद्भुत है । मैं आपको सिर्फ पाँचसो रुपये में दे सकता हूँ। दुकानदार ने आश्चर्यचकित होकर कहा-इसमें ऐसी कौन-सी विशेषता है ? । उसने कहा-आपका तोता केवल बोलना ही जानता है, पर मेरा यह तोता गंभीर चिन्तक है, दार्शनिक है; जो बोलता कम है और सोचता अधिक है। Jain Education Intefoatronate & Personal Usev@ņainelibrary.org Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४२ सुनें अधिक और बोलें कम तथागत बुद्ध अपने शिष्यों के साथ एक बार जेतवन के अनाथपिंडक संघाराम में विचरण कर रहे थे। उस समय बुद्ध का शिष्य श्रमण यशोज पाँचसौ भिक्षओं के साथ तथागत के दर्शनार्थ उपस्थित हआ। वे पाँचसौ भिक्षु अपने चीवर और पात्र रखने के लिए उच्च शब्द कर रहे थे। सारा विहार उनके हो-हल्ले से मुखरित हो रहा था। तथागत बुद्ध जो मौन-प्रेमी थे उन्हें यह शोर-शराबा बिल्कुल ही पसन्द नहीं आया। उन्होंने भिक्षुओं को अपने सन्निकट बुलाकर और उन्हें फटकारते हुए कहा-इसी समय निकल जाओ यहाँ से, क्योंकि तुम लोग मेरे पास रहने योग्य नहीं हो। :८०: Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनें अधिक और बोलें कम तथागत बुद्ध की आज्ञा की अवहेलना कौन कर सकता था । उन्होंने तथागत को नमस्कार किया और खिन्न मन से यशोज सहित संघाराम से बाहर निकल गये । वे कौशल प्रदेश से चलकर वज्जिय देश की यात्रा पूर्णकर वग्गमुदा सरिता के सन्निकट पर्णकुटी बनाकर रहने लगे । एक दिन यशोज ने अपने साथियों से कहा – तथागत बुद्ध ने हमारे पर असीम अनुकम्पा कर हमें दण्ड दिया है । हमारे कोलाहल से अप्रसन्न होकर उन्होंने हमारे को वहाँ से निकाला है अतः हमें अपनी भूल का परिष्कार करना होगा । पूर्ण अप्रमत्त होकर मौन की साधना करनी होगी। मौन की साधना से ही तथागत प्रसन्न हो सकते हैं। क्योंकि प्रकृति ने भी हमें दो कान, दो आँख, दो नाक के छिद्र दिये हैं किन्तु मुँह एक है । इसका अर्थ है सुनें अधिक और बोलें कम । प्रकृति ने कान खुले रखे हैं और मुँह बन्द रखा है । इसका अर्थ है सुनने पर रोक नहीं, पर बोलने पर रोक है । केवल काम होने पर ही बोलो । ८१ te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४३: गौन की महत्ता मौन की महत्ता एक लोक कथा है-एक तालाब के सन्निकट दो हंस और एक कछुआ रहता था। हंस विवेकी थे, वे प्रायः मौन रहते थे और कछुआ रात-दिन बड़बड़ाता रहता था। मतलब और बेमतलब की बातें किया करता था। एक दिन हंस-युगल मान-सरोवर जाने के लिए तैयारी करने लगे। जब कछुए को यह पता लगा तो उसने हंसों से नम्र निवेदन किया कि आप मुझे भी मान-सरोवर ले चलें क्योंकि मैंने मान-सरोवर की रमणीयता के सम्बन्ध में बहुत कुछ सुन रखा है। _हंसों ने कहा-मित्र! हम तुम्हें नहीं ले जा सकते, क्योंकि हम लोग कम बोलना पसन्द करते हैं और तुम Jain Education Interpatronate personal Usev@nainelibrary.org Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौन की महत्ता ८३ रात-दिन बड़बड़ाते रहते हो, अतः तुम्हारा और हमारा साथ कभी भी निभ नहीं सकता । कछुए ने प्रतिज्ञा करते हुए कहा - मित्र ! मैं तुम्हें यह विश्वास दिलाता हूँ कि मैं पूर्ण मौन व्रत का पालन करूंगा। हंसों ने जब कछुए की यह प्रतिज्ञा सुनी तो वे बहुत ही प्रसन्न हो गये और उसे कहा - मित्र ! इस लकड़ी के मध्यभाग को तुम अच्छी तरह से पकड़ लो । दाँतों से खूब कसकर पकड़ना । उसके पश्चात् दोनों हंसों ने एक-एक किनारे को अपनी चोंच में पकड़ा और अनन्त आकाश में उड़ चले | कछुए को आकाश में उड़ने का अपूर्व आनन्द आ रहा था और उस आनन्द को वह उन्हें बताना चाहता था पर उसे उसी समय अपने मौन व्रत की स्मृति हो आई और वह मौन हो गया । सिनेमा के चलचित्र के तरह रंग-बिरंगे दृश्यों को देखकर वह विस्मित था । तीनों आगे बढ़ रहे थे । वे एक गाँव के ऊपर से होकर जा रहे थे तभी नीचे से लोगों ने देखा और उन्होंने साश्चर्य कहा — देखिए, कैसा कलियुग आ गया है । हंस जो मोती चुगते हैं वे आज एक मुर्दे कछुए को पकड़कर ले जा रहे हैं। ग्राम निवासियों की यह बात सुनते ही कछुआ तिलमिला उठा । ग्रामवासियों te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गागर में सागर को यह बताने के लिए कि मैं मुर्दा नहीं, जिन्दा हूँ ज्योंही उसने अपना मुंह खोला त्योंही लकड़ी छूट गई और वह नीचे जमीन पर गिर पड़ा। उसकी हड्डी पसली टूट गई वह जिन्दे से मुर्दा हो गया। मौन जीवन है और वाचालता मुर्दापन है। साधक को अधिक से अधिक मौन रहना चाहिए। तथागत बुद्ध ने अपने शिष्यों को कहा-श्रमणो ! जब तुम कभी भी सम्मिलित बैठो तब दो ही बात करनी चाहिए या तो धर्मकथा या आर्य मौन । सन्निपतितान वो, भिक्खवे, द्वयं करणीयं, धम्मिया या कथा, अरियोवा तुण्ही भावो।" Jain Education InteFoatonate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४४: आदर्श पत्नीव्रत ___ युद्ध के मैदान में एक वीर की तरह कर्णसिह लड़ रहा था। उसकी वीरता को देखकर शत्रु मैदान छोड़कर भाग रहे थे। एक शत्र ने पीछे से विष बझा बाण फका जिसके लगते ही कर्णसिह मूच्छित होकर गिर पड़ा। महारानी कलावती ने पति को मूच्छित होते देखा। उसने उसी समय पति को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया और स्वयं युद्ध के मैदान में कूद पड़ी। शत्रु समझ रहे थे कि कलावती कला की ही मूर्ति है, पर उसने युद्धकला में ऐसा कमाल दिखाया जिससे शत्रुओं के दाँत खट्टे हो गये। शत्रु सेना पराजित होकर भाग गई। शत्रुओं पर विजय वैजयन्ती फहराकर कलावती अपने पति के पास पहुँची। उसने वैद्य को बुलाकर पूछा कि आप ऐसा उपाय बताइये जिससे :८५: Jain Education Internatroineate &Personal Usevoneinelibrary.org Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गागर में सागर मेरे पति शीघ्र ठीक हो सके। एक अनुभवी वैद्य ने कहा-महारानीजी ! यदि कोई व्यक्ति अपने मुँह से इस विष को चूस ले तो राजा साहब के प्राण बच सकते हैं। राजा कर्णसिंह ने कहा- वैद्यराज! क्या कह रहे हैं ? मेरे लिए किसी के प्राण न लिये जायें। यह कहकर वे पुनः बेहोश हो गये। रानी कलावती ने सोचा-राजा दयालु है । जो विष बाण को चूसेगा वह अवश्य ही मर जाएगा । हम दूसरों को जिला नहीं सकते तो मारने का भी हमें अधिकार नहीं है। राजा का यह कथन न्यायसंगत है। पर मैं पत्नी हूँ। मेरा भी कर्तव्य है-अपने प्राणों का उत्सर्ग कर पति के प्राणों की रक्षा करना। जब राजा बेहोश था, रानी कलावती ने सारा विष चूस लिया। राजा स्वस्थ हो गया, पर रानी कलावती ने अपने कर्तव्य का पालन करते हुए विष के प्रभाव से प्राण त्याग दिये। जब राजा पूर्ण स्वस्थ हो गया तब लोगों ने राजा कर्णसिंह से कहा- राजन् ! आप दूसरा विवाह कर लीजिए । राजा ने उत्तर देते हुए कहा-जिस रानी ने मेरे Jain Education Intefoatronate & Personal Ubev@rainelibrary.org Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श पत्नीव्रत लिए प्राणों का परित्याग किया क्या उस रानी के लिए मैं विषयों का परित्याग नहीं कर सकता ? यदि मैं विषयों का गुलाम रहा तो अपने कर्तव्य से च्युत हो जाऊँगा । यह है एक पत्नीव्रत का आदर्श ! te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदारता राजा भर्तृहरि अपनी रानी पिंगला की विषयासक्ति को देखकर विरक्त हो गये। वे सोचने लगे कि मैं जिसका चिन्तन करता हूँ, वह मेरे से विरक्त है, वह अन्य को चाहती है। वह जिसको चाहती है वह उसे न चाहकर दूसरी को चाहता है और वह भी उसे न चाहकर मुझे चाहती है। बड़ा विचित्र है यह संसार । इस संसार में रहना ही सत्य को विस्मृत होना है। भर्तृहरि साधु बन गए। साधु बनने पर एक बार उन्हें पाँच दिन तक भिक्षा प्राप्त नहीं हुई । भूखे-प्यासे श्मशान में से होकर आगे जा रहे थे कि श्मशान में एक मुर्दा जल रहा था। उसकी चिता के पास ही आटे के तीन पिण्ड पड़े हुए थे। भर्तृहरि भूख से इतने व्याकुल हो चुके थे कि उन्होंने उन तीनों पिण्डों को ८८: Jain Education Internationaate & Personal Us@vorajnelibrary.org Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदारता CR सेंककर खाने का निश्चय किया। भर्तृहरि तीनों पिण्डों को सेंक रहे थे। उधर पार्वती के साथ महादेव निकले। महादेव ने भर्तहरि को नमस्कार किया। भर्तृहरि को नमस्कार करते हुए देखकर पार्वती को आश्चर्य हुआ। उसने कहा-आप सबसे बड़े देव हैं। इसीलिए लोग आपको महादेव कहते हैं। फिर भी आप एक मानव को नमस्कार कर रहे हैं । इसमें क्या रहस्य है ? . महादेव ने कहा-पार्वती ! मैं व्यक्ति की नहीं गुणों की पूजा करता हूँ। भर्तृहरि में जो उदारता है वह अन्य