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________________ गागर में सागर ग्रन्थ पूर्ण किये। दोनों ने परस्पर ग्रन्थ देखने को लिये । निमाई के ग्रन्थ का भाषा लालित्य, विषय की गहराई और शैली के माधुर्य को देखकर रघुनाथ का चेहरा मुरझा गया। उसने कहा-मित्र निमाई ! तुम्हारा ग्रन्थ तो बेजोड़ है, तुम्हारे ग्रन्थ के सामने मेरा ग्रन्थ तो इस प्रकार प्रतीत होता है कि देवाङ्गना के सामने कोई कुरूपा खड़ी हो। उसकी सुनहरी आशा के हवाई महल ढह गये। निमाई ने मित्र के चेहरे को देखा। उसकी भाव भंगिमा से उसके अन्तर्मानस के विचार जाने। उसने मित्र से कहा- रघुनाथ ! चलो जरा नौका विहार कर आवें। दोनों नौका में बैठकर नदी के मध्य में पहुंचे। निमाई ने अत्यन्त परिश्रम से लिखे हए अपने ग्रन्थ को पानी की धार में बहाते हुए कहा--जो ग्रन्थ मित्र की कीति में बाधक हो वह ग्रन्थ किस काम का! रघुनाथ चिल्लाया-निमाई ! यह क्या पागलपन कर रहे हो, जिस ग्रन्थ के कारण तुम विश्व-विश्रुत नयायिक हो सकते थे, जिसे लिखने के लिए कितना श्रम किया उसे इस प्रकार बहा दिया। निमाई ने स्नेह से अपने मित्र रघुनाथ को अपनी बाहों में कसते हुए कहा-मित्र की प्रसन्नता बड़ी है । Jain Education InteFoatinate & Personal usev@ņainelibrary.org
SR No.003194
Book TitleGagar me Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1979
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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