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वाचना-प्रमुख आचार्य तुलसी
प्रधान-संपादक युवाचार्य महाप्रज्ञ
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एकार्थक कोश (समानार्थक कोश)
वाचना-प्रमुख प्राचार्य तुलसी
प्रधान-संपादक युवाचार्य महाप्रज्ञ
संपादक समणी कुसुमप्रज्ञा
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एकार्थक कोश
कोशश्चैव महीपानां कोशश्च विदुषामपि । उपयोगो महानेष क्लेशस्तेन विना भवेत् ॥
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शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानं, कोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद् विवृतेर्वदन्ति, सान्निध्यतः सिद्धपवस्य वृद्धाः॥
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समणी कुसुमप्रज्ञा
जैन विश्व भारती प्रकाशन
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प्रकाशक: जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान)
आर्थिक सौजन्य : रामपुरिया चेरिटेबल ट्रस्ट
कलकत्ता
प्रबन्ध-सम्पादक : भीचन्द रामपुरिया निदेशक : आगम और साहित्य प्रकाशन (जैन विश्व भारती)
प्रथम संस्करण : १९८४
पृष्ठांक : ४४०
मूल्य : १ 70-00
मुद्रक : मित्र परिषद् कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से स्थापित जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं (राजस्थान)
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EKĀRTHAKA KOŚA
( A Dictionary of Synonyms )
Vācanā Pramukha ĀCĀRYA TULSI
Chief Editor YUVĀCĀRYA MAHĀPRAJNA
Editor Samaņi Kusumprajñā
JAINA VISHVA BHARATI LADNUN (RAJASTHAN)
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Managing Editor : Shreechand Rampuria Director : Agama and Sahitya Prakashan Jain Vishva Bharati
By munificence : Rampuria Charitable Trust Calcutta
First Edition : 1984
Pages : 440
Price : 170-00
Printers : Jain Vishva Bharati Press Ladnun (Rajasthan)
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स्वकथ्य
प्रस्तुत ग्रन्थ आगम कल्पवृक्ष की एक उपशाखा है । जैसे-जैसे समय बीता, वैसे-वैसे आगमवृक्ष का विस्तार होता गया। आगम शब्दकोश की कल्पना आगम संपादन कार्य के साथ-साथ हुई थी, किन्तु उसकी क्रियान्विति उसके पचीस वर्षों के बाद हुई। इस कार्य के लिए हमने शताधिक ग्रन्थों का चयन किया और वह कार्य प्रारम्भ हो गया। इस विशाल कार्य में निरुक्त, एकार्थक शब्द, देशी शब्द आदि का पृथक् वर्गीकरण किया गया। इस आधार पर उस महान् कोश में से प्रस्तुत कोश का अवतरण हो गया। इस अवतरण कार्य में अनेक साध्वियों, समणियों और मुमुक्षु बहिनों ने अपना योग दिया है। इसे कोश का रूप दिया है समणी कुसुमप्रज्ञा ने । मुनि दुलहराज की श्रम-संयोजना और कल्पना ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह एक सुखद संयोग है कि आगम शब्दकोश तथा उसकी शाखा-विस्तार का सारा कार्य महिला जाति के द्वारा संपन्न हुआ है।
वैदिक और बौद्ध साहित्य में निरुक्त अथवा एकार्थक शब्दों पर कार्य हुआ है, किन्तु जैन आगम साहित्य पर इस प्रकार का कार्य नहीं हुआ था। समीक्षात्मक और तुलनात्मक दृष्टि से इसमें कार्य करने का पर्याप्त अवकाश है, फिर भी प्रारंभिक स्तर पर जिस सामग्री का संकलन हुआ है वह कम मूल्यवान् नहीं है।
जिन-जिन व्यक्तियों ने इस कार्य में अपना योग दिया है, उन्हें साधुवाद और उनके लिए मंगल भावना है कि उनकी कार्य-क्षमता उत्तरोत्तर बढ़े और समग्र आगम शब्दकोश की संपन्नता में उनका कर्तृत्व और अधिक निखार पाए। लाडनूं
-आचार्य तुलसी १५-१-८४
.--युवाचार्य महाप्रज्ञ
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पुरोवचन
एकार्थक शब्दों को संग्रह सर्वप्रथम हम यास्क रचित निघण्टुकोश में पाते हैं । इसमें शब्दों का संकलन सुनियोजित रूप में किया गया है । प्रथम अध्याय में पृथ्वी, अन्तरिक्ष, मेघ, नदी आदि वस्तुओं के एवं उनसे सम्बद्ध क्रियाओं के वाचक ४१५ पर्यायवाची शब्द संकलित हैं । द्वितीय अध्याय में मनुष्य एवं उसके अंगों आदि से सम्बद्ध ५१६ पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं। तीसरे अध्याय में ४१० पर्यायवाची शब्दों का संग्रह है। इस प्रकार उत्तरवर्ती अध्यायों में भी एकार्थक शब्द संकलित हैं। पर्यायवाची शब्दों के एक समूह में से केवल एक-आध शब्द की ही व्याख्या यास्क ने की है। उदाहरणार्थ-गत्यर्थक १२२ शब्दों में से किसी भी शब्द द्वारा वाच्य गति विशेष का निरूपण नहीं किया गया है । केवल इतना ही कह दिया है कि १२२ धातुएं गत्यर्थक हैं । इस पर टिप्पणी करते हुए एक वृत्तिकार ने कहा है-"अत्र पुनर्यद्यपि गतिकर्मणां द्वाविंशतिशतसंख्यानाम अविशिष्टं गमनमेकोऽर्थ उक्तः, तथापि प्रसिद्धयनुरोधाय कसति, लोठते, श्चोतते इत्येवमादयः प्रतिनियत-सत्व-गमनविषया एव द्रष्ट व्याः.....।" तात्पर्य यह है कि एकार्थक शब्द एक ही विषय की विभिन्न अवस्थाओं को स्पष्ट करते हैं। ऐसा भी देखा जाता है कि एक ही वर्ण के वाचक भिन्न-भिन्न शब्द भिन्न-भिन्न विषयों के लिये प्रयुक्त हुए हैं। उदाहरणार्थ--गौर्लोहितः, अश्वः शोणः । गौः कृष्णः, अश्वो हेमः । गौः श्वेतः, अश्वः कर्कः। __ आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने आवश्यक के पर्याय नामों के विषय में कहा है कि वे अभिन्नार्थक, सुप्रशस्त, यथार्थनियत, अव्यामोहनिमित्त एवं नानादेशीय शिष्यों को अनायास प्रतिपत्ति कराने वाले हैं। एकार्थक शब्द अपने प्रतिपाद्य विषय को सुव्यवस्थित रूप से निर्धारित करते हैं। एकार्थवाची शब्दों द्वारा विद्यार्थी को बहुश्रुत बनाया जाता है एवं प्रतिपाद्य विषय के विभिन्न अंगों का प्रतिपादन भी व्यवस्थित रूप से किया जाता है । "एकाथंक" शब्द का अभिप्राय वस्तुतः "समानार्थक" से है। किसी भी विषय के विभिन्न पहलुओं के स्वरूप समानार्थक अनेक शब्दों द्वारा सरलता से सम
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(१०) झाये जा सकते है । एक ही विषय के लिये विभिन्न देशों में विभिन्न शब्द प्रयुक्त होते हैं । एकार्थक कोश में उन सब शब्दों का संकलन किया जाता है। अतः विभिन्न देशों के शिष्य आनी अपनी बोली में उस विषय को स्पष्ट रूप से ऐसे कोश के माध्यम से समझ लेते हैं।
बृहत्कल्पभाष्य में एकार्थक कोश के गुण बन्धानुलोमता आदि बताये हैं । लेखक का एकार्थक सम्बन्धी ज्ञान जितना समृद्ध होगा, उसका रचनाकौशल भी उतना ही गम्भीर होगा, सौष्ठवपूर्ण होगा । “वचोविन्यासवैचित्र्य' भी इस ज्ञान का एक फलित है।
प्राचीन काल में पर्यायवाची शब्दों द्वारा ही किसी पदार्थ के विभेद, गणना, लक्षण, निरूपण और परीक्षण किये जाते थे । उदाहरणार्थ, 'आभिणिबोहिय' शब्द के पर्यायवाची ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, स्मृति, मति, प्रज्ञा आदि शब्दों के आधार पर आभिनिबोधिक ज्ञान के विभाग, लक्षण एवं अन्य विशेष विवरण हमें सहज ही उपलब्ध हो जाते है। आभिनिबोधिक या मतिज्ञान के इन विभिन्न पर्यायों के आधार पर ही जैन तार्किकों ने प्रमाणशास्त्र का निर्माण किया है । परवर्ती समय में रचित पारिभाषिक ग्रन्थ इन पर्यायवाची शब्दों के ही परिष्कृत रूप हैं।
एकार्थवाची शब्दों के आधार पर हम किसी विषय का सर्वांगीण ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। उदाहरणार्थ, अहिंसा शब्द के अन्तर्गत आए हुए ६० शब्दों के माध्यम से अहिंसा-साधना के मूलभूत उपाय, अहिंसा का स्वरूप तथा उसकी फलनिष्पत्ति को हम सूक्ष्म रूप से हृदयंगम कर सकते हैं। शील, संवर, गुप्ति, क्षांति, यतना, अप्रमाद आदि शब्द अहिंसा-साधना के उपायों के द्योतक हैं । दया, कान्ति, विरति, कल्याण, नन्दा, भद्रा, विभूति आदि शब्द उसके स्वरूप के वाचक हैं । निर्वाण, बोधि, समाधि, सिद्धावास, निर्वति आदि शब्द अहिंसा की फलनिष्पत्ति के वाचक हैं।
प्रस्तुत एकार्थक शब्दकोष के अवलोकन से जैन दर्शन सम्बन्धी कई बातें स्पष्ट रूप से हमारे सामने उभर आती हैं, जो उसकी विशेषताओं का स्पष्ट निर्देश करती हैं । उदाहरणार्थ, "मोहणिज्जकम्म" के पर्यायों को लीजिये । इन पर्यायों में मात्र चारित्र मोहनीय के अंगों का निर्देश है। दर्शन मोहनीय कर्म का उल्लेख बिल्कुल नहीं हुआ है । इसके विपरीत पाली ग्रन्थों में जब मोह शब्द के पर्यायों को देखते हैं तो मात्र अज्ञान या अविद्या से सम्बन्धित
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( ११ )
- शब्दों को ही पाते हैं, चारित्र मोहनीय से सम्बंधित किसी शब्द का समावेश वहां नहीं । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि के ३० से भी अधिक पर्याय धम्मसंगणि जैसे बौद्ध ग्रंथ में उपलब्ध होते हैं जबकि आवश्यक निर्युक्ति में सम्यक्त्व - सामायिक के मात्र ये ७ पर्याय निर्दिष्ट हैं- सम्यग्दृष्टि, अमोह, शोधि, सद्भावदर्शन, बोधि, अविपर्यय एवं सुदृष्टि । ऐसा प्रतीत होता है कि जैनाचार्यों ने सम्यग्दर्शन के आध्यात्मिक पहलुओं पर उतना अधिक ध्यान नहीं दिया जितना कि बौद्ध चिन्तकों ने । जैन कर्मग्रंथों में सम्यग्दर्शन के संबंध में अनेक गम्भीर चिन्तन उपलब्ध हैं । परन्तु उसके बौद्धिक पक्ष पर अपेक्षित प्रकाश नहीं डाला गया है। इसके विपरीत बौद्ध दार्शनिकों ने सम्यग्दर्शन पर विशेष प्रकाश इसलिए डाला कि चारित्र मोहनीय के निराकरण की आधारशिला सम्यग्दर्शन ही है । बौद्धों ने संवर को विशेष महत्व दिया परन्तु तपस्या को आध्यात्मिक साधना का अनिवार्य अंग स्वीकार नहीं किया, जैसा कि जैन परम्परा में किया गया है । यही कारण है कि चारित्र मोहनीय के पर्याय शब्द बौद्ध साहित्य में एक स्थान पर संकलित नहीं किये गये, यद्यपि राग, द्व ेष, मान आदि शब्दों के पर्याय अत्यन्त विस्तृत रूप से उसमें संगृहीत हैं ।
प्रस्तुत कोश एक विशाल योजना का प्रारम्भिक अंग है। परमाराध्य आचार्य श्री एवं युवाचार्य श्री की प्रेरणा से जैन विश्व भारती के शोध विभाग ने जैन आगम शब्द कोश की महान् योजना बनायी है । इसी के अंतर्गत निरुक्त कोश, एकार्थक कोश, देशी शब्द कोश आदि तैयार किये गए हैं । इसी क्रम में अभी दो कोश - निरुक्त कोश तथा एकार्थक कोश प्रकाशित किए जा रहे हैं । प्रस्तुत कोश का सुव्यवस्थित संकलन एवं सम्पादन कर समणी कुसुमप्रज्ञा ने अत्यधिक श्रमसाध्य कार्य को अत्यल्प समय में सम्पूर्ण किया है । इस कार्य में इन्हें मुनि श्री दुलहराज जी का मार्ग-दर्शन निरन्तर प्राप्त होता रहा है । प्रस्तुत कोश में तीन महत्त्वपूर्ण परिशिष्ट भी संलग्न किये गये हैं, जिनके आधार पर पाठक सरलता से इस कोश का उपयोग कर सकते हैं । द्वितीय परिशिष्ट में एकार्थक शब्दों की सार्थकता को समझाने का प्रयत्न किया गया है जो कि सराहनीय है ।
मुझे पूर्ण विश्वास है
कि यह कोश सुधी समाज में समादर प्राप्त
करेगा ।
लाडनूं २८-१-८४
नथमल टाटिया निदेशक, अनेकान्त शोधपीठ जैन विश्व भारती
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प्रस्तुति
कोश का महत्व
लाक्षणिक साहित्य में कोश का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है । किसी भी भाषा की समृद्धि का ज्ञान उसके शब्दकोश से किया जा सकता है । जिस प्रकार यत्र तत्र बिखरा पानी कोई उपयोगी नहीं होता तथा अधिक मात्रा होने पर वह बाढ़ का रूप भी ले सकता है, लेकिन उसी पानी को एक स्थान पर बांधकर विद्युत् पैदा की जा सकती है तथा अनेक स्थानों पर सिंचाई आदि का कार्य किया जा सकता है । इसी प्रकार इधर उधर बिखरी हुई शब्द सम्पत्ति निरुपयोगी होती है । कोश के माध्यम से निरुपयोगी और मृत शब्दावली भी व्यवस्थित होकर जीवन्त और उपयोगी हो जाती है। इसलिए प्राचीन काल से कोश निर्माण का कार्य होता रहा है।
संस्कृत व प्राकृत आदि भाषाओं की यह विशेषता है कि शब्द प्रायः धातुओं से निष्पन्न होते हैं । इस विशेषता के आधार पर कौन शब्द किस अर्थ को ध्वनित करता है यह जानने में कोश ही एक मात्र सहायक होता है । एक ही धातु कहीं कहीं अनेक अर्थों में प्रयुक्त होती है, वहां प्रसंगानुसार भिन्न-भिन्न अर्थों का वास्तविक ज्ञान कोश द्वारा ही संभव है । अनेक स्थलों पर व्याकरण द्वारा व्युत्पत्ति का अर्थ शब्द के मूल अर्थ से बहुत दूर चला जाता है। वहां कोश ही वास्तविक अर्थ का ज्ञान देता है। जैसे पृश-पालनपूरणयोः' धातु से 'ऊष' प्रत्यय लगाने पर 'परुष' शब्द बनता है । धातु का अर्थ पालन व पूरण है लेकिन शब्द का अर्थ कठोर है, जो कि धातु के अर्थ से मेल नहीं खाता। इसी प्रकार अन्य अनेक रूढ शब्दों का ज्ञान कोश से ही संभव है।
__ भाषा विज्ञान के अनुसार प्रत्येक शब्द के अर्थ का अपकर्ष और उत्कर्ष होता रहता है । जैसे पाषण्डी (पाखण्डी) शब्द प्राचीन काल में व्रती के लिए प्रयुक्त था लेकिन आज उसके अर्थ का अपकर्ष हो गया । कोश के . माध्यम से शब्द का इतिहास जाना जा सकता है, क्योंकि प्रत्येक कोशकार केवल शब्द संचय ही नहीं बल्कि अपने पूर्वज कोश का भी सहारा लेता है।"
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( १४ ) एक ही शब्द भिन्न भिन्न क्षेत्रों, प्रकरणों एवं संदर्भो में भिन्न भिन्न अर्थ का वाचक होता है, जैसे—'उपयोग', 'धर्म', 'आकाश', 'गुण' आदि जैन दर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं। सामान्य अर्थ से इनके अर्थों में भिन्नता है । कोश के माध्यम से भिन्न-भिन्न अर्थों का ज्ञान किया जा सकता है । कोश के बिना अर्थ-ज्ञान कठिन होता है, इसलिए विशिष्ट ज्ञान वृद्धि के लिए कोशों की रचना हुई है। एकार्थक कोश का उत्स
भगवती सूत्र के प्रारम्भ में गौतम स्वामी भगवान् महावीर से पूछते हैं-एए णं भंते ! नव पदा कि एगट्टा नाणाघोसा नाणावंजणा ? उदाहु नाणट्ठा नाणाघोसा नाणावंजणा ?–भंते । ये चलमाण चलित आदि नौ पद एकार्थक, नानाघोष और नानाव्यञ्जन वाले हैं अथवा अनेकार्थक, नानाघोष और नानाव्यञ्जन वाले हैं ?
भगवान् महावीर ने समाधान देते हुए कहा-'इनमें चलमान चलित, उदीयमान उदीरित, वेद्यमान वेदित और प्रहीयमान प्रहीन आदि चारों पद एकार्थक, नानाघोष व नानाव्यञ्जन वाले हैं।'
टीकाकार ने इसी तथ्य को चार विकल्पों के माध्यम से बहुत सुन्दर रूप में निरूपित किया है । जैसे
१. एकार्थक-एक व्यंजन वाले-जैसे क्षीर क्षीर आदि । २. एकार्थक-नाना व्यंजन वाले-जैसे क्षीर, पय आदि । ३. अनेकार्थक-अनेक व्यञ्जन वाले-जैसे अर्कक्षीर, गव्यक्षीर,
महिषक्षीर आदि । ४. अनेकार्थक-नाना व्यञ्जन वाले-जैसे घट, पट आदि । इसमें दूसरा विकल्प कोश की उत्पत्ति का कारण है ।
टीकाकार ने चलमान चलित आदि चारों शब्दों में स्पष्ट रूप से आर्थिक विभेद स्वीकार करते हुए भी इनको उत्पाद पर्याय की अपेक्षा से १. मग १/१२ : गोयमा ! चलमाणे चलिए, उदोरिज्जमाणे उदीरिए,
देविज्जमाणे वेदिए, पहिज्नमाणे पहीणे-एए गं चत्तारि पदा एगट्ठा नाणाघोसा नाणावंजणा।
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( १५ )
एकार्थक माना है ।'
एकार्थक का प्रयोजन
प्राचीन काल में प्रत्येक विषय को बारह प्रकार से समझाया जाता था । उसमें एकार्थक का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा । इस प्रकार कोश ज्ञान अलग से न कराकर विषय के अध्ययन के साथ ही करा दिया जाता था । बृहत्कल्प भाष्य में उल्लेख है कि साधु को विविध भाषाओं में कुशल होना चाहिए, जिससे कि वह जनता को अधिक लाभ पहुंचा सके । '
एकार्थंक का प्रयोजन बताते हुए ग्रन्थकारों ने अनेक स्थलों पर कहा है कि अनेक देशों के शिष्यों के अनुग्रह के लिए एकार्थकों का प्रयोग होता है ।' प्राचीन काल में गुरु के पास विभिन्न देशों के विद्यार्थी उपस्थित होते थे । उन्हें अवबोध देने के लिए एक ही शब्द के वाचक विभिन्न देशों में प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया जाता था, जिससे सभी शिष्य अपनी-अपनी भाषा में उस तथ्य को समझ सकें । यही कारण है कि शास्त्रों में एक अर्थ के वाचक विभिन्न प्रान्तीय शब्दों का संभार स्वत: विकसित होता चला गया। उदाहरणार्थ - दुग्ध, पय, वालु, पीलु और क्षीर ये दूध के एकार्थक हैं । इनमें आज भी वालु (हालु) शब्द कर्नाटक में तथा पीलु (पाल) शब्द तमिलनाडु में दूध का वाचक है । इस प्रकार एकार्थकों से विभिन्न शब्दों के आधार पर भाषा वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक इतिहास का अवबोध भी मिलता है । चूर्णिकार ने स्तुति और स्तव को भिन्न-भिन्न देशों में प्रयुक्त होने वाले एकार्थक माना है । "
एकार्थकों के प्रयोग का दूसरा प्रयोजन यह प्रतीत होता है कि किसी बात पर बल देने के लिए तथा उसकी विशेषता प्रकट करने के लिए भी
१. भटीप १७ ।
२. अनुद्वामटी प ६ : निक्खेवेगट्ठ निरुत्ति विही पवत्ती व केण वा कस्स । तद्दारमेय लक्खणतदरिहपरिसा य सुतत्थो ॥
३. बृभा १२२६ ।
४. जंबूटी प ३३ : नानादेश विनेयानुग्रहार्थ एकार्थिकाः ।
५. नंदीच पृ ४६ : अन्योन्य विषयप्रसिद्धा ते एकार्थवचनाः ।
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( १६) एकार्थक शब्दों का प्रयोग होता है । जैसे-भाव-क्रिया के प्रसंग में 'तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदभवसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तदट्ठोवउत्ते तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए' ये सभी शब्द भावक्रिया की महत्ता को व्यक्त कर रहे हैं ।' इस प्रकार प्रसंगवश एक ही अर्थ के वाचक अनेक शब्दों का प्रयोग पुनरुक्ति दोष नहीं है।
एकार्थक शब्दों से व्युत्पन्न मति छात्र एक प्रसंग के साथ अनेक शब्दों का ज्ञान कर लेते थे और मंद बुद्धि छात्र विभिन्न शब्द पर्यायों से अर्थ समझ लेते थे। इस प्रकार एकार्थक का कथन दोनों प्रकार के शिष्यों के लिए लाभप्रद होता था। और पदार्थ विषयक कोई मूढता नहीं रहती थी। देखें"पिंड', 'उग्गह', 'दुम', 'आगासत्थिकाय' आदि । ___ छंद-रचना में रिक्तता की पूर्ति के लिए भी एकार्थक शब्दों की आवश्यकता होती है, जिससे उसी अर्थ का वाचक दूसरा शब्द प्रयुक्त किया जा सके।' अनुप्रास अलंकार का प्रयोग वही कर सकता है जिसका एकार्थक शब्दज्ञान समृद्ध होता है। एकार्थक कोश क्या ? क्यों ?
एकार्थक शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए स्थानांग टीका में लिखा है कि १. (क) भटो प १४ : समानार्थाः प्रकर्षवृत्तिप्रतिपादनाय स्तुतिमुखेन
__ग्रन्थकृतोक्ताः। (ख) अंत टी प १६ : एकार्थशब्दोपादानं तु प्राधान्यप्रकर्षख्यापनार्थम् । . (ग) ज्ञाटी प १७ : ..... एकार्थशब्दत्रयोपादानं चात्यन्तशुक्लताख्याप
नार्थम् । २. अनुद्वामटी प २७ : एकाथिकानि वा विशेषणान्येतानि प्रस्तुतोपयोग
प्रकर्षप्रतिपादनपराणि । ३. भटो प ११६ : एकार्थशब्दोच्चारणं च क्रियमाणं न दुष्टम् । ४. नंदीटो पृ ५८ : विनेयजनसुखप्रतिपत्तए मतिज्ञान. ... ५. अनुद्वाहाटी २० : असम्मोहाथ पर्यायनामानि । ६. विभाकोटी प ६३८ : एतदनेकपर्यायाख्यानं प्रदेशान्तरेषु सूत्रबन्धानु
लोम्यार्थम् ........।
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(१७) “जिन शब्दों का एक ही अभिधेय/अर्थ हो, वे एकार्थक कहलाते हैं। इसके लिए अभिवचन शब्द का प्रयोग भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आवश्यक नियुक्ति में चार प्रकार की सामायिकों के पर्याय दिये हैं। उस प्रसंग में एकार्थक के लिए निरुक्ति' और 'निर्वचन' शब्द का उल्लेख मिलता है। जैसे-- सम्यक्त्व सामायिक के एकार्थक
सम्मदिट्ठि अमोहो, सोही सब्भाव दंसणं बोही ।
अविवज्जओ सुदिट्ठि ति, एवमाइ निरुत्ताई ॥ श्रुत सामायिक के एकार्थक
अक्खर सन्नी-संमं, सादियं खलु सपज्जवसियं च ।
गमियं अंगपविठं सत्त वि एए पडिवक्खा ॥ यहां नियुक्तिकार ने श्रुतसामायिक के भेदों को ही उसके पर्याय मान "लिये हैं। देश विरति सामायिक के एकार्थक
विरयाविरई संवुडमसंवुडे बालपंडिए चेव ।
देसेक्कदेसविरई, अणुधम्मो अगारधम्मो य ॥ इसी प्रकार मर्वविरतिसामायिकनिरुक्तिमुपदर्शयन्नाह
सामाइयं समइयं सम्मावाओ समास संखेवो । अणवज्जं च परिणा, पच्चक्खाणे य ते अट्ठ ।।
(आवनि ८६१-६४) भारोपीय भाषा परिवार में संस्कृत व उसके समकक्ष प्राकृत, पालि आदि भाषाओं की विशेषता है कि उसमें एक शब्द को बताने के लिए अनेक शब्दों का प्रयोग होता है । भाषाविदों के अनुसार कोई भी दो शब्द वस्तुतः एक अर्थ को व्यक्त नहीं करते । एकार्थवाची शब्दों का दूसरा नाम पर्यायवाची है। यह शब्द अधिक सार्थक प्रतीत होता है। जैन दर्शन में पर्याय शब्द पारिभाषिक शब्द के रूप में प्रयुक्त है। एक ही पदार्थ या व्यक्ति के लिए जब दो शब्दों का प्रयोग होता है तब वे प्रायः उस पदार्थ या व्यक्ति की दो भिन्नभिन्न पर्यायों को व्यक्त करते हैं। जैन दर्शन में इसे समभिरूढ़नय के द्वारा १. स्थाटी प ४७२ । २. भ २०/१५ । ३. आवहाटी पृ २४२ : चतुविधस्यापि सामायिकस्य निर्वचनम् ।
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समझाया गया है । उदाहरण के लिए इन्द्र शब्द के पर्याय में जब शक्ति को बताना हो तब 'शक' शब्द का प्रयोग होता है और जब ऐश्वर्य बताना हो तब 'इंद्र' तथा पाक नामक शत्रु को नाश करने की मुख्यता को द्योतित करना हो तो 'पाकशासन' शब्द का प्रयोग होगा । इसी प्रकार इन्द्र के अन्य नामों की सार्थकता भी है । (देखें - ' सक्क') । ये सभी शब्द भिन्न-भिन्न प्रवृत्ति के निमित्त से भिन्न होते हुए भी इंद्र अर्थ के वाचक हैं, अतः ये एकार्थक हैं ।'
इस प्रकार एकार्थक / पर्यायवाची शब्द हमारी शब्द- समृद्धि ही नहीं, बल्कि किसी भी पदार्थ या व्यक्ति विषयक पूरी जानकारी प्रस्तुत करते हैं । उदाहरण के रूप में हम 'उवहि' शब्द पर विचार करें। उसके आठ पर्यायवाची शब्द हैं । वे सब 'उपधि' की विभिन्न अवस्थाओं और विशेषताओं के द्योतक हैं । इन पर्याय शब्दों से उपधि का पूरा रूप सामने आ जाता है।"
इसी प्रकार 'दिट्ठिवाय', 'ववहार', 'अहिंसा', 'अदत्तादान' आदि शब्दों के विभिन्न पर्याय संपूर्ण विषय-वस्तु का बोध कराते हैं । एकार्थक संचयन की प्रक्रिया
प्रारम्भ में आगमों के प्राकृत भाषा के साहित्य में जहां 'एगट्ठा' या 'पज्जाया' शब्दों का उल्लेख था उन्हीं एकार्थकों का संकलन किया था किन्तु पुनश्चिन्तन किया गया कि संस्कृत टीका साहित्य में भी अनेक महत्वपूर्ण एकार्थकों का प्रयोग हुआ है तथा चूर्णि साहित्य में भी मिश्रित भाषा के प्रयोग से बहुत एकार्थक विशुद्ध संस्कृत जैसे प्रतीत होते हैं जैसे- घातो हिंसा मारणं दंड अधर्म इत्यनर्थान्तरम्" (सूच् २ पृ ३३८ ) । अतः संस्कृत व्याख्या साहित्य के एकार्थक शब्दों का भी संचयन किया गया, जैसे—रयः वेगः चेष्टाऽनुभवः फलमित्यनर्था-न्तरम् ( आवहाटी १ पृ २९३ ) । इस प्रकार यह संस्कृत और प्राकृत भाषा का सम्मिश्रित कोश है । कोश की परम्परा में संभवतः यह प्रथम कोश है जिसमें संस्कृत और प्राकृत भाषा के शब्दों का एक साथ संकलन है । १. अनुद्वामटी प २४६ : ...परमेश्वर्यादीनि भिन्नान्येवात्र भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तानि....
