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गागर में सागर
कि मैंने बहुत बड़ी गलती की। उनका मन ग्लानि से भर गया कि मैंने बहुत अनुचित किया। मैंने बहुत ही हलके शब्द उन्हें कहे । उन्होंने उसी समय श्रद्धानन्दजी को एक पत्र लिखा और अपनी भूल के लिए उनसे क्षमा-प्रार्थना की।
श्रद्धानन्द जी ने पत्र पढ़कर उत्तर में एक श्लोक लिखकर भेज दिया
अस्मानवेहि कलमानलमाहतानां, येषां प्रकाण्डमुशलरवदाततैव । स्नेहं विमुच्य सहसा खलतां ब्रजन्ति,
ये स्वल्पमर्दनवशान्न वयं तिलास्ते ॥ जिसका तात्पर्य था कि-आपने मुझे तिल समझ लिया जो किंचित् मात्र मल' जाने पर अपने स्नेह का परित्याग कर खल बन जाता है। आप अपने विचार को बदलें । मैं उन शाली-चावलों की तरह हूँ जो भारी भरकम मूसलों से कूटने-पीटने पर और भी अधिक उज्ज्वल होते हैं। आपने जो भी कहा या किया उसका मेरे अन्तर्मानस पर कोई प्रभाव नहीं है। वहाँ तो अब भी वही स्नेह की सरिता प्रवाहित हो रही है।"
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