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अद्वैत का रहस्य
आचार्य शंकर अपने प्रियशिष्यों के साथ वाराणसी की एक संकरी गली में से जा रहे थे । सामने से ही एक हरिजन आता हुआ दिखाई दिया । दूर से ही शंकराचार्य ने उसे चेतावनी देते हुए कहा - अरे शूद्र ! मार्ग में से दूर हट जा, नहीं तो तेरा स्पर्श या तेरी छाया हो मुझे अपवित्र बना देगी ।
कदम आगे बढ़ाते सुना है कि आप
उस हरिजन ने तेजी से अपने हुए और मुस्कराते हुए कहा- मैंने प्राणी मात्र में परमात्मा की दिव्य छाया देखते हैं । क्या आपका अद्वैतवाद शब्दों का मायाजाल ही है. या वास्तविक है ? आप मेरे से घृणा क्यों कर रहे हैं ?
आचार्य शंकर को अपनी भूल ज्ञात हुई, हरिजन का अभिवादन करते हुए बोले- तू तो मेरा सच्चा गुरु है । आज तूने मुझे अद्वैत का सच्चा रहस्य बताया है ।
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