२. ओनिटी प २०७ : 'तत्वमेवपर्यायैव्र्याख्ये' इति न्यायात् पर्यायान प्रतिपादयन्नाह ।
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(१६) आगमों के मूल पाठ में अनेक स्थलों पर एक शब्द के वाचक अनेक शब्दों का उल्लेख एकार्थक का निर्देश किये बिना किया गया है। उन सबका समावेश भी इस कोश में अनिवार्य प्रतीत हुआ, जैसे—'आइण्ण', 'उक्किट्ठ' 'आसुरत्त' इत्यादि । व्याख्या साहित्य में इन शब्दों की भिन्न भिन्न व्याख्या देते हुए भी इनको एकार्थक माना है। कहीं कहीं शब्द एकार्थक जैसे प्रतीत नहीं होते लेकिन प्राचीन आचार्यों ने उनको एकार्थक माना है, जैसे-अशन, पान, खादिम और स्वादिम-ये चारों शब्द भोज्य वस्तुओं की भिन्नता के बोधक हैं, परन्तु इनको भोज्य वस्तु की अपेक्षा से एकार्थक माना है। इसी प्रकार 'विपरिणामइत्ता' आदि चारों शब्द भिन्नार्थक प्रतीत होते हैं। इन्हें भी विनाश के वाचक होने से एकार्थक माना है ।
एक बार कार्य का निरीक्षण करते हुए युवाचार्य प्रवर ने फरमाया कि व्याख्या ग्रंथों में ग्रंथकार ने किसी शब्द को स्पष्ट करने के लिए उसके वाचक यदि तीन या चार शब्दों का उल्लेख किया है तो उनका समावेश भी इस कोश में हो सकता है । इस दृष्टि से टीका साहित्य का पुनः पारायण किया गया तथा अनेक महत्त्वपूर्ण एकार्थक इस कोश के साथ जुड़ गये। जैसे'फुल्ल' 'अनुकाश' 'आपूरित' 'वर्द्धन' इत्यादि । ___ इस कोश को तैयार होते-होते अनेक बार कार्डों को बदलना पड़ा। अन्तिम रूप देते समय एक ही शब्द से शुरू हाने वाले अनेक कार्ड थे। उसमें छांटना था कि कोई शब्द छूट न जाये तथा पुनरुक्ति भी न हो। प्रारम्भ में हमने क-ग, त-य, र-ल, ण-न आदि व्यञ्जनों के अन्तर वाले एकार्थकों का भी इसमें समावेश किया था, लेकिन पुनश्चिन्तन के पश्चात् उनको छोड़ दिया । क्योंकि सामान्यतः प्राकृत का पाठक इस अंतर को समझ सकता है। जहां प्राकृत भाषा में नियुक्ति, चूणि आदि में एकार्थक आया है और वहो यदि १. (क) भटी प १५५ : आइन्नमित्यादयः एकार्था अत्यन्तव्याप्तिदर्श
नाय । (ख) वही प १७८ : एकार्था वैते शब्दाः प्रकर्षवृत्तिप्रतिपादनाय ।
(ग) उपाटी पृ १०५ : एकार्था शब्दाः कोपातिशयप्रदर्शनार्थाः । २. प्रसाटी प ५१ । ३. जीवटी प २१ : विपरिणामइसा....."एतानि चत्वार्यपि पदान्येकाथिकानि विनाशार्थप्रतिपादकानि नानादेशमविनेयानुग्रहार्थमुपात्तानि ।
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(२०)
संस्कृत भाषा में टीका साहित्य में आया है तो उसका संकलन हमने नहीं किया है। इसके अतिरिक्त एक ही एकार्थक का प्रयोग अनेक स्थानों पर हुआ है, जैसे-'हेतु निमित्तं कारणमिति पर्यायाः' आदि। उनमें कालक्रम का ध्यान न रखते हुए जहां अधिक स्पष्टता लगी उसी को प्रमुखता दी है ।
प्रस्तुत कोश में एकार्थकों का संचयन बहुत व्यापक संदर्भ में हुआ है। एक ही जाति के द्योतक व्यक्ति या पदार्थ को जातिगत समानता के आधार पर एकार्थक माना है, जैसे-'उप्पल' 'पदुम' के एकार्थक कमल की विभिन्न जातियों के वाचक हैं, पर जातिगत समानता के कारण इनको एकार्थक माना है। इसी प्रकार 'अंताहार', 'सेज्जा' आदि भी द्रष्टव्य हैं।
कुछ शब्दों को उपादान की समानता से एकार्थक माना है । जैसे 'अरंजर' शब्द के पर्याय में सभी शब्द भिन्न-२ आकार के घड़ों के वाचक हैं, लेकिन सभी मिट्टी से निर्मित हैं अत: उपादान की समानता से इनको एकार्थक स्वीकृत किया है । मन में एक प्रश्न था कि इन शब्दों का एकार्थक प्रयोग से उन शब्दों का निश्चित अर्थ निर्धारण नहीं किया जा सकता। परन्तु इस दुविधा का समाधान चूणिकर एवं टीकाकारों ने कर दिया, क्योंकि उन्होंने भी व्यापक अर्थ में एकार्थकों का प्रयोग किया है जैसा कि पहले कहा जा चुका है।
नंदी चूणि में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया गया है कि भिन्न भिन्न अर्थ होने पर भी शब्दों को एकार्थक मानना क्या विरोध नहीं है ? चूर्णिकार ने स्वयं इस प्रश्न को समाहित किया है कि किसी भी वस्तु के स्वरूप को समवेत रूप से देखने पर यह विरोध नहीं है। भिन्न भिन्न दृष्टि से देखने पर विरोध हो सकता है। इसी अभिप्राय को ध्यान में रखकर हमने अनेक ऐसे एकार्थकों का संकलन किया है, जैसे—'तट्टक' 'कुंडल' 'भग्ग', 'ओसारित' आदि ।
एकार्थक कोश के साथ यह समानार्थक भी है। कुछ एकार्थक समवेत रूप से एक ही अर्थ व्यक्त करते हैं, जैसे----'पीणणिज्ज', 'अच्चिय', थेज्ज' इत्यादि। १. नंदीचू पृ ३६ : णणु भिण्णत्थवंसणे एगद्वित ति विरुद्धं ? उच्यते ण
विरुद्धं, जतो सव्वविकप्पेसु ।.....।
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(२१)
इसी प्रकार प्रस्तुत कोश में एक ही पदार्थ अथवा भाव की ऋमिक अवस्था व्यक्त करने वाले शब्दों का भी एकार्थक में समावेश है। जैसे'फासिय', 'अहासत्त' आदि । 'फासिय' आदि शब्द व्रतपालन की उत्तरोत्तर अवस्थाओं के वाचक हैं।
जहां 'एगट्ठा', पज्जाया', या अनर्थान्तरम् शब्द का प्रयोग हुआ है वहां हमने दो शब्दों को भी इस कोश में समाविष्ट किया है, जैसे-ऊसढं ति वा उच्चं ति वा एगट्ठा । राशिर्गच्छ इत्यनर्थान्तरम् । भोज्जं ति वा संखडि त्ति वा एगट्ठ। लेकिन जहां उन शब्दों का उल्लेख नहीं है वहां हमने दो समानार्थक शब्दों को इसमें संगृहीत नहीं किया है।
सामान्यतः इस कोश में जिस शब्द से एकार्थक प्रारम्भ हुआ है उसी को मुख्य शब्द के रूप में रखा है। लेकिन जहां कहीं टीकाकार, चूर्णिकार ने किसी विशेष शब्द के एकार्थक का निर्देश किया है वहां प्रारम्भिक शब्द को मूल न मानकर निर्दिष्ट शब्द को मूल माना है । जैसे
समया समत्त पसत्थ संति सुविहिअ सुहं अनिंदं च । अदुगुंछियमगरहियं अणवज्जमिमेऽवि एगट्ठा ।। (आवनि १०३३)
यह गाथा 'समया' से प्रारम्भ होती है लेकिन हरिभद्र ने इस गाथा को सामायिक का पर्याय माना है। इसी प्रकार 'पवयण', 'भिक्खु', 'कम्म', 'चंडाल' आदि भी द्रष्टव्य हैं ।
अनेक स्थलों पर एकार्थक गाथा में भी अन्तिम पद में भाष्यकार अथवा नियुक्तिकार ने किसी विशिष्ट शब्द के एकार्थक का उल्लेख किया है तो उसी । को मूल माना है । जैसे
ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा। . सण्णा सई मई पण्णा, सव्वं आभिणिबोहियं ॥ (नंदी ५४) -~- ये सब 'आभिणिबोहिय' के एकार्थक हैं ।
यद्यपि इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि शब्दों की पुनरावृत्ति न हो, लेकिन जहां कहीं भी एक अर्थ का वाचक दूसरे शब्द से प्रारम्भ होने वाला एकार्थक आया है, यदि एक या दो शब्द भी उसमें नवीन हैं तो उन दोनों को अलग अलग ग्रहण किया है, जैसे-इंद शब्द के पर्याय में लगभग
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( २२ )
- सभी शब्द 'सक्क' में समविष्ट हैं, लेकिन 'इंद' शब्द नवीन है इसीलिए विशेष - लक्ष्यपूर्वक इसको अलग लिया गया है ।
अनेक स्थलों पर एक एकार्थक के अन्तर्गत नवीन शब्द की दृष्टि से तीनचार एकार्थकों का समावेश उसी के नीचे कर दिया है, जैसे—
१. आणत्ति उववायो त्ति उवदेसो त्ति आगमो त्ति वा एगट्ठा । २. आणे ति वा सुतं ति वा वीतरागादेसो त्ति वा एगट्ठा ।
३. आण त्ति वा नाण त्ति वा पडिलेहि त्ति वा एगट्ठा ।
४. आणा-उववाय-वयण - निद्देसे |
प्रस्तुत कोश में एक ही शब्द के पर्याय विभिन्न शब्दों से प्रारम्भ हो रहे हैं। इससे उस शब्द विषयक अनेक पर्यायों का ज्ञान सहज ही हो सकता है । जैसे माया के एकार्थक 'उक्कंचण', 'कूड', 'कवड', 'माया', 'कक्क', 'पलिउंचण' आदि विभिन्न शब्दों से प्रारम्भ हो रहे हैं । इनको एक स्थान पर देने से अनुक्रमणिका के क्रम में असुविधा थी । लेकिन किसी भी शब्द के ज्ञान के लिए परिशिष्ट - १ सहयोगी हो सकता है ।
अनेक स्थलों पर एक संस्कृत के शब्द के दो प्राकृत रूपों को एकार्थंक माना है । जैसे - इसित्ति वा रिसित्ति वा एगट्ट । अणं ति वारिणं ति वा एगट्ठा | भवति त्ति वा हवइत्ति वा एगट्ठा। यहां ऋषि ऋण और भवति शब्द के ही दो प्राकृत रूप बने हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राकृत व्याकरण - का ज्ञान भी एकार्थकों के माध्यम से कराया जाता था ।
इसी प्रकार कहीं कहीं चूर्णिकारों ने सामान्य एकार्थकों का प्रयोग किया है जैसे - उभओ त्ति वा दुहओ त्ति एगट्ठा बहवे त्ति वा अणेगे त्ति वा एगट्ठा । ऐसे एकार्थकों का प्रयोग प्राचीन पाठन पद्धति पर विशेष महत्व डालते हैं ।
भगवती सूत्र में क्रोध आदि चारों कषायों के एकार्थक उल्लिखित हैं । समवायांग में 'मोहनीय कर्म' के पर्याय के रूप में वे ही नाम संगृहीत हैं । क्रोधादि के तथा मोहनीय कर्म के पर्यायों को शब्द-गत समानता होने पर भी अर्थभेद की दृष्टि से अलग ग्रहण किया है ।
कहीं कहीं एक ही गाथा दो भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त है । उसको भी हमने अलग अलग ग्रहण किया है । जैसे पावे वज्जे वेरे......
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( २३ )
यह गाथा 'पाप' और 'कर्म' – दोनों अर्थों में प्रयुक्त है। इसी प्रकार "पतिट्ठा' और 'अवस्था' आदि ।
अनेक एकार्थक एक ही शब्द के आगे उपसर्ग आदि लगने से एक ही अर्थ के वाचक बन गये हैं । टीकाकार ने इनको एकार्थक माना है ।' जैसे -- अक्कोहा निक्कोहा खीणकोहा |
इसी प्रकार 'अमोह', 'अणावरण', 'अगोय' आदि द्रष्टव्य हैं । ऐसे एकार्थकों का प्रयोग अन्य कोशों में देखने को नहीं मिलता ।
प्रस्तुत कोश में पांच अस्तिकाय के एकार्थक अपना विशेष महत्व रखते हैं । 'धम्मत्थिकाय' (धर्मास्तिकाय) के पर्याय में प्राणातिपात विरमण से मन-गुप्ति तक के शब्द धर्म के विविध अंग हैं जो कि धर्मास्तिकाय से सर्वथा पृथग् हैं । लेकिन धर्म शब्द के साधर्म्य से सूत्रकार ने इनको धर्मास्तिकाय के • अभिवचन / पर्याय के रूप में संगृहीत कर लिया है।
प्रस्तुत कोश में आगम ग्रंथों के अध्यायों के एकार्थक नवीनता के परिचायक हैं । 'दुमपुफिया' के एकार्थक के प्रसंग में दशवैकालिक के प्रथम अध्य-यन को जिन जिन उपमाओं से उपमित किया, उनको इस अध्ययन के पर्यायवाची स्वीकृति कर लिया। इसी प्रकार बाहरवें अंग 'दिट्टिवाय' तथा दशवैकालिक के चतुर्थ अध्ययन 'जीवाभिगम' के पर्याय भी ग्रंथकारों ने उसकी वर्ण्य वस्तु के आधार पर स्वीकृत किये हैं ।
प्रस्तुत कोश में अनेक महत्वपूर्ण जैन पारिभाषिक शब्दों के पर्याय संकलित हैं, जैसे – 'तमुक्काय' 'अकम्मवीरिय', 'उक्खोडभंग', 'लघुक' 'द्वितीयसमवसरण आदि ।
प्राकृत भाषा के कुछ शब्द ऐसे होते हैं, जिनके भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं । जैसे– 'संत', 'माण', 'आगार', 'सक्क' आदि ।
'संत' चार अर्थों का वाचक है-तथ्य, शान्त, श्रान्त और सत् । 'माण' दो अर्थों का वाचक है-अभिमान और परिमाण । 'अगार' दो अर्थों का वाचक है - आकृति और घर ।
'सक्क' दो अर्थी का वाचक है— शक्र और शक्य ।
१. औपटी पृ २०२ : एकार्था वैते शब्दाः; अनुद्वामटी प १०७ ।
२. भटी पृ १४३१ ॥
३. दहाटी व १८ ।
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( २४ ) इन सबके एकार्थक इस कोश में गृहीत हैं ।
प्रस्तुत कोश में शब्दों के साथ धातुओं के एकार्थक भी संगृहीत हैं । जैसे 'उज्झीयति', 'आसाएइ', 'फासेइ, आदि । एक ही धातु के अनेक उपसर्ग लगाकर भी उसको एकार्थक माना है जैसे-'आलुक्कई पलुक्कई लुक्कई संलुक्कई य एगट्ठा' यहां 'लोकङ्-दर्शने' धातु के आगे ही विविध उपसर्ग हैं । लेकिन अर्थ की दृष्टि से साम्य है । इसके विपरीत अनेक स्थलों पर उपसर्ग के साथ ही धातु का अर्थ ही बदल गया है जैसे-'परिभासति', 'उप्पज्जते', 'उद्दवेति'" इत्यादि ।
इसके अतिरिक्त अनेक कालों में प्रयुक्त धातुओं के उदाहरण इसमें समाविष्ट हैं, जैसे-'चयाहि', 'चालिज्जाति' 'छड्डे', 'चितेहिति', इत्यादि ।
____ इसी क्रम में कृदन्त तथा तद्धित के प्रत्ययों के भी एकार्थक इसमें हैं। जैसे-छिदंत', 'पीणणिज्ज', 'सोऊण', 'नस्समाण', 'पडुच्च', 'वसित्तु', 'छर्दितुम्', 'इट्टत्ता', इत्यादि । कोश का बाह्य स्वरूप
यह कोश गद्य और पद्य मिश्रित है। इसमें मूल एकार्थक १४६७ हैं तथा करीब २०० अवान्तर एकार्थक मिलाने से करीब १७०० एकार्थकों का संकलन है। प्रत्येक एकार्थक का अर्थ-निर्देश और प्रमाण दिया गया है। उसमें लगभग ८००० शब्दों का संकलन है ।
इस कोश में अनेक भाषाओं का मिश्रण है। आगम ग्रंथों के आर्षप्रयोग सहज ही इसमें समाविष्ट हैं। इसके अतिरिक्त प्राकृत भाषा के अनेक प्रयोग इसमें हैं।
इसके साथ अनेक देशी शब्दों का संकलन भी इस कोश में स्वतः हो गया है । अनेक एकार्थकों में सभी शब्द देशी हैं। परिशिष्ट नं० २ में अनेक स्थलों पर हमने देशी शब्दों का निर्देश किया है।
भाषा की दृष्टि से इस कोश का एक वैशिष्ट्य है कि कुछ एकार्थक एक ही व्यञ्जन से शुरू हुए हैं, जैसे-'पम्हट्ठ' शब्द के पर्याय में २१ शब्द हैं । सभी शब्द 'प' से प्रारम्भ हुए हैं। इसी प्रकार 'णिस्सारित', 'उल्लोइत', "णिम्मज्जित' आदि ज्ञातव्य हैं।
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( २५ )
परिशिष्ट
इस कोश में तीन परिशिष्ट दिये गए हैं । प्रथम परिशिष्ट में इस कोश में प्रयुक्त सभी शब्दों की अकारादि क्रम से सूची है। इस परिशिष्ट में लगभग ८००० शब्द हैं । एक ही शब्द के पर्याय में जहां क-ग, तन्य, णन्न आदि व्यञ्जनों का भेद था वहां एक ही शब्द लिया है ।
इस परिशिष्ट की विशेषता यह है कि इसमें शब्द- ज्ञान के लिएकोष्ठक में मूल शब्द दिया है, जिससे सामान्यतः केवल परिशिष्ट देखने मात्र से अर्थ का ज्ञान हो सकता है । परिशिष्ट में शब्दों को निविभक्तिक और प्रत्यय रहित लिया है, जबकि धातुओं को सुविधा के लिए प्रत्यय सहित लिया है ।
द्वितीय परिशिष्ट में एकार्थकों की स्पष्टता, तथा सार्थकता प्रमाण सहित टिप्पणों के रूप में व्याख्यायित है । जैसे- 'अलिय', 'परिग्गह' आदि शब्दों के ३०-३० पर्याय उल्लिखित हैं । उनकी विशेष व्याख्या टीका के आधार पर परिशिष्ट २ में दी गयी है । द्वितीय परिशिष्ट में लगभग ३२६ टिप्पण हैं । टिप्पणों के साथ आगमेतर साहित्य में उसके संवादी एकार्थंक मिले हैं, उनको भी जोड़ा गया है । जैसे- 'अवग्रह', 'ईहा', 'क्रोध', चित्त आदि ।
तृतीय परिशिष्ट धातुओं के अनुक्रम का है । कोश में जितनी भी धातुएं हैं उनकी मूल प्रकृति तथा उनका अर्थ-निर्देश है । धातुओं का निर्देश धातु पारायण के आधार पर किया गया है । कहीं कहीं टीकाकार और चूर्णिकार ने भिन्न-भिन्न अर्थ में प्रयुक्त धातुओं को भी एकार्थंक माना है, जैसे
१. 'वोसिरति विसोधेति णिल्लवेति त्ति एगट्ठा' ।
२. चाएति साहति सक्केइ वासेइ तुट्टाएति वा धाडेति वा एगट्ठा । परिशिष्ट में कोशिश की गयी है कि मूल अर्थ की संवादी धातु लिखें लेकिन अनेक स्थलों पर मूल धातु खोजना कठिन प्रतीत हुआ वहां प्रश्नचिह्न लगाकर छोड़ दिया है । इस परिशिष्ट में गण और प्रक्रिया का निर्देश न करके केवल धातु का ही उल्लेख किया गया है ।
अनेक स्थलों पर टीकाकार ने धातुओं को एकार्थक मानते हुए भी अर्थ-भेद किया है, जैसे – 'सहइ' धातु के एकार्थक में
सहते - अभय होकर सहना ।
क्षमते - क्रोध मुक्त होकर सहन करना । तितिक्षते - दीनता रहित होकर सहना ।
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( २६) - अधिसहते-अत्यधिक सहना ।'
प्रस्तुत कोश में धातुओं के अनेक रूप निर्दिष्ट हैं। हमने इस परिशिष्ट में उनके एक-एक रूप का ही निर्देश दिया है। कालगत तथा विभक्तिगत सथा व्यञ्जनों के रूपान्तर का उल्लेख नहीं किया गया है। प्रेस में टाईप न होने से दीर्घ ऋकार वाले शब्दों के स्थान पर ह्रस्व ऋ का प्रयोग किया गया है । जैसे पृ द इत्यादि।
प्रस्तुत कोश में एकार्थकों का संकलन लगभग सौ ग्रन्थों से किया गया है। उनमें कुछेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ये हैंभगवती ___इस ग्रंथ में जैन सिद्धान्त व दर्शन सम्बन्धी महत्वपूर्ण एकार्थक उपलब्ध हुए हैं। जैसे-'तमुक्काय', 'कण्हराति', 'पांच अस्तिकाय', 'चार कषाय' मादि । इसके साथ 'राह' के नौ नाम नवीनता लिए हुए हैं। इसके अतिरिक्त प्रकीर्णक रूप से और भी अनेक एकार्थक इसमें हैं। प्रश्नव्याकरण . इसमें पांच आस्रव के ३०-३० तथा अहिंसा के ६० पर्याय उल्लिखित हैं। सामान्यतः ये एकार्थक प्रतीत नहीं होते लेकिन टीकाकार ने बहुत स्पष्टता के साथ इनको एकार्थक स्वीकार किया है। इनकी स्पष्ट व्याख्या के लिए देखेंपरिशिष्ट २। इसके अतिरिक्त 'पाव', 'गोणस', सर्ल आदि अनेक स्फुट एकार्थकों का इसमें प्रयोग है। अनुयोगहार
अनुयोगद्वार व्याख्यापद्धति का अनूठा ग्रंथ है। इसमें प्रत्येक विषय को समझाने के लिए पहले एकार्थक दिये हैं, जैसे—'आवस्सय', 'सुत्त', 'गण' इत्यादि। आवश्यकचूणि ___ आवश्यकचूणि के एकार्थक नवीनता की दृष्टि से अपना विशेष महत्त्व रखते हैं। चूर्णिकार ने लगभग अपरिचित व अनेक शब्दों से युक्त एकार्थकों का प्रयोग किया है, जो अन्य कोशों में नहीं मिलते, जैसे-'संजमतवड्डय', 'पावकम्मनिसेहकिरिया', 'दुक्कड', 'अप्पियववहारिय' इत्यादि । १. अंत टी प २२ : सहत इत्यादीनि एकार्थानि पवानीति केचित्, अन्ये तु...
