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प्रशंसा : पतन का मार्ग है
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शीबलि नाम के एक सुशील सन्त थे। उनका जीवन सद्गुणों का आगार था जिसके कारण वे जनजन के पूज्य हो चुके थे। लोग उनकी प्रशंसा करते हुए अघाते नहीं थे। एक बार वे अपने सद्गुरुदेव के दर्शन हेतु उनके आश्रम में पहुँचे। सत्संग चल रहा था। सैकड़ों व्यक्ति बैठे हुए थे। उन्होंने ज्योंही शीबलि को देखा-जयजयकार कर उठे। 'धन्य भाग्य है आज हमारा जो आप जैसे सन्त श्रेष्ठ के दर्शन हुए।' दूसरे ने कहा-'आप इन्सान नहीं साक्षात् भगवान हैं।' शीबलि मौन थे। ज्योंही शीबलि ने गुरु के चरणों में अपना सिर नमाया, त्योंही सद्गुरु ने उच्च स्वर से कहा-इस शीबलि को शीघ्र ही यहाँ से निकाल दो। मैं इसका मुंह देखना नहीं चाहता। यह महान दुराचारी है।
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