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________________ प्रशंसा : पतन का मार्ग है ६७ शीबलि ने सुना, और धीरे से वे आश्रम से बाहर निकल गये । उनके चेहरे पर वही मधुर मुस्कान अठखेलियाँ कर रही थी जो प्रशंसा के समय थी । सारे सत्संगी आश्चर्यचकित हो गये । वे मन ही मन कहने लगे - लगता है गुरुजी का मन ईर्ष्या की आग से जल रहा है । अपने सद्गुणी शिष्य के यश को वे सहन नहीं कर सके, इसलिए सभा के सामने उसका भयंकर अपमान किया है । एक भावुक भक्त ने दुःख से जिज्ञासा प्रस्तुत की, कि गुरुदेव शीबलि ने कौन सा ऐसा अपराध किया जिसके कारण आप इतने रुष्ट हो गये । ऐसा सद्गुणी शिष्य कहाँ मिलने का है । गुरु की धीर-गंभीर वाणी झंकृत हो उठीअपराध शीबलि का नहीं किन्तु तुम्हारा था । तुम उसे पतन के महागर्त में गिरा रहे थे । तुम्हारे में इतनी भी बुद्धि नहीं कि किसी भी व्यक्ति की मुँह पर प्रशंसा नहीं करनी चाहिए । स्व-प्रशंसा सुनकर व्यक्ति को अहंकार का काला नाग इस देता है और वह जहर उसके सद्गुणों का विनाश कर देता है । उसे जहर न चढ़े, इसीलिए सभी के सामने मैंने उसका अपमान किया, किन्तु तुम उस रहस्य को समझ न सके । वह मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारा है । मैं उसकी निर्मल यशचन्द्रिका को बढ़ते हुए देखना चाहता हूँ । D Jain Education Internationalte & Personal Usev@rjainelibrary.org
SR No.003194
Book TitleGagar me Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1979
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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