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( २७ ) निशीथणि
यह आकर ग्रंथ है जिसमें प्रसंगवश सभी विषयों का विस्तार से वर्णन हुआ है । इसमें भी सुन्दर एकार्थकों का प्रयोग हुआ है। जैसे-'उखड्डमड्ड,' 'दगतीर', उक्खोडभंग' 'नयन' इत्यादि । -दशवकालिक जिनदास चणि
दशवकालिक एक महत्वपूर्ण निर्यढ कृति है। इस पर दो चूणियां उपलब्ध हैं। एकार्थक की दृष्टि से जिनदास स्थविर की चूणि महत्वपूर्ण है। इसकी विशेषता यह है कि प्रायः सभी एकार्थक दो शब्दों के हैं। कहीं कहीं तीन शब्दों का उल्लेख है। अंगविज्जा
_ 'अंग विज्जा' ज्योतिषविद्या का दुर्लभ ग्रंथ है। इसमें प्राचीन संस्कृति, सभ्यता व आभूषणों के अनेक नवीन पर्यायवाची शब्दों का संकलन है। जैसे'हत्थिक', 'कुंडल', 'अरंजर', 'णावा', 'दीहसक्कुलिका' 'काहापण' इत्यादि । इसके अतिरिक्त ग्रंथकार ने अनेक स्थलों पर 'एते सहा समा भवे' का उल्लेख किया है । इस ग्रंथ के एकार्थक प्राचीन संस्कृति व सभ्यता की समृद्धि का बोध कराते हैं। तथा लौकिक क्षेत्र में प्रयुक्त अनेक शब्दों के एकार्थक इसमें संगृहीत है। ___इसके अतिरिक्त बृहत्कल्प, ओघनियुक्ति, जीतकल्पभाष्य आदि ग्रन्थों में भी प्रचुर मात्रा में एकार्थकों का प्रयोग हुआ है।
यह कोश अपने आप में पूर्ण है, ऐसा कहना उचित नहीं होगा, क्योंकि यत्र-तत्र कुछेक महत्वपूर्ण एकार्थक छूट भी गए हों। उनका संकलन परिशिष्ट में किया जाना चाहिए था, पर वैसा हो नहीं सका। आगे उसकी संपूर्ति हो, ऐसा विचार है । कार्य का इतिवृत्त
वि० सम्वत् २०३७ । चैत्र का महीना। शोध, साधना व शिक्षा की संगमस्थली जैन विश्व भारती का विशाल प्रांगण । युवाचार्यश्री महाप्रज्ञजी का प्रवास । अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों की संयोजना। लाडनूं में स्थित पारमार्थिक शिक्षण संख्या के शैक्षणिक विकास के विषय में चिन्तन चला। जैन विश्व भारती ब्राह्मी विद्यापीठ के अन्तर्गत स्नातकोत्तर कक्षाओं में पढ़ने वाली साध्वियां व मुमुक्षु बहिनें श्रद्धेय युवाचार्यश्रीजी के उपपात में पहुंची।
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(२८)
युवाचार्यश्री ने पूछा-'तुम सबकी रुचि गहन अध्ययन में है अथवा आजकल के विद्यार्थियों की भांति केवल डिग्रियां हासिल करने में ?' सभी ने एक स्वर से उत्तर दिया-'हम गहन अध्ययन करना चाहती हैं।' उसी भाषा को दोहराते हुए युवाचार्यश्री ने पुनः फरमाया-गहराई से सोचकर उत्तर दे रही हो अथवा केवल श्रद्धा या भावावेश में बोल रही हो? एक क्षण के लिए हमारी मुद्रा गंभीर हो गयी, लेकिन पुनः सबने करबद्ध प्रार्थना की-'गुरुदेव ! हम अध्ययन करने के लिए कृतसंकल्प हैं। आचार्यप्रवर व युवाचार्यश्री के कुशल मार्गदर्शन में हम नया ज्ञान प्राप्त कर सकेंगी, ऐसा विश्वास है। हमारी मनोभावना को जानकर युवाचार्यश्री ने मन ही मन भावी कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार कर ली।
महावीर जयन्ती का पावन दिन । सूर्य की अरुण रश्मियों के साथ हमें प्रथम वाचना प्राप्त हुई। और यह प्रथम वाचना छेदसूत्र व आवश्यक ग्रन्थों के साथ प्रारम्भ हुई । प्रारम्भ में इस कार्य में पांच मंडलियां थीं जिनका नेतृत्व साध्वियां कर रही थीं। मुमुक्षु बहिनें उनके सहयोगी के रूप में थीं। कार्य की योजना बहुत विशाल थी। हमारा अनुभव नया था. पर दोनों मनीषियों की अनन्त ऊर्जा हमें सतत मिल रही थी। हम पूरी तन्मयता और उत्साह के साथ कार्य में जुट गयीं । इस कार्य के साथ पांच कोशों की योजना जुड़ी हुई थी
१. आगम शब्द कोश-प्राकृत के सभी पारिभाषिक शब्दों का अर्थ व प्रमाण सहित निर्देश ।
२. जैन विश्व कोश-जैन पारिभाषिक शब्दों पर अंग्रेजी भाषा में निबन्धात्मक विश्लेषण।।
३. देशी शब्द कोश-आगम तथा व्याख्या ग्रन्थों में प्रयुक्त देशी शब्दों का अर्थ और प्रसंग सहित निर्देश ।
४. निरक्त कोश-आगम एवं व्याख्या ग्रन्थों में प्रयुक्त निरुक्तों का चयन तथा हिन्दी अनुवाद ।
५. एकार्थक कोश-शताधिक ग्रंथों से एकार्थक शब्दों का संकलन ।
इसके साथ कुछ विशिष्ट दृष्टियां भी दी गयीं जिनके परिप्रेक्ष्य में हमें आगम ग्रन्थों तथा व्याख्या साहित्य का अध्ययन करना था। वे कुछेक दृष्टि-बिन्दु ये हैं
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(२९)
.... १. गाथा वर्गीकरण व पद्यानुक्रमणिका (भाष्य, नियुक्ति व चूणि में
आयी गाथाओं का अकारादि क्रम से निर्देश, जिससे शोधकर्ताओं
को गाथा खोजने में सुगमता हो सके ।) २. धर्मकथासंग्रह-व्याख्या ग्रंथों में आयी कथाओं का संकलन । ३. सूक्तिसंग्रह। ४. सभ्यता-संस्कृति के मुख्य तत्त्वों का चयन । ५. इतिहास-परम्परा। ६ चिकित्सा विज्ञान सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण तथ्यों का संकलन । ७. स्वास्थ्य विज्ञान तथा मनोविज्ञान के स्थलों का चयन । ८. दार्शनिक व शैक्षणिक तथ्य। ६. सम्प्रदाय-प्राचीन सम्प्रदायों के अस्तित्व, मान्यता, आचार्य आदि
विषयक जानकारी। १०. साधना विषयक जानकारी। ११. वैज्ञानिक तथ्य । १२. जीवविज्ञान । १३. आहारविज्ञान ।
कार्य अपनी गति से चलता रहा, लेकिन उसके साथ परीक्षण भी अनिवार्य था, अत: समय समय पर कार्य का परीक्षण व निरीक्षण करने . आचार्य प्रवर और युवाचार्यश्री वर्द्धमान ग्रंथागार पधारते रहते थे।
इसी वर्ष समण श्रेणी की स्थापना हुई, जिसमें कार्य करने वाली कुछ मुमुक्षु बहिनें समणियां बन गयीं । कालान्तर में आगम कोश के कार्य की गति मंथर देखकर युवाचार्य प्रवर ने मुस्कराते हुए फरमाया-'कार्य दो साल में पूरा करना है, भले ही इसके लिए रोटी-पानी छोड़ना पडे ।' हमने निवेदन किया यदि युवाचार्य प्रवर की लाडनूं में सतत सन्निधि मिले तो यह कार्य संभव हो सकता है, अन्यथा कार्य में बार-बार अवरोध उत्पन्न होता है और अनेक स्थल प्रश्नचिह्न बने रहते हैं।' युवाचार्य प्रवर ने फरमाया 'समस्या के समाधान के लिए हमारे पास आया जा सकता है, इसी बीच आचार्य प्रवर भी पधारे और हमें नयी प्रेरणा देकर लाडन से मारवाड़ की ओर प्रस्थान कर दिया। अब कार्य मुख्य रूप से साध्वियों और समणियों के जिम्मे था।
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(३०)
विक्रम सम्वत् २०३६ का मर्यादा महोत्सव नाथद्वारा की ऐतिहासिक धरा पर हुआ । महोत्सव की समाप्ति के पश्चात् कार्य करने वालों की एक गोष्ठी आयोजित की गयी। और उसका अन्तिम निष्कर्ष था कि कार्य गतिमान किया जाये और उसे अन्तिम रूप दिया जाये। युवाचार्य प्रवर ने फरमाया-यदि कार्य में बिलम्ब होगा तो 'कालं पिबति तद्रसम्' वाली कहावत चरितार्थ होगी। युवाचार्यश्री के इस कथन ने कार्य की महत्ता को और अधिक उजागर कर दिया।
वि. स. २०४० । इस बार मुनिश्री दुलहराजजी को आगम कार्य के लिए लाडनूं भेजा गया। मुनिश्री ने एक दिन ग्रन्थागार में आगम कोश कार्य को देखा । तीन वर्षों के कार्य का निरीक्षण कर आपने कहा-कार्य बहुत हुआ है । अब इसे अंतिम रूप देकर समेटना आवश्यक है। यदि मेरा. इसमें यत् किञ्चित् सहयोग अपेक्षित हो तो मैं इसके लिए प्रस्तुत हूं"। हमारा उत्साह बढ़ा और सभी कार्यरत साध्वियों एवं समणियों की गोष्ठी आयोजित की गयी। सर्वप्रथम एकार्थक कोश, निरुक्त कोश और देशी कोश को अन्तिम रूप देने का निर्णय हुआ। कार्य का दायित्व जिन जिन पर बाया उन्होंने अपना पूरा समय तद् तद् कार्य के लिए समर्पित कर दिया और जो कार्य एक महा अरण्य-सा प्रतीत होता था वह कुछ ही महीनों में पूरा होने लगा।
निरुक्त कोश का कार्य साध्वी सिद्धप्रज्ञाजी एवं निर्वाणश्रीजी ने सम्पन्न किया।
देशी शब्दकोश का कार्य साध्वी अशोकश्रीजी और साध्वी विमल प्रज्ञाजी ने प्रारंभ कर दिया ।
मुझे एकार्थक कोश को संपन्न करना था और मैं इसमें दत्तचित्त हो गई । कार्य आगे बढ़ा और आज उसकी संपन्नता पर मुझे हर्ष हो रहा है ।
__ सर्वप्रथम मेरा भक्ति भरा प्रणाम उन आगम पुरुष प्राचीन आचार्यों को है जिन्होंने श्रुत-परम्परा को समृद्ध किया है ।
परमश्रद्धय, शक्तिस्रोत आचार्यप्रवर एवं युवाचार्यश्री का वात्सल्यपूर्ण आशीर्वाद मेरी साधना का संबल है। मैं उनकी प्रभुता और महानता के प्रति प्रणत हूं, क्योंकि इसमें जो कुछ है, वह उन्हीं का अवदान है। मैं तो मात्र निमित्त बनी हूं। पुनः पुनः उन पावन चरणों में अपनी कोमल अभिवन्दनाएं प्रस्तुत करती हूं और कामना करती हूं कि उनका स्नेहपूरित आशीर्वाद
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भविष्य में मेरी सृजनशक्ति को उजागर करने में निमित्त बने तथा मेरे बाध्यात्मिक मार्ग को प्रशस्त करता रहे।
__ मैं महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा श्रीकनकप्रभाजी के प्रति प्रगत हूं जिनके हार्दिक स्नेह और वात्सल्य ने प्रेरणा का कार्य किया है। माशा करती हूं कि उनके आध्यात्मिक संरक्षण में समण श्रेणी उत्तरोत्तर प्रगति करती रहेगी।
____ मुनिश्री दुलहराजजो ने एकार्थक कोश के चयन तथा परिशिष्टों के निरीक्षण में अपना बहुमूल्य समय प्रदान कर मेरा मार्ग-दर्शन किया, इसके लिए मैं उनके प्रति जितना भी आभार व्यक्त करूं उतना थोड़ा है। यह उनके प्रोत्साहन और मार्गदर्शन का ही परिणाम है कि यह गुरुतर कार्य इतने स्वल्प समय में सम्पन्न हो सका।
'अनेकान्त शोधपीठ' के निदेशक डॉ. टाटियाजी के सहयोग को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता, जिन्होंने समय समय पर नई प्रेरणाएं देकर तथा कोश का पुरोवचन लिखकर इसका गौरव वृद्धिंगत किया है।
मैं सम्पूर्ण समणी परिवार के हार्दिक सहयोग का स्मरण करती हुई अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव करती हूं, क्योंकि धर्मसंघ की मर्यादा के अनुसार कोई भी समणी या साध्वी अकेली कहीं जा नहीं सकती। इस कार्य के लिए मुझे जहां कहीं भी जाने की अपेक्षा महसूस हुई समणियों ने उदार हृदय से मेरा सहयोग किया।
अन्त में मैं उन समस्त साध्वियों, समणियों और मुमुक्ष बहिनों के सहयोग का स्मरण करती हूं जिन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस कार्य में अपने श्रम-बिन्दु अर्पित किये हैं
निर्देशिका १. साध्वी कनकधी
निशीथ २. , यशोधरा
व्यवहार ३. , अशोकश्री
आचारांग, दशाश्रुतस्कन्ध, पंचाशक,
सूर्यप्रशप्ति जिनप्रज्ञा
सूत्रकृतांग (प्रथम श्रुतस्कन्ध) ५. ,, कल्पलता
दशवकालिक ६. , विमलप्रज्ञा
आवश्यक (द्वितीय भाग), उत्तराध्ययन, नवीन कर्मग्रन्थ
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(३२) ७. साध्वी सिद्धप्रज्ञा
सूत्रकृतांग (द्वितीय श्रुतस्कन्ध), स्थानांग,
बृहत्कल्प, पिण्डनियुक्ति ८., निर्वाणश्री
आवश्यक (प्रथमभाग), सूत्रकृतांग,
(प्रथम श्रुतस्कंध) ६. समणी स्मितप्रज्ञा
उत्तराध्ययन १०. समणी कुसुमप्रज्ञा भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा,
अंतकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकश्रुत, औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, निरयावलिका, अंगविज्जा, अनुयोगद्वार, नंदी, ओपनियुक्ति, जीतकल्पभाष्य, प्रवचनसारोद्धार, इसिभासिय
प्राचीनकर्मग्रंथ । विशेष सहयोगी
मुमुक्षु निरंजना ... साध्वियों के साथ सहयोगी के रूप में कार्य करने वाली समणियों व मुमुक्षु बहिनों के नाम इस प्रकार हैं
१. साध्वी शारदाश्री २. , जगत्प्रभा ३. , शशिकला
कमलयशा , अमितश्री ६. , मर्यादाश्री ७. , प्रज्ञाश्री ८. समणी स्थितप्रज्ञा ६. समणी मधुरप्रज्ञा १०. समणी विशुद्धप्रज्ञा ११. समणी सरलप्रज्ञा १२. समणी परमप्रज्ञा १३. समणी शशिप्रज्ञा
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________________
१४. समणी अक्षयप्रज्ञा
१५. मुदितप्रज्ञा
१६.
उज्ज्वल प्रज्ञा
१७.
सुप्रज्ञा चिन्मयप्रज्ञा
सहजप्रज्ञा
१८.
१६.
33
33
१-२-८४ -लाडनूं
"
29
22
२०. मुमुक्षु मञ्जु
२१.
राकेश
२२.
पुखराज
२३. ज्योति
27
"3
"1
अन्त में मैं सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करती हूं और सबके लिए - मंगलमय उदय की कामना करती हूं ।
( ३३ )
विनयावनत समणी कुसुमप्रज्ञा
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________________
Page #36
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________________
१. अंत
२. अंतटी
३. अंवि
४. अंविप्र
५. अचि
६. अनु
प्रयुक्त ग्रन्थ-संकेत सूची
८. अनुद्वा -
६. अनुद्वाचू -
७. अनुटी - अनुत्तरोपपातिकदशाटीका ( आगमोदय समिति, बम्बई,
सन् १९२० )
अंतकृद्दशा ( अंग सुत्ताणि भाग ३, जैन विश्व भारती लाडनूं
सन् १९७४)
१४. आ—
अंतकृद्दशाटोका ( आगमोदय समिति, बम्बई,
सन् १९२० ) अंगविज्जा ( प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, बनारस, सन् १९५७ ) - अंगविजा प्रस्तावना ( वही )
अभिधानचितामणि कोश (श्री जैन साहित्य वर्धक सभा, अहमदाबाद वि०सं० २०२५)
अनुसरौपपातिकदशा ( अंगसुत्ताणि भाग ३, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९७४)
१०. अनुद्वामटी - अनुयोगद्वार मलधारोयाटीका (श्री केसरबाई ज्ञानमंदिर पाटण, सन् १९३६)
अनुयोगद्वार (संशोधित, अप्रकाशित )
अनुयोगद्वारचूर्ण (श्री ऋषभदेवजी केसरीमल श्वे. संस्था रतलाम, सन् १९२८)
११. अनुद्वाहाटी - अनुयोगद्वार हारिभद्रोया टीका (सेठ देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धार, मुबंई, सं. १९७३)
१२. अनुनंदी— अनुज्ञानंदी (संशोधित, अप्रकाशित )
१३. अनुनंदीटी - अनुज्ञानंदीटीका
( प्राकृत टेक्स्टसोसायटी,
बनारस,
सन् १९६६) आचारांग ( अंगसुत्ताणि भाग १, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १६७४)
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________________
( ३६ )
१५. आचू- आचारांग चूणि (श्री ऋषभदेवजी केसरीमल श्वे. संस्था
रतलाम, सन् १९४१) १६. आचूला- भाचारांगचूला (अंगसुत्ताणि भाग १, जैन विश्व भारती,
लाडनूं, सन् १९७४) १७. आटी- आचारांग टीका (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, सन् " १९७८)
. . १८. आनि- आचारांगनियुक्ति (वही) १९. आप्टे- आप्टे संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी, (प्रसाद प्रकाशन पूना,
सन् १९५७) २०. आवचू १- आवश्यकचूणि १ (श्री ऋषभदेवजी केसरीमल श्वे. संस्था
रतलाम, सन् १९२८) २१. आवचू २- आवश्यकचूणि २ (वही, सन् १९२९) २२. आवटि- आवश्यकटिप्पणकम् (शाह नगीनभाई घेलाभाई जवेरी,
बम्बई) २३. आवनि- आवश्यकनियुक्ति (भैरुलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक
ट्रस्ट, बम्बई, संवत् २०३८) २४. आवमटी- आवश्यकमलयगिरिटीका (आगमोदय समिति, बम्बई,
सन् १९२८) २५. आवहाटी १-आवश्यक हारिभद्रीया टीका १ (भरूलाल कन्हैयालाल
कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, बंबई, संवत् २०३८) २६. आवहाटी २-आवश्यक हारिभद्रीया टीका २ (वही) २७. इभा- इसिभासियाई (सुधर्मा ज्ञान मंदिर, बम्बई) २८. उ- उत्तराध्ययन (जैन विश्व भारती, लाडनूं, द्वितीय संस्करण) २६. उचू- उत्तराध्यनचूणि (देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सं.
१९६३) ३०. उटि- उत्तरज्झयणाणि टिप्पण भाग २ (जैन श्वे. तेरापंथी
महासभा, कलकत्ता) ३१. उनि-.. उत्तराध्ययननियुक्ति (देवचन्द लाल भाई, जैन पुस्तको
द्धार)
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________________
३२. उपा
३३. उपाटी
३४. उशाटी
३५. ओनि
३६. ओनिटी -
३७. ओनिभा -
-
३८. औप
३६. ओपटी -
४०. जंबू -
४१. जंबूटी -
४६. ज्ञा
औपपातिकटीका (पंडित दयाविमलजी ग्रन्थमाला, द्वितीय संस्करण, सं० १९९४)
जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति (संशोधित, अप्रकाशित )
जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका ( नगीनभाई घेलाभाई झवेरी, बम्बई, सन् १९२० )
४२. जीतभा — जीतकल्पभाष्य ( बबलचंद्र केशवलाल मोदी, अहमदाबाद,
सं० १९९४)
४७. ज्ञाटी
( ३७ )
उपासकदशा ( अंगसुत्ताणि भाग ३, जैन विश्व भारती,
लाडनूं सन् १९७४) उपासक वाटीका (2 कार्यालय, कोटा, सन् १९४६ )
४३. जीतभागा — जीतकल्पभाष्य गाथा ( वही )
४४. जीव
४५. जीवटी -
४८. ठाणं
४६. तभा-
( श्री हिन्दी जैनागम प्रकाशक सुमति
उत्तराध्ययनशान्त्या चार्यटीका पुस्तकोद्धार )
ओघनिर्युक्ति ( आगमोदय समिति, बम्बई सन् १९१९)
ओघनिर्युक्तिटीका ( वही ) ओघ नियुक्तिभाष्य ( वही )
औपपातिक (संशोधित, अप्रकाशित )
( देवचन्द लालभाई जैन
जीवाभिगम (संशोधित, अप्रकाशित )
जीवाभिगमटीका ( देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सं० १६६५ )
ज्ञाताधर्मकथा ( अंग सुत्ताणि भाग ३, जैन विश्व भारती, लाडनूं १९७४)
ज्ञाताधर्म काटीका ( श्री सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति, सूरत, सन् १९५२ )
ठाणं (जैन विश्व भारती, लाडनूं, सं० २०३३)
तत्वार्थभाष्य ( मणीलाल रेवाशंकर जगजीवन झवेरी, बम्बई)
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________________
( ३८) ५०. दश- वशवकालिक (जैन विश्व भारती, लाडनूं, द्वितीय संस्करण) ५१. दशअचू- वशवकालिकअगस्यसिंहचूणि (प्राकृत ग्रन्थ परिषद्
वाराणसी, सन् १९७३) ५२. दशचू- वशवकालिक चूलिका (जैन विश्व भारती, लाडनूं, द्वितीय
संस्करण) "५३. दशजिचू- दशवकालिकजिनदासचूणि (श्री ऋषभदेव केसरीमल श्वे.
