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________________ २४ गागर में सागर चरक ने प्रतिवाद करते हुए कहा-वत्स! खेत के मालिक की आज्ञा के बिना फूल तोड़कर लेना चोरी है। पर गुरुदेव ! आपको तो राजाज्ञा प्राप्त है, आप कहीं से भी, कोई भी वनस्पति ले सकते हैं। चरक-वत्स ! तुम्हारा कहना सही है । नैतिक आचरण और राजाज्ञा ये दोनों पृथक-पृथक हैं। यदि यह फूल में ले लूंगा तो मुझे राजा के द्वारा दण्ड नहीं मिलेगा किन्तु नैतिक दृष्टि से तो पाप लगेगा ही। राजाज्ञा से भी अधिक महत्त्व नैतिक आचरण का है। सोमशर्मा के पास इसका कोई उत्तर नहीं था। वह दूर ही नहीं, बहुत दूर खेत के स्वामी के घर पहुँचा और उसकी अनुमति प्राप्त कर पुष्प तोड़कर राजवैद्य चरक को समर्पित किया। चरक के इस आचरण का यह प्रभाव पड़ा कि बाद में उनके किसी भी शिष्य ने बिना अनुमति के कोई भी चीज लेना उचित नहीं समझा। Jain Education Internatiroinedte & Personal Usevwrajnelibrary.org
SR No.003194
Book TitleGagar me Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1979
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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