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तृष्णा
महारानी पिंगला के दुश्चरित्र से महाराजा भर्तृहरि के मन में संसार असार प्रतीत हुआ और वे संन्यासी बनकर देश-विदेश में परिभ्रमण करने लगे।
एक दिन वे अपनी राजधानी में आए। रात्रि का समय था। चाँदनी छिटक रही थी। सभी लोग गहरी निद्रा में सोये हुए थे। भर्तृहरि संन्यासी के वेष में अपनी प्रजा के सुख-दुःख को जानने के हेतु घूम रहे थे। चाँदनी में सड़क पर एक लाल रंग की बूंद दिखाई दी जो चन्द्रमा के प्रकाश से चमक रही थी। भर्तृहरि ने सोचा यह माणिक्य है। किसी के हाथ से गिर गया है। मैं इसे किसी योग्य पात्र को दे दूंगा। अतः उसे उठाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया। हाथ लाल हो गया। वह माणिक्य नहीं किन्तु पान की पीक थी।
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