संस्था, रतलाम, सन् १९३३) "५४. दशनि- दशवकालिकनियुक्ति (प्राकृत ग्रंथ परिषद्, वाराणसी सन्
१९७३) "५५. दशहाटी- दशवकालिकहारिभद्रीया टीका (देवचंद लालभाई जैन
पुस्तकोद्धार, ग्रन्थांक ४७) “५६. दश्रु- दशाश्रुतस्कन्ध (संशोधित, अप्रकाशित) ५७. दश्रुचू- बशाश्रुतस्कन्धणि (पंन्यास श्री मणिविजयजी गणिग्रंथ
माला, भावनगर सं० २०११) ५८. दश्रुनि- दशाथ तस्कन्धनियुक्ति (वही) ५६. दस- दसवेआलियं (जैन विश्व भारती, लाडनूं, द्वितीय संस्करण) ६०. देसी- देसीसहसंगहो (श्री शंकरप्रसाद रावल, बम्बई)
धम्मसंगणि (पालि प्रकाशन मंडल, बिहारसरकार) धातु- धातुपारायणम् (श्री शाहीबाग गिरधरनगर, जैन श्वे. मू०
संघ, अहमदाबाद, सन् १९७१) “६३. नंदी- नंदी (संशोधित, अप्रकाशित) ६४. नंदीचू- नंदीचूणि (प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, बनारस, सन् १९६६) ६५. नंदीटि- नंदोटिप्पणक (वही) ६६. नंदीटी- नंदीटीका (वही) ६७. नकग्रटी- नवीनकर्मग्रन्थटीका (जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर,
सन् १९३४) ६८. निर- निरयावलिका (संशोधित, अप्रकाशित) ६६. निरटी- निरयावलिका टीका (आगमोदय समिति, बम्बई)
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________________
(३६) १७०. निचू- निशीथचूणि (सन्मति ज्ञानपीठ, दुसरा संस्करण, सन्
१९८२) •७१. निचूभा १-४-निशीथचूणि भाग १-४ (वही) .७२. निपीचू- निशीप पीठिका चूणि (बही) ५.७३. निपीभा- निशीथपीठिकाभाष्य ..७४. निभा- निशीथभाष्य (वही) ..७५. निभागा- निशीथमाष्य गाथा (वही) “७६. पंचा- पंचाशकप्रकरण (ऋषभदेव केसरीमल श्वे० संस्था, रतलाम,
सन् १९४१) .७७. पंचाटी- पंचाशकप्रकरणटीका (वही) ७८. पास- पाइयसद्दमहण्णवो (प्राकृत ग्रंथ परिषद्, वाराणसी द्वितीय
संस्करण सन् १९६३) ५७६. पिनि- पिण्डनियुक्ति (देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सन्
१९१८) ८०. पिनिटी- पिण्डनियुक्तिटीका (वही) ८१. प्र- प्रश्नव्याकरण (अंगसुत्ताणि भाग ३, जैन विश्व भारती,
लाडनूं, १९७४) ८२. प्रज्ञा- प्रज्ञापना (संशोधित, अप्रकाशित) ५३. प्रशाटी- प्रज्ञापनाटीका (आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१८) ८४. प्रटी- प्रश्नव्याकरणटीका (वही, सन् १९१९) ८५. प्रसा- प्रवचनसारोद्धार (देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार,
द्वितीय संस्करण, सं० १९८१) ५६. प्रसागा
प्रवचनसारोद्धारगाथा (वही) ८७. प्रसाटी- प्रवचनसारोद्धारटीका (वही) ८८. प्रा- प्राकृतव्याकरण (हेमचन्द्र) (जैन दिवाकर दिव्यज्योति
कार्यालय, ब्यावर, सं० २०१६) ८६. प्राकग्रटी- प्राचीनकर्मग्रन्थ टीका (जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर,
वि० सं० १९७२) .६०. बृकचू- बृहत्कल्पचूणि (हस्तलिखित, लाडनूं भंडार)
कायाला
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________________
( ४० )
६१. बृकटी - बृहत्कल्पटीका (जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन्
१६३६)
बृहत्कल्प निर्युक्ति ( वही )
बृहत्कल्पभाष्य (वही, सन् १९३६)
भगवती ( अंग सुत्ताणि भाग २, जैन विश्व भारती लाडनूं,सन् १९७४)
भगवतीटीका १ ( आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१८ ) भगवतीटीका २ ( ऋषभदेव केसरीमल श्वे० संस्था, रतलाम... द्वितीय संस्करण, सन् १९४० )
९२. बृकनि -
६३. बृकभा -
६४. भ---
६५. भटी
ε६. मनु
मनुस्मृति ( चौखम्भा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी) राजप्रश्नीय (संशोधित, अप्रकाशित )
६७. राज---
६८. राजटी - राजप्रश्नीयटीका ( गुर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय, अहमदाबाद, वि०सं० १९९४)
६६. विपा - विपाक त ( अंग सुत्ताणि भाग ३, जैन विश्व भारती लाडनूं, सन् १९७४)
विपाकटीका ( आगमोदयसमिति, बम्बई, सन् १९२० ) विशेषावश्यकभाष्य (दिव्यदर्शन कार्यालय. अहमदाबाद, वीर सं० २४८६ )
१००. विपाटी१०१. विभा -
१०२. विभाकोटी - विशेषावश्यकभाष्य कोट्याचार्यटीका (श्री ऋषभदेव केसरी -- मल रतलाम, सन् १९३६ )
१०३. विभामहेटी - विशेषावश्यकभाष्य मलधारीहेमचन्द्र
कार्यालय, अहमदाबाद, वीर संवत् २४८६ )
१०४. व्यभा—- व्यवहारभाष्य ( वकील केशवलाल प्रेमचन्द, अहमदाबाद,. सन् १९२६)
१०५. व्यभाटी - व्यवहारभाष्यटीका ( वही )
१०६. शक
१०७. सम
टीका (दिव्यदर्शन
शब्दकल्पद्रुम भाग ४, तीसरा संस्करण (चौखम्बा संस्कृत ग्रन्थमाला, वाराणसी,
सन् १९६६)
समवायांग ( अंगसुत्ताणि भाग ३, जैन विश्व भारती, लाडनूं सन् १९७४)
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________________
१०८. समटी - समवायांगटीका सन् १९३८)
१०६. सू
सूत्रकृतांग ( अंग सुत्ताणि भाग १, जैन विश्व भारती लाडनूं, सन् १९७४)
( प्राकृत टेक्स्टसोसायटी
१११. सूच २ - सूत्रकृतांगचूर्णि द्वितीयश्रुतस्कन्ध ( ऋषभदेव केसरीमल श्वे० संस्था, रतलाम, सन् १९४१ )
-
११२. सूटी १ – सूत्रकृतांगटीकाप्रथमश्रुतस्कन्ध ( आगमोदयसमिति बम्बई, सन् १९१६)
११३. सूटी २ – सूत्रकृतांगटीका द्वितीय श्रुतस्कन्ध, (श्री गोडी पार्श्वनाथ जैन ग्रंथमाला, सन् १९५३)
( ४१ )
( कान्तिलाल चुनीलाल, अहमदाबाद,
११०. सूत्र १ - सूत्रकृतांगचूर्णि वाराणसी, सन् १९७५ )
११५. सूर्य
११६. सूर्यटी —
११७. स्था
११४. सूनि - सूत्रकृतांग नियुक्ति (मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली सन् १६७८)
सूर्यप्रज्ञप्ति (संशोधित, अप्रकाशित )
प्रथमभूतस्कन्ध
सूर्यप्रज्ञप्ति टीका ( आगमोदयसमिति, बम्बई, सन् १६१६ ) स्थानांग ( अंग सुत्ताणि भाग १, जैन विश्व भारती लाडनूं, सन् १९७४)
११८. स्थाटी - स्थानांगटीका ( सेठ माणेकलाल चूनीलाल, अहमदाबाद, सन् १९३७)
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अनुक्रम
स्वकथ्य पुरोवचन प्रस्तुति प्रयुक्त ग्रन्थ-संकेत सूची एकार्थक कोश परिशिष्ट
१. शब्द-अनुक्रम २. विशेष शब्द-विवरण ३. धातु-अनुक्रम
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एकार्थक कोश
अइबल-अतिबल । अइबले महब्बले अपरिमियबले ।
(औप ७१) अंग-अवयव ।
अंग दस भाग भेए अवयवाऽसगल चुण्ण खंडे य । देस पएसे पव्वे साह पडल पज्जव खिले य॥ (उनि १५७) अंग त्ति वा दस त्ति वा भाग त्ति वा भेदे त्ति वा अवयवे त्ति वा चूण्णे त्ति वा खंडे त्ति वा देसे पदेसा पव्वे साहा पडला पज्जवे त्ति वा खिले त्ति।
(उचू पृ ६३-६४) अंगुलेयक-अंगूठी। अंगुलेयकं मुद्देयकं वेंटकं ।
(अंवि पृ १६३) अंचेति-झुकाता है। ___ अंचेति त्ति वा णामेति त्ति वा एगळं। (सूचू १ पृ २४०) अंचेति कंपेति णोल्लसति ।
(सूचू १ पृ २४०) अंतर-छिद्र ।
अंतराणि य छिद्दाणि य विरहाणि य । (निर १/६५) अंतरप्प--अंतरात्मा । ___अंतरप्पा चेतो चित्तमित्ति एगळें । (निपीचू पृ ११२) अंताहार--बचाखुचा खाने वाला।
अंताहारा पंताहारा अरसाहारा विरसाहारा लूहाहारा तुच्छाहारा अंतजीवी पंतजीवी।
(सू २/२/६६) १. देखें-परि० २
३. देखें-परि०२ २. देखें-परि० ३
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२ : अंतिक - अक्कोसेज्ज अंतिक-समीप।
___ अन्तिकमभ्याशमासन्नं समीपम्। (व्यभा १० टी प १००) अंदोलति- झूलता है, घूमता है । · अंदोलति त्ति वा बूया, तधा हंदोलको त्ति वा।।
घुमति त्ति परिघुमति भमते व परिन्भमे ॥ (अंवि पृ८०) अंस- अंश ।
अंसो त्ति व भागो त्ति व एगट्ठा । (बृकभा ३६४५) अंस- भेद ।
अंसा भेदा उत्तरपगडीओ इत्यनर्थान्तरम् । (बृकटी पृ २६) अकम्मवीरिय-प्रमादरहित वीर्य । अकम्मवीरियं ति वा पंडितवीरियं ति वा एगळं ।'
(सूचू १ पृ. १६८) अकिट्ठ–अक्लिष्ट । __अकिट्ठे अव्वहिए अपरिताविए ।
(भ ३/१२६) अकुडिल-ऋजु ।
___ अकुडिले त्ति वा अणिहे त्ति वा एगट्ठा। (दशजिनू पृ ३४७) अकुसल-अकुशल ।
अकुसला अणज्जा अलियाणा अलियधम्मणिरया ।' (प्र २/१४) अक्कोस-आक्रोश ।
अक्कोस- फरुस - खिसण - अवमाणण - तज्जण - निन्भंछण तासण उक्कूजिय।
(प्र १०/१४) अक्कोसेज्ज-आक्रोश करना। ___अक्कोसेज्ज बंधेज्ज रुंभेज्ज उद्दवेज्ज । (आचूला ३/११) १. देखें-परि० ३
३. देखें-परि० २ २. देखें-परि० २
४. देखें-परि०२
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अक्कोह— अक्रोधी
racter fracter खीणक्कोहा ।
अक्खयायार - परिपूर्ण आचार ।
अक्रिया - अप्रवृत्ति ।
अक्खयायारे अभिन्नायारे असबलायारे । ( व्यभा ४ / ३ टी प २७ )
अक्रिया अनारंभ : अवीर्यं अपरिस्पन्द इत्यनर्थान्तरम् ।
अक्षताचार - परिपूर्ण आचार |
अक्षताचारः अभिन्नाचारः असंक्लिष्टाचारः ।
अखंड - पूर्ण ।
अखंड अप्फुडियं अविरलं ।
अखंड - अखण्ड ।
अखंड अविराधितो निरतिचारः ।
अगणिकामिय- अग्नि- दग्ध ।
अगोय - अगोत्र |
अगणिकामिए अगणिभूसिए अगणिपरिणामिए ।
अगए निगोए खीणगोए ।
अगद्ध - अनासक्त ।
अगृद्ध : अनध्युपपन्नोऽमूच्छितः ।
अगृहीतव्य - अग्राह्य |
अगृहीतव्येऽनुपादेये ये ।
अक्कोह - अग्ग
अग्ग - परिमाण |
अग्ग -- प्रधान ।
अग्ग पहाण त्ति एगट्ठा । अगाई वराई एकार्थानि ।
अग्गं ति वा परिमाणं ति वा पमाणं ति वा एगट्ठा ।
: ३
( औप १६८ )
( व्यभा ४ / २ टीप ३५ )
( औप १९ )
( सूचू २ पृ ३१६ )
( नंदीचू पृ ३ )
(भ १५ / ११६ )
( अनुद्वा २८२ )
( व्यभा १० टीप ११३ )
( सूटी १ प ५० )
( आवचू १ पृ २६ )
( जीतभा २५१७ ) ( अंत टी प १६ )
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४ : अग्गि-अज्झत्थिय अग्गि-अग्नि ।
अगणि पुण जाततेओ अणलो वा हुतवहो त्ति जलणो ति । पवणो त्ति य जोति त्ति य अग्गिस्स भवंति णामाणि ।'
(अंवि पृ २५४) अग्घातित-आख्यात ।
अग्घातितंति वा आतिक्खियंति वा एगट्ठा। (आचू पृ ३०३) अग्घुप्पत्ति-अग्नि का उत्पत्ति-स्थान । __ अग्घुप्पत्ति अग्गि8 अग्गिकुंडे य ।
(अंवि पृ २५४) अग्र-प्रधान । अग्रं वयं प्रधानं ।
(सूटी १ प ७२) अचपल-स्थिर।
अचपल: स्थिरस्वभाव: अकुक्कुचः । (व्यभा ४/१ टी प २६) अचल-स्थिर ।
अचलं धुवं तधा ठाणं सस्सतं मखिलं ति वा ।
अजरामरं ति वा बूया णियतं ति अवत्थितं ॥ (अंवि पृ ७८) अचियत्त-- अप्रिय ।
अचियत्तं ति वा अपियत्तं ति वा एगळं। (व्यभा ४/१ टी प ५६) अच्चिय-अचित । अच्चिय-वंदिय-पूइय-माणिय-सक्कारिय-सम्माणिया।
(ज्ञा० १/१/२७) अच्छ-साफ-सुथरा ।
अच्छे सण्हे लण्हे घ8 मढे निरए निम्मले निप्पंके (भ २/११८) अज्झत्थिय–मनोगत चिंतन । अज्झथिए चितिए कप्पिए पत्थिए मणोगए संकप्पे ।'
___ (विपा १/१/४१) १. देखें-परि० २
३. देखें-परि० २ २. देखें- परि० २
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अज्भयण- -अध्ययन ।
अज्झयणं अज्झीणं आओ भवणा य एगट्ठा ।
अज्भोववण्ण- तन्मय ।
अज्भोववण्णा तच्चित्ता तम्मणा तल्लेसा इति एगट्ठा ।
अज्भोस - अध्यवसाय ।
अज्झोसो भावण त्ति वा एगट्ठ ।
अट्ट – दुःखी ।
अट्टदुहट्टवसट्ट |
अड्ड - धनवान् ।
अड्डो य सुहभागी य वसुमंतो ।
अनंत अनंत |
अनंतराय -- अन्तराय - विघ्न रहित ।
अनंतराए निरंतराए खीणंतराए ।
अणंतरिय - सचेतन ।
अतरिया अनंतरहिता सचेतना |
अण ऋण ।
अति वारिणति वा एगट्ठा ।
अनंत अणुत्तरं निव्वाघायं निरावरणं कसिणं पडिपुण्णं । ( औप १६६ )
अणण्ण-अभिन्न ।
अणणं अभिणं अपृथग् ।
अणपभो - पराधीन, भूताविष्ट ।
अज्भयण-- अणल : ५
अणप्पज्झो अनात्मवश: ग्रहगृहीतः ।
अल-असमर्थ |
अणलो अपच्चलो त्ति य, होंति अजोगो य एगट्ठा ।
( निपीचू पृ ५ )
( आचू पृ ४१ )
( आचू पृ ३७३ )
( उपा २ / २८)
(अंबि प १०५ )
( अनुद्वा २८२ )
( दश्रुचू प ५१ )
( दश जिचू पृ २०४ )
( निपीच पृ ३७ )
( निभा २ पृ २६ )
( निभा ३५०४ )
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६ : अणाइल-अणु अणाइल-अनाविल । अणाइले अव्वहिते अद्दीणमाणसे ।
(आचूला १५/३४) अणाइले अकसाई मुक्के । अणाइलभाव-अनाविलभाव । अणाइलभावो अणिग्गयभावो सचित्तो अबहिलेस्सो त्ति एगट्ठा।
(आचू पृ २४१) अणाउय-अनायुष्य (मुक्त) । अणाउए निराउए खीणाउए ।
(अनुद्वा २८२) अणाम-अनाम । अणामे निण्णामे खीणनामे ।
(अनुद्वा २८२) अणायतण-अनायतन (पापस्थान)। सावज्जमणायतणं असोहिठाणं कुसीलसंसग्गी एगट्ठा होति......।
(ओनि ७६३) अणावरण-आवरण रहित । अणावरणे निरावरणे खीणावरणे ।
(अनुद्वा २८२) अणासव -अनास्रव। अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्सावी असंकि लिट्ठो सुद्धो।
(प्र ६/२३) अणासवे अममे अकिंचणे छिन्नसोए निरुवलेवे।' (राजटी पृ ३४) अणिट्ठ-अनिष्ट। अणिठे अकंते अप्पिए असुभे अमणुण्णे अमणामे दुक्खे णो सुहे ।
(सू २/१/५१) अणु-अणु।
अणुः परमाणुः एकांशोऽभेदो निर्भेद इति (विभाकोटी पृ १७०) १. देखें-परि० २
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अणुओग-अणुमात्र : ७ अणुओग-अनुयोग।
अणुओगो य नियोगो भासा विभासा य वत्तियं चेव ।
एए अणुओगस्स य नामा, एगट्ठिया पंच ॥' (आवनि १३१) अणुकंपण-दया। अणुकंपणं अणुकंपा दया।
(निपीचू पृ० ७६) अणुण्णा-अनुज्ञा।
अणुण्णा उण्णमणी णमणी णामणी ठवणा पभवो पभावणपयारो। तदुभय हिय मज्जाया णाओ मग्गो य कप्पो य ॥ संगह संवर णिज्जर ठिइकरणं चेव जीववुड्डिपयं । पदपवरं चेव तहा, वीसमणुण्णाए णामाई ॥
(अनुनंदी २८) अणुत्तर-अनुत्तर।
अणुत्तरे णिव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे। (औप १५३) अणुत्तरं अणंतं कसिणं पडिपुण्णं निरावरणं वितिमिरं विसुद्धं ।'
(उ २६/७२) अणुत्तर–श्रेष्ठ।
अणुत्तरं ति वा अणुत्तमं ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ २८७) अणुपविट्ठ-अनुप्रविष्ट ।
तधा अणुपविट्ठो त्ति तधा अतिगतो त्ति वा । तधा गाढोपगूढे त्ति गाढलीणं ति वा वदे ।। तधा अल्लीणमपल्लीणो अच्चलीणो त्ति वा वदे ।
अब्भंतरभंतरगो एते सद्दा समा भवे ॥' (अंवि पृ ८७) अणुमात्र-थोड़ा। अणुमात्रं थोवं अप्पं।
(दशअचू पृ १३७) १. देखें-परि० २
३. देखें-परि०२ २. देखें--परि० २
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८ : अणुव्विग्ग–अतिगत अणुब्बिग्ग—अनुद्विग्न । अणुव्विग्गं अचवलं अभीयं ।
(दशजिचू पृ २८६) अणुसंचरइ-जाता है।
अणुसंचरइ धावति गच्छति वा एगट्ठा।' (आचू पृ १३) अणुसट्ठि-स्तुति । अणुसट्ठि थुइ त्ति एगट्ठा।
(निभा ६६०८) अणुसमय-निरन्तर । अण्समयनिरन्तरमवीइ।
(उनि २१५) अणेगपडिरय - अनेक रूप से कहा जाने वाला।
अणेगपडिरयंति वा अणेगपज्जायं ति वा अणेगणामभेदं ति वा एगट्ठा।
(आवचू १ पृ २६) अणोज्जा - अनवद्या (महावीर की पुत्री का नाम)।
अणोज्जा ति वा पियदंसणा ति वा। (आचूला १५/२३) अण्ण-पृथक् । अण्णं भिण्णं पृथग् ।
(निपीनू पृ ३७) अण्णाय-अज्ञात ।
अण्णायं अदिळं अस्सुतं अमुयं अविण्णायं । (ज्ञा १८/१४३) अण्हयकर-आस्नवकर (मन को आश्रवों में प्रवृत्त करने वाला)। ___ अण्हयकरे छेयकरे भेदकरे।
(आचूला १५/४५) अतिगत-भीतर तक प्रविष्ट ।
अतिदूरे पविट्ठो त्ति अतिगतो त्ति व दूरत । दूरातिसरितो व त्ति दूरोगाढो त्ति वा पुणो ॥ तधा अणुपविट्ठो त्ति तधा अतिगतो त्ति वा ।
तधा गाढोपगूढे त्ति गाढलीणं ति वा वदे ।। (अंवि पृ८७) १. देखें—परि० ३
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अतिदूर-अत्थ : ६ अतिदूर-अतिदूर। __ अतिदूरं अति दिग्घं अतिम्महंतेसु ।
(अंवि पृ २३६) अतियार-अतिचार । __अतियार त्ति वा अविसोहीओ त्ति वा एगट्ठा। (आवचू १ पृ १०२) अतिवत्त-अतिवर्तन ।
अतिवत्तमतिक्कतं गतं त्ति य विणिग्गतं । विणियत्तं पुराणं ति जुण्णं ओपुप्फ णिप्फलं ॥ सुक्खं मलितं विसिणं ति, उवउत्तं झीणमेव य । खइयं पितं ति वा भुत्तं णिट्ठितं ति कतं ति वा ॥ सम्मतिं अतीतं ति समतिच्छियमतिच्छियं ।
ओहिज्जतं ओहसितं पहीणं ति पहिज्जते ॥' (अंवि पृ ८१) अतुरिय–अत्वरित । अतुरियमचवलमसंभंतं ।
(ज्ञा० १/१/१९) अत्त-प्रिय । अत्ता इट्ठा कंता पिया मणुण्णा ।
(उचू पृ २१२) अत्तय-पुत्र अत्तए त्ति आत्मजः सुतः ।
(विपाटी प ३५) अत्तए त्ति आत्मजः अङ्गजः ।
(ज्ञाटी प १२) अत्तव-आत्मवान् ।
अत्तवं ति वा विन्नवं ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ २८६) अत्ताण-अत्राण ।
अत्ताणा असरणा अणाहा अबंधवा बंधुविप्पहूणा। (प्र १/२६) अत्थ-अर्थ (कारण)। अत्थो त्ति वा हेउ त्ति वा कारणं त्ति वा एगट्ठ।
(निचूभा ४ पृ ३८८) १. देखें-परि० २
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१० +3
अत्थयति--अधण्ण
अत्थयति - याचना करता है ।
अत्थयति त्ति वा पत्थयति त्ति वा एगट्टा | ( दशजिचू पृ ३३४ - ३५ ) अत्थयति त्ति वा मग्गइत्ति वा एगट्ठा ।"
( दश जिचू पृ७४ )
अत्थाम
- शक्तिरहित ।
――
अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे । अस्थि - अर्थी - चाहनेवाला ।
अत्थी गवेसी लुद्धगा कंखिया पिवासिया । अर्थाध्यवसाय - अवाय ( मतिज्ञान का एक भेद) । अर्थाध्यवसायोऽपायः निर्णयो निश्चयोऽवगमः इत्यनर्थान्तरम् ।
अदिण्णादाण - चोरी
-
अदीण अदीन |
अद्धा काल, समय ।
तस्स य णामाणि गोण्णाणि होंति तीसं, तंजहा - चोरिक्कं, परहडं, अदत्तं, कूरिकर्ड, परलाभो, असंजमो, परधणम्मि गेही, लोलिक्का, तक्करत्तणं, अवहारो, हत्थलहुत्तणं, पावकम्मकरणं, तेणिक्का, हरणविप्पणासो, आदियणा, लुंपणा धणाणं, अप्पच्चओ, ओवीलो, अक्खेवो, खेवो, विक्खेवो, कूडया. कुलमसी, कंखा, लालप्पण, पत्थणा, आससणाय वसणं, इच्छा मुच्छा, तण्हा गेही, निर्याडिकम्मं, अपरच्छत्ति । ( प्र० ३ / २)
अद्धा काल इत्यनर्थान्तरम् ।
अदी अविमणे अकलुसे अणाइले अविसादी अपरितंतजोगी ।
अधण - निर्धन |
अधणेसु दुग्गतेसु य परिहार्यतेसु ।
अधण्ण- अधन्य ।
अण्णो भगोत्तिय असिद्धत्थो ।
१. देखें- परि० ३
(भ ७ / २०३ )
२. देखें - परि० २
( राज ७३८ )
( नंदीटी पृ ४६ )
( अंत ६ / ५७ )
( व्यभा २ टी प ११ )
(अंवि पृ २५० )
(अंवि पृ ८१ )
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अधन्न- -अधन्य ।
अन्ने अपुन्ने अकत्थे अकलक्खणे । अधम्मत्थिकाय-अधर्मास्तिकाय |
इ वा अधरा - अधम ।
अधम्मे इवा, अधम्मत्थिकाए इ वा पाणाइवाए इवा, मुसावाए इवा, आदिण्णादाण इवा, मेहुणे इ वा परिग्गहे इ वा, कोहे इ वा, माणे इ वा, माये इ वा, लोहे इवा, रागे इवा, दोसे इ वा, कलहे इवा, अब्भक्खाणे इ वा पिसुणे इ वा परपरिवाए इबा, रइ अरई इवा, मायामोसे इवा, मिच्छादंसणसल्ले इ वा, रियाअस्समिती इवा, भासा समिती इवा, एसणाअस्समिती इ वा, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणा अस्समिती इ वा उच्चार पासवणखेल सिंघाणजल्ल परिद्वावणियाअस्समिती इवा, मणअगुत्ती इ वा वइअगुत्ती इवा, काय अगुत्ती • सव्वे ते अधम्मत्थिकायस्स अभिवयणा । ' (भ २०/१५)
अधरा अधमा जघन्या ।
अधिकरण - कलह ।
अहिकरणमहोकरणं
अहरगतीगाहणं अद्धितिकरणं च तहा, अहीरकरणं च
अधिकरणं कलहः प्राभृतमित्ये कोऽर्थः ।
अधितिकरण - अधैर्य ।
अधन्न - अनर्थ : ११
१. देखें- परि० २
अहोत रणं ।
अहीकरणं ॥
अधितिकरणं अधिकरणं अल्पसत्वम् । अनगार - साधु
अनगारो मुनिमौंनी साधुः प्रव्रजितो व्रती । श्रमणः क्षपणश्चैव यतिश्चैकार्थवाचकाः || अनर्थ - निष्कारण ।
अनर्थ: अप्रयोजनमनुपयोगो निष्कारणेति पर्यायाः ।
( राज ७३८ )
( निचुभा ३ पृ ३८ )
( निभागा २७७२ )
( ब्रुकटी पृ ७५१ )
( निचुभा २ पृ २७६ )
( उशाटी प १६ )
( आवहाटी २ पृ२२८ )
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१२ : अनल-अपसारित
स
।
अनल-अयोग्य । अनल: अयोग्यश्च एकार्थाः ।
(निचूभा ३ पृ २२६) अनायतन- अस्थान (अनाचार)। अनायतनं असम्भव: अनाचारः अस्थानमित्यनान्तरम् ।।
(सूचू १ पृ २२०) अनित्य-अनित्य । अनित्यं अध्रुवं चलं।
(उचू पृ १८८) अनुकाश-विशेष विकास। अनुकाशो विकाशः प्रसरः ।
(ज्ञाटी प २४) अनुगत अनुमत ।
अनुगता अनुमता अनुबद्धा इत्येकोऽर्थः । (उचू पृ ११०) अनुलोम-अनुकूल । अनुलोमं अनुकूलं अनुगुणम् ।
(जीवटी प ३) अन्विष्ट–खोजा गया। अन्विष्टं याचितं गवेसियं ।
(निचूभा २ पृ ६६) अपगत-दूर होना। अपगते अपेते वेदिते।
(पंचा प ११) अपमट्ट-अप्रमार्जित ।
अपमठे अपलिखिते अपसारिते अपणा मिते अपवट्टिते अपलोलिते
अपवत्ते अपणते अपविठे अपछुद्धे आपडिते। (अंवि पृ १७१) अपमाण-अपमान ।
अपमाणमसक्कारं णिराकारं पराजयं । (अंवि पृ ८६) अपसारित-दूर किया हुआ।
अपसारिते अपणासिते अपकड्ढिते अपणते अपछुद्धे अपहिते अप्फिडिते।
(अंवि पृ १६६)
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अपातय- अब्भहियतर : १३
अपातय-अनावृष्टि ।
अपातयमणावुट्ठि सस्सवापत्तिमेव य । (अंवि पृ १०) अपात्र-अयोग्य । अपात्रं अयोग्यं अभाजनम् ।
(निचूभा ४ पृ २५५) अपूर्व--जो पहले नहीं था।
अपूर्वः अदृष्ट: अश्रुतः अविदितः अविचालितः। (आवचू १ पृ ५४४) अप्पकम्मतर-अल्पकर्म ।
अप्पकम्मतराए अप्पकिरियतराए अप्पासवतराए। (भ ५/१३३) अप्पडिबद्ध-अप्रतिबद्ध ।
अप्पडिबद्धा सुइभूया लहुभूया अप्पग्गंथा। (सू २/२/६५) अप्पियववहार-अष्टांग निमित्त (उत्पाद) का भेद । . अप्पियववहारियं ति वा विसेसादिळं ति वा एगट्ठा ।
(आवचू १ पृ ३७६) अबंभ-अब्रह्मचर्य ।
अबंभं, मेहुणं, चरंतं, संसग्गि, सेवणाधिकारो, संकप्पो, बाहणा पदाणं, दप्पो, मोहो, मणसंखोभो, अणिग्गहो, वुग्गहो, विघाओ, विभंगो, विब्भमो, अधम्मो, असीलया, गामधम्मतत्ती, रती, रागो, कामभोगमोरो, वेरं, रहस्सं, गुज्झ, बहुमाणो, बंभचेर-विग्घो, वावत्ति, विराहणा, पसंगो, कामगुणो त्ति ।'
(प्र ४/२) अबालसील-प्रौढ शील वाला।
अबालसीलो अचंचलसीलो मज्झत्थसीलो। (दश्रुचू प २१) अब्भहियतर-अत्यधिक, पूर्ण ।
अब्भहियतरं विउलतरं विसुद्धतरं वितिमिरतरं ।। (भ ८/१८७) १. देखें-परि०२ २. देखें- परि० २
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१४ : अब्भास-अभिहणेज्ज
अब्भास-अभ्यास। अब्भास भावण त्ति य एगलैं ।
(बृकभा १२६०) अब्भुग्गय-अभ्युद्गत ।
अब्भुग्गएसु अब्भुज्जएसु अब्भुण्णएसु अब्भुट्ठिएसु। (ज्ञा १/१/३३) अभिगच्छति-प्राप्त करता है ।
अभिगच्छति त्ति वा पावइ त्ति वा एगट्ठा।' (दशजिचू पृ ३१६) अभिज्झा-लोभ ।
अभिज्झा लोभो प्रार्थनेत्यनर्थान्तरम् । (सूचू २ पृ ३६१) अभिप्पाय-अभिप्राय ।
अभिप्पायो त्ति वा बुद्धि त्ति वा एगट्ठ। (आचू पृ ५४३) अभिलसंति–इच्छा करते हैं। अभिलसंति वा पत्थयंति वा कामयंति वा अभिप्पायंति वा एगट्ठा।
(दशजिचू पृ २१५) अभिवायण-अभिवादन । अभिवायणं वंदण पूयणं च ।
(दशचू २/९) अभिसंभूत-उत्पन्न ।
अभिसंभूता, अभिसंजाता, अभिणिव्वट्टा, अभिसंवुड्डा। (आ ६/२५) अभिहणति- हनन करता है। अभिहणति तज्जेति तालेति परितालेति परितावेति उद्दवेति ।'
__ (इभा ३४/२) अभिहणेज्ज- हनन करे।
अभिहणेज्ज वत्तेज्ज लेसेज्ज संधंसेज्ज संघट्टेज्ज परियावेज्ज किलामेज्ज ।
(आचू १/८८).
