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साधक और सेवक
श्रावस्ती के पास ही अचिरवती नदी कल-कल छल-छल बह रही थी। प्रकृति की उस सूरम्य गोद में एक आश्रम था, उसमें पांच सौ साधक थे जो सदैव प्रशान्त व ध्यान में तल्लीन रहते थे। उन साधकों की सेवा के लिए पांच सौ सेवक थे, जो इतना कोलाहल करते थे कि सुनने वाले परेशान हो जाते थे।
किसी जिज्ञासु ने तथागत बुद्ध से इस वैषम्य का कारण पूछा तो बुद्ध ने एक उदाहरण देते हुए कहा
वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त विजय-वैजयन्ती फहराकर जब वाराणसी पुनः लौटे तो उन्होंने अपने अनुचरों को आदेश दिया कि वे सैन्धव अश्वों को पर्याप्त मात्रा में अंगूर का रस पिलाएं। अनुचरों ने उसी क्षण अंगूर का रस उन्हें पिलाया किन्तु वे घोड़े किञ्चित् मात्र भी उन्मत नहीं हुए। उस रस में से
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