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सत्य नहीं, झूठ
कबीरदास बहुत बड़े फक्कड़ सन्त थे और सत्यवादी थे । वे पगड़ियाँ बुनते थे। उन्होंने परिश्रम कर एक पगड़ी बनायी । उसका पारिश्रमिक और सारा व्यय मिलाने पर वह छः रुपयों में बेची जा सकती थी । कबीरदास उसे लेकर बाजार में खड़े हो गये । लोग कबीरदास के हाथ में पगड़ी को देखकर उसका दाम पूछते, और वे उसकी कीमत छ ः रुपये बताते । लोग कहते यह तो चार रुपये की है । तथापि आप कहते हैं तो पांच रुपये दे सकते हैं अन्त में कबीरदास निराश होकर पगड़ी को बिना बेचे ही घर लौट आये ।
उनके निराश और उदास चेहरे को देखकर उनकी पुत्री ने पूछा- आप उदास क्यों हैं ?
उन्होंने कहा- मैंने इसका वास्तविक मूल्य
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