१. देखें--परि० ३ २. देखें-परि०३
३. देखें-परि० ३ ४. देखें-परि० ३
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अभीय- अभीत |
अभीए अतत्थे अचलिए असंभंते अणाउले अणुव्विग्गे ।
अभूतिभाव - विनाशभाव ।
अभी अत्थे अणुव्विग्गे अक्खुभिए अचलिए असंभंते ।
अमाण-निरभिमानी ।
अमाणा निम्माणा खीणमाणा ।
अमाया - अमायावी ।
अभूतिभावीत्ति वा विणासभावो त्ति वा एगट्ठा। ( दशजिचू पृ ३०२ )
अमाया निम्माया खीणमाया ।
अमूढ - अमूढ |
अमूढो मतिमं धीरो ।
अमोह - निर्मोही ।
अमोहे निम्मोहे खीणमोहे |
अयन - ज्ञान ।
अयनं गमनं परिच्छेदं ।
अरंजर - घड़ा |
अभीय-अरति
अरंजरो अलिंदो त्ति कुंडगो माणको त्ति वा । घडको कुंढारको वत्ति वारको कलसो त्ति वा ॥ गुलमगोत्ति वा बूया तधा पिढरको त्ति वा । तधा मल्ल भंडं त्ति पत्तभंड त्ति वा पुणो ॥ "
अरति - अप्रीति ।
अरति सोगपागं च अप्पीइमतिसं तहा |
१. देखें- परि० २
१५
( ज्ञा १ / ८ /७३)
( अंत ६/४१ )
( औप १६८ )
( औप १६८ )
(अंवि पृ ५६ )
( अनुद्वा २८२ )
( प्रसा टीप २०८ )
( अंवि पृ ६५ )
(अंवि पृ १२ )
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१६ :
अरय–अलं
अरय -निर्मल।
अरए विरए णीरए णिम्मले वितिमिरे विसुद्धे । (स्था ६/७२) अरह-अर्हत् ।
अरहा जिणे केवली तीयपच्चुप्पन्नमणागयवियाणए सव्वण्णू सव्वदरिसी।
(भ २/३८) अरिहं जिणे जाए केवली सव्वण्णू सव्वभावदरिसी'।
(आचूला १५/३६) अरि-शत्रु।
अरी इ वा, वेरिए इ वा, घायए इ वा, वहए इ वा, पडिणीयए इ वा, पच्चामित्ते इ वा।
(जंबू २/२८) अरिट-अरिष्ट (एक प्रकार का मद्य ।
अरिट्ठो आसवो व त्ति मेरको त्ति मधु ति वा। (अंवि पृ ६४) अरिह-योग्य ।
अरिहो भायणं जोग्गो पत्तं ति वा एगठें। (आवचू १ पृ ५०६) अर्थते-जाया जाता है। अद्यते गम्यते अट्यते ।'
(भटी पृ १४३१) अर्पित-अर्पित। अर्पितं गमितं दर्शितम् ।
(उचू पृ १०१) अर्यते-प्राप्त करता है। अर्यते गम्यते साध्यते ।
(विभामहेटी १ पृ ३४१) अर्हत्-पूजित । अर्हन् पूजितो पूजोचितः ।
(उपाटी पृ १३०) अलं-पर्याप्त । अलं पर्याप्तं परिपूर्णम् ।
(ज्ञाटी प ४८) १. देखें-परि० २
३. देखें--परि० ३ २. देखें-परि० २
४. देखें-परि०३
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अलस-अवड्ड : १७
अलस-अलसिया (प्राणी विशेष) । अलसो त्ति वा गडूलो त्ति वा सुसुणागो त्ति वा एगट्ठ।
(निपीचू पृ ६६) अलस-मंथर।
अलसमभारो भीरू अतिकिमणो मंथरो त्ति वा सद्दो । मज्झत्थो त्ति पमत्तो त्ति पंगुलो दिग्धपस्सि त्ति ॥
(अंवि पृ २४१) अलिय--असत्य ।
तस्य य नामामि गोण्णाणि होति तीसं, तं जहा-अलियं, सढं, अणज्जं, मायामोसो, असंतकं, कूडकवडमवत्थु, निरत्थयमवत्थगं, विद्देसगरहणिज्जं, अणुज्जगं, कक्कणा, वंचणा, मिच्छापच्छाकडं, साती, ओच्छन्नं, उक्कूलं, अट्ट, अब्भक्खाणं, किब्बिसं, वलयं, गहणं, मम्मणं, नूमं, नियती, अप्पच्चओ, असमओ, असच्चसंधत्तणं,
विवक्खो, अवहीयं, उवहि-असुद्ध, अवलोवो त्ति । (प्र २/२) अलोह-लोभमुक्त। अलोहा निल्लोहा खीणलोहा ।
(औप १६८) अल्पश्रुत-अल्पज्ञानी। - अल्पश्रुतो अबहुश्रुतोऽगीतार्थः ।
(व्यभा ६ टी प ७) अवकड्डित-पराजित।
अवकड्डिते पराहूते पराजित परम्मुहे । (अंवि प १०८) अवगाढ-उत्पन्न।
अवगाढ आरूढ प्रपन्न इति चैकोऽर्थः । (उशाटी प २४७) अवड्ड-आधा
अवडढं ति वा अदं ति वा एगट्ठा। । (दशजिचू पृ २२)
१. देखें-परि० २
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१८ :
अवस्था —— अविविचित्त
अवत्था - अवस्था ।
पतिट्ठा ठवणा ठवणी अवस्था संठिती ठिती । अवत्थाणं अवत्थाया एगट्ठा चिट्ठणा त्तिय ॥
अवदात- शुभ्र |
अवदातं अतिपण्डरं स्निग्धं वा निर्मलं ।
अवद्य - गर्हित |
अवयं गर्हितं मिच्छत्तं अण्णाणं अविरती । अवद्यं गर्हितं पापम् ।
अवधान-मर्यादा ।
अवधानं अवधिः मर्यादा ।
अवन - ज्ञान ।
अवनं गमनं वेदनमिति पर्यायाः ।
अवसर -- प्रस्ताव |
अवसरो विभाग: प्रस्तावः ।
अवाय - अवाय ( मतिज्ञान का एक भेद ) ।
अविजात- विनीत ।
आवट्टणया पच्चावट्टणया अवाए बुद्धी विण्णाणे । '
अविजातो विनीत अनुकूलः ।
अविमनस् – जागरूक ।
अविमनाः अविगतचित्ता अशून्यमना ।
अविराय - अविध्वस्त |
अविरायं अविलीणं अविद्धत्थं ।
अविविचित्त-पृथक् किये बिना ।
( जीतभा १९६६ )
( आवचू १ पृ ५९३ )
( आवहाटी २ पृ २२७ )
( सूचू १ पृ १४७ )
( विभाकोटी पू६७६ )
( नंदीचू पृ १३ )
( आवहाटी पू६ )
( नंदी ४७ )
( उच् पृ १०२ )
( अनुटी प ४ )
अविविचित्ता अविघूणित्ता असंमुच्छित्ता अणणुतावित्ता । (सू२/४/१८)
१. देखें - परि० २
२. देखें- परि० २
( जीव ३ / ११८ )
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अविसुद्ध - अविशुद्ध | अविसुद्ध
अवेयण - अवेदन |
अविवित्त, लोहिल्ल ।
अवेयणे निव्वेयणे खीणवेयणे ।
अव्यक्त - सांख्य सम्मत प्रकृति का एक नाम ।
अव्यक्तं प्रकृतिरित्यनर्थान्तरम् ।
अशाश्वत अशाश्वत ।
अशाश्वतः अनित्यो विनाशी ।
अशेष- संपूर्ण ।
अशेषं कृत्स्नं सम्पूर्णं सर्वमित्यनर्थान्तरम् ।
अश्लाघा -अवज्ञा ।
अश्लाघा वा अवज्ञा वा अनादरः ।
असंजण-अनासक्ति ।
असंजण त्ति असंगो अगेही ।
असण- अशन |
असणं पाणं खाइमं साइमं ।
असपज्जाय - असपर्याय |
असमंजसा अननुकूला अनभिप्रेता ।
असरण - अस्मरण ।
अविसुद्ध - असात
असरणं अचिन्तणं अणाढायमाणं ति एगट्ठा ।
असात - दुक्ख ।
१. देखें - परि० २
असपज्जायत्ति वा णत्थि भावो त्ति वा अविज्जमाणभावो त्ति वा
एगट्ठा ।
( आवचू १ पृ २६ )
असमंजस - प्रतिकूल ।
(उच्च् पृ २५ )
( आचू पृ ३०३ )
( निभा ४ १४४ )
१६
( अनुद्वा २-२ )
( आवटि प २३ )
( सूटी १ पृ ४२ )
(सूच २ पृ ४११ )
( पंचा पृ ५१ )
( निपीचू पृ १२ - ३० )
असतं ति वा अपरिणिव्वाणं ति वा महत्भयं ति वा एगट्ठा ।
( प्रसाटी प ५१ )
( आच् पृ ३६ )
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२०
असाहस - अहिंसा
असतं ति वा दुक्खं ति वा अपरिणिव्वाणं ति वा भयं ति वा एगट्ठा
(आचू पृ ३१-३२)
असाहस - अचंचल ।
असाहसो अचवलो अवत्थियमवेगिओ । अणुब्भडो अरभसो अणुज्जलमचंचलो ||
असुइ - अपवित्र ।
असु वा अचोक्खं पूइयं ।
अस्थान - अनुचित |
अस्थानम् अयुक्तम् असाम्प्रतम् । कोना अस्सिति वा कोडित्ति वा एगट्ठा ।
I
अस्सि - कोण,
अहाअत्थ - यथार्थ
अहाअत्थं अहातच्चं अहामग्गं ।
अहाछंद – स्वच्छन्द |
अहाछंदो इच्छाछंदो त्ति एगट्ठा ।
अहासुत्त - विधि के अनुसार ।
अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं अहासम्मं ।
अहिंसा-अहिंसा |
(अंवि पृ ४ )
( राज 8 )
(भ २ / ५६ )
दीवो, ताणं, सरणं, गती, पइट्ठा, निव्वाणं, निव्वुई, समाही, सत्ती, कित्ती, कंती रतीय, विरती य, सुयंग, तित्ती, दया, विमुत्ती, खंती, समत्ताराहणा, महंती, बोही, बुद्धी, धिती, समिद्धी, रिद्धी, विद्धी, ठिती, पुट्ठी, नंदा, भद्दा, विसुद्धी, लद्धी, विसिट्ठदिट्ठी, कल्लाणं, मंगलं, पमोओ, विभूती, रक्खा, सिद्धावासो अणासवो, केवलीणं ठाणं, सिव-समिईसील - संजमो त्तिय सीलपरिघरो, संवरो य, गुत्ती, ववसाओ, उस्सओ य जणो, आयतणं जयणमप्पमाओ, आसासो, वीसासो, अभओ, सवूस्स वि अमाघाओ, चोक्खपवित्ता, सुती, पूया, विमल - पभासा य, निम्मलत्तरति । एतमादीणिनिययगुण निम्मियाई पज्जवणामाणि होंति अहिंसाए भगवतीए ।
( प्र ६ / ३)
१. देखें - परि० २
( सूटी १ पृ १६० )
(अनुद्वाचू पृ ५५ )
(स्था ७ / १३ )
( प्रसागा १२१ )
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अहिट्ठयति-आओसण : २१ अहिंसा इ वा अज्जीवाइवातोत्ति वा पाणातिपातविरइ ति वा एगट्ठा ।
(दशजिचू पृ २०) अहिट्ठयति-आचरण करता है।
अहिट्ठयति त्ति वा आयरइ त्ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ ३२७) आइक्खइ-कथन करता है। आइक्खइ भासेइ पण्णवेइ परूवेइ ।'
(भ २/३०) आइक्खामि-कथन करता हूं। आइक्खामि विभयामि (विभावेमि) किट्टेमि पवेदेमि ।'
(सू २/१/११) आइण्ण-व्याप्त।
आइण्णं वितिकिण्णं उवत्थडं संथडं फुडं अवगाढावगाढं ।' (भ ३/४) आइन्न–विनीत ।
आइन्ने य विणीए य भद्दए वा वि एगट्ठा । (उनि ६४) आउट्टि–हिंसक।
___ आउट्टि त्ति वा अन्मुट्ठि त्ति वा एगट्ठा । (आचू पृ २७५) आउडिज्जमाण-पीटे जाते हुए।
आउडिज्जमाणा वा हम्ममाणा वा तज्जिज्जमाणा वा ताडिज्जमाणा वा परिताविज्जमाणा वा किलामिज्जमाणा वा उद्दविज्जमाणा वा ।'
(सू २/२/४०) आओडावेइ-प्रवेश कराता है ।
आओडावेइ त्ति आखोटयति प्रवेशयति ।" (विपाटी प ७२) आओसण-आक्रोश । आओसणा निभंच्छणा उद्धंसणा।'
(निर ८२) १. देखें--परि०२
५. देखें-परि० २ २. देखें-परि० ३
६. देखें-परि० २ ३. देखें-परि० ३
७. देखें-परि० ३ ४. देखें-परि०३
८. देखें-परि० २
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२२ : आओसेज्ज-आगासत्थिकाय आओसेज्ज-आक्रोश करना।
आओसेज्ज वा हणेज्ज वा बंधेज्ज वा महेज्ज वा तज्जेज्ज वा तालेज्ज वा निच्छोडेज्ज वा निब्भच्छेज्ज वा ।'
(उपा ७/२५) आकुट्टि- हिंसा। __ आकुट्टिः छेदनं हिंसा।
(आवमटी प ४८१) आक्रोश-आक्रोश।
आक्रोशो निर्भर्त्सना उद्धर्षणा एते समानार्थाः । (निरटी पृ १२) आख्यात- कहा हुआ। आख्यातं प्ररूपितमित्येकोऽर्थः ।
(उचू पृ १) आख्यातुम्-कहने के लिए। आख्यातुं वा प्रज्ञापयितुं वा संज्ञापयितुं वा विज्ञापयितुं वा ।
(ज्ञाटी प ५५) आगत-विज्ञात । आगतं आगमितं गुणियं च एगट्ठा ।
(आचू पृ २२१) आगम-उत्पत्ति ।
आगमः हेतुः प्रभवः प्रसूतिराश्रवमित्यनर्थान्तरम् । (सूचू २ पृ ४०८) आगार -आकार, आकृति । आगारो त्ति वा आगिति त्ति वा संठाणं ति वा एगट्ठा ।
(आवचू १ पृ ५५-५६) आगार-घर । आगारं ति वा गिहं ति वा एगट्ठा ।
(आचू पृ १८०) आगासत्थिकाय-आकाशास्तिकाय ।
आगासे इ वा, आगासत्थिकाए इ वा, गगणे इ वा, नभे इ वा, समे इ वा, विसमे इ वा, खहे इ वा, विहे इ वा, वीयी इ वा, विवरे इ वा,
अंबरे इ वा, अंबरसे इ वा, छिड्डे इ वा, झुसिरे इ वा, मग्गे इ वा, १. देखें-परि०३
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आग्राहयति - आणंतरिय
२३
विमुहे इवा, अट्टे इ वा वियट्टे इ वा आधारे इ वा वोमे इवा, भाय इवा, अंतलिक्खे इ वा, सामे इ वा, ओवासंतरे इ वा, अगमे इवा, फलिहे इवा, अणंते इवा । जे यावण्णे तहप्पगारा सब्वे ते आगासत्थि कायस्स अभिवयणा । (भ २० / १६)
आग्राहयति - पूर्ण रूप से ग्रहण कराता है ।
आग्राहयति अर्थापयति वा आख्यापयति वा प्रत्याययति ।
आघवणा - आख्यान, कथन ।
आघवणाहि पण्णवणाहि सण्णवणाहि विण्णवणाहि । ( निर १ / १०६ ) आघfar - कथित
आघवियं पण्णवियं परूवियं दंसियं णिदंसियं उवदंतियं । ( अनुनंदी 5 ) आचार - शील ।
आचारो त्ति वाऽऽचरणं ति वा संवरो त्ति वा संजमो त्ति वा बंभचेरं ति वा एगट्ठ | ( सूचू२ पृ ४०३)
आचिक्खति - कथन करता है
आचिक्खति कधेति त्ति जंपति भणति त्ति वा ।
आढाइ - आदर करता है ।
( भटी पृ ६६१ )
आणंतरिय - आनन्तर्य ।
आढाइ परिजाणे वंदइ णमंसइ सक्कारेइ सम्माणेइ । ' ( सू २ / ७ / ३३ )
१. देखें - परि० २
२. देखें - परि० ३
३. देखें- परि० २
आतरियं ति वा अणुपरिवाडि त्ति वा अणुक्कमे त्ति वा एगट्ठा ।
( आवचू १७२ )
( अंवि पृ ८३ )
४. देखें- परि० ३
५. देखें - परि० ३
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२४ : आणा-आदेश
आणा-आज्ञा । आण त्ति उववायो त्ति वा उवदेसो त्ति वा आगमो ति वा एगट्ठा ।
__(दशजिचू पृ ३३८) आणेति वा सुतं ति वा वीतरागादेसो त्ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ ३२) आण त्ति वा नाण त्ति वा पडिलेहि त्ति वा एगट्ठा । (आचू पृ १९८) आणा उववाय वयण निद्देसे ।'
(भ ३/७१) आणुपुग्वि-क्रम । ____ आणुपुव्वी परिवाडी कमो एगट्ठा।
(आवचू . ३३४) आणेति-लाता है। आणेति व देति व उवणामेति ।'
(अंवि पृ ८३) आतट्ठि-आत्मार्थी । आतटठी आत्मार्थी आयतार्थी वा ।
(दश्रुचू प २७) आतिण्ण-पूजित ।
___आतिण्णं ति वा पूजितं ति वा एगट्ठा । (दशजिचू पृ २०४) आवर्श --स्वच्छ, निर्मल ।
__ आदर्शः शुद्धः स्फटिक: अलक्तकः । (विभाकोटी पृ ७७५) आदान-प्रसूति । ___ आदानं प्रसूतिराश्रयो वा ।
(सूचू १ पृ ३८) आदित्य-सूर्य । - आदित्यः सविता भास्करः दिनकरः । (आवचू १ पृ ४६१) आदियति-ग्रहण करना । आदियति ति वा गेण्हितित्ति वा...आयरणंति वा एगट्ठा ।
(दशजिचू पू २६६) आदेश-व्यवहार । आदेश व्यवहारः उपचारः ।
(विभाकोटी पृ ९५६) १. देखें-परि०२
३. देखें-परि०३ २. देखें-परि० ३
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आनुपूविन्-आमेलक : २५ आनुपूविन्-क्रम ।
आनुपूर्वी अनुक्रमोऽनुपरिपाटीति पर्यायाः। (अनुद्वामटी प ४६) आनुपूर्व्यनुक्रमः परिपाटी।
(उचू पृ २६) आपिबति--ग्रहण करता है।
___ आपिबति आदियति त्ति एगट्ठा ।' (दशजिचू पृ ६३) आपूरित-व्याप्त । ___आपूरितं व्याप्तं भूतं वासितम् । (विभामहेटी १ पृ १२७) आप्त-वीतराग पुरुष। आप्तः मोक्षमार्गगामी आत्महितगामी वा प्रक्षीणदोषः सर्वज्ञः ।
(सूटी १ प १९६) आप्त-प्रिय । आप्ता इट्ठा कंता पिया।
(दश्रुचू प २७) आभिणिबोहिय–मतिज्ञान ।
ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा ।
सण्णा सई मई पण्णा सव्वं बाभिणिबोहियं ॥ (नंदी ५४) आभोग-- उपयोग (मनोयोग)
आभोग मग्गण गवेसणा य ईहा अपोह पडिलेहा । पेक्खणनिरिक्खणावि अ आलोयपलोयणेगट्ठा ॥
(ओनि ३) आभोगण-आसेवन करना। आभोगणं ति वा मग्गणं त्ति वा झोर ति वा एगलैं ।
(व्यभा ४/१ टी प २४) आमेलक-मुकुट । आमेलक: आपीडः शेखरकः ।
(राजटी पृ १६५) १. देखें-परि० ३
३. देखें-परि० २ २. देखें-परि० २
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२६
आम्रचिञ्चा - आयार
आम्रचिञ्चा - इमली ।
आम्रचिञ्चा चिञ्चनिका आम्बिली ।
आय - कारण ।
आय: उपादानं हेतुः ।
आय - प्राप्ति ।
आयो पावणं लाभो इत्यनर्थान्तरम् ।
आयो लाभः प्राप्तिरिति पर्यायाः ।
आयंत पवित्र |
आयंता चोक्खा परमसुइभूया ।
आउत्ति वा आगमुत्ति वा लाभुत्ति वा हुंति एगट्ठा ।
आयट्टि - - आत्मार्थी ।
आयट्ठी आयहिए आयगुत्ते आयजोगी कंप आणिप्फेडए ।
आययण - संभव ।
आययणं संभवो त्ति वेगट्ठा ।
आययणं ति वा संभवद्वाणं ति वा एगट्ठ
आयतन - आयतन ।
आयतनं स्थानं चैत्यम् ।
आयाम - आयाम |
आया विक्खंभ दो वि पदा एगट्ठा ।'
आयार - आचार |
१. देखें- परि० २
२. देखें - परि० २
(व्यभा ६ टीप १८ )
( विभामटी २२२६ )
( नंदीच पृ १३ )
( नंदीटि २ पृ ११२)
( उनि ६)
( ज्ञा १/१ / ८१ )
आयपरक्कमे आयरक्खिए ( सू २ / २ / ८१)
( निभा २५३५ )
( निचुभा २४५६ )
आयारो आचालो आगालो आगरो य आसासो । आयरिसो अंगंति य आइण्णाऽऽज्जाइ आमोक्खा ||
३. देखें- परि० २
( जंबूटी प ७६ )
( नंदीच पृ २४-२५ )
( आनि ७)
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आयार- - विनय |
आयारोत्ति वा विणयोत्ति वा एगट्ठे ।
आयास - कलह ।
आयास विसूरणं कलह भंडण वेराणि ।
आयासं कलहं वा वि संतासं आविलं तहा ।
आरंभ - असंयम ।
आरंभ असंजमो अविरती वा एगट्ठा ।
आरंभकड - हिंसा से निष्पन्न ।
आरभइ - हिंसा में प्रवृत्त होता है । आरभइ सारभइ समारभइ । '
आरित - बुलाना ।
आरंभकडे ति वा सावज्जकडे ति वा पयत्तकडे ति वा ।
आरितो आगारितो सारितो एगट्ठ ।
आरितो आगारितो सावितो य एगट्ठ ।
आरिय - आर्य
।
आरिए आरियपणे आरियदंसी ।
आरोह - विशालता ।
आरोहो दीर्घत्वं परिणाहो विष्कंभो विशालता ।
आलंब— आधार ।
आयार - आलंब
आलंबे वा आहारे वा पडिबंधे वा ।
१. देखें- परि० ३
: २७
( उशाटी प ३४४ )
(प्र. ५ / ६)
(अंवि पृ १२ )
( सूचू २ पृ ३७० )
( आचूला ४ / २२ )
(भ ३ / १४५)
( निभा ४ पृ २४४ )
( आवचू २ पृ २३४ )
( आ २ / १०६ )
( व्यभा १० टीप ३८ )
( ज्ञा १६ / ३१२)
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२८ 14
आलीन -- आवस्सय
आलोन - प्रमाणयुक्त ।
आलीनानि - सुश्लिष्टानि प्रमाणयुक्तानि ।
आलुक्कई - देखता है ।
आलुक्कई पलुक्कई लुक्कई संलुक्कई य एगट्ठा ।'
आलोइज्जइ – आत्मालोचन करता है ।
आलोइज्जइ निंदिज्जइ गरिहिज्जइ विउट्टिज्जइ विसोहिज्जइ अकरणाए अब्भुट्ठिज्जइ पडिक्कमिज्जइ । '
( उपा १ / ७८ )
आलोयण - अभिव्यक्ति ।
आलोचन - अभिव्यक्ति ।
आलोचनं विकटनं प्रकाशनमाख्यानं प्रादुष्करणमित्यनर्थान्तरम् ।
वा एगट्ठा ।
आलोयणा - आलोचना |
आलोयणं ति वा पगासकरणं ति वा अक्खणं ति वा विसोहि त्ति वा ( दशजिचू पृ २५ )
( ज्ञाटी प ७२)
( आवनि १०५८ )
आलोयणा वियडणा सोही सम्भावदायणा चेव । निंदण गरिह विउट्टण, सल्लुद्धरणं ति एगट्ठा ||
१. देखें – परि० ३ २. देखें - परि० ३
३. देखें -- परि० २
( उशाटी प ६०८ )
आवस्सग — नित्यकर्म |
आवस्सगं ति वा अवस्सकायव्वं अवस्सकरणं ति वा अवस्सकर णिज्जं ति वा धुवकायव्वं ति वा निग्गहो त्ति वा । ( आवचू १ पृ ७६ - ८० ) आवस्य - आवश्यक कर्म, नित्यकर्म ।
आवस्सयं ( आवासतं) अवस्सकरणिज्जं ध्रुवनिग्गहो विसोही य । अज्झयणछक्कवग्गो नाओ आराहणा मग्गो ॥
५
( अनुद्वा २८ )
४. देखें —- परि० २
५. देखें - परि० २
( ओनि ७६१ )
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आवहंति - करता है ।
आवहंति कुव्वइत्ति वा घडइ त्ति वा एगट्ठा
आवीलए - आपीडन करे ( तप करे ) । आवीलए पवीलए निप्पीलए ।
आसंदग - पादपीठ ।
आदगो भद्दपीढं ति पादफलं वट्टपीढकं । ' आसाएइ - इच्छा करता है ।
आसाएइ तक्केइ पीहेइ पत्थेइ अभिलसइ ।
आसुरत- कुपित ।
आस्पृष्ट - व्याप्त ।
आस्पृष्टा व्याप्ता आक्रान्ता ।
श्राहणइ - हिंसा करता है ।
आवहंति—आहाकम्म : २६.
