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___ आचार्य रामानुज एक बार मन्दिर की परिक्रमा कर रहे थे। एक चाण्डाल स्त्री उनके सामने आ गई। चाण्डाल स्त्री को देखते ही आचार्य जी के पैर वहीं ठिठक गये। परिक्रमा करते हुए जो पाठ वे कर रहे थे उसे विस्मृत होकर उनके मुंह से अपशब्द निकल पड़े। दूर हट चाण्डालिन ! मेरे मार्ग को अपवित्र न कर ।
चाण्डालिन वहीं पर खड़ी हो गई। वह अपने वचनों में मिश्री घोलते हुए बोली-भगवन् ! कृपा कर बताइए, मैं अपनी अपवित्रता किधर ले जाऊं? . उसकी विनम्रता ने रामानुज के विवेक की आँख खोल दी। रामानुज उससे क्षमा मांगते हुए बोलेमां! तुम वस्तुतः परम पावन हो । मेरे में रहे हुए क्रोध चाण्डाल ने ही तुम्हारा भयंकर अपराध किया है, तुम मझे क्षमा करो। Jain Education Internationalte & Personal Ubav@jainelibrary.o123