मानवों में दिखायी नहीं दे सकती। पार्वती-ऐसी क्या विशेषता है ? यह तो स्वयं ही दरिद्र है । पाँच दिन से भूखा है और मृत-पिण्ड खाने की तैयारी कर रहा है। फिर भी आप कहते हैं कि इसमें उदारता है-यह तो समझ में नहीं आया। तीनों पिण्ड पककर तैयार हो चुके थे। पार्वती की जिज्ञासा का समाधान करने के लिए महादेव ने एक भिक्षु का रूप बनाया। भर्तृहरि के पीछे खड़े रहकर उन्होंने आवाज दी "भिक्षां देहि ।" भर्तहरि के कानों में ज्योंही भिक्षुक की आवाज आई, उन्होंने आँख उठाकर के भी नहीं देखा कि कौन Jain Education Internatroinedte & Personal UseVDrainelibrary.org Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गागर में सागर भिक्षा मांग रहा है । उन्होंने भिक्षुक के चेहरे को बिना देखे ही वे तीनों पिण्ड भिक्षुक की ओर बढ़ा दिये। पार्वती भर्तृहरि की उदारता को देखकर चकित थी। एतदर्थ ही एक पाश्चात्य विचारक ने कहा है"टु फोल्ड दि हैण्डस् इन प्रेयर इज वेल, बट टु ओपन देम इन चैरिटी इज बेटर।" अर्थात प्रार्थना में हाथ जोड़ना अच्छा है, पर उदारता में हाथ खोलना अधिक अच्छा है। Jain Education Interpatronate & Personal usev@rainelibrary.org Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशप्रेम देश में भयंकर दुष्काल था। एक किसान के पास प्रचूर अन्न का भण्डार था तथापि वह अन्न का उपयोग नहीं करता था। लोग उसे मक्खीचूस समझते थे। एक दिन उसने भूख से छटपटाते हुए प्राण त्याग दिये। राजपुरुष उसके अन्न-भण्डार के पास पहुंचे। अन्न-भण्डार को देखकर वे उसकी मूर्खता पर खिलखिलाकर हंस पड़े। पर ज्योंही उन्होंने अन्न-भण्डार को खोला, उसमें लिखा हुआ एक पत्र मिला-देश में भयंकर दुष्काल चल रहा है। किसी भी किसान के पास अन्न का संग्रह नहीं है। मैंने यह अन्न का संग्रह इसीलिए किया कि मेरे देशवासी अगली फसल के लिए बीज प्राप्त कर सकें और उन्हें भरपूर अन्न मिले। Jain Education Intefloatianae Personal Usev@rainelibrary.org Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गागर में सागर मैं कई दिनों तक भूखा रहकर प्राण त्याग रहा हूँ। मेरा एक ही उद्देश्य है कि मेरे देशवासी सुखी बनें। ____ लोग उसकी त्यागवृत्ति और देशप्रेम को देखकर चकित थे । उनका सिर श्रद्धा से नत हो गया। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४७: प्राणोत्सर्ग धारा नगरी के एक राजा के शरीर में भयंकर व्याधि उत्पन्न हुई । उस व्याधि से वह छटपटाने लगा। अनेक उपचार किये, पर व्याधि शान्त होने के स्थान पर अधिक बढ़ती चली गई। एक ज्योतिषी ने बताया कि राजन् ! आप इस भयंकर रोग से तभी मुक्त हो सकते हैं जब नौ सौ सद्य विवाहित पति-पत्नी के जोड़ों को कोल्हू में पिलवाकर उनके रक्त से स्नान करें। राजा के आदेश से मालव-प्रान्त में से नवदम्पतियों के जोड़े इकट्ठे किये जाने लगे और वे उन्हें राज-किले में रखने लगे। अभी विवाह हए कम समय हुआ था, प्राण के भय से वे करुण आर्तनाद करने लगे। यह दृश्य देखकर किले के संरक्षक शेरसिंह को दया आ गई। अरे, राजा तो रक्षक होता है । वह Jain Education Internatronaate & Personal Usavornainelibrary.org Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गागर में सागर अपने शरीर के लिए इन निरपराध सैकड़ों दम्पतियों के खून से स्नान कर अपने आपको बचाना चाहता है । यह तो सरासर अन्याय है।। शेरसिंह ने, जो किले का संरक्षक था, अपनी माँ से कहा-माँ! यदि एक के प्राण न्योछावर करने पर, सैकडों के प्राण बचते हों, वह कार्य मुझे करना चाहिए या नहीं ? माँ ने कहा-परोपकार के लिए तुझे प्राणों का भी त्याग करना हो तो सहर्ष कर । माँ की प्रेरणा प्राप्त कर शेरसिंह किले के द्वार पर आकर सभी द्वारों का निरीक्षण करने लगा। उसने किले के पिछले द्वार को खोलकर उन दम्पतियों से कहा-यहाँ से भाग जाइए। यह ध्यान रखना हो हल्ला न हो, चुपचुप निकल जाइए। यह सुनते ही सभी वहाँ से निकलकर अपने प्राणों को बचाने के लिए भाग गये। प्रातः होने पर राजा को ज्ञात हुआ कि जिन नवदम्पतियों को प्राप्त करने के लिए कठिन श्रम किया गया था, उनको शेरसिंह ने छोड़ दिया है । राजा ने शेरसिंह को पकड़ने के लिए सैनिकों को भेजा। वीरतापूर्वक उन सैनिकों से जूझता हुआ वह राजा के अन्याय का प्रतिकार करने लगा। Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणोत्सर्ग ६५ उसका सिर धड़ से अलग हो गया, तथापि वह धड़ ही लड़ता रहा। जहां पर सिर गिरा वहाँ पर हिन्दुओं ने स्मारक बनाया और जहाँ पर धड़ गिरा वहाँ पर मुसलमानों ने मकबरा बनवाया और वह "बन्दी छोड़ महाराजा" के नाम से विश्रुत हुआ। Jain Education Interipatroinedte & Personal Usev®nanelibrary.org Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४८ तृष्णा महारानी पिंगला के दुश्चरित्र से महाराजा भर्तृहरि के मन में संसार असार प्रतीत हुआ और वे संन्यासी बनकर देश-विदेश में परिभ्रमण करने लगे। एक दिन वे अपनी राजधानी में आए। रात्रि का समय था। चाँदनी छिटक रही थी। सभी लोग गहरी निद्रा में सोये हुए थे। भर्तृहरि संन्यासी के वेष में अपनी प्रजा के सुख-दुःख को जानने के हेतु घूम रहे थे। चाँदनी में सड़क पर एक लाल रंग की बूंद दिखाई दी जो चन्द्रमा के प्रकाश से चमक रही थी। भर्तृहरि ने सोचा यह माणिक्य है। किसी के हाथ से गिर गया है। मैं इसे किसी योग्य पात्र को दे दूंगा। अतः उसे उठाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया। हाथ लाल हो गया। वह माणिक्य नहीं किन्तु पान की पीक थी। Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृष्णा उनके मन में अपार ग्लानि हुई। उनके अन्तर्मानस के तार झनझना उठे। इतने बड़े राज्य का परित्याग करके भी माणिक्य उठाने का लोभ न छोड़ सका। ऐसी तृष्णा को धिक्कार है । मैंने कनक तजा कान्ता तजी, तजा सचिव का साथ । धिक मन ! धोखे लाल के, रखा पीक पर हाय ।। एक पाश्चात्य विचारक ने भी कहा है-तृष्णा समुद्र के खारे पानी की तरह है । जितना उसका सेवन किया जाय उतनी ही अधिक प्यास बढ़ती जाती है। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४६: पुरस्कार नहीं ले सकता ___ सन् १९१६ में विश्वविश्रुत श्री एम० विश्वेश्वरय्या एक बहुत बड़े इन्जीनियर थे जिन्होंने मैसूर के पास ऐतिहासिक कृष्णराजसागर-बाँध तथा वृन्दावन गार्डन निर्माण किया जिसे देखकर दर्शक आज भी 'मन्त्र मुग्ध हो जाते हैं। वे एक बार शिकागो गये। वहाँ पर किसी विषय पर एक लेख तैयार करना था। उन्होंने एक लेखक को आठ डालर पारिश्रमिक देकर उस कार्य को करने के लिए कहा। उन्हें ठीक निश्चित समय पर एक महिला सेक्रटरी के द्वारा लेख प्राप्त हुआ। उसे पढ़कर वे अत्यधिक प्रसन्न हुए। उन्होंने उस महिला सेक्रटरी को नौ डालर दिये । जब लेखक को यह ज्ञात हुआ तो वह उन्हें ढूंढ़ता हुआ उनके e & Personal usev@rjainelibrary.org Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरस्कार नहीं ले सकता होटल पर पहुंचा और एक डालर लौटाते हुए कहाआठ के बदले नौ डालर कैसे? - विश्वेश्वरय्या ने कहा-मैं आपकी लेखन-कला पर प्रसन्न हूँ। मैंने प्रसन्न होकर ही पारितोषिक के रूप में एक डालर अधिक दिया है। लेखक ने कहा-आप मुझे दे सकते हैं, पर मैं ले नहीं सकता। जितना पारिश्रमिक हमने निश्चित किया उससे अधिक लेना एक प्रकार से गुनाह है। यदि मैं पुरस्कार प्राप्त करता रहा, तो मेरी मानसिक तृष्णा सदा बढ़ती रहेगी और सभी से मैं यही अपेक्षा करूँगा। तृष्णा ही मानव को दरिद्र बनाती है । मुझे वैसा दरिद्र नहीं बनना है। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrainelibrary.org Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५० : सत्य नहीं, झूठ कबीरदास बहुत बड़े फक्कड़ सन्त थे और सत्यवादी थे । वे पगड़ियाँ बुनते थे। उन्होंने परिश्रम कर एक पगड़ी बनायी । उसका पारिश्रमिक और सारा व्यय मिलाने पर वह छः रुपयों में बेची जा सकती थी । कबीरदास उसे लेकर बाजार में खड़े हो गये । लोग कबीरदास के हाथ में पगड़ी को देखकर उसका दाम पूछते, और वे उसकी कीमत छ ः रुपये बताते । लोग कहते यह तो चार रुपये की है । तथापि आप कहते हैं तो पांच रुपये दे सकते हैं अन्त में कबीरदास निराश होकर पगड़ी को बिना बेचे ही घर लौट आये । उनके निराश और उदास चेहरे को देखकर उनकी पुत्री ने पूछा- आप उदास क्यों हैं ? उन्होंने कहा- मैंने इसका वास्तविक मूल्य : १०० : te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य नहीं, झूठ १०१ बताया पर कोई ग्राहक पगड़ी खरीदने को प्रस्तुत नहीं हुआ। पुत्री ने कहा-पिताश्री ! आप चिन्ता छोड़िये । अभी जाती है और मैं बाजार में पगड़ी बेचकर आती हूँ। वह पगड़ी लेकर गई। उसने ग्राहक को बताया -यह पगड़ी बहुत ही बढ़िया है, इसका मूल्य बारह रुपये है। मैं इसे एक पैसे भी कम में नहीं दे सकती। ग्राहक ने कहा-मैं बारह रुपये देने की स्थिति में नहीं हूँ। मेहरबानी कर आप इसे नौ रुपये में दे दीजिए। उसने पगड़ी नौ रुपये में बेच दी। जब वह लौटकर कबीरदास के पास पहुंची तो उसने सारी स्थिति बताई । कबीर ने कहा सत्य गया पाताल में, झूठ रहा जग छाय । छह रुपयों की पागड़ी, नौ रुपयों में जाय ॥ Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :५१: छल एक हत्यारे ने किसी की हत्या कर दी। उसे फाँसी की सजा मिलने वाली थी। हत्यारे ने वकील की शरण ग्रहण की। वकील ने पारिश्रमिक के रूप में उससे पाँच हजार रुपये माँगे । उसने पाँच सौ रुपये अग्रिम रूप में दे दिये। वकील ने उसे परामर्श दिया कि न्यायालय में यदि तुम्हारे से कोई पूछे तो तुम केवल "बे" इस शब्द के अतिरिक्त और कुछ भी मत कहना। दूसरे दिन वह न्यायालय में उपस्थित हुआ। न्यायाधीश ने उससे पूछा--क्या तुमने उसका वध किया था ? हत्यारे ने "बे" कहा और मौन हो गया। न्यायाधीश ने कहा-अरे तू सुनता भी है या नहीं ? Jain Education Internatronate & Personal Usavornainelibrary.org Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल उसने पुन: "बे" कहा। न्यायाधीश-क्या पागल हो गया है ? उस आदमी ने 'बे' शब्द को पुनः दुहराया। न्यायाधीश ने पागल समझकर उसे मुक्त कर दिया। वकील' अपने वाग्जाल पर खुश था और हत्यारे के प्राण बच जाने से वह भी खुश था। वकील रात्रि के समय उस आदमी के घर पर पहँचा और उससे साढ़े चार हजार रुपये मांगे। उस व्यक्ति ने उत्तर में "बे" कहा। वकील ने उसे फटकारते हुए कहा--अरे मूर्ख, यह न्यायालय नहीं है, घर है । यहाँ तो अच्छी तरह से बात कर। वह जानता था कि 'बे' कहने से फाँसी की सजा मिट गयी तो क्या 'बे' कहने से फीस नहीं मिट सकती? इसलिए उसी गुरुमन्त्र को रटता रहा। अन्त में वकील निराश होकर चल दिया। मियाँ की जूती मियाँ के सिर पर गिर गई। जो दूसरों को छल करना सिखाता है वह स्वयं छला जाता है। Jain Education Interipatroinedte & Personal Usevwrainelibrary.org Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :५२: चिन्ता इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री चिल द्वितीय विश्वयुद्ध में प्रतिदिन १८ घण्टे कार्य करते थे। उनके अधीन जितने भी कार्य थे वे सभी कार्य वे बड़ी तत्परता से करते थे। इतना कार्य करने पर भी उनका चेहरा सदा गुलाब के फूल की तरह खिला रहता था। कभी भी थकान उनके चेहरे पर दिखायी नहीं देती थी। एक जिज्ञासु ने उनसे पूछा-मैं जब भी देखता आप सदा प्रसन्न दिखाई देते हैं। क्या कोई चिन्ता आपको नहीं सताती ? __ चिल ने मुस्कराते हुए कहा-भैय्या ! मेरे पास इतना समय ही कहाँ है जो मैं चिन्ता कर सकें ? वस्तुतः चिन्ता चिता से भी भयंकर है। चिता मुर्दे को जलाती है तो चिन्ता जीवित व्यक्ति को। प्रसन्नता, सौन्दर्य और शक्ति को नष्ट करने वाली तथा Jain Education InteFoatronate de personal usev@rjainelibrary.org Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्ता १०५ रोग को उत्पन्न करने वाली, चिन्ता एक पिशाचिनी के सदृश है । अतः ज्ञानी चिन्ता नहीं चिन्तन करते हैं। • चीन में प्राचीनकाल में अपराधियों को मिट्टी के जल भरे बरतनों के नीचे बिठा देते थे जिससे उसके सिर पर एक-एक बूंद टपकती रहती थी। अपराधियों को वे बूंदें हथौड़े की मार की तरह लगती थीं और वे पागल बन जाते थे। चिन्ता भी टपकने वाली उन बूंदों की तरह है जो मनुष्य को पागल बना देती है। - Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५३ : अपने आपको परखो एक मियाँ थे । उनकी आर्थिक स्थिति बहुत ही कमजोर थी । वर्षा का मौसम आ रहा था । बीबी उनसे कहती थी - जरा झोंपड़ी ठीक कर दो। क्योंकि स्थान-स्थान पर इसमें पानी चूता है । मियाँ पत्नी के कथन पर ध्यान ही नहीं देते थे । वे दुनिया भर के लोगों के झाड़-फूँक किया करते थे । एक दिन वे झाड़-फूँक करते हुए बोल रहे थे"आकाश बांधू, पाताल बांधू, बांधू समुद्र की खाई ।” इतने में उनकी पत्नी ने पीठ पर लकड़ी का तेज प्रहार करते हुए कहा -- आकाश, पाताल और समुद्र को बाद में बाँधना पहले झोंपड़ी को तो बाँध लें जिससे रात को आराम से सो सकें । : १०६ : te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने आपको परखो १०७ ___जैसे वह मियां दुनिया भर को बाँधने की बात करता था किन्तु झोंपड़ी नहीं बाँध सका, वैसे ही हम अपना उद्धार नहीं कर रहे हैं। दूसरों के उद्धार की चर्चा करते रहते हैं। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चातुर्य महाराजा कुमारपाल की राजसभा में बड़े-बड़े विद्वान थे। आचार्य हेमचन्द्र भी उनकी राजसभा में पहुँचे। उनके हाथ में ऊँचा डण्डा था और वे कम्बल धारण किये हुए थे। किसी विद्वान ने उनका उपहास करते हुए कहा आगतो हेमगोपालो दण्डकम्बलमुद्वहन् । (डण्डा और कम्बल लेकर ग्वाला हेम आ रहा है) आचार्य ने क्रोध न कर, मुस्कराते हुए कहा षड्दर्शन पशु प्रायश्चिारयन् जैनवाटिके । (जैन दर्शन के अनेकान्तोद्यान में षड्दर्शन पशुओं का चराता हुआ) यह सुनकर विरोधी का सिर लज्जा से झुक गया। क्योंकि उसने उन्हें गोपाल बनाया तो आचार्य ने उसे पशु बना दिया। उसके पश्चात् उसने कभी भी किसी का उपहास नहीं किया। Jain Education Intelfioaffematelowersonal Uwav@nainelibrary.org Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :५५: बुद्धिमान बनिया बादशाह अकबर ने बीरबल से पूछा कि संसार में चतुर कौन है ? बीरबल ने कहा-बनिया सबसे चतुर होता है। बादशाह ने कहा-हम प्रत्यक्ष रूप से देखना चाहते हैं। बीरबल ने चार बनियों को बुलाया। बादशाह के सामने ही कुछ मूंग के दाने सामने रखकर बनियों से पूछा--इस अन्न का नाम क्या है ? प्रथम ने कहा--यह मोठ तो ज्ञात नहीं होता। दसरे ने कहा- यह उड़द भी प्रतीत नहीं होता। तृतीय ने कहा- यह कालीमिर्च भी तो नहीं है। चतुर्थ ने कहा है तो यह परिचित । कई बार देखा है, पर इस समय नाम स्मरण नहीं आ रहा है। :१०९: Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० गागर में सागर बीरबल-क्या यह मूंग है ? प्रथम-हाँ, हाँ, वही है। बीरबल--वही क्या? द्वितीय--जो आपश्री ने कहा था ? बीरबल--मैंने क्या कहा था ? तृतीय--वह तो हम भूल ही गये । बीरबल-आप मूंग का नाम लेने से क्यों कतराते हैं ? ___ चतुर्थ--सम्भव है बादशाह प्रवर इस नाम से चिढ़ते हों और हमें इसका नाम लेकर किसी षड्यंत्र में फंसाया जा रहा हो, अतः हमने इस आशंका से इसका नाम नहीं लिया है। ... बादशाह को बनियों की बुद्धिमानी का पता लग गया था। क्योंकि बोली से ही चतुरता की परीक्षा होती है। "चातुरी को मूल एक बात कही जानिबो ।" Jain Education Internationaate & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धिमान पुत्र w om बादशाह अकबर ने बीरबल के पुत्र से पूछातुम्हारे पिताजी के साथ तुम्हारी कितनी माताएँ सती पुत्र ने कहा-जहाँपनाह ! मेरे पिताजी की मृत्यु होने पर मेरी तोन माताएँ सती हो गई हैं। एक माता कुटुम्ब के पालन-पोषण के लिए बची हुई है। "तुम्हारी उन माताओं के नाम क्या थे ?" उसने कहा--वीरता, उदारता और बुद्धिमत्ता। ये तीन माताएँ सती हो गई हैं केवल एक प्रतिष्ठा माता जीवित है। बादशाह ने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहाआखिर बीरबल का बेटा भी उसी की तरह बुद्धिमान है। Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेरणा-स्रोत सन्त मलूकदास एक पहुंचे हुए सन्त थे। वे एक बार कहीं जा रहे थे। उनकी दृष्टि मार्ग में इधर से उधर लडखडाते हए शराबी पर गिरी। उन्होंने उसे सावधान करते हुए कहा-जरा सावधान होकर चलो, नहीं तो गिर जाओगे। शराबी ने कहा-आप मेरी चिन्ता न करें। यदि मैं गिर गया मेरा शरीर ही खराब होगा, जो जरा-से पानी से साफ हो जाएगा। किन्तु आपके गिरने से आपका जीवन ही मलिन हो जाएगा, जिसका शुद्ध होना कठिन है। इसलिए आपको अधिक सम्भलकर चलना है। सन्त मलूकदास को उस शराबी के कथन से अत्यधिक प्रेरणा मिली। उसे उन्होंने अपने गुरु के रूप में मान लिया। Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५८ : आत्मवत् सर्वभूतेषु सरकार के माननीय प्रतिभासम्पन्न वकील हुगली निवासी शशिभूषण वन्द्योपाध्याय वैशाख की चिलचिलाती धूप में मध्याह्न के समय एक किराये की गाडी में बैठकर एक लब्ध प्रतिष्ठित व्यक्ति के घर पहुँचे । गरम लू चल रही थी । शशिभूषणजी को अपने यहाँ आए हुए देखकर उस मित्र ने कहा - इस भयंकर गरमी में आपने आने का कष्ट क्यों किया ? आप अपने किसी अनुचर के द्वारा पत्र भिजवा देते । मेरा विचार शशिभूषणजी ने कहा- पहले नौकर के द्वारा ही पत्र भेजने का था । इसीलिए मैंने पत्र लिखा भी था । किन्तु चिलचिलाती धूप और प्रचण्ड गर्मी को देखकर मैंने नौकर के द्वारा पत्र भेजना उचित न समझा । क्योंकि वह पैदल आता । उसमें : ११३ te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ गागर में सागर भी तो हमारी तरह ही आत्मा है। मैं तो गाड़ी में आया हूँ। यह थी उनमें “आत्मवत् सर्वभूतेषु" की निर्मल भावना। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :५६ : परिश्रम ही सच्चा विद्यालय फ्रान्स का महान् क्रान्तिकारी लेखक जिसने प्रजातन्त्र पद्धति का चिन्तन दिया वह गरीब था। अपने जीवन निर्वाह के लिए वह एक श्रीमन्त के यहाँ नौकरी करता था। श्रीमन्त के यहाँ एक बार प्रीतिभोज का आयोजन हुआ। अतिथिगण बैठे हुए परस्पर एक ऐतिहासिक घटना पर विचार चर्चा कर रहे थे। एक बात को लेकर दो विचारकों में परस्पर मतभेद हो गया और वह मतभेद उग्र विवाद के रूप में परिवर्तित हो गया। चाय देते हुए रूसो ने अत्यन्त नम्रता के साथ अपनी धृष्टता के लिए क्षमा मांगते हुए कहा-आप उन पुस्तकों के अमुक अमुक पृष्ठ देखिए। आपको सही समाधान प्राप्त हो जायगा। : ११५: Jain Education InteFipatroineate & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गागर में सागर श्रीमन्त के नौकर की गंभीर विद्वत्ता को देखकर आगन्तुक अतिथिगण अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने पूछा-तुमने किस विद्यालय में अध्ययन किया है ? रूसो ने कहा-मैंने विश्वविद्यालय में नहीं किन्तु गरीबी व कठिनाइयों के विद्यालय में अपनी प्रतिभा को निखारने का प्रयास किया है। परिश्रम ही सच्चा विद्यालय है। Jain Education Interfoatponate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० : गलतियों का परिष्कार एक आचार्य बहुत ही पहुँचे हुए योगी थे। वे बहुत ही शान्त प्रकृति के थे। किन्तु उनका शिष्य अत्यन्त क्रोधी था। वह बात-बात में गरम हो जाया करता था। आचार्य ने अनेक प्रयास किये किन्तु सफलता प्राप्त न हो सकी। एक दिन आचार्य अपने शिष्य को समझाने के लिए उसके साथ शतरंज खेलने बैठ गए। आचार्य शतरंज खेलने में पूर्ण दक्ष थे तथापि उन्होंने जान-बूझकर गलत चाल चली। पर उन्होंने उसे व्यक्त होने न दिया। आचार्य को गलत चाल को देखकर शिष्य मन ही मन आह्लादित हो रहा था । आचार्य ने कुछ समय के पश्चात् कहा-वत्स ! असावधानी के कारण मैं : ११७: Jain Education Internatronate & Personal Usavornainelibrary.org Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ गागर में सागर गलत चाल चल गया। तुम मेरी भूल को क्षमा कर दो। अब पुनः नये सिरे से खेल प्रारम्भ करेंगे । शिष्य नहीं चाहता था तथापि आचार्य की बात को वह टाल न सका । खेल पूनः प्रारम्भ हआ। कुछ देर तक आचार्य सही चाल चलते रहे, बाद में उन्होंने जानबूझकर गलत चाल पुनः चली। किन्तु आचार्य ने अपनी चतुरता से कलई नहीं खुलने दी। कुछ समय के बाद आचार्य ने पुनः कहा-वत्स ! इस बार भी मैं चाल चूक गया । इस बार भी में गलती कर चुका हूँ। तुम मुझे क्षमा कर दो। हम फिर से खेल प्रारम्भ करेंगे। शिष्य के होंठ क्रोध से फड़फड़ाने लगे। उसने आचार्य की ओर रोष भरी दृष्टि से देखते हुए कहाआप बार-बार गलती करें और उसके लिए क्षमा मांगे। मैं क्षमा नहीं कर सकता । आप ही बताइए मैं आपको गलती सुधारने का कितनी बार अवसर दूँ ? यदि मैं इस प्रकार गलती करता तो क्या आप मुझे क्षमा कर देते ? यह तो खेल है। इसमें हारने वाले को पुनः पुनः क्षमा नहीं किया जा सकता। यह दांव मेरे हाथ लगा है। मैं इसे यों ही जाने नहीं दूंगा। ___ आचार्य ने मधुर मुसकान बिखेरते हुए कहावत्स ! तुम मेरी दुबारा गलती को भी क्षमा नहीं कर Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गलतियों का परिष्कार ११६ सकते, किन्तु स्मरण करो मैंने तुमको जीवन में कितनी बार अवसर दिया है ? तुमने कितनी बार गलतियाँ की ? पर मैंने कभी भी तुमसे नहीं कहा कि तुम्हारी गलतियों को मैं क्षमा नहीं करूंगा । जब तक गलतियों का शोधन नहीं होता वहाँ तक जीवन महान् नहीं बन सकता । गलतियों की उपेक्षा जीवन को बरबाद करती है और शोधन से ही जीवन आबाद बनता है। Jain Education Internatiroinedte &Personal Usevjainelibrary.org Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :६१: उपदेश का प्रभाव यूसुफ अरब का एक प्रसिद्ध व्यापारी था। उसके पास विराट् सम्पत्ति थी। किन्तु वह स्वभाव से बहुत ही क्रोधी और खूखार प्रकृति का था। हजरत मुहम्मद के उपदेशों से उसके जीवन में शनैः-शनैः परिवर्तन प्रारम्भ हुआ। उसके शांतिमय जीवन में पुनः एक तुफान उठ खडा हआ। उसके ज्येष्ठ पुत्र की किसी हत्यारे ने निर्मम हत्या कर दी। उसने हत्यारे की बहुत ही तलाश की। किन्तु हत्यारा न मिल सका। उसके मन में पूत्र का शोक सदा बना रहता था। वह हत्यारा भी यूसुफ के भय से इधर-उधर 'भटक रहा था । एक रात्रि में भाग्यवशात् यूसूफ के घर में शरण के लिए पहुँचा और उससे प्रार्थना की कि मुझे भोजन और विश्राम के लिए आश्रय दीजिए । :१२० : Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश का प्रभाव १२१ यूसुफ ने उसका प्रेम से स्वागत किया। रात्रि भर उसे अपने पास रखा । प्रातः होने पर उसे बहुमूल्य वस्त्राभूषण व जीवन निर्वाह के लिए अर्थराशि देकर कहा-इस घोड़े पर बैठकर तुम अच्छी तरह से प्रस्थान कर सकते हो। यूसुफ के अप्रत्याशित सद्व्यवहार को देखकर उस हत्यारे का हृदय पसीज गया। वह उसके चरणों में गिर पड़ा और बोला-शेख ! संभवतः आपने मुझे पहचाना नहीं है। मैं आपके पुत्र का हत्यारा है। इन्हीं अपवित्र हाथों से मैंने आपके पुत्र की हत्या की है। आप मुझे दण्ड दें। मैं दण्ड के योग्य हैं। पुरस्कार के योग्य नहीं। यूसूफ का चिन्तन बदल चुका था। उसने शांति से कहा-अच्छा, तुम्हीं मेरे पुत्र के हत्यारे हो? तो और भी अधिक धन ले जाओ जिससे तुम पुनः मेरे सामने न आओ क्योंकि तुमको देखकर मुझे अपने पुत्र की स्मृति आ सकती है और मेरे मन में सम्भव है कभी रोष भी आ जाय। यूसुफ सोचने लगा-कुदरत ने मेरी परीक्षा लेने के लिए ही इसे मेरे सामने भेजा है। अतः उसने उसे जीवनदान देकर वहाँ से विदा किया। यह था मुहम्मद के उपदेशों के असर जिससे एक खंखार आदमी प्रशान्त बन गया। Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्र-हित जार्ज वाशिंगटन अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति थे। उन्हें सरकारी कार्य के लिए एक उच्चपदाधिकारी की आवश्यकता थी। उस पद को प्राप्त करने के लिए शताधिक व्यक्तियों के आवेदन पत्र आये । उन आवेदन पत्रों में जार्ज वाशिंगटन के परम अंतरग मित्र का भी आवेदन पत्र था। सभी को आशा थी कि राष्ट्रपति अपने मित्र को ही चुनेंगे। निश्चित समय पर परिणाम प्रकाशित हआ तो सभी आश्चर्यचकित हो गये। वह पद वाशिंगटन के मित्र को न मिलकर जो उनके विरोधी दल का नेता था उसे वह पद दिया गया। वाशिंगटन के स्नेहियों ने इस निर्णय के सम्बन्ध में उनसे पूछा। उन्होंने कहा--मैंने जो कुछ भी निर्णय किया है, वह गम्भीरता से सोचने के पश्चात् ही किया : १२२: Jain Education Internatronate & Personal Usavornainelibrary.org Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्र-हित १२३ है। इस पद के लिए मेरा मित्र उपयुक्त नहीं था। उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य के लिए सिफारिश की आवश्यकता नहीं किन्तु योग्य व्यक्ति की आवश्यकता है। इसीलिए विरोधी दल' का नेता होने पर भी मैंने उसे चुना है। वाशिंगटन अपने नहीं राष्ट्र-हित को महत्त्व देते थे। Jain Education Intelroatponate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु एक : नाम अनेक एक बार रूसी, अरबी, फारसी और तुर्की ये चारों यात्रा कर रहे थे। एक स्थान पर वे चारों एकत्रित हो गये। उन्हें जोर से भूख सता रही थी, 'पर चारों एक दूसरे की भाषा से अनभिज्ञ थे। चारों में परस्पर मित्रता हो गई जिससे उन्होंने सोचा कि हमारे पास इतने पैसे नहीं है जिससे हम पृथक्-पृथक वस्तु खरीदकर अपनी क्षधा शान्त कर सके। अतः उन चारों ने कुछ पैसे इकट्ठे किये। अब प्रश्न यह था कौन-सी वस्तु खरीदी जाय। अरबी ने कहा'एनब' लेना चाहिए। तुर्की ने कहा-'उजम' लेना चाहिए। फारसी ने कहा-'अंगूर' और रूसी ने