आहण हिंसति अक्कोसति ।
आसुर रुट्ठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसीयमाणे (मिसिमिसेमाणे ) । '
( उपा २ / ३२)
१. देखें -- परि० ३ २. देखें- परि० ३
३. देखें- परि० २
'
( दशजि प ३२९ )
आह्वान – अपलाप ।
आह्वानं निन्हवं व्यपलापः । आहाकम्म - आधाकर्म ( भोजन का एक दोष ) ।
तत्थ इमे णामा खलु आहाकम्मस्स होंति चत्तारि । आहकम्म अह्नकम्मे य अहम्मे अत्तकम्मे य ॥
आहाकम्म अधे य कम्मे आय कम्मे य अत्तकम्मे य ।
( आ ४/४० )
(अंवि पृ ६५ )
( अनुद्वामटी प १७८ )
४. देखें- परि० ३
५. देखें – परि० २
६. देखें- परि० ३
( उ २६ / ३४ )
( उच्च् पृ १०३ )
( उच्च् पृ २९ )
( जीतभा १०६६ )
( निभा २६६७ )
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३० : आहित-इज्जा
आहा (कम्म) अहे य कम्मे आयाह (आताह) कम्मे य अत्तकम्मे य।
(बृकभा ६३७५) आहित -आख्यात । ___आहितमाख्यातं कथितमित्येकोऽर्थः ।
(सूचू १ पृ ६६). आहुणिज्जमाणी-कंपित होती हुई।
आहुणिज्जमाणी संचालिज्जमाणी संखोभिज्जमाणी। (ज्ञा १/६/१०) आहेवच्चं-आधिपत्य ।
आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं ।। (अंत ३/८१) इंखिणी-तिरस्कार । इंखिणी खिसणा णिदणा हीलणा।
(सूचू १ पृ ५६) इंगालछारिगा-राख ।
इंगालछारिगा व ति भूती भस्सो त्ति वा पुणो। (अंवि पृ १०६) इंद-इन्द्र । सक्क-सहस्सक्ख-वज्जपाणि-पुरंदरादीणि इंदस्स एगट्ठियाणि ।'
(दशजिचू पृ १०) इच्छा-इच्छा। इच्छाच्छन्दः इत्येकार्थः ।
(व्यभा ३ टी प ११२) इच्छित-अभिलषित । इच्छितचितित पत्थिय ।
(आवचू १ पृ ४८३) इच्छिय-अभिलषित। इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए।
(ज्ञा १/१/१०२) इच्छियं पडिच्छियं इच्छिय-पडिच्छियं । (भ २/५२) इज्जा-माता। इज्ज त्ति वज्जा माया मज्जा।
(अनुद्वाचू पृ १३) . १. देखें--परि०२
३. देखें-परि० २ २. देखें-परि०२
४. देखें-परि० २
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इट्ठ - प्रिय ।
इट्ठ कंत पिय मणुण्ण मणाम मणाभिराम - हिययगमणिज्ज |
( औप ६८ )
( औप ११७ )
( सू चू १ पृ ४८ )
इट्ठा वल्लभा कांता
( ज्ञाटी प १५ )
इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा उराला कल्लाणा सिवा धण्णा मंगल्ला | (स्था ६ / ६२ )
इट्ठे कंतं प्रियं मणुण्णं मणामं पेज्जं ।
इट्ठा सुभा कंता मणामा
इत्ता -प्रियता |
इट्ठात्ताए कंतत्ताए पियत्ताए सुभत्ताए मणुण्णत्ताए मणामत्ताए इच्छियता अणभिज्झित्ताए । (भ ६ / २२ )
इत - गया हुआ ।
इतः गतः स्थित इत्यनर्थान्तरम् ।
इसि - ऋषि ।
इट्ठ - ईसिपन्भारपुढवी : ३१
इसित्ति वा रिसित्ति वा एगट्ठ ।
इस्सर - ईश्वर ।
इसरो पभू सामी |
ईश्वर – ईश्वर ।
ईश्वरः प्रभुः महेश्वरः ।
ईसिन्भारपुढवी - ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी ।
( विभामहेटी १ पृ १७५ )
( उच्च् पृ २०८ )
( आचू पृ ३५२ )
ईसिति वा, ईसिप भारा ति वा, तणूति वा, तणुतणूइ वा सिद्धीति वा, सिद्धालए ति वा, मुत्तीति वा, मुत्तालए ति वा । (स्था ८ / ११० ) इसिति वा, ईसिप भारति वा, तणूइ वा, तणुयतरि ति वा, सिद्धित्ति वा सिद्धालएत्ति वा, मुत्तीति वा, मुत्तालएत्ति वा बंभेत्ति वा, बंभवडेंसत्ति वा, लोकपडिपूरणेत्ति वा, लोगग्गचूलिआइ वा ॥
( सम १२ / ११ )
( सूचू १ पृ ४१ )
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३२
ईहा - उक्किट्ठ
सिद्धी इ
ईसी इवा, ईसीप भारा इवा, तणूइ वा, तणूयरी इवा, वा, सिद्धा ए वा, मुत्ती इवा, मुत्तालए इवा, लोयग्गे इवा, लोयग्गथुभिगा इ वा, लोयग्गपडिबुज्झणा
इवा, सव्वपाण
( सुहावहा), सव्वभूय ( सुहावहा), सव्वजीव ( सुहावहा), सव्वसत्त ( सुहावहा) इ वा । ' ( औप १९३ )
ईहा - ईहा ( मतिज्ञान का भेद ) ।
आभोगणया मग्गणया गवसणया चिंता वीमंसा ।
हापोह मार्गणा गवेषणा चिन्ता विमर्षः ।
उउमास — ऋतुमास (श्रावण) ।
उउमासो कम्ममासो सावणमासो ।
उक्कंचण - माया ।
उक्कंपित-क्षिप्त
उक्कंचण वंचण माया णियडि कूड कवड साइ संपओग बहुला ।"
( सू २ / २ / ५८ )
(अंवि पृ १४३ )
उक्कंपिते पिते खित्ते ।
उक्कड्ड - खींचा हुआ ।
उक्कडमोड्डो अव्वोकड्ढे त्ति वा पुणो ।
उक्कसण- उत्कर्ष ।
उक्कण माणणतिय एगट्ठ ।
उक्किट्ठे - उत्कृष्ट, शीघ्र ।
१. देखें - परि० २ २. देखें - परि० २
( नंदी ४५ )
( नंदीटी पृ ६१ )
( व्यभा २ टी प ७ )
उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए जइणाए छेयाए सीहाए सिग्धाए उद्ध्याए ।
(भ ११ / १०९ ) उक्किट्ठा तुरियाए चवलाए चंडाए जवणाए सिग्धाए उद्धुयाए । ( ज्ञा १/१६/२०४)
उक्कट्ठाए सिग्धा चवलाए तुरियाए दिव्वाए ।
( अंवि पृ८६ )
( व्यभा ४ / ३ टी प ४६ )
( आचुला १५ / २७ )
३. देखें- परि० २
४. देखें- परि० २
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उक्खिन्न- उच्चयरक : ३३ उक्खिन्न-अवकीर्ण ।
उक्खिन्ने विक्खिन्ने वितिगिण्णे विप्पइण्णे। (बृकचू प १४१) उक्ति-उक्ति । __उक्तिर्वचनं वाग्योगः ।
(अनुद्वाहाटी पृ २२) उखड्डमड्ड-बार बार।
उखड्डमड्ड ति वा बहुसो त्ति वा भूयो भूयो त्ति वा पुणो पुणो त्ति वा एगळं।
. (निचूभा ४ पृ ३०८) उग्गम-उद्गम ।
उग्गमो पसूई पभवो एमादि होंति एगट्ठा। (पंचा प ३४१) उग्गय-उदय ।
उग्गयं इति वा उदओ त्ति वा एगळं । (निचूभा ३ पृ ७०) उग्गविस-तीव्रविष ।
उग्गविसं चंडविसं घोरविसं महाविसं ।' (भ १५/६३). उग्गह-अवग्रह।
उग्गहं ति वा अवग्गहो त्ति वा एगळं। (अनुद्वाचू पृ ३३) उग्गह-अवग्रह । (मतिज्ञान का भेद)
ओगेण्हणया उवधारणया सवणया अवलंबणया मेहा। (नंदी ४३) उग्गिण्हणया अवधारणया सवणया अवलंबणया मेहा ।
(भटी पृ ६३३) उग्घायण–विनाश ।
उग्घायणं ति वा उप्पायणं ति वा एगट्ठा । (आचू पृ १००) उच्चच्छंद-स्वच्छंद । . उच्चच्छंदा अणिग्गहा अणियता।।
(प्र २/३) उच्चयरक-ऊंचा। उच्चयरकं महतरकं परग्धतरकं ।
(अंवि पृ १६) १. देखें- परि०२
३. देखें-परि०२ २. देखें-परि० २
४. देखें-परि०२
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३४ : उच्चावच- उट्ठाण
उच्चावच-उच्चावच ।
उच्चावचा अनुकूलप्रतिकूला असमञ्जसा। (अंतटी प १८) उच्छोलेंति-स्नान करते हैं।
उच्छोलेंति पधोति सिंचंति सिणावेंति ।' (आचूला ७/१६) उज्जल-विपुल, दारुण ।
उज्जलं विउलं (तिउलं) पगाढं कक्कसं कडुयं फरुसं निठुरं चंडं तिव्वं दुक्खं दुग्गं दुरहियासं ।
(भ ५/१३८) उज्जला विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा ।'
(अंत ३/६०) उज्जल बल विउल उक्कड खर फरस पयंड घोर बीहणग दारुणाए।
(प्र १/२५) उज्जु-मुनि।
उज्जु त्ति वा अणगारो त्ति वा मुणि त्ति वा एगट्ठा। (आचू पृ २४) उज्जुगत्तण-ऋजुता।
उज्जुगत्तणं ति वा अकुटिलत्तणं ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ १८) उज्जुय- ऋजुक । उज्जुयं अकुडिलं भूयत्थं ।'
(प्र ७/१) उज्झीयति-छोड़ता है।
उज्झीयति विज्झीयति हायति त्ति परिहायति । (अंवि पृ २५०) उठाण-पुरुषार्थ ।
उढाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे । (भ १२/१११)
१. देखें-परि० ३ २. देखें-परि० २ ३. देखें--परि० २
४. देखें-परि० ३ ५. देखें--परि० २
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उद्वित-उद्दिष्ट : ३५ उद्वित-बाहर निकला हुआ।
उद्विते पत्थिते वा णिग्गते वा पिल्लोकिते वा णिल्लालिते वा णिल्लिखिते वा अवसारिते अवसक्किते अपधजाते वा विप्पमुंचणे अपंगुते ।
(अंवि १९८) उत्तरकरण-विशुद्धीकरण ।
उत्तरकरण पायच्छित्तकरण विसोहीकरण विसल्लीकरण पदानि एगट्ठितानि ।'
(आवचू २ पृ २५१) उत्तारिय-विमुक्त।
उत्तारियं ति वा विमोक्खितं ति वा एगळं। (सूचू १ पृ ८५) उत्पादयति-उत्पन्न करता है ।
उत्पादयति किरियंति वा एगळं ।' (सूचू २ पृ ३६७) उदग्ग-प्रधान । उदग्गं पधानं शोभनम् ।
(उचू पृ १६९) उदन-ऊंचा। उदग्रं उच्चं समुच्छ्रितम् ।
(उपाटी पृ १११) उदार-मनोज्ञ । उदारा: शोभना मनोज्ञाः।
(सूटी १ प १८४) उद्दवण-उद्रवण । उद्दवण विराहणेगळं।
(जीतभा १७७८) उद्दामित- बन्धन-मुक्त ।
उद्दामिता अपनीतबन्धना प्रलंबिता । (विपाटी प ४६) उहिट- कथित । ___ उद्दिट्ठाओ गणियाओ वियंजियाओ।'
(स्था ५/६८) उद्दिष्ट-- ईप्सित ।
उद्दिष्टा ईप्सिता इत्यनर्थान्तरम् । (व्यभा २ टी प ६४) १. देखें-- परि० २
३. देखें--परि० २ २. देखें-- परि० ३
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३६ : उढ-उप्पल उदृढ-पीड़ित किया हुआ । उद्ढे जित-पराजिते विहले ।
(अंवि पृ २५०) उद्धृत-उखाडा हुआ। उद्धृतः उत्पाटितो गृहीतः ।
(व्यभा २ टी प ५१) उपदेस-उपदेश ।
उपदेसो त्ति वा आदेसो त्ति वा पण्णवण त्ति वा परूवण त्ति वा एगट्ठा।
(नंदीचू पृ ४६) उपनीयते-प्राप्त करता है।
उपनीयते त्ति वा उपपदरिसिते त्ति वा एगढें ।' (सूचू १ पृ १३२) उपयोग-विमर्श ।
उपयोग : चिंता विमर्श इत्यनर्थान्तरम् । (बृकटी पृ १८४) उपयोग--प्रस्तावित क्रम ।
उपयोगोऽधिकार इति पर्यायाः । (आवहाटी २ पृ २३३) उपश्रा-द्वेष । उपश्रा द्वेष इत्यनर्थान्तरम् ।
(व्यभा १ टी प १०) उप्पज्जते-उत्पन्न होता है।
उप्पज्जते त्ति वा बूया दिस्सते सूयते त्ति वा । (अंवि पृ ८३) उप्पल-कमल।
उप्पलाणं पउमाणं कुमुयाणं णलिणाणं सुभगाणं सोगंधियाणं (सुगंधिए) पोंडरीयाणं महापोंडरीयाणं सयपत्ताणं सहस्सपत्ताणं कल्हाराणं कोकणयाणं अरविंदाणं तामरसाणं भिसाणं भिसमुणालाणं पुक्खलाणं पुक्खलच्छिभगाणं ।
(सू २/३/४३)
१. देखें--परि० ३ २. देखें-परि० ३ ३. देखें-परि० २
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उप्पायण-उवधि : ३७
उपायण--उत्पादन ।
उप्पायण संपायण णिव्वत्तणमो य होंति एगट्ठा।' (पंचा प ३४७) उप्पिलावण-प्लावन, बहा देना ।
उप्पिलावणं ति वा प्लावणं ति वा एगटठा। (दशजिचू पृ २३१) उम्भिण्णं-उद्भिन्न, अभिव्यक्त । उब्भिण्णं मुक्कमवंगुतं ति पागडियं दंसियं बहिद्धं वा सुव्वत्तं ।
(अंवि पृ २४५) उभय-युगल ।
उभओ त्ति वा दुहओ त्ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ ३१६) उल्लोइत-ऊंचा करना।
उल्लोइते उस्सिते उच्चारिते उण्णामिते उत्थिते उपसारिते उपवप्पिते
उपलोलिते उपकड्डिते उपवत्ते उपणते उपणद्धे। (अंवि पृ १६८) उल्लोहित-चूने से पुता हुआ, आवृत ।
उल्लोहितं उव्वलितं तधा उच्छाडितं ति वा। (अंवि पृ १०६) उवचरित--ज्ञात । उवचरिताधीतगमितमेगट्ठा।
(निपीभा ५८) उवचार-पठित, गृहीत ।
उवचारो त्ति वा अहीतं ति वा आगमियं ति वा गृहीतं ति वा एगळं।
(निपीचू पृ ३०) उवचारं ति अहीयं ति अज्झीतं ति वा एगळें। (आचू पृ ३२६) उवचारो ग्रहणं अधिगम ।
(निपीचू पृ २६) उवट्टिय-उपस्थित।
उवढिओ त्ति वा अन्मुट्ठिओ त्ति वा एगट्ठा । (दशजिच पृ ३०८) उवधि-माया। उवधि-णिकडि-सातिजोगकरणे ।
(अंवि पृ २६३) उवधी-णियडिजोगेसु सातिजोगमणज्जवे । (अंवि पृ २६८) १. देखें-परि० २
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३८
उवम्म- -उवहि
उवम्म - उपमा |
उवम्मत्ति वा सरिस त्ति वा एगट्ठा ।
उवयंति - पास में जाता है ।
उवयंति त्ति वा पक्खतित्ति वा छुर्भात त्ति वा । '
उववाय-आज्ञा ।
उवाओ निद्देस आणा विणओ य होंति एगट्ठा ।
उववूह - प्रशंसा ।
उवसंत - उपशान्त ।
उववहति वा पसंसत्ति वा सद्धाजणणंति वा सलाघणंति वा एगट्ठा ।
( निपीचू पृ २६ )
उवसंत समिए सहिते सया जए । वसंते वट्ठिए पडिविरते ।
उवसग - उपाश्रय ।
उवसम-उपशम ।
उवसमं णिव्वाणं समणं संति
उवसग पडिसग सेज्जा आलय वसधी णिसीहिया ठाणे एगट्ठ ।
( बृकभा ३२६५)
उवसमण - उपशमन ।
उवसमणं ति वा णामणं ति वा एगट्ठा ।
उवसमसार -- उपशम का सार ।
उवसमसारं उवसमप्पभवं उवसममूलं । उवहि— उपकरण ।
( दश जिचू पृ ३०५ )
( अनुद्वाचू पृ. २१)
उवही उवग्गहे संगहे य तह पग्गहुग्गहे चेव । भंडण उवगरणे य करणेवि य हुंति एगट्ठा ॥
१. देखें -- परि० ३
२. देखें-- परि० २
३. देखें- परि० २.
( व्यभा ४ / ३५४ ]
( आ ५/७५)
( सू २ / २ / ४५)
( आचू पृ २३७ )
( आचू पृ १२६ )
(दश्रुचू प ७० )
(ओनि ६६६ )
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उवेइ – जाता है ।
उवेइत्ति वा गच्छइ त्ति वा एगट्ठा ।
वेंति वा वयंति वा एगट्ठा
।'
उवेति - नीचे उतरता है ।
उहति
उव्वत्तेs - स्पंदित करता है ।
उवेति त्ति वा उत्तरतित्ति वा अवतरतित्ति वा एगट्ठ ।
उहति उत्प्रेक्षते विशेषयति ।
उसभ - बैल |
उभो बलिवो वच्छको तण्णको त्ति वा । उस्सग्ग—उत्सर्ग ।
उव्वत्तेइ परियत्तेइ आसारेइ संसारेइ चालेइ फंदेइ घट्टेइ खोभेइ
टिट्टियावेइ ।
( ज्ञा १ / ३ / २१)
उस्सय-उत्सव |
उस्सिंघण-मर्दन ।
उस्सग्गं विउस्सरणमुज्झणा य अवगिरण छड्डण विवेगो । पडिसाडण
वज्जण चयणुम्मुअणा
साडणा चैव ||
ऊसढ - ऊंचा ।
उबेर- ऊहित : ३६
उसिंघण - मक्खणभंगण उच्छंदण उब्वट्टण |
ऊसदति वा उच्च ति वा एगट्ठ ।
( दश जिचू पृ ३४८ - ४६) ( दश जिचू पृ २३४ )
उस्सयो त्ति समासोत्ति विहि जण्णो छणो त्ति वा । (अंवि पृ १२१)
ऊहित- चिंतित ।
ऊहितं गुणितं चिंतितं एगट्ठा ।
१. देखें - परि० ३
२. देखें- परि० ३
( अनुद्वाचू पृ २१ )
( निभा ४३० )
(अंवि पृ ६२ )
३. देखें- परि० ३ ४. देखें - परि० ३
( आवनि १४५१ )
(अंवि पृ १६३ )
( दश जिचू पृ १६६ )
( आचू पृ १७१)
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४० : ऋजु–ीघ ऋ- सरजुल । ऋजुः प्रगुणमकुटिलम् ।
(प्रसाटी प २४५) ऋजुः अकुटिलः निरुपधः ।
(सूचू १ पृ ३६) ऋतुसंवत्सर-कर्म संवत्सर का एक नाम । वह संवत्सर जिसमें पूरे
३६० अहोरात्र होते हैं।
ऋतुसंवत्सरः सावनसंवत्सरश्चेति पर्यायो। (स्थाटी प ३२८) ऋषि-ऋषि । ऋषयः महर्षयः यतयः ।
(दशहाटी प ११६) एइज्जमाण-प्रकंपित होता हुआ । एइज्जमाणा वेइज्जमाणा पकंपमाणा पझंझमाणा।
(जीवटी प २११) एगपडिरय-एक रूप से कहा जाने वाला। एगपडिरयं ति वा एगपज्जायं ति वा एगणामभेदं ति वा एगट्ठा ।
(आवचू १ पृ २६) एजणा-प्रकंपन । एजणा वेदणा खोभणा घट्टणा फंदणा चलणा उदीरणा।'
(इभा ११/१) एजन-कम्पन।
एजनं कम्पनं गमनं क्रियेत्यर्थान्तरं । (सूचू २ पृ ३३६) एसणा-एषणा।
एसण गवेसणण्णेसणा य गहणं च होंति एगट्ठा। (पंचा पृ ३५१) एसण गवेसणा मग्गणा य उग्गोवणा य बोद्धव्वा ।
एए उ एसणाए नामा एगट्ठिया होंति ॥ (पिनि ७३) ओघ-सामान्य।
ओघः संक्षेपः समास सामान्यमित्येकोऽर्थः । (ओनिटी पृ ४) ओघेन सामान्येन उत्सर्गतः ।
(पंचा पृ १२०) १. देखें--परि० २
२. देखें-परि०२
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ओधावति- ओसारित : ४१ ओधावति-दौड़ता है।
ओधावति त्ति वा बूया अहिधावति णोल्लति । (अंपि पु ८०) ओभासेइ- उद्योतित करता है। ओभासेइ उज्जोएइ तवेइ पभासेइ।
(भ १/२५७) ओभासंति उज्जोवेंति तवेंति पगासिति । (सूर्य टी प ६३) ओयंसि-ओजस्वी। ___ ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी।'
(ज्ञा १/१/४) ओयण-भात। ओयणो कूरो भत्तं।
(सूचू २ पृ ३३०) ओराल-विपुल।
ओरालेणं विपुलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं सस्सिरीएणं उदग्गेणं उदत्तेणं उत्तमेणं महाणुभागेणं ।
(भ ३/१०४) ओरालं (उराल) विस्तरालं विसालं । (अनुद्वाचू पृ ६०-६१) ओराले त्ति उदारः प्रधानः।'
(ज्ञाटी प ८) ओवास-अवकाश। ओवासो अवगासो स्थानम् ।
(निचूभा ४ पृ १८७) ओवीलेमाण-पीटे जाते हुए।
___ ओवीलेमाणे विहम्मेमाणे तज्जेमाणे तालेमाणे । (विपा ३/९) ओसारित-अपसृत।
ओसारिते ओमत्थिते ओणामिते ओवट्टिते ओलोकिते ओकट्ठिते ओवत्ते ओणते उग्ग हिते उच्छुढे भोतारिते ओतिण्णे उक्खित्ते ओमुक्के ।
(अंवि पृ १७१) ओसरिते ओमथिते ओणामिते ओवट्टिते ओलोलिते ओकड्डिते ओवत्ते ओणते ओछुद्धे ओतारिए ओमुक्के।
(अंधि पृ १६६) १. देखें-परि० ३
४. देखें-परि० २ २. देखें-परि० ३
५. देखें-परि० २ ३. देखें-परि० २
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: ओसारेति — कंत
ओसारेति - फाड़ता है ।
४२
ओसारेति पाटयति स्फाटयति ।
ओह - ओघ, संक्षेप |
ओहः संक्षेपः स्तोकः ।
ओहे पिंड समासे संखेवे चैव होंति एगट्ठा ।
ओहबल
ओहबले अइब्बले महब्बले ।
ओहय-पराजित |
ओहय उद्धिय निज्जित पराजित ।
ओहयकंटय - उद्धृत कंटक ।
ओह कंटयं निहृतकंटयं मलियकंटयं उद्धियकंटयं अकंटयं ।
कखइ-आकांक्षा करता है ।
ias पत्थेइ पीइ अभिलसइ ।
कंखति पत्थंति गच्छति एगट्ठा' । कंची- करधनी ।
ओहricयं नियकंयं गलियकंटयं उद्धियकंटयं अकंटयं ।
कंत—कान्त ।
कंते पियदसणं सुरूवे पडिवे ।
कंते सोभंत रुइल रमणिज्ज ।
(अनुद्वाचू पृ ५६ )
( निचूभा २१८८ ) ( ओनिभा १ )
कंची व रसणा व त्ति जंबूका मेखल त्ति वा । कंटक त्ति व जो बूया, तधा संपडिक त्ति वा ॥
१. देखें परि० ३
२. देखें - परि० ३
३. देखें - परि० २
( उपाटी पृ० १२६ )
( आवचू १ पृ ४७६ )
अप्प डिकंटयं
( आवचू १ पृ ४७९ )
(ज्ञाटी प ६० )
( राज ६७७ )
( आचू पृ २०५ )
( अंवि पृ ७१ )
(भ १३ / १०२ ) (जंबू २ / १५)
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कंति-कढण : ४३
कंति-कान्ति । कंतीए दित्तीए जुत्तीए छायाए पभाए ओयाए लेसाए ।'
(ज्ञा १/१०/२) कंदण-क्रन्दन ।
कंदणता सोयणता तिप्पणता परिदेवणता।' (स्था ४/६२) कक्क-रत्न विशेष ।
कक्कं ति वा रत्तं ति वा एगट्ठा ।। (अनुद्वाचू पृ ५१) कक्क-माया।
कक्ककुरुया य माया नियडीए डंभणं ति । (प्रसा ११५) कक्कस-कर्कश । कक्कसे कडुए पिठुरे फरुसे ।
(औप ४१) कक्खडी-कर्कश। कक्खडीओ त्ति कठिने निर्मासे ।
(उपाटी पृ १०२) कज्ज-कार्य ।
कज्ज ति वा कारणं ति वा एगळं । (व्यभा ६ टी प ४७) कडग–कंकण । कडग-रुचक सूचीका।
(अंवि पृ १६३) कडपल्ल-धान्यशाला। कडपल्लत्ति वा तणपल्लत्ति वा धन्नसालत्ति वा वलयत्ति वा एगट्ठा ।
(बृकचू प १४१) कडीय-करधनी।
' कडीयं कंचिकलापकं मखलिका कडिउपकाणि । (अंवि पृ १६३) कढण-निकालना। कढणं आगरिसणं उद्धरणं ।
(निपीचू पृ १२२) १. देखें--परि०२
३. देखें-परि० २ २. देखें--परि०२
४. देखें-परि०२
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४४ : कण्ह-कम्म
कण्ह-कृष्ण, काला ।
कण्हं णीलं ति वा बूया कालकं असितं ति वा । असितं किसिणं व त्ति हरितं ति व जो वदे ।।
(अंवि पृ १२) कण्हराति-कृष्णराजि ।
कण्हराती इ वा, मेहराती इ वा, मघा इ वा, माघवइ इ वा, वायफलिहा इ वा, वायपलिक्खोभा इ वा, देवफलिहा इ वा, देवपलिक्खोभा इ वा।
(भ ६/१०३) कतत्थ-कृतार्थ।
कतत्थो कतकज्जो त्ति संपत्तमणोरधो त्ति वा। (अंवि पृ १२१) कप्प-मर्यादा। कप्पो मेरा मज्जाया।
(दश्रुचू प ६९) कप्प-आचार । कप्पो ति वा मग्गो त्ति वा आयारो त्ति वा धम्मो त्ति वा एगट्ठा ।
(आचू पृ २१७) कप्पिय-फाडा हुआ। कप्पिओ फालिओ छिन्नो उक्कत्तो।
(उ १६/६२) कमल-कमल । कमलं पद्म अरविन्दं पंकजं सरोज तामरसजलरुह ।'
(विभाकोटी पृ ३६६) कम्म-कर्म ।
पावे वज्जे वेरे पणगे पंके खुहे असाए य । संगे सल्ले अरए निरए धुत्ते य एगट्ठा । कम्मे य किलेसे य समुदाणे खलु तहा मइल्ले य । माइणो अप्पाए य दुप्पक्खे तह संपराए य ।।
(दश्रुनि १२२-२३) १. देखें-परि० २ २. देखें-परि० २
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कयार- -कल्याण ४५
कम्मं ति वा खुहं ति वा वोण्णं ति वा कलुषं ति वा वज्जं ति वा वेरं ति वा पंको त्ति वा मलो त्ति वा एते एगट्ठिता ।
(निचूभा ४ पृ २७४)
कयार—कचरा ।
यारोति व जो बूया, पंसुको त्ति व जो धूली रयो त्ति रेणु त्ति, सारो सुक्को त्ति
वा
करण— प्रयत्न |
करुण
करणं आरम्भः प्रयत्न इत्येकोऽर्थः ।
-करुण ।
करुणं दीनं विस्वरं ।
-
करोडक— कटोरा ।
करोडको वा ब्रूया अधवा वट्टमाणकं । अलंदको जंबूफलकं तधा मल्लकमूलकं ॥
कलह कलह |
कलहेति वा भंडणेति वा डमरे ति वा एगट्ठा ।
कला – अंश ।
कला अंशा अवयवा इति पर्यायाः ।
कलुस — कलुष ।
कलुस किलिट्ठमप्पसंत सावज्ज ।
कल्प - आचार ।
कल्पो व्यवहार आचार इत्यनर्थान्तरम् । कल्पो विधिराचार इति पर्यायाः ।
कल्याण – कल्याण ।
कल्याणं श्रेयः शिवमनुपद्रवम् ।
१. देखें- परि० २
२. देखें-- परि० २
वदे ।
पुणो ।
( अंवि पृ १०६ )
( बुकटी पृ २६८ )
( सूटी १ प १३५ )
(अंवि पृ ६५ )
(उच्च् पू १९७ )
( विभाकोटी पृ ३ )
( निपीचू पृ २३ )
(व्यभा १ टीप ५१ )
( प्रसाटी प २२२ )
( भटी प ११६ )
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४६ : कल्लाण-कामगम
कल्लाण-कल्याण ।
कल्लाणं ति वा सोहणं ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ २०३) कवड-कपट।
कवडं ति कइयवं ति य सठयावि य हुंति एगट्ठा। (प्रसा १६७) कषाय-कषाय। कषायं कलुषं बहलम् ।
(निचूभा २ पृ १२३) कस--कृश।
कसं परिकसं व त्ति अणुं ति अणुकं ति वा । दुब्बलो ति किसो व त्ति उल्लुत्तो ति व जो वदे ॥
(अंवि पृ ११४) कसाय-कषाय। कसाओ त्ति वा भावो त्ति वा परियाओत्ति वा एगट्ठा ।'
(दशजिचू पृ १२१) कसिण-पूर्ण।
__ कसिणा पडिपुण्णा निरवसेसा एकग्गहणगहिया। (भ २/१३४) काउस्सग्ग--कायोत्सर्ग।
काउस्सग्गोत्ति वा जोगनिग्गहोत्ति वा। (आव २ पृ २५६)