कहाअस्ताफिल। सभी ने अपने विचार तो व्यक्त कर दिये, पर एक-दूसरे की भाषा से अनभिज्ञ होने के कारण वे संकेतों के द्वारा अपना रोष व्यक्त करने लगे। एक :१२४ : Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु एक : नाम अनेक १२५ दूसरे के रोष के कारण परस्पर संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई। उसी समय वहाँ पर एक फल बेचने वाला व्यक्ति आ निकला। जिसके पास बहुत ही बढ़िया किस्म के अंगूर थे। अंगूर देखकर चारों के चेहरे खिल उठे। चारों ने अंगूर खरीदे और खाकर तृप्ति का अनुभव किया। वस्तु एक थी, शब्द पृथक्-पृथक् थे। एक ही वस्तु को पृथक्-पृथक् भाषा में पृथक्-पृथक् रूप से पुकारते हैं। अंगूर को हो अंग्रेजी में "ग्रेप्स" और संस्कृत में "द्राक्षा" कहते हैं। यही स्थिति धर्म के सम्बन्ध में भी है। धर्मों का लक्ष्य है आत्मा से परमात्मा बनाने का। पर लोग शब्दों में उलझ जाते हैं और परस्पर एक-दूसरे धर्म पर छींटाकशी करते हैं । Jain Education InteFoatponate & Personal Usev@ņainelibrary.org Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेनापति का अनुशासन पालन अमेरिका के सेनापति ग्राण्ट इधर से उधर घूमते हुए सिगार पी रहे थे, किन्तु उस स्थान पर सिगार पीना मना था। वहाँ पर जो चौकीदार पहरा दे रहा था, उसने सेनापति से निवेदन किया-आप यहाँ सिगार न पीये। ग्राण्ट ने चौकीदार को घूरते हुए कठोर दृष्टि से देखा और पूछा-क्यों नहीं पी सकता ? पहरेदार ने कहा-यहाँ पर सिगार पीना मना है। ग्राण्ट ने मुस्कराते हुए कहा-क्या यह तुम्हारा आदेश है कि मैं यहाँ सिगार न पीऊँ ? चौकीदार ने नम्र शब्दों में किन्तु दृढ़ता के साथ कहा-मेरा नहीं, आपका ही आदेश है कि आप यहाँ सिगार न पीवें । सेनापति होते हुए भी ग्राण्ट को अपनी भूल ज्ञात हुई और उन्होंने सिगार बुझाते हुए कहा-मैं अपनी भूल के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। Jain Education Internationate .:१२६ : Personal Usev@rainelibrary.org ती है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५: नेहरूजी की उदारता एक बार हिन्दी का एक युवक कवि विदेश जाने के पूर्व पं० जवाहरलाल नेहरू से मिलने के लिए उनकी कोठी पर पहुंचा। विविध विषयों पर वार्तालाप होता रहा। जाते समय नेहरूजी ने उसके हाथ में एक बन्द लिफाफा थमा दिया और कहा-आप इस लिफाफे को जहाज में बैठने के पश्चात् खोलें। कवि महोदय लिफाफा लेकर घर पहुँच गये। निश्चित दिनांक पर वे विदेश यात्रा के लिए प्रस्तुत हए। जहाज में बैठने के पश्चात् उसने नेहरू के आदेश के अनुसार जब लिफाफा खोला तो उसमें एक हजार रुपये के यात्री चेक थे। उसे देखकर प्रसन्नता से उसका चेहरा चमक उठा। उसके मन में यह विचार तरंगित हो रहा था Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ गागर में सागर कि इतनी स्वल्प अर्थराशि से मेरी विदेश यात्रा किस प्रकार सुगम रीति से सम्पन्न हो सकेगी, पर नेहरूजी के उस लिफाफे ने उसके मानसिक संक्लेश को नष्ट कर दिया । यह थी नेहरूजी की साहित्यकारों के प्रति सन्मान की भावना | te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नींव का पत्थर सन् १९२८ और १९२६ की बात है । श्री लालबहादुर शास्त्री 'सर्वेट्स आफ पीपुल्स सोसाइटी' के सदस्य के रूप में प्रयाग के सार्वजनिक जीवन के मंच पर आए थे। वे अपने कार्य का प्रचार व प्रसार समाचार-पत्रों के माध्यम से करना नहीं चाहते थे । एक दिन उनके स्नेही मित्रों ने उनसे पूछा-आप समाचार-पत्रों में नाम छपने से इतने क्यों घबराते हैं ? शास्त्रीजी ने मुस्कराते हुए कहा-घबराने का तो कोई प्रश्न ही नहीं है। लेकिन मुझे लालालाजपतराय ने प्रस्तुत कार्य करने की प्रेरणा देते हुए कहा थालालबहादुर ! ताजमहल के अन्दर दो प्रकार के पत्थरों का उपयोग हुआ है। एक श्रेष्ठ किस्म का संगमरमर है जिसके द्वारा मेहराब और गुम्बज का निर्माण हुआ : १२६ : Jain Education Internatroinedte & Personal Usevwranelibrary.org Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गागर में सागर १३० है । संसार उसकी प्रशंसा करता हुआ नहीं अघाता है । दूसरे वे पत्थर हैं जो नींव के अन्दर के हैं जिनकी कोई प्रशंसा नहीं करता, पर उनके बिना मेहराब और गुम्बद टिक नहीं सकते। मेरा तुम्हें सूचन है कि मेहराब और गुम्बद न बनकर नींव के पत्थर बनना । अतः मैं नींव का पत्थर बनकर रहना चाहता हूँ । te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७: असुर और ससुर - आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ लेखक, निबन्धकार, समालोचक ही नहीं किन्त कवि भी थे। वे जब कभी कवि सम्मेलनों में भाग लेते तो वे कविता पाठ अवश्य करते। पर उनकी कविताएँ सस्वर नहीं होती। एक बार उन्हें किसी कविगोष्ठी में उपस्थित होना पड़ा। उनके एक स्नेही मित्र जो बहुत ही अच्छे कवि थे, उनका गला भी बहुत मधुर था, वे सस्वर कविता पाठ किया करते थे। जब शुक्लजी कविता सूनाने के लिए खडे हए तब उनके मित्र ने मधुर व्यंग्य कसते हुए कहा-अब अ-सुर जी (स्वररहित, राक्षस) कविता पाठ करेंगे। आप उनके कवितापाठ को ध्यान से सुनिए। Jain Education Intefloatianaie Blisonal Usev@rainelibrary.org Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ गागर में सागर शुक्लजी ने कविता पाठ किया। कविता पाठ पूर्ण होने पर उन्होंने मुस्कराते हुए कहा-आपने असुर जी का कविता पाठ सुन ही लिया है। अब ससुर जी (सस्वर, पत्नी का पिता ) कविता पाठ सुनायेंगे । यह सुनते ही सभासद हँस पड़े। मित्र का सिर लज्जा से नत हो गया। Jain Education Internationaate & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :६८: पराधीनता का कारण स्वामी विवेकानन्द से एक जापानी युवक ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-कि भारत में आगम, त्रिपिटक, वेद, उपनिषद्, गीता और महाभारत जैसे उत्कृष्ट ग्रन्थ हैं । वहाँ का दर्शन इतना महान् है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, तथापि मुझे समझ में नहीं आया कि भारत पराधीनता के पंक में क्यों निमग्न है ? निर्धनता की बेड़ी से क्यों जकड़ा हुआ है ? स्वामी विवेकानन्द ने मुस्कराते हुए कहा-एक बन्दूक बहुत ही बढ़िया है। किन्तु बन्दूक चलाने की कला में यदि कोई व्यक्ति निष्णात न हो तो वह सैनिक के गौरव को प्राप्त नहीं कर सकता । वैसे ही भारतीय धर्म और दर्शन व आध्यात्मिक भावना अत्यधिक श्रेष्ठ होने पर भी भारतीय जनमानस उसे व्यवहार में न ला सका जिसके कारण यह स्थिति उत्पन्न हुई है। : १३३ : Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६६ : सेठ की बुद्धिमानी एक गाँव में बहुत ही बुद्धिमान एक सेठ रहता था । सेठ के पास लाखों की सम्पत्ति थी । सेठ जानता था कि सोना जीवन को खोना है। किसी को भी पता नहीं वह कहाँ सोता है ? एक तस्कर उसके घर में चोरी करना चाहता था । वह चाहता था कि सेठ के सोने का पता लग जाय तो घर में अच्छी तरह से चोरी की जा सकेगी । किन्तु उसे कुछ भी पता न लगा । अन्त में वह ग्राहक के रूप में सेठ की दुकान पर पहुँचा । माल खरीदने के पश्चात् उसने सेठ से पूछा – सेठजी ! कभी रात में भी मुझे माल खरीदना पड़े तो बताइए आप कहाँ सोते हैं ? सेठ ने अपनी पैनी दृष्टि से उसे देखा । उसकी भावभंगिमा से समझ गया कि यह ग्राहक नहीं, चोर है । --- : १३४ : te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ को बुद्धिमानी १३५ सेठ ने मुस्कराते हुए कहा-भाई, मेरा कोई अता-पता नहीं है। जब भी जहाँ भी नींद आ जाती है वहीं सो जाता हूँ। कभी घर में सोता हूँ कभी दुकान में । कभी सोता भी, कभी नहीं भी सोता हूँ। .. चोर समझ गया कि सेठ बड़ा चतुर है। कहीं मुझे कारागृह में न डलवा दे, अतः वह नौ दो ग्यारह हो गयो। Jain Education Interpatronate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७० : समझ का फेर दो सन्त - एक पूर्व से आ रहा था और दूसरा पश्चिम से । वे दोनों सड़क के चौराहे पर परस्पर मिल गये । सन्निकट आते ही पूर्व से आने वाले सन्त ने फूँक मारी तो पश्चिम से आने वाले सन्त ने अपने पैर का पंजा उसकी ओर बढ़ा दिया। दोनों सन्त अपने लक्ष्य की ओर बढ़ गये। दोनों ही सन्तों के भक्तों में एक संघर्ष की स्थिति पैदा हो गई और संघर्ष यहाँ तक पहुँचा कि एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये । दोनों ही सन्त जो एकाकी बढ़े चले जा रहे थे, वे कोलाहल सुनकर पुनः उल्टे पैरों उस स्थान पर आये । सन्तों ने पूछा- आप लोग क्यों लड़ रहे हैं ? एक सन्त के भक्तों ने कहा- आपने