काउसग्गोत्ति वा विउसग्गोत्ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ २६) काण–काना व्यक्ति । काणा दीपकाणा फरला।'
(प्रटी प २५) कान्त-कमनीय। कान्तः कमनीयोऽभिलषणीयः ।
(अंत टी प ६) कामगम-मनोरम ।
___ कामगमाणं पीइगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं। १. देखें-परि० २ २. देखें-परि० २
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काय—किन्विस : ४७
काय-शरीर।
काय सरीर देहे बुंदी य चय उवचय य संघाए । उस्सय समुस्सय वा कलेवरे भत्थ तण पाणु ॥'
(आवनि १४४६) कारण-कारण ।
कारणं ति वा कज्जं ति वा एगलैं । (व्यभा १ टी १५८) कारणं ति वा कारगं ति वा साहणं ति वा एगट्ठा ।
(आवचू १ पृ ३७२) काल-समय । कालो त्ति व समओ त्ति वा अद्धा कप्पो त्ति एगळं ।'
(व्यभा ४/३३०) काहापण-कार्षापण (सिक्का)।
काहापणो खत्तपको पुराणो ति व जो वदे । सतेरको त्ति ।
(अंबि पृ ६६) किट्टते-कथन करता है।
किट्टते ति वा कहेति त्ति वा एगट्ठा।' (आचू पृ २५०) कित्तइस्सामि-कथन करुंगा।
कित्तइस्सामि वण्णिस्सामि परूवेस्सामि कहेस्सामि । (दश्रुचू प ३) कित्तण-कीर्तन । कित्तण पसंसणा वि अ एगट्ठा ।
(आवनि १०९२) कित्ति—कीर्ति ।
कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्ठया एगट्ठा ।' (दशजिचू पृ ३२८) किदिवस-पाप।
किविसं कलुसं कल्मषं पापमित्यनर्थान्तरम् । (सूचू २ पृ ३५१) १. देखें-परि० २
४. देखें-परि० ३ २. देखें-परि० २
५. देखें-परि०२ ३. देखें-परि० ३
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४८ : कोव-कूजण कीव-क्लीब । कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं ।
(अंत ३/७३) कुंचि-मायावी। कुंची कुटिलो मायावी।
(व्यभा ३ टी प ४३) कुंडल-कुंडल।
कुंडलं वा बको व त्ति मत्थगो तलपत्तक । दक्खाणकं कुरबको अधवा कण्णकोवगो॥ कण्णपीलो त्ति वा बूया कण्णपूरो त्ति वा पुणो ।
कण्णस्स खीलको व ति अधवा कण्णलोडको ॥ (अंवि प ६५) कुच्छति-निंदा करता है। कुच्छति गरहति निंदति ।
(निपीचू पृ १६) कुट्टण-पीटना। ज्जण-ताडण।
(सू २/२/५८) कुब्ज-कुबडा । कुब्जा कुब्जिका वक्रजंघा ।
(जंबूटी प १६१) कुब्ब-निम्न। ___ कुब्बं त्ति निम्न क्षामम् ।
(उपाटी पृ ६७) कुल-परिवार। कुलं कुटुंबं यूथम् ।
(प्रटी प ३७). कुल-संघ। कुलं वा संघ वा गणं वा ।।
(व्यभा ४/३ टी प २६) कुशल-कुशल । ___ कुशलो दक्षः "क्षुण्णः ।
(व्यभा ४/१ टी प ५५) कुशलाः निपुणाः मोक्षमार्गाभिज्ञाः । (सूटी १ प १६०) कूजण-कूजन, विलपन। कूजण कक्करण तिप्पण विलवण ।
(दशजिचू पृ ३१) १. देखें-परि० २
३. देखें--परि० २ २. देखें-परि० ३
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कूड-क्रमति : ४६ कूड-माया।
कूड-कवड-माया-नियडि-आयरण पणिहि-वंचण। (प्र ३/१४) कृत्स्न-सम्पूर्ण। कृत्स्नाः परिपूर्णका गुरुका।
(व्यभा ४ टी प २२) कुश-तुच्छ । कृशं तनुः तुच्छमित्यनन्तरम् ।
(सूचू १ पृ २२) केज्जूर-हाथ का आभूषण (बाजूबंध)।
केज्जूरं तलभं व त्ति कंदूगं परिहेरगं ।
ओवेढगो वलयगं तधा हत्थकलावगो ॥' (अवि पृ ६५) केतन-संकेत। केतनं संकेतनं संकेतो।
(व्यभा ५ टी प १७) केतु-चिह्न। केतुः चिह्न ध्वजः।
(ज्ञाटी प २०) केवल–परिपूर्ण।
केवलं ति वा, एगं ति वा, केवलणाणं ति वा, अणिवारियवावारं ति वा, अविरहितोवयोगं ति वा, अणंतं ति वा, अविकप्पितं ति वा, इमाणि एगठ्यिाणि ।
(बृकटी पृ १५) केवले पडिपुण्णे णेयाउए संसुद्धे ।
(सू २/२/५५) केवलमेगं सुद्धं सकलमसाधारणं अणतं । (नंदीचू पृ १४) कोह-क्रोध । कोहे कोवे रोसे दोसे अखमा संजलणे कलहे चंडिक्के भंडणे विवादे ।'
(भ १२/१०३) क्रमति-चेष्टा करता है। ___क्रमति घडति युज्यते।
(निपीचू पृ ६४). १. देखें-परि० २
३. देखें-परि० २ २. देखें-परि० २
४. देखें-परि० ३
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५० : क्रिया- खमा क्रिया-क्रिया ।
क्रिया कर्म परिस्पन्द इत्यनर्थान्तरम् । (सूचू २ पृ ३१६) क्रिया कर्मबन्ध इत्यनर्थान्तरम् ।
(सूचू २ पृ ३१७) क्रोध-क्रोध। क्रोधः कोपो रोषोऽनुपशमः ।
(अनुद्वाहाटी पृ ६२) क्षपणा-निर्जरा।
क्षपणा अपचयो निर्जरा इति पर्यायाः (अनुद्वामटी प २३६) क्षामित–उपशमित।
क्षामितमिति वा व्यवशमितमिति वा विनाशितमिति वा क्षपितमिति वा एकार्थानि ।
(बृकटी पृ ७५२) क्षिप्त—पागल।
क्षिप्तः क्षिप्तचित्तः अपहृतचित्तः। (व्यभा ४/१ टी २७) क्षुद्र-तुच्छ। क्षुद्रैः बालः शीलहीन ।
(उशाटी प ४७) खंडित-खंडित ।
खंडितो पडितो व त्ति भिण्णो मंतुलितो त्ति वा। (अंवि पृ १२१) खंत-क्षान्त । खतेऽभिणिन्वुडे दंते वीतगेही ।
(सू १/८/२७) खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स।
(ज्ञा १४/७६) खद्ध-शीघ्र। खद्ध वेइयं तुरियं चवलं साहसं ।'
(प्र ८/१२) खमति-सहन करता है। खमति मरिसेति सहति ।
(दश्रुचू प २६) खमा-क्षमा। खम त्ति वा तितिक्ख त्ति वा कोधनिग्गहे त्ति वा एगट्ठा ।
(दशजिचू पृ १८) १. देखें-परि० २
३. देखें-परि० ३ २. देखें-परि०२
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'खमिति - सहन करता है । खमिति अहियासेति सहति ।
खर—कठोर ।
खर फरुस णिट्ठर ।
खलुंक -अविनीत |
खात प्रसिद्ध |
खलुंका गली मरालो शठो प्रतिलोमो अविनीत इत्येकार्थ: । '
खातं प्रथितं समृद्ध ं ।
खामिय - उपशमित ।
खिखिणिका - पायल ।
खामिय वितासिय विणासियं च भवियं च होंति एगट्ठा ।
खिसइ -- निंदा करता है ।
खिखिणिक खत्तियधम्मका पादमुद्दिका पादोपकाणि ।
सिइ निंदति परिभवति ।
खिज्जणिया- उपालंभ |
खमिति - खुडतर
खिज्जणियाहि य रुंटणाहि य उवलंभणाहि य ।
खीण-क्षीण ।
खडतर -छोटा ।
खुड्डुतराए चेव हस्सतराए चेव णीयतराए चेव ।
१. देखें – परि० ३
२. देखें-- परि० २
( आचू पृ ३८१ )
( निचूभा ३ पृ २)
५१
( उचू पृ २७० )
( उच् पृ २२२ )
खीणे निरए निम्मले निट्ठिए निल्लेवे अवहडे विसुद्धे । (भ ६ / १३४ ) खीणं खवियं विणट्ठ विद्वत्थं ।
( अनुदानू पु ४३ )
३. देखें - परि० ३ ४. देखें- परि० २
( बृकभा २६८७ )
( ( अंवि पृ १६३ )
( सूटी १ प २४३ )
( ज्ञा १८ / ३४८ )
( जंबू ४ / ५४ )
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५२ : खुड्डुलक-गड्डिक खुड्डलक- छोटा। खुड्डलक-थोक-डहरक-अणुक-सुहुम ।
(अंवि पृ २३७) खेम-क्षेम, कुशल ।
खेमं सिवं सुभिक्खं निरुवसग्गं । (व्यभा ४/३/२०९) खेमं सिवं सुभिक्खं पसंतडिंबडमरं ।
(आवचू १ पृ ४७६) खेम-क्षेम। खेमं सिवं अणुत्तरं ।
(उचू पृ १६३) खोडभंग-राजकुल का देय द्रव्य । खोडभंगो ति वा उक्कोडभंगो त्ति वा अक्खोडभंगो त्ति वा एगळें ।
(निचूभा ४ पृ २८०) खोरक-कटोरा, खप्पर ।
खोरकं खोरको व त्ति वट्टकं ति व जो वदे।
मुंडकं ति व जो बूया, पीणकं ति व जो वदे ॥ (अंवि पृ ६५) गंड-फोड़ा। गंडं वा अरइयं वा पिडयं वा ।
(आचूला १३/२८) गंडि–अविनीत । गंडी गली मराली एगट्ठा ।'
(उनि ६५) गंडूपक-पैर का आभूषण ।
गंडूपकं ति वा बूया तधा खत्तियधम्मकं । तधा णीपुरगं व त्ति तधा अंगजकं ति वा । पापढको त्ति वा बूया पादखयकं ति वा ।
परमासको त्ति वा बूया तधा पादकलावगो॥ (अवि पृ ६५) गंडपयक-पैर का आभूषण । गंडूपयकं णीपुराणि परिहेरकाणि ।
(अंवि पृ १६३) गड्डिक–भाग्यशाली ।
गड्डिको पोट्टहो व ति अड्डगो सुभगा त्ति वा। (अवि पृ ६२) १. देखें- परि० २
३. देखें--परि०२ २. देखें—परि० २
४. देखें-परि० २
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गण-गाढीकय : ५३
गण-गण, समूह। - गणे काए व निकाए, खंधे वग्गे तहेव रासी य ।।
पुंजे पिंडे निगरे, संघाए आउल समूहे ॥' (अनुद्वा ७३) गणणमतिक्कंत-असंख्येय ।
गणणमतिक्कंतं त्ति वा असंखेज्ज त्ति वा एगट्ठा। (आवचू १ पृ ५४) गत--प्राप्त । गतः प्राप्तः स्थित इत्यनर्थान्तरम् ।
(नंदीटी पृ ५८) गत-मृत। गते विपन्ने मृते ।
(व्यमा ४/१ टी प ६६) गमित प्राप्त ।
गमितं प्रदर्शितं उपनीतं अर्पितम् । (आवचू १ पृ ३७४) गय-मृत ।
गयंसि वा चुयंसि वा मयंसि वा। .. (ज्ञा १/७/६) गरहित-गर्हित, निंदित ।
गरहितं ति वा अकथ्यं ति वा अविवित्तं ति वा परिहरणीयं ति वा एगा ।
(आवचू १ पृ६०६) गलन-विनाश । गलनं गालो विनाशः।
(उचू पृ ४) गहण-अरण्य । गहणं वणं ति वा बूया रन्नं व गहणं ति वा । गहणा अडवी व त्ति ।'
(अंवि पृ ११८) गाढीकय-सघन किया हुआ। गाढीकयाई चिक्कणीकयाई सिलिट्ठीकयाइं खिलीभूताई ।
(भ ६/४)
१. देखें-परि० २
२. देखें-परि० २
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५४
: गाहा— गृह्णाति
गाहा गृह ।
--
गाहा इति घरमिति गिहमिति वा एते त्रयोऽप्येकार्थाः ।
गिद्ध – गृद्ध ।
गिद्ध त्ति वा सत्तत्ति का मुच्छिय त्ति वा एगट्ठ । ( सूचू १ पृ १०८ )
( निचूभा ४ पृ २६५)
गिरा - वाणी ।
गिरति वाणी वयणं ।
गीय - ज्ञात ।
गीयं मुणितेगट्ठ |
गुण-- गुण ।
गुणो त्ति वा पज्जवोत्ति वा एगट्ठा ।
गुण उपकार ।
गुणः साधनमुपकारमित्यनर्थान्तरम् । गुणेति-गुनता है, परावर्तन करता है।
गुणेति त्ति वा परियवृति त्ति वा एगट्ठा
गुरुक - प्रायश्चित्त का एक प्रकार ।
गुलोवलद्वीय-द्रवगुड़, फाणित ।
गुलोवलद्वीयं कक्कबं वा फाणितं वा ।
'
गृहण – माया ।
गृहण गोवण णूमण पलियंचणमेव एगट्ठ । गृह्णाति - प्राप्त करता है ।
गृह्णाति उपलभत इति पर्यायाः । *
१. देखें - परि० २
२. देखें - परि० ३
गुरुकमिति वा अनुद्घातीति वा कालकमिति वा गुरुकस्य नामानि ।
( ब्रुकटी पृ ६१ )
( व्यभा ८ टीप १)
( बृकभा ६८६ )
( दशजिचू पृ २६६ )
( उशाटी प ६९ )
( दशजिचू पृ २९७ )
३. देखें- परि० २
४. देखें- परि० ३
(अंवि पृ. १८२ )
( जीतभा १७७४ )
( नंदीटी पृ ५८ )
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गृहिपर्याय - गृहस्थ पर्याय । गृहपर्यायो जन्मपर्याय इत्येकोऽर्थः ।
गेहि —आसक्ति ।
गेही कंख त्ति इति वा एगट्ठा ।
गोभग – देव, इन्द्र ।
गोज्भगो गोज्भकपती देवराय त्ति वा पुणो ।
गोणस - सर्प |
गोणस मंडल दव्वीकर मउली ।
गोधिका - वाद्यविशेष ।
गोधिका दर्दरिकेति पर्यायाः ।
गोब्बर -- गोबर ।
गोब्बरोति करीसो त्ति सुक्खं वा छगणं पुणो ।
गोयर - विषय |
गोयरो विसतो त्ति एगट्ठा ।
ज्ञान- ज्ञान ।
ज्ञानमागमित मित्येकार्थम् ।
प्रथित-- आसक्त ।
ग्रथिताः संबद्धा अध्युपपन्नाः ।
गृहिपर्याय - ग्राम्यवचन
ग्राम्यवचन - अशिष्ट वचन ।
ग्राम्यवचनं कर्कशं कटुकं निष्ठुरं ।
१. देखें - परि० २
५५
ज्ञानमागममित्येकार्थम् ।
(व्यभा १० टी
३१)
ज्ञानमिति वा भाव इति वा अध्यवसाय इति वा उपयोग इति वा एकार्थम् ।
( ब्रुकटी पृ८)
ज्ञानं ज्ञा संवित्तिः ।
( आमटी प ३६६ )
( बृकटी पृ ४२५)
( आचू पृ २१२ )
( अं विपृ ६२ )
( प्र २ /१२)
( स्थाटी प ३७९ )
(अंवि पृ १०६ )
( आचू पृ २५१ )
( सूटी १ प ४८ )
(निचूभा ४ पृ २५७ )
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५६
घट—घोस
घट-घट |
घटः कुट: कुम्भः कलश इत्यादि ।
घट्टण -- पूछना |
घण
घट्ट — साफ-सुथरा ।
घट्टणं विचालणं तिय पुच्छा विप्फालगट्ठा । घट्टणं विधारणं ति य पुच्छा विष्फालगट्ठा ।
घट्टा मट्ठा पीरया |
घट्टं वा मट्ठे वा संमट्ठे वा संपघूमियं वा । ' घडितव्व -- चेष्टा करनी चाहिए ।
घडितब्वं जतितव्वं परक्क मितव्वं ।
सघन ।
घण- निचिय - निरंतर- णिच्छिड्डाई ।
घाट - सौहार्द, मित्रता ।
घाट: संघाट: सौहार्द मित्येकोऽर्थः ।
घात हिंसा ।
घातो हिंसा मारणं दंड: अधर्म इत्यनर्थान्तरं ।
घाय -घात ।
घाय विणासो य एगट्ठा ।
घायाए वहाए उच्छायणयाए ।'
घायय - घातक ।
घायए मारए पडिणीए ।
घोस - गोकुल ।
( विभामहेटी १ पृ ४०० )
( वृकमा ५३७९ )
( निचूभा ४७७ )
घोसो ति गोउलं ति य एगट्ठ ।
१. देखें- परि० २
२. देखें - परि० २
( जंबूटी प ४३ ) ( आचूला ५ / १२)
(स्था ८ / १११ )
३. देखें- परि० २
( राज ७१६ )
( बृकटी पृ २७७ )
( सू २ पृ ३३८ )
( जीतभा २३४ )
( राज ६३५)
(भ १५ / १४१ )
( बुकभा ४८७८)
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चएज्ज - छोड दे ।
चएज्जत्ति वा जहेज्ज त्ति वा एगट्ठा ।
चंद - चांद |
चंचल - चंचल |
चंचल गलंत सलोल चवल फुरफुरेंत निल्लालिय । 'चंडाल -- चांडाल ।
हरिएसा चंडाला सोवागा मयंग बाहिरा पाणा । साधणाय मयासा सुसाणवित्तीय नीया य ॥
चंदो ससी सोमो उडुपती ।
चंद्र-चन्द्रमा |
चन्द्रः शशी निशाकरः उडुपतिः रजनीकरः ।
चत्तदेह - त्यक्तदेह |
चत्तदेहं देहोवरओ त्ति एगट्ठा 1
चन्द्रिका - चांदनी ।
चन्द्रिका कौमुदी ज्योत्स्ना तथा चन्द्रातपः ।
चाहि-त्याग दो ।
चरण - गति करना ।
चरणं गतिर्गमनम् ।
शील ।
चरणं वृत्तं मर्यादेत्यनर्थान्तरम् ।
चरण - चारित्र,
चरति -- खाता है |
चरति त्ति वा भक्खति त्ति वा एगट्ठा
चएज्ज - चरति
१. देखें- परि० २
२. देखें – परि० ३
चाहि त्ति वा छड्डेहित्ति वा जहाहि त्ति वा एगट्ठा ।
"
( दश जिचू पृ ३६६ )
:
५७
( ज्ञा १ / ८ /७२)
( उनि ३२३ )
( आवचू १ पृ ६०६ )
( आवचू १ पृ ४६१ )
( अनुद्वाहाटी पृ १४ )
३. देखें-- परि० ३
४. देखें- परि० ३
( सूर्यटीप ६४ )
( दशजिचू पृ८६ )
( आटी प ३७४ )
( सूचू २ पृ ४४३ )
(दश जिचू पृ ३१९ )
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५८ : चरति—चालिज्जति चरति चलता है।
चरति गच्छति चञ्चूयंत इत्येकोऽर्थः ।। (सूचू १ पृ १९८) चर्यते-प्राप्त करता है। चर्यते गम्यते प्राप्यते ।।
(प्रसाटी प २६१-६२) चलित-कंपित।
चलितं विचलितं वा वि चलं ति चलियं ति वा । (अंवि पृ ८०) चहित-दृष्ट। चहितं ति चाहितं प्रेक्षितं निरीक्षितं दृष्टमित्यनर्थान्तरम् ।
(नंदीचू पृ ४६) चहिय-पूजित । चहिय महिय पूइए।
(उपा ७/१०) चाउम्मासित-चातुर्मासिक । चाउम्मासितो संवच्छरिउ त्ति वा वासारत्तिउ त्ति वा एगलैं।'
(दश्रुचू प ६९) चाएति-सहन करता है। चाएति साहति सक्केइ वासेइ तुहाएति वा धाडेति वा एगट्ठा ।'
(आचू पृ १०७) चार-गति । चारश्चरणं गमनमित्येकार्थः ।
(व्यभा ३ टी प ११४) चार-चर्या । चारो चरिया चरणं एगळं ।
(आनि २४६) चालिज्जति - चलाया जाता है । चालिज्जति वा उच्छल्लिज्जति वा उत्क्षिप्यति वा ।'
(सूचू २ पृ ३४७) १. देखें-परि० ३
४. देखें—परि० ३ २. देखें-परि० ३
५. देखें-परि०३ ३. देखें-परि० २
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चालित-चूला : ५६ चालित--चलाया हुआ।
चालिते त्ति उदीरिते त्ति वा एगट्ठा । (आचू पृ १४१) चालित्तए-कंपित करने के लिए। चालित्तए वा खोभित्तए वा खंडित्तए वा भंजित्तए वा ।
(ज्ञा १/८/७४) चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा।' (ज्ञा १/८/७६) चितेहिति-चिन्तन करेगा । चिंतेहिति त्ति वा मंतेहिति त्ति वा बूया णिच्छयं णाहिति त्ति ।'
(अंवि पृ ८४) चिक्कण-निबिड ।
चिक्कणं ति वा दारुणं ति वा एगट्टा । (दशजिचू पृ २३२) चिट्ठ-प्रगाढ । चिट्ठति वा गाहं ति वा एगट्ठा ।
(आचू पृ १४१) चित्त-चित्त।
चित्तं मनोऽर्थविज्ञानमिति पर्यायाः। (अनुद्वाहाटी पृ २३)
चित्तं मनो विज्ञानमिति पर्यायाः ।। (अनुद्वामटी प ३५) चिर-शाश्वत । चिर-दीह-सस्सत ।
(अंवि पृ २३६) चिरसंसिट-चिरपरिचित ।
चिरसंसिट्ठो चिरसंथुओ चिरपरिचिओ चिरजुसिओ चिराणुगओ चिराणुवत्ती।
(भ १४/७७) चूला-शिखर ।
चूला विभूसणं ति य, सिहरं ति य होंति एगट्ठा। (निपीभा ६६)
चूलं ति वा अग्गं ति वा सिहरं ति वा एगट्ठा। (निपीचू पृ २) १. देखें—परि० २
३. देखें-परि० २ २. देखें-परि० ३
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६० : चेतित-छड्डे चेतित कृत। ___ चेतितं कृतं चेत्येकार्थम् ।
(बृकटी पृ १०१५) चेयण्ण–चैतन्य । चेयण्णं ति वा उवयोगि त्ति वा अक्खर त्ति वा एगट्ठा ।'
(दशजिचू पृ ४६) चोदित -पीडित किया हुआ। चोदिता अवधिता तज्जिता बाधिता ।
(सूचू १ पृ८८) चोयणा-प्रेरणा। चोयणा प्रेरणा नियोजना।
(निपीचू पृ १८) चोक्ष-अच्छा। चोक्षपवित्रौ एकाौँ।
(प्रटी प १०४) छंद-इच्छा। छंदो गेही अभिलासो एगळं ।
(आचू पृ ४१) छंदो लोभः इच्छा प्रार्थना।
(सूचू १ प ६६) छंदोऽभिप्रायोऽभिलाषः।
(सूचू २ पृ ३२४) छंदेण अभिप्रायेण यथारुचि ।
(ज्ञाटी प ६३) छंद-निमंत्रण । छंद निकाय निमंतण एगट्ठा ।
(निभा २१०६) छंदण-निमंत्रण । छंदणं ति वा णिकायणं ति वा णिमंतणं ति वा एगळं ।
(निचूभा २ पृ ३५०) छज्जिय-टोकरी। छज्जियं पडलगं चंगेरियं ।'
(राज १२) छड्डिय-छदित, त्यक्त।
छड्डिउ त्ति वा जढो त्ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ २३१) छड्डे-छोड़दे। छड्डे चए वोसिरे ।
(आचू पृ ३७६) १. देखें-परि० २
३. देखें-परि० ३ २. देखें-परि० २
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छन्द-छेद : ६१
छन्द-आगम।
छन्दो वेद आगम इत्यनन्तरम् ।' (उशाटी प २२३) छन्न-आच्छादित।
छन्नमप्रकाशमदर्शनमनुपलब्धिरित्यनर्थान्तरम् । (सूचू २ पृ ४३३) छदित-छदित, त्यक्त।
छदितमुज्झितं त्यक्तमिति पर्यायाः । (प्रसाटी प १५४) छाया-छाया। छाया इ य अंधकारे इ य एगठे ।
(सूर्य १६/६) छिदंत-छेदता हुआ। छिदंतो वा भिदंतो वा फालेंतो वा विवाडेतो वा णिक्खणंतो।
(अंवि पृ १४४) छिदति-छेदन करता है। छिदति विच्छिंदति भिदति ।
(स्था ५/७३) छिड्ड-छिद्र।
छिड्डे इ वा विवरे इ वा अंतरे इ वा राई वा। (राज ७१८) छिद्द-छिद्र। छिदं विरह अंतरं ।'
(ज्ञा १/२/११) छिन्न-छिन्न।
___ छिन्ने भिन्ने य भग्गे य कुट्टिते वा वि णिव्वरा। (अंवि पृ १५५) छिन्नंति-हनन करते हैं। · छिन्नति वा हणंति वा एगळं ।'
(उचू पृ ५२) छेद-खण्ड । छेदः खण्डं कपरमिति ।
(उपाटी पृ ६६) १. देखें--परि० २
३. देखें-परि० २ २. देखें-परि० ३
४. देखें-परि०३
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६२ : छेय – जल्ल
छेय-दक्ष ।
छेए दक्खे पत्तट्ठे कुसले मेधावी निउणसिप्पोवगए । '
छेयणकरी - छेदन करने वाली ।
छेयणकरिं भेयणकरिं परितावणकरिं उद्दवणकरं । ( आचूला ४ / १० )
जंबू - जंबू वृक्ष ।
सुदंसणा अमोहा य, सुप्पबुद्धा जसोधरा । विदेहजंबू सोमणसा, णियया णिच्चमंडिया || सुभद्दा य विसाला य सुजाया सुमणा विय । सुदंसणाए जंबूए, नामघेज्जा दुवालस ।।
जग्गंतक - लकड़ी ।
जग्गतको त्ति संदीपणं ति दारु समिध त्ति ।
जड्डु — मूढ |
जड्डे मूढे अपंडिए निव्विण्णाणे ।
जसंमद्द - जनसमूह |
जण्ण-उत्सव |
जणं छणुस्यं ।
जरत्का - जीर्ण |
जसंमद्दे इवा, जणवूहे इ वा, जणबोले इ वा, जणकलकले इ वा, जणुम्मी इवा, जणुक्क लिया इ वा, जणसण्णिवाए इ वा ।
(भ २ / ३० )
जरत्का जरती जीर्णा ।
जल्ल - मैल |
जल्लो कमढो मल्ली । *
१. देखें परि० २
२. देखें- परि० २
३. देखें- परि० २
(जंबू ५ / ६)
४. देखें - परि० २
(३/७०० )
(अंवि पृ २५४ )
( राज ६९६ )
(अंवि पृ १२१ )
( अनुटी प ४ )
( आच पृ ३७२ )
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जल्लिय-जितकरण : ६३
जल्लिय-मैला-कुचेला। जल्लियस्स वा पंकियस्स वा मइल्लियस्स वा रइल्लियस्स वा ।
(भ ६/२३) जवइत्तए-निर्वाह करने के लिए।
जवइत्तए त्ति वा लाढेत्तए त्ति वा एगट्ठा ।' (सूचू १ पृ८८) जवित्तए स्थापना करने में ।
जवित्तए त्ति णिज्जूढमित्यनर्थान्तरम् । (सूचू १ पृ १३) जस-यश । जसो ति वा संजमो ति वा वण्णो त्ति वा एगळं ।
(व्यभा ६ टी प ५५) जहाभूत-यथार्थ । जहाभूतमवितहमसंदिद्धं ।
(ज्ञा १/१/४८) जाणइ-जानता है। जाणइ पासइ बुज्झइ अभिगच्छइ ।'
(स्था ५/७८) जात-प्रकार। जाता: प्रकाराः भेदाः ।
(व्यभा १ टी प ५२) जाम-अवस्था । जामो त्ति वा वयो त्ति वा एगट्ठा ।
(आचू पृ २५५) जायसङ्क-श्रद्धालु। जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले ।
(भ १/१०) जावंताव-गुणाकार (गणित)।
, जावंतावन्ति वा गुणकारो ति वा एगळं। (स्थाटी प ४७५) जितकरण-विनीत ।
जितकरणो विनीत इति द्वावप्येकाौँ। (व्यभा ४/३ टी प १६) १. देखे-परि० २
३. देखें-परि०३ २. देखें-परि० २
४. देखें--परि०२
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६४ : जिव्हिका-जीवित जिव्हिका-प्रणालिका। जिव्हिका प्रणालापरपर्याया।
(जबूटी प २६१) जीत--मर्यादा।
जीतं मर्यादा व्यवस्था स्थितिः कल्प इति पर्यायाः। (नंदीटी पृ ११) जीव-जीव। जीवो त्ति वा पाणो त्ति वा एगळं ।
(सूचू १ पृ ३१) जीवः सत्वः प्राणी आत्मेत्यादि पर्यायाः । (नकग्रटी पृ २)
जीवा: प्राणिनः शरीरभृत इति पर्यायाः । (नकग्रटी पृ. ११२) जीवण-जीवन ।
जीवनं प्राणधारणं जीवितमिति पर्यायाः। (विभामहेटी २ पृ ३४६) जीवत्थिकाय-जीवास्तिकाय ।
जीवे इ वा, जीवत्थिकाए इ वा, पाणे इ वा, भूए इ वा, सत्ते इ वा, विण्णू इ वा, वेया इ वा, चेया इ वा, जेया इ वा, आया इ वा, रंगणे इ वा, हिंदुए इ वा, पोग्गले इ वा, माणवे इ वा, कत्ता इ वा, विकत्ता इ वा, जए इ वा, जंतू इ वा, जोणी इ वा, सयंभू इ वा, ससरीरी इ वा, अंतरप्पा इ वा । जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते जीवत्थिकायस्स अभिवयणा ।'
(भ २०/१७). जीवा-धनुष्य की डोरी। जीवया प्रत्यञ्चया दवरिकया। .
(सूर्यटी प २२) जीवाभिगम-दशवैकालिक का चौथा अध्ययन ।
जीवा (अभिगम) ऽजीवाभिगमो आयारो चेव धम्मपण्णत्ती । तत्तो चरित्तधम्मो चरणे धम्मे य एगट्ठा।'
(दशनि १४४) जीवित-आयुष्य । जीवितमायुष्कमित्यनर्थान्तरम् ।
(अनुद्वाहाटी पृ ८६) १. देखें-परि० २ २. देखें-परि० २
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जुइ-द्युति ।
जुइए भाए छायाए अच्चीए तेएणं लेसाए ।
1
जुण्णो वि जज्जरो बुड्डु ।
जुण्ण-जीर्ण
जुद्ध-युद्ध |
जुद्धं णिजुद्धं संगामं संपरागं ।
जुवाण - जवान, युवा ।
जुवाणो जोव्वणत्थो वा पोअंडो ।
जूह-संक्षेप |
जू संजू हः संक्षेपः समास इत्यनर्थान्तरम् ।
जेमेति — भोजन करता है ।
जेमेति भुंजते व त्ति अते वत्ति वा ब्रूया
जोग-करण ।
जोगा इति वा करणाणि त्ति वा एगट्ठ । जोग - योग, सामर्थ्य
जुइ - जोठवण : ६५
( उपा २ / ४० )
( अंवि पृ ३० )
( अंवि पृ १२ )
(अंवि पृ ६२ )
आहारं कुरुते त्तिय । भक्खते खाति वप्फति || ' ( अंवि पृ १०७ )
( ब्रुकटी पृ ४०७ )
( सू २ पृ ३३८ )
जोगो त्ति वा वीरियं ति वा सामत्थं ति वा परक्कम त्ति वा उच्छाहो त्ति वा एगट्ठा । ( आवचू १ पृ १०३) जोगो त्ति वा वावारो त्ति वा वीरियं ति वा सामत्थं ति वा एगट्ठा । ( आवचू १ पृ ४३३)
जोगो विरियं थामो, उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा । सत्ती सामत्थं चिय, जोगस्स हवंति पज्जाया । ( व्यभा १ टी प २२ ) जोठवण - यौवन ।
जोव्वणं ति व जो बूया तहा जोव्वणकं ति वा । जोव्वणत्थे त्ति जो बूया जुवाणो त्ति व जो वदे ॥
तरुणं ।
१. देखें —परि० ३
२. देखें- परि० २
(अंवि पृ ६९ )
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६६ झीण - डिफर
भीण क्षीण |
भीणं परिक्खीणं विणट्ठं । भोस - - समीकरण की राशि विशेष ।
:
भोस त्ति वा समकरणं ति वा एगट्ठ ।'
झोसण — छोड़ना ।
--
भोसण खवणा मुंत्रण एगट्ठा ।
ठप्प - स्थाप्य ।
ठप्पाई ठवणिज्जाई एते दोवि एगट्ठिता ।
ठाण - नैषेधिकी, स्वाध्यायभूमि । ठाणं निसीहियत्ति य एगट्ठ ।
भेद ।
ठाणं ति वा भेदो त्ति वा एगट्ठा ।
ठाण - स्थान,
ठित-स्थित |
ठितं गतं ति एगट्ठ |
ठिति - मर्यादा |
ठिति त्ति मेरत्ति एगट्ठा ।
इंड - घात ।
डंडं घायणं मारणं ति वा एगट्ठा ।
१. देखें- परि० २
२. देखें - परि० २
डिब – कलह |
-
डिंबा इ वा डमरा इ वा कलह - बोल -खार-वेर । डिप्फर- - बैठने का आसन विशेष ।
डिप्फरो पीढफलकं सत्थियं तलियं ति वा । मरसूको अत्थरको कोट्टिमं ति सिलातलो ॥ मासाली मंचको ।
(अंवि पृ १४७ )
( निचूमा ४ पृ ३२३)
( जीतभा २२७६ )
(व्यभा ३ टीप ५३ )
( अनुद्वाच पृ २ )
३. देखें - परि० २
( दशजिचू पृ ३२५ )
( नंदीच पृ १६ )
( बृकमा ६३५५ )
( आचू पृ २६८ )
( जंबू २ / ४२ )
( अंवि पृ ६५ )
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मंगल - हल ।
मंगलं लंगलं ति वा हलं ति वा एगट्ठा ।
गंदी - प्रमोद |
गंदी पमोदो हरिसो कंदप्पो ।
दी हरिसी तुट्ठी ।
णग-पर्वत ।
गोत्ति पव्वतो व त्ति गिरि मेरुवरोत्ति वा । सेलो सिलोच्चयो वत्ति पव्वतो सिहरि त्ति वा ॥ ट्ठ- नष्ट |
-हित-पलाते दूसिते विणट्ठे विपणे ।
पुंनपुंसक |
२.
णमोक्कत - नमस्कृत ।
- विट्ट-भट्ट |
ट्ट त्ति वा विगए त्ति वा अतथाभूए त्ति वा एगट्ठा ।
कुंभीकपंडकं जाणं इस्सापंडकमेव य । पक्खापक्खिं व विक्खो य संढो वा वि णरेतरों ॥ *
मोक्ते वंदिते वा पूयितुल्लोकिते तधा ।"
रिद - स्वामी ।
पुंसको अपुरुसो चिल्लिको सीतलो त्ति वा । पंडको वातिको वा वि, किलिमो वा संकरोति वा ॥
गंगल
दोत्ति सामिको सुपुरिसोत्ति वा ।
णाण- -ज्ञान |
१. देखें- परि० २
देखें - परि० ० २
( दशजिच पृ २५४)
( नंदीचू पृ १ )
( निचुभा ४ पू १२२)
-णाण
६७
३. देखें - परि० २
४. देखें - परि० २
( अंवि पृ७८ )
(भ १५ / १०३ )
( आवचू १ पृ ११ ) ( अंवि पृ २५० )
णाणंति वा संवेदणंति वा अधिगमोत्ति वा चेतणंति वा भावोति वा
एते सहा गट्ठा |
( दश जिचू पृ १० )
( अंवि पृ ७३ )
( अंवि पृ १५५ )
( अवि पृ २४६ )
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६८ : णाणि-णिक्खित्त
णाणं ति वा विज्ज ति वा एगट्ठा ।
(उचू पृ १४७) णाणं ति वा संवेदणं ति वा अहिगमो त्ति वा वेयणि त्ति वा भावो त्ति वा एगट्ठा ।
(अवचू १ पृ ६) णाणि-मुनि।
णाणि त्ति वा मुणि त्ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ १६८) णाम-नाम ।
णामं ति वा ठाणं ति वा भेद त्ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ ३५३) णाय–दृष्टान्त ।
णायं ति वा दिसॆतो त्ति वा आहरणं ति वा ओवम्म ति वा निदरिसणं ति वा एगट्ठा ।
(दशजिचू पृ ३६) णाय-ज्ञात । णायं गणियं गुणियं गयं च एगलैं ।
(दश्रुचू प १७) णावा-नाव।
णावा पोतो कोट्टिबो सालिका तप्पको प्लवो पिंडिका कंडे वेलु तंबो कुंभो दती संघाडो कट्ठ ।।
(अंवि पृ १६६) णिकड्डति --बाहर निकालता है।
णिकति विकद्दति ।
उक्कड्डति त्ति वा बूया कड्डिति त्ति व जो वदे ।' (अंवि पृ ८०) णिकम्मदरिसि—निष्कामदर्शी।
णिकम्मदरिसी-सिद्धदरिसी मोक्खदरिसी वा । (आचू पृ ११३) णिक्खंत--प्रवजित।
णिक्खंतो त्ति वा पव्वइओ त्ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ २६३) णिक्खित्त-निक्षिप्त, स्थापित । णिक्खित्तं ठवियं ति य एगळं ।
(जीतभा १५१२) १. देखें--परि०२ २. देखें-परि० २ ३. देखें-परि० ३
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णिक्खेव - निक्षेप, न्यास ।
णिक्खेवो णासो त्तिय ठवण त्ति य होंति एगट्ठा। ( उशाटी प ६६९ )
णिच्छय – सद्भाव ।
णिच्छयो सब्भावो स्वरूपं ।
णिच्छुद्ध - निक्षिप्त ।
णिच्छुद्धे णिग्गते छुद्धे उक्कड्डिय विकङ्किते ।
पिच्छोडण - निर्भर्त्सन ।
णिच्छोडणं णिव्वलकं तधा णिल्लिक्खणं ति वा ।
णिज्जरा - निर्जरा ।
णिज्जर त्ति वा तवो त्ति वा एगट्ठा ।
णिडाल - ललाट ।
णिडालं मत्थको सीसो ।
णिडालमासक -- तिलक |
णिडालमासको वत्ति तिलको मुहफलकं ति वा । विसेसको त्ति वा ब्रूया अवंगो त्ति व जो वदे ।।
णिण्णेहक – निःस्नेह
णिक्खेव - णिदंसण : ६६
हिकं अहं वा फुट्ट ति फरुसं ति वा ।
णितिय - नित्य |
णितिउत्ति वा सासतो त्ति वा एगट्ठा ।
णिदंसण - निदर्शन ।
१. देखें- परि० २
( नंदीचू पु ५८ )
( अंवि पृ १०८ )
( अंवि पृ १०६ )
( आचू पृ २१५ )
( अंवि पृ ११९ )
( अंवि पृ ६४ )
णिदंसणं हेतु दिट्ठत उवदंसणा उवणय उवसंघार एगट्ठिता एते ।
( नंदीचू पृ ५२ ) -
( अंवि पृ १०६ )
( आचू पृ १३४ )
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७० : णिप्पीलित --णिव्वंजीयंति णिप्पोलित-निष्पीड़ित ।
णिप्पीलिते णिगलिते झीणे झविते य । (अंबि पृ२५५) णिप्फत्ति-निष्पत्ति । णिप्फत्तिः प्रभव: प्रसूति: ।
(निचूभा ४ पृ ३८८) णिप्फत्ति लाभो आगमो।
(अंवि पृ २५२) णिभामित-रूक्ष।
णिब्भामितं णिग्गलितं अब्भुक्कढितं ति वा। (अंबि पृ १०६) हिम्मंसक-मांस रहित ।
णिम्मंसको त्ति वा बूया तधा अट्ठिकलेवरं । अटिठक चम्मणद्धं ति तधा अट्ठिकसंकला ॥ सुक्कलो त्ति व जो बूया णिस्सुक्को त्ति व जो वदे ।
ओझीणं परिहीणं ति मातं ति मलितं ति वा ॥ (अंवि पृ ११४) णिम्मज्जित हटा देना।
णिम्मज्जिते निल्लक्खिते णिस्सारिते णिव्वट्टिते णिलुलिते णिक्कड्डिते णिद्धाडिते णिस्साविते णिप्फाविते गिच्छोलिते णिक्खण्णे णिबिठे णिच्छुद्ध विच्छुद्धे णिस्सिते णिल्लुविते णिवोल्लिते णित्थणिते णिस्ससिते पिस्सिघिते णि ते णित्थुद्धे णिस्सरिते णिप्फेडिते णिद्दीणे पिण्णीते
णिकुज्जिते णिव्वासिते णीरक्कए णिराणंदे। (अवि पृ १७१) णियत-नियत ।
णियतं भूतपुव्वं ति कतपुव्वं ति वा पुणो ।
तधा रयितपुव्वं ति अणुभूतं ति वा पुणो । (अवि पृ ८२) णियय-नियत । णिययं वा णिच्छियं वा एगट्ठा ।
(जीतभा २३४) णिव्वंजीयंति-व्यक्त करते हैं।
णिव्वंजीयंति विभाविज्जति फुडीकज्जति । (आवचू १ पृ २६) १. देखें-परि० २ २. देखें-परि० ३
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णिव्वाण - निर्वाण, सुख ।
णिव्वाणं सुहं सायं सीइभूयं पयं अणाबाहं ।'
णिव्वाणिकर - मांगलिक ।
णित--सुखी ।
णिव्वाणिकरं च मंगलिज्जं च इट्ठा आणंदकरं च । (अंवि पृ २५० )
णिस्संकित - निःशंकित ।
सुहिते वत्ति आरोगो पीणितो त्ति वा ।
णि संकिते णिक्कंखिते णिव्विति गिच्छिते । ' णिसियणा - निसीदन ।
णिसियणा उवविसणा संपिहणा इति एगट्ठा । णिसीहिया - निषीधिका ।
णिसीहियत्ति वा ठाणं ति वा एगट्ठ ।
निस्सारित - बाहर निकाला हुआ ।
निव्वाण - हिय
जिहण-कपट ।
हिणं ति वा गृहणं ति वा छायणं ति वा एगट्ठा ।
हिय - उपशान्त ।
णिहयं णट्टं भट्ठ उवसंतं पसंतं ।
१. देखें- परि० २
२. देखें- परि० २
: ७१
निस्सारि णिण्णामिते णिद्धाडिते णिल्लोलिते णिक्कड्डिते णिप्फीलिते णिच्छालिते णिक्खित्ते णिच्छुद्धे णिव्वाडिते णिसितं णिलूचिते णिच्छोलिते णिस्ससिते णिस्सरिते णिप्पतिते णिप्फाडिते णिड्डीले णिकुज्जिते णिव्वामिते णिराकते णिराणते ।
(अंवि पृ १६८-६९ )
( आनि २०८ )
(अंवि पृ १२१ )
(स्था ३ / ५२४)
( आचू पृ ४६ )
(उच्च् पृ ६७ )
( आचू पृ १७३ )
( राजटी प ५४ )
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७२ : णिहित-तक्क णिहित—रखना। णिहितं ति वा णिहेति त्ति वा ठवेति त्ति वा एगट्ठा ।'
(अनुद्वाचू पृ २१) णीरागदोस-राग-द्वेष रहित ।
णीरागदोस णिम्मम णिस्संग णीसल्ल। (जंबू ५/५८) णीहारेति-नीहरण करता है ।
णीहारेति णीहरति त्ति अपकति णिकड्वति ।
णिसारेति णिसरति णिक्खुस्सति विकड्डति ॥ (अंवि पृ १०८) पहात-स्नात।
हातं व मज्जियं वा वि आलोलित पलोलियं ।
पलोट्टितं ति वा बूया तधा सम्मज्जितं ति वा ॥ (अंवि पृ ८१) पहाय-स्नात। ण्हाओ विमलो विसुद्धो सुसुइभूओ।
(उ १२/४६) तंडि-अविनीत ।
तंडी ति वा गली ति वा मराली ति वा एगट्ठा। (उचू प ३०) तंत-तंत्र, ग्रंथ ।
तंतं ति वा सुत्तो त्ति वा गंथो ति वा एगट्ठा । (दशजिचू पृ ३४६) तका-शय्या। तका अभिशय्या अभिनिषद्या ।
(व्यभा ३ टी प ५४) तक्क-छाछ। तक्कं उदसी छासि त्ति एगळं ।
(निपीचू पृ ६२)
तक्क
तक्का इ वा, सण्णा इ वा, पण्णा इ वा। (भ १/१६५)
तक्को मीमांसा विमर्श इत्यनर्थान्तरम् । (सचू २ पृ ३६८) १. देखें--परि०३
४. देखें-परि० २ २. देखें--परि० ३
५. देखें-परि०२ ३. देखें-परि०२
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तट्टक—थाल ।
तट्टकं सरकं थालं सिरिकुंडं ति वा पुणो । तपणसकं वत्तितधा अद्धकविट्ठगं || सुपतिट्ठकंति व वदे तथा पुक्खरपत्तगं । सरगं मुंडगं वत्ति तधेव सिरिकंसगं ॥ '
थालकं ।
तनुतरशरीर-सूक्ष्मशरीरी ।
तनुतरशरीरो महावीर्यो देवो वा ।
हा तृष्णा ।
तह गेहि लोभ ।
तत्त्व - पारमार्थिक सत्य ।
तत्त्वेन परमार्थेन मौनीन्द्राभिप्रायेण ।
तस्थ - त्रस्त |
तत्था उव्विग्गा संजायभया ।
तत्थ तत्थ — वहां वहां ।
तत्थ-तत्थ देसे-देसे तहि तर्हि ।
तद्दिट्ठि -- एकाग्रदृष्टि ।
तमस् —अन्धकार ।
तमो तिमिरमन्धकार इत्यनर्थान्तरम् ।
तमुक्काय - तमस्काय ।
तट्टक-तमुक्काय : ७३
१. देखें- परि० २
तद्दिट्ठिए, तम्मोत्तिए, तप्पुरक्कारे, तस्सण्णी, तन्निवेसणे ।
( विभामहेटी १२८८ )
( अंवि पृ ६५ )
( सूटी १ प ९३ )
त इवा, तमुक्काए इ वा अंधकारे इ वा, लोगंधकारे इवा, लोगतमिसे इ वा, देवंधकारे इ वा वा, देवरणे इवा, देववूहे इ वा, देवफलिहे इ वा, इवा, अरुणोदए इ वा ।
( विपाटी प ४३ )
( प्र ५ / ६)
२. देखें- परि० २
( सू २/१/२)
(सूच् २ पृ ३४७)
( आ ५ / ६८ )
महंधकारे इ वा, देवतमिसे इ देवपक्खिोभे (भ ६ / ८६ )
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७४ : तरच्छ-तितिक्खति
तमे ति वा, तमुक्काते ति वा, अंधकारे ति वा, महंधकारे ति वा, लोगंधगारे ति वा, लोगतमसे ति वा, देवंधगारे ति वा, देवतमसे ति वा, वातफलिहे ति वा, वातफलिहखोभे ति वा, देवरपणे ति वा, देववूहेति वा।
(स्था ४/२७५-७७) तरच्छ—व्याघ्र विशेष । तरच्छ-अच्छ-भल्ल-सद्ल-सीह ।'
(प्र १/६) तरुणय-नवीन । तरुणय त्ति अभिनवा कोमला।
(अनुटी प ४) तच्चित्त-तन्मयता।
तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झवसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तदट्ठोवउत्ते तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए।'
(भ १/३५४) तज्जति–तर्जना देते हैं। तज्जेंति तालेंति परिवहेंति पव्वहेति ।
(भ ३/४५) तवस्सि-तपस्वी।
तवस्सी त्ति वा साहु ति वा एगट्ठा । (दशजिचू पृ २०३) तसंति-भयभीत होते हैं। तसंति ति वा उब्वियंति वा संकुयंति वा बीभिति वा एगटठा ।
(आचू पृ ३६) तह-तथ्य । तहमवितहमसंदिद्धं ।
(भ २/५२) तिण्ण-तीर्ण । तिण्णे मुत्ते विरए ।
(आ ५/६१) तितिक्खति -तितिक्षा करता है। ____ तितिक्ख ति ति वा सहति त्ति वा एगट्ठा। (आचू पृ १७१) १. देखें-परि० २
४. देखें-परि० ३ २. देखें- परि०२
५. देखें-परि० ३ देखें--परि०२
६. देखें-परि० ३
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तितिक्खा-तुच्छ : ७५ तितिक्खा-अहिंसा ।
तितिक्खा य अहिंसा य हिरि एगट्ठिया पदा। (उनि १५८)
तितिक्खा अहिंसा वेरति वा ।' तिरोड-मुकुट।
तिरीडं मउडो चेव तधा सीहस्स भंडकं । अलकस्स परिक्खेवो, अधवा मत्थककंटकं ।। तधा गुरुलको व त्ति वदे मगरको त्ति वा । तधा उसभको व त्ति अधवा सीउको भवे ।। (अंवि पृ ६४) तिरीडं ति किरीटं च मुकुटम् ।'
(समटी प १४६) तिलोवलद्धीय-तिलपपड़ी।
तिलोवलद्धीयं पललं वा तिलक्ख ली वा।' (अंवि पृ १८२) तिसरा-मछली पकड़ने का जाल ।
तिसराहि य, भिसराहि य, घिसराहि य, विसराहि य, हिल्लिरीहि य, भिल्लिरीहि य, गिल्लिरीहि य, झिल्लिरीहि य, जालेहि य ।"
(विपा ८/१६) तिसला-त्रिशला, महावीर की माता। तिसला ति वा विदेह दिण्णा ति वा पियकारिणी ति वा ।
(आचूला १५/१८) तीरित-पार पा गया। तीरितं णीतं अंतम् ।
((दश्रुचू प ७०) तीर्थ-घाट।
तीर्थं जलपानस्थानमित्येकोऽर्थः । (बृकटी पृ १३०३) तुच्छ-- असार।
तुच्छ ति रित्तकं व त्ति असारं झुसिरं ति वा। (अंवि पृ १००) १. देखें-परि० २
४. देखें-परि० २ २. देखें--परि० २ . ५. देखें-परि० २ ३. देखें-परि० २
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७६ : तुट्ठि-थिल्ली तुट्ठि- तुष्टि ।
तुट्ठी वा ऊसए वा हरिसे वा आणंदे वा । (निर १/७२) तुदति- प्रेरित करता है। तुदति उत्तुदति प्रचोदयति ।'
(निचूभा ३ पृ ४०) तुलना-तुलना।
तुलना भावना परिकर्म चेत्येकार्थानि । (प्रसाटी प १२६) तुस-तुष ।
तुस त्ति कोंटको व त्ति कक्कुसो तप्पणो त्ति वा । (अवि पृ १०६) तेगिच्छियसाला-चिकित्सालय ।
तेगिच्छियसाला चिकित्साशाला अरोगशाला। (ज्ञाटी प १८७) तेय तेज। __ तेउ त्ति उण्हं ति इति एगट्ठा।
(आचू पृ ३१७) त्वग्वर्तन-शयन करना। त्वग्वर्तनं तुयट्टणं शयनं ।
(निचूभा २ पृ ३७०) थणंति-चिल्लाते हैं। थणंति वा कंदंति वा सोयंति वा ।'
(आचू पृ २०२) थिर-स्थिर । थिरं धुवं धारणिज्ज।
(आचूला ५/३०) थिरसंघयण-दृढ़ संहनन वाला।
थिरसंघयणो दढसंघयणो बलितसरीर । (दश्रुचू प २१) थिल्लो-पालकी।
थिल्ली गिल्लि ति वा बूया सिबिका संदमाणिका।" (अंवि पृ ७२) १. देखें—परि० ३
४. देखें-परि० ३ २. देखें-परि०२
५. देखें-परि० २ ३. देखें-परि० २
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थुइ - स्तुति ।
थुइथुणणवंदणन मंसणाणि एगट्टियाणि ।
थुइवंदणपूयाअच्चणाइ ।'
थुत—स्तुत ।
ता पूइया ह्येते एकार्थवचनाः ।
थूल-स्थूल ।
थूलं वडु वरढं ति परिवृढं ति वा पुणो । पीणं उवचितं व त्ति पीवरं मांसलं ति वा ॥ महासारं महाकायं अतिकायं ति वा पुणो । मंडति बहलं वत्ति पुत्थव्वा मेदितं ति वा ॥ ' थेज्ज -- विश्वसनीय |
थेज्जे वेस्सासिए सम्मए बहुमए अणुमए । थेरकप्प — स्थविरकल्प ।
थेरकप्पो थेरमज्जाता थेरसमायारी ।
थेरभूमि - स्थविरभूमि ।
दंड - विनाश |
दंडो घातो मारणं ति एगट्ठा ।
दंत - दांत |
दंते दविए वोसट्टकाए ।
दंतप्प - आत्मदांत ।
थेरभूमि त्ति वा थेरद्वाणं त्ति वा थेरकालो त्ति वा एगट्ठ ।*
दंतप्पा समिए गुत्ते ।
थुइ-दंतप्प
१. देखें- परि० २
२. देखें - परि० २
३. देखें-- परि० २
४. देखें-- परि० २
७७.
( आवनि १०६२ ) ( आचू पृ ३१५ )
( नंदीचू पृ ४६ )
( अंवि पृ ११४ )
(भ २ / ५२ )
(दश्रूचू पृ७० )
( व्यभा १० टी प १०० )
( आचू पृ ६१ )
( सू २ / १६ / २)
( उ ३४ / ३१)
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दउदर-दारिया
दउदर-- जलोदर व्याधि । दउदरे त्