फूंक मारकर हमारे गुरु को उड़ाने की धमकी दी। दूसरे सन्त के भक्तों ने कहा- आपने हमारे गुरु का अपमान किया : १३६ : te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस का फेर १३७ है। हमारे गुरु को पैर का पंजा दिखाकर कुचलने की बीभत्स भावना प्रदर्शित की। __दोनों ही सन्तों ने मधुर मुसकान बिखरते हुए कहा-आप लोग व्यर्थ ही संघर्ष कर रहे हैं। यह सुनते ही लोगों ने कहा-व्यर्थ संघर्ष कैसे ? आपने फूंक मारकर हमारे गुरुजी का अपमान नहीं किया ? तो दूसरे भक्त चिल्ला उठे-आपने पंजा दिखाकर हमारे गुरु का तिरस्कार नहीं किया ? दोनों ही सन्तों ने भीड़ के कोलाहल को शान्त करते हुए कहा-तुम दोनों हमारे भक्त नहीं हो। दोनों ही भक्तों की टोली चिल्लायी-हम आपके लिए ही तो जान देने के लिए तैयार हैं, फिर आपके अनुयायी कैसे नहीं हुए ? । पहले सन्त ने कहा--आज वर्षों के पश्चात् हम दोनों मिले थे। मैंने फूंक मारकर अपने स्नेही सन्त से कहा-एक क्षण का भी भरोसा नहीं है । अतः साधना में विलम्ब न करो। तो मेरे स्नेही सन्त ने पंजा उठाकर बताया कि मैं निरन्तर साधना में आगे बढ़ दोनों सन्तों के अनुयायी अपनी मनगढन्त कल्पना पर पश्चात्ताप करने लगे। Jain Education Internationate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :७१ः क्षणों का सदुपयोग मौलाना शिबली मुसलमान समाज के एक जाने हुए विद्वान् थे तो आर्नार्ड टोयनबी यूरोप के प्रसिद्ध इतिहासकार थे। एक बार ये दोनों विद्वान् स्टीमर के द्वारा यात्रा कर रहे थे। मौलाना शिबली धार्मिक दृष्टि से यात्रा कर रहे थे तो टोयनबी विदेश यात्रा से लौटकर अपनी मातृभूमि की ओर जा रहे थे। दोनों विद्वानों में साहित्यिक विषयों पर गंभीर चर्चायें होती। यात्रा आनन्द के क्षणों में चल रही थी। अचानक समुद्र में भयंकर तूफान आ गया। आकाश में काले-कजरारे बादल छा गये। समुद्र में से उठती हई उत्ताल तरंगें यात्रियों को भयभीत करने लगीं। स्टीमर डगमगाने लगा । चालक ने यात्रियों को सूचना दी कि स्टीमर संकटकालीन स्थिति में गुजर e personal usev@rjainelibrary.org Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षणों का सदुपयोग रहा है। पता नहीं कब क्या हो, केवल ईश्वर या भाग्य ही हमारा रक्षण कर सकता है। - मौलाना ने जब यह सुना तो वे घबरा उठे। सोचा-मेरे मित्र टोयनबी अत्यधिक परेशान होंगे। अतः वे दौड़कर उनके केबिन में पहुँचे। पर वे यह देखकर हैरान हो गये कि टोयनबी आरामकुर्सी पर बैठे हुए मस्ती के साथ ग्रन्थ पढ़ रहे हैं। उनकी मुखमुद्रा पर किसी भी प्रकार के भय की रेखा नहीं है। ___मौलाना ने भयभीत होते हुए कहा-क्या तुम्हें पता नहीं है ? समुद्र में भयंकर तूफान आ रहा है। किस समय हमारा स्टीमर समुद्र में गर्क हो जायगा, यह किसी को पता नहीं है। किन्तु तुम तो पूर्ण रूप से निश्चिन्त बैठे हो। टोयनबी को सारी स्थिति का परिज्ञान था तथापि वे मुस्कराते हुए अपने मित्र को देख रहे थे। उन्होंने कहा- मुझे ज्ञात है खतरे की घण्टी बज चुकी है। मेरा जीवन कुछ ही क्षणों का है। ऐसे बहुमूल्य क्षणों का जितना भी सदुपयोग हो सके कर लेना चाहिए जिससे बाद में विचार न करना पड़े। __ मौलाना के पास इसका कोई उत्तर नहीं था। Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७२ हृदय-परिवर्तन मुहम्मद ने अपना चिन्तन जन-मानस के सामने प्रस्तुत किया। विरोधी तत्त्वों ने चारों ओर यह प्रचार प्रारम्भ किया कि मुहम्मद एक जादूगर है। उसके सम्पर्क में कोई न आये। जो अशिक्षित थे उन्हें लगा कि वस्तुतः मुहम्मद की बात भूल से भी कानों में न गिर जाय इसका हमें सतत ध्यान रखना चाहिए। उन्होंने अपने कानों में रुई ठोस ली जिससे कि उनके शब्द न गिरे। एक धनवान वृद्धा काबा में पहुंची और वह प्रार्थना करने लगी-कि मुहम्मद को नष्ट कर दो। ___उस समय काबा में 'लात', 'हुज्जा ' और 'हुब्बल' ये तीन प्रमुख उपास्य थे। बुढ़िया उन्हीं के सामने अपने हृदय की वेदना प्रस्तुत कर रही थी। उसने : १४० : Jain Education Interpatronate & Personal Uwev@rainelibrary.org Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय-परिवर्तन १४१ नगर में यह उद्घोषणा भी कर दी कि मुहम्मद अब कुछ ही घण्टों का मेहमान है। उस पर बिजली गिरेगी और वह नष्ट हो जायगा। लोगों ने बुढ़िया के कथन को ध्यान से सुना और उन्हें विश्वास हो गया कि बुढ़िया का कथन सत्य है। पर जब बुढ़िया के कथन के अनुसार मुहम्मद पर बिजली न गिरी तो बुढ़िया ने सोचा कि मैं नगर को छोड़कर अन्यत्र चली जाऊँ। वह अपने बहुमूल्य आभूषणों की गठरी को लेकर नगर से चल दी। किन्तु वह गठरी इतनी भारी थी कि वह उठा नहीं पा रही थी। सामने से एक व्यक्ति आता हुआ दिखाई दिया। बुढ़िया ने कहा--- यह गठरी उठाओ और मेरे साथ चल दो। उसने गठरी उठाई और बुढ़िया के साथ चलने लगा। बुढ़िया ने उसे बताया-मैंने नगर को छोड़ा है। अब मक्का में भयंकर युद्ध होगा। क्योंकि एक सिरफिरा व्यक्ति पैदा हुआ है। वह अपने आपको पैगम्बर कहता है। वह बहुत बड़ा जादूगर है। तुम उसके चक्कर में मत आना। बुढ़िया ने जी भरकर मुहम्मद को गालियाँ दीं। वह व्यक्ति शांति से सुनता रहा। बुढ़िया ने कहा-बता, तेरा क्या नाम है ? Jain Education InteFoatponate & Personal Usev@nainelibrary.org Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ गागर में सागर उस व्यक्ति ने मुस्कराते हुए कहा-माँ ! जिसे तुम अपना दुश्मन मान रही हो वही मैं हूँ। मेरा नाम मुहम्मद है। पर तुम बिलकुल चिन्ता न करो। तुम्हें कोई खतरा न होगा। बुढ़िया ठगी-सी उसे देखती रह गई। उसकी हृत्तन्त्री के तार झनझना उठे-ऐसा स्नेह-सौजन्य मूर्ति, दया का देवता जहाँ हो, वह स्थान मैं नहीं छोड़ सकती। और वह पूनः मुहम्मद के साथ ही मक्का लौट आई। मुहम्मद के स्नेह और सद्भावना से उसका हृदय परिवर्तन हो चुका है। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३: न्यायपरायणता हजरत उमर न्याय-नीतिपरायण व्यक्ति थे। वे प्रजा पर शासन करते हुए भी अपने आपको प्रजा का सेवक समझते थे। एक दिन उनके पुत्र ने कहा-पिताजो ! मेरी कमीज बिलकुल ही फट चुकी है। उन्होंने पुत्र की ओर देखते कहा-वत्स ! मैं देख रहा हूँ तुम्हारी कमीज जीर्ण-शोर्ण हो चुकी है, पर इस समय तो मेरे पास कुछ भी नहीं है। अगले माह इसकी व्यवस्था करने का प्रयत्न करूंगा। खलीफा उमर सरकारी खजाने से जीवन निर्वाह के लिए केवल' बीस रुपये लेते थे और उन बीस रुपयों में से भी वे गरीबों को उदारता से दान दिया करते थे। जब वे बीस रुपये लेकर घर की ओर आ रहे थे मार्ग Jain Education Internatronaate & Personal Usavornainelibrary.org Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ गागर में सागर में बहुत से गरीब उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। आवश्यकतानुसार उन्हें देकर जब वे घर पहुंचे तो पुत्र ने पुनः प्रार्थना की—पिताश्री ! अब तो मेरी कमीज बन जायगी न ? उन्होंने अपनी जेब टटोली। पर सब कुछ खर्च हो चुका था। अतः उन्होंने कहा-वत्स ! इस माह नहीं, अगले माह अवश्य बना दूंगा। लड़के की प्रार्थना पर उनका हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने उसी समय खजांची को पत्र लिखा-मेरे अगले माह के वेतन में से दो रुपये काट लेना और इस समय मेहरबानी करके दो रुपये दे देना। खजांची ने उस पत्र को पढ़ा। उसके मन में यह चिन्तन उद्बुद्ध हुआ-इसलाम धर्म के सर्वेसर्वा हजरत उमर ने ऐसा कैसे लिखा ? उसने उस पत्र के पीछे ही कुछ लिख दिया और आने वाले व्यक्ति को दे दिया। - हजरत उमर ने जब पत्र खोलकर देखा तो उसमें लिखा था-मेरे अपराध को क्षमा करें। मैं दो रुपये पेशगी के रूप में नहीं दे सकता। क्योंकि जीवन क्षणभंगुर है। मैं नहीं चाहता कि आप कर्जा ले । मेरी तो यही मंगल कामना है कि आप हजार वर्ष Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायपरायणता १४५ जीवित रहें, किन्तु कल कुछ भी हो गया तो मैं वे दो रुपये किससे वसूल करूँगा और मुझे दृढ़ आत्मविश्वास है कि आप कर्ज लेकर मरना पसन्द न करेंगे। पत्र पढ़ते ही हजरत उमर की आँखें भर आई। और उन्होंने अपने प्यारे पुत्र से कहा-वत्स! इस समय तो नहीं अब अगले महीने पहले तेरी कमीज बनवाऊंगा। एक बार उनका वही प्यारा पुत्र अनीति पर उतारू हो गया। तो न्याय के लिए उन्होंने पुत्र को कठोर दण्ड भी दिया। यह थी उनकी न्यायपरायणता ! Jain Education Internatrineete & Personal Usevwrainelibrary.org Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :७४ पढ़ना और गुनना एक गुरुकुल में दो विद्यार्थी पढ़ते थे। एक था सम्राट का पुत्र और दूसरा था स्वयं आचार्य का पूत्र । चौबीस वर्ष तक गम्भीर अध्ययन के पश्चात् वे राजा के दरबार में उपस्थित हए। आज दोनों की परीक्षा होने वाली थी। राजा स्वयं परीक्षक के रूप में नियुक्त हुआ था। राजा ने अपनी मुट्ठी आगे करते हुए कहा-अपनो ज्योतिष विद्या के आधार से बताओ कि मेरी मुट्ठी में क्या है ? राजपुत्र ने गणितशास्त्र की सहायता से हिसाब लगाकर कहा-राजन् ! आपकी मुट्ठी में श्वेत गोल वस्तु है। वह कठोर भी है और उसके बीच छेद भी है। राजा ने पुनः प्रश्न किया-तुम्हारा कथन ठीक है । पर बताओ, उस वस्तु का नाम क्या है ? :१४६ : Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढ़ना और गुनना १४७ राजकुमार मे चट से उत्तर दिया- चक्की का पाट । राजा ने वही प्रश्न आचार्यपुत्र से भी किया । आचार्यपुत्र ने एक क्षण चिन्तन के पश्चात् कहाराजन् ! आपकी मुट्ठी में चाँदी की अंगूठी है । राजा ने मुट्ठी खोलकर बताया कि उसके हाथ में जैसा आचार्यपुत्र ने कहा है वैसी ही अंगूठी है । सारी सभा विस्मयविमुग्ध हो गयी । राजा ने आचार्य को अपने सन्निकट बुलाकर कहा- मुझे तुम्हारे से यह आशा नहीं थी । तुमने अध्ययन करवाने में पूर्ण पक्षपात किया है । अपने पुत्र को तुमने अच्छे ढंग से पढ़ाया और मेरे पुत्र को उस तरह नहीं पढ़ाया । अत: तुम दण्ड के अधिकारी हो । आचार्य ने कहा -- राजन् ! मैंने दोनों को समान पढ़ाया है । राजपुत्र ने पढ़ा अवश्य है, किन्तु गुना नहीं । उसे इतना भी ध्यान नहीं कि हाथ की मुट्ठी में चक्की का पाट कैसे हो सकता है ? अध्ययन कराना मेरा कार्य था । किन्तु सोचने और समझने का कार्य तो उसका स्वयं का है । यदि स्वयं में विवेक नहीं है तो चाहे कितना भी पढ़ाया जाय, वह विद्या के रहस्य को नहीं समझ सकता । 0 te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७५: ईमानदार राजभक्त हजरत उमर जब खलीफा थे, उन्होंने अपने सभी प्रान्तों के अधिकारियों को यह आदेश दिया कि जिस किसी भी समय कोई भी व्यक्ति आये, उसका कार्य तत्क्षण कर देना चाहिए। अर्धरात्रि के समय एक सज्जन राज्य के एक अधिकारी के पास पहुँचा और उसने कार्य करने के लिए उससे निवेदन किया। राज्य के अधिकारी ने कहा-बहुत रात हो गयी है। अब मैं नहीं मिल सकता। यदि तुम्हें मिलना है तो प्रातः काल आना। उस सज्जन ने हजरत उमर के पास जाकर निवेदन किया कि अमुक अधिकारी ने रात को कार्य करने से इनकार किया है और प्रातःकाल कार्य करने के लिए कहा। हजरत उमर को अत्यधिक खेद हुआ कि उनके :१४८ : Jain Education Intelfpatronate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईमानदार राजभक्त १४६ किया ! अधिकारीगण उनकी आज्ञा की अवहेलना करते हैं। हजरत उमर ने उसी समय उस अधिकारी को अपने पास बुलाया और पूछा-तुमने रात को कार्य क्यों नहीं किया ? __ अधिकारी का सिर नीचे झुक गया। उसने निवेदन किया—शुक्रवार की रात्रि को मैं कार्य नहीं कर पाता। इसलिए मैं विवश हैं। हजरत उमर ने पूछा-क्या विवशता थी ? अधिकारी ने कहा--इस रहस्य को गोपनीय ही रहने दिया जाय । इसी में मेरा हित है। हजरत उमर ने कहा-खलीफा के सामने राज्य के अधिकारियों की कोई भी बात गोपनीय नहीं होनी चाहिए। अधिकारी ने धीरे से निवेदन किया-मैं सात दिन तक अत्यधिक व्यस्त रहता हूँ। केवल शुक्रवार की रात्रि को मुझे कुछ अवकाश मिलता है। मेरे पास कपड़ों की केवल एक जोड़ी है। उसे ही सात दिन तक पहने रहता हूँ। शुक्रवार रात्रि को उसे धोकर सुखाता हूँ। यह बात आज तक किसी को भी ज्ञात नहीं है। ज्ञात होने पर मेरा उपहास करेंगे कि इतने बड़े राज्य के अधिकारी के पास पहनने के लिए कपड़े भी नहीं Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० गागर में सागर हैं। अन्य दिनों में मैं शासन के कार्य में अत्यधिक व्यस्त होने से इबादत भी जैसे चाहिए वैसे नहीं कर पाता। किन्तु शक्रवार की रात्रि को अवकाश के क्षणों में जी भरकर इबादत करता हूँ। यह सुनते ही हजरत उमर की आँखों में से आँसू ढुलक पड़े कि मेरे राज्य में ऐसे ईमानदार और राज्यभक्त व्यक्ति हैं जो कठोर श्रम करके भी इतना पैसा नहीं लेते जिससे उनका तन ढक सके। ____काश ! आज के अधिकारीगण प्रस्तुत घटना से शिक्षा प्राप्त कर सकें तो राम-राज्य आने में किंचित मात्र भी विलम्ब नहीं हो सकता। Jain Education Intefpatronate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७६ : सलाह नहीं, सहयोग नदी में तेज बाढ़ आ रही थी । एक महिला नदी के किनारे खड़ी हुई करुण क्रन्दन करते हुए पुकार रही थी कि मेरा नन्हा सा बच्चा नदी में बह गया है । मेहरबानी कर उसे निकाल दीजिए । महिला के करुण क्रन्दन को सुनकर सैकड़ों व्यक्ति वहाँ एकत्रित हुए । किन्तु उस उफनती हुई नदी में कूदने की किसी की भी हिम्मत नहीं थी । कहीं यह महिला स्वयं नदी में न कूद पड़े, इसलिए कुछ व्यक्तियों ने उसे पकड़ लिया और कितने ही बचाने का उपाय सुझाने लगे। कितने ही उपदेश झाड़ने लगे कि इस प्रकार नदी के किनारे स्नान नहीं करना चाहिए । लोगों की भीड़ ने देखा एक किशोर नदी में से उस बच्चे को लेकर बाहर आ रहा है । लोगों ने : १५१ : te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ गागर में सागर उसकी प्रशंसा करते हुए कहा-तुमने बहुत अच्छा कार्य किया है । बच्चा बेहोश हो गया था, किन्तु वह जिन्दा था। मां बच्चे को लेकर हर्ष से नाच उठी। वह किशोर था जार्ज वाशिंगटन जो बाद में अमेरिका का राष्ट्रपति बन गया। उनका मानना था कि सलाह और उपदेश की आवश्यकता नहीं, कार्य करना चाहिए । दुःखी व्यक्ति के लिए सलाह नहीं, सहयोग चाहिए। Jain Education Interpatronate & Personal Usev@rainelibrary.org Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७७: करुणा एक स्कूल में अनेक विद्यार्थी पढ़ने आया करते थे। विद्यार्थियों के साथ उनकी माताएँ मध्याह्न के समय खाने के लिए एक डिब्बा भी देती थी और जब अल्पाहार की घण्टी बजती तो सभी बच्चे मिल-जुल कर भोजन करते और फिर पढ़ने में लग जाते। विद्यालय के द्वार पर ही एक वृद्धा बैठी रहती थी। वह बच्चों की किलकारियाँ सुनती, उनको खेलते-कूदते देखती तो उसका हृदय नाचने लगता। पर वह भूखी और प्यासो थी। अतः उसको हँसी-खुशी कुछ ही समय में उदासी में परिणत हो जाती। एक दिन बुढ़िया के सामने एक नन्हा-सा मुन्ना आकर खड़ा हो गया। उसने धीरे से पूछा-माँ ! तुम यहाँ बैठी रहती हो, तुम्हें क्या चाहिए ? Jain Education Internationa eftersonal Usev@jainelibrary.org Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ गागर में सागर बुढ़िया चिरकाल से इसी प्रश्न की प्रतीक्षा में थी। ज्योंही उसने प्रश्न सुना, त्योंही उसने कहाबेटा ! मैं बहुत ही भूखी हूँ। कई दिनों से मुझे कुछ भी खाने को नहीं मिला है। भोजन के अभाव में प्राण निकले जा रहे हैं । यदि कोई दया करके दो रोटी दे दे तो कितना अच्छा हो। यह सुनते ही बालक का कोमल हृदय द्रवित हो गया। उसने अपने खाने का डिब्बा खोला, उसमें से दो रोटी और सब्जी जो वह खाने के लिए लाया था, उस बढ़िया को दे दी और बोला-माँ ! रोना नहीं । मैं इसी तरह रोज इसी समय तुम्हारे को रोटियाँ लाकर दूंगा। बुढ़िया ने प्रसन्न होते हुए वे रोटियाँ खा ली और उसे आशीर्वाद दिया। आज दिन में उस बालक ने कुछ भी नहीं खाया तथापि उसके चेहरे पर अपूर्व प्रसन्नता थी। दूसरे दिन बालक ने माँ से कहा-माँ ! बहुत तेज भूख लगती है इसलिए मेरे डिब्बे में प्रतिदिन चार रोटियाँ रखा करो। माँ को आश्चर्य हुआ कि मेरे पुत्र को प्रतिदिन भूखा रहना पड़ता है । प्रतिदिन बालक स्कूल आते ही उस बुढ़िया के पास पहुँचता Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ और उसे दो रोटियाँ और सब्जी दे देता । यही उसका प्रतिदिन का क्रम था । करुणा एक दिन प्रातः जब वह अपने स्कूल पहुँचा तो उसने देखा कि वह बुढ़िया वहाँ नहीं है । उसने आसपास तलाश की तो पता चला कि बुढ़िया रात को ही परलोक पहुँच गई है । वह उदास मन शाम को घर लौटा। दो-तीन दिन के बाद बालक की माँ ने उसकी पुस्तक को अलमारी में चींटियाँ जाती हुईं देखीं । उसने पुस्तकें हटाकर सफाई की। उसने देखा पुस्तकों के साथ चार रोटियाँ भी पड़ी हुई हैं। माँ को रोटियाँ देखकर बहुत ही आश्चर्य हुआ । जब बालक स्कूल से लौटा तो माँ ने उससे पूछा कि अलमारी में रोटी कैसे रखी थीं ? प्रश्न सुनते ही बालक फफक-फफक कर रो पड़ा । उसने कहा - इस तरह बुढ़िया का निधन हो गया है । मेरे पुत्र 1 माँ को यह जानकर हार्दिक आह्लाद हुआ कि के मन में करुणा का सागर लहरा रहा उसने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा - पुत्र ! तेरा यह सद्गुण विकसित हो । उस बालक का नाम था सुभाषचन्द्र बोस । वही आगे चलकर नेताजी के नाम से विख्यात हुआ । C te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :७८: अनूठा उपाय महामना मदन मोहन मालवीय बड़े ही प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे। वे गम्भीर से गम्भीर समस्याओं को सहज ही सुलझा देते थे। उनके एक मित्र थे जिनके पास करोड़ों की सम्पत्ति थी। किन्तु कुछ साथियों के धोखा देने के कारण उस श्रेष्ठी को अत्यधिक घाटा लगा। स्थिति यहाँ तक हो गई कि दीवाला निकालने के अतिरिक्त कोई उपाय ही नहीं था और दूसरा उपाय यह था कि बाजार में से ब्याज पर भारी रकम लेकर व्यापार में फिर से लगाई जाय जिससे कि व्यापार का घाटा समाप्त होकर पुन: दुगुने वेग से व्यापार चमक उठे। पर जिसका दीवाला निकलने वाला होता है उसे ब्याज पर कोई रकम नहीं देता। श्रेष्ठी उपाय Jain Education InteFoatronate & Personal Usev@ņainelibrary.org Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनूठा उपाय १५७ सोचता रहा । उसे लगा कि मदन मोहन मालवीय जी के पास पहुँचने पर कोई श्रेष्ठ उपाय निकल आएगा। वह मालवीय जी के पास पहुँचा। उन्हें नमस्कार कर अपनी सारी स्थिति से अवगत कराया और पूछाऐसा उपाय बताइये जिससे मेरी स्थिति सुधर सके और बाजार में मेरी इज्जत बनी रह सके। मालवीयजी कुछ क्षणों तक सोचते रहे फिर बोले-मित्रवर! उपाय ही बहत सुन्दर है, पर मुझे लगता है तुम्हें पसन्द नहीं आएगा । श्रेष्ठी की आतुरता बढ़ गई। उसने कहा यदि है तो बताने का अनुग्रह करें। ___ मालवीयजी ने मधुर मुसकान बिखरते हुए कहा-आप ऐसा करें, काशी विश्वविद्यालय को सिर्फ पाँच लाख रुपये दान दे दीजिए। श्रेष्ठी ने उपाय सुनकर अपनी घबराहट रोकते हुए कहा-यह कैसा विचित्र उपाय है ? रुपयों की तो यहाँ पहले से ही कमी चल रही है। फिर ऐसी स्थिति में पाँच लाख रुपये किस प्रकार निकाल सकता हूँ। मालवीयजी ने दृढ़ता से कहा-जहाँ कहीं से भी निकालिए । श्रेष्ठी ने चुटकी लेते हुए कहा-विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों से जो दुआएं निकलेंगी उससे Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ गागर में सागर मरा व्यापार चमक उठेगा ? क्या यही आपका तात्पर्य है ? मालवीय जी ने कहा-आज नहीं, इसका रहस्य तुम्हें एक-दो दिन के पश्चात् ज्ञात होगा। मालवीय जी की बात को टालना सेठ के लिए असंभव था। उसने अपना दिल कठोर कर पांच लाख का चेक काशी विश्वविद्यालय को भेज दिया। दूसरे दिन सभी समाचार-पत्रों में बड़े-बड़े अक्षरों में पांच लाख के दान की सूचनाएँ छपी। जब लोगों ने यह सूचना पढ़ी तो लोग सोचने लगे कि जो सेठ इस प्रकार सहजरूप से पाँच लाख का दान कर सकता है, उसका व्यापार डावाँडोल होने का प्रश्न हो नहीं। दीवाला निकालने की और घाटा होने की बात तो पूर्ण मिथ्या है। बाजार में श्रेष्ठी की अच्छी धाक जम गई। करोड़ों रुपये ब्याज से उसको आसानी से मिल गये और अपनी विलक्षण प्रतिभा से सेठ ने 'घाटा तो पूरा किया ही साथ ही इतना कमा लिया कि सारा कर्ज पुन: लौटा दिया। उस समय उसको मालूम हुआ कि महामना मदन मोहन मालवीय का उपाय कितना अनूठा और सुन्दर था। Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चा स्नेह स्वामी दर्शनानन्द जी और श्रद्धानन्द जी दोनों ही आर्य समाज के जाने-माने हुए प्रबुद्ध विचारक, चिन्तक और प्रकाण्ड पण्डित थे। दोनों में अत्यन्त स्नेह सम्बन्ध था। वे समय समय पर मिलते और गहरी दार्शनिक, धार्मिक तथा शास्त्रीय चर्चाएं करते। एक दिन दोनों चर्चा कर रहे थे। किसी प्रसंग को लेकर वाद-विवाद ने बहुत ही उग्र रूप धारण कर लिया। दर्शनानन्द जी उत्तेजित हो गए और उन्होंने श्रद्धानन्द जी को ऐसी कड़वी बातें सुनाई जिससे वातावरण तनावपूर्ण हो गया और उसी तनावपूर्ण वातावरण में गोष्ठी सम्पन्न हो गई। दोनों विद्वान् अपने-अपने स्थान पर चले गए। अपने स्थान पर लौटने के पश्चात् जब दर्शनानन्द जी का क्रोध शान्त हुआ तो उन्हें अनुभव हुआ : १५६ : Jain Education InteFoatponate & Personal Usev@ņainelibrary.org Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० गागर में सागर कि मैंने बहुत बड़ी गलती की। उनका मन ग्लानि से भर गया कि मैंने बहुत अनुचित किया। मैंने बहुत ही हलके शब्द उन्हें कहे । उन्होंने उसी समय श्रद्धानन्दजी को एक पत्र लिखा और अपनी भूल के लिए उनसे क्षमा-प्रार्थना की। श्रद्धानन्द जी ने पत्र पढ़कर उत्तर में एक श्लोक लिखकर भेज दिया अस्मानवेहि कलमानलमाहतानां, येषां प्रकाण्डमुशलरवदाततैव । स्नेहं विमुच्य सहसा खलतां ब्रजन्ति, ये स्वल्पमर्दनवशान्न वयं तिलास्ते ॥ जिसका तात्पर्य था कि-आपने मुझे तिल समझ लिया जो किंचित् मात्र मल' जाने पर अपने स्नेह का परित्याग कर खल बन जाता है। आप अपने विचार को बदलें । मैं उन शाली-चावलों की तरह हूँ जो भारी भरकम मूसलों से कूटने-पीटने पर और भी अधिक उज्ज्वल होते हैं। आपने जो भी कहा या किया उसका मेरे अन्तर्मानस पर कोई प्रभाव नहीं है। वहाँ तो अब भी वही स्नेह की सरिता प्रवाहित हो रही है।" Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :८० : अहंकार और प्रदर्शन - हाजी मुहम्मद एक ख्यातिप्राप्त मुसलमान सन्त थे । उन्होंने अपने जीवन में साठ बार हज किया था और प्रतिदिन पाँच बार नमाज़ पढ़ते थे। ___ एक दिन उन्हें स्वप्न आया कि एक फरिश्ता स्वर्ग और नरक के बीच में खड़ा है और लोगों को उनके कर्म के अनुसार स्वर्ग और नरक की ओर भेज रहा है। उसने हाजी से प्रश्न किया, क्या तुमने अपने जीवन में शुभ कर्म किये हैं ? __ हाजी ने अपनी छाती फुलाते हुए कहा-क्यों नहीं, मैंने साठ बार हज किया है ? फरिश्ते ने कहा-तुम्हारा कथन सत्य है, पर जब भी तुम्हें कोई भी पूछता तब तुम अभिमान के साथ इस बात को दुहराते थे कि मुझे नहीं जानते, मैं १६१: Jain Education Interpatronate & Personal Usev@jainelibrary.org Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ गागर में सागर हाजी मुहम्मद हूँ । अभिमान करने से तुम्हारा सारा पुण्य नष्ट हो गया है । मुहम्मद ने कहा- कोई बात नहीं, मैं साठ वर्ष तक प्रतिदिन दिन में पाँच बार नमाज पढ़ता रहा हूँ । फरिश्ते ने कहा- तुम्हारी यह बात भी सत्य है, पर तुम्हें स्मरण है न ! एक दिन बाहर से धर्मप्रेमी व्यक्ति आये थे । उनके सामने अपने आपको धर्मो सिद्ध करने के लिए अन्य दिनों की अपेक्षा उस दिन तुमने अधिक समय तक नमाज पढ़ी थी जिससे तुम्हारा वह पुण्य भी नष्ट हो गया । हाजी घबरा उठे, उनकी आँखें भर आईं। उनकी नींद खुल गई। उन्होंने उसी समय प्रतिज्ञा ग्रहण की कि अब कभी भी मैं अहंकार और प्रदर्शन न करूंगा । ☐ te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :८१: सफलता का मूल्यांकन तथागत बुद्ध वैशाली के उद्यान में प्रवचन कर रहे थे। एक श्रद्धालु भक्त ने उनसे प्रश्न किया-भगवन् ! आपके पावन-प्रवचनों पर बहुत ही कम लोग अमल करते हैं तथापि आप निराश क्यों नहीं होते ? बुद्ध ने मधुर मुस्कान बिखेरते हुए कहा-वत्स ! मेरा कर्तव्य है सन्मार्ग की प्रेरणा देना; किन्तु सफलता का मूल्यांकन करना मेरा काम नहीं है। जो सच्चा सुधारक है वह सफलता की कामना नहीं करता, वह तो अपना कर्तव्य निभाता है। :१६३: Jain Education Interinatroinedte & Personal Usevwranelibrary.org Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ te & Personal Usev@rjainelibrary.org Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा साहित्य की अनमोल पुस्तक * जैन कथाएँ [भाग 1 से 53] तैयार 3)=156) [भाग 54 से 100 तक संपादन-प्रकाशनाधीन * बिन्दु में सिन्धु 2) * अतीत के उज्ज्वल चरित्र 2) *प्रतिध्वनि३)५० % बोलते चित्र 1)50 * फूल और पराग१)५० * महकते फूल 2) * अमिट रेखाएँ 2) * मेघकुमार 2)50 * मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार 5) * सोना और सुगन्ध 2) * सत्य-शील की अमर साधिकाएँ 12) * शूली और सिंहासन 2) * खिलती कलियां : मुस्कराते फूल 3)50 * भगवान महावीर की प्रतिनिधि कथाएँ 12) शीघ्र ही प्रकाशमान * पंचामृत 3) जीवन की चमकती प्रभा 3) * धरती के फूल 3) * चमकते सितारे 3) * गागर में सागर 3) * अतीत के चलचित्र 3) * बोलती तस्वीरें 3)* कुछ मोती : कुछ हीरे 3) ये लघु कथाएँ प्रेरक, बोधप्रद और अत्यन्त रोचक हैं। सम्पर्क करें: श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थाल शास्त्री सर्कल उदयपुर (राज.) आवरण पृष्ठ के मुद्रक 'शल प्रिन्टर्स भास्थान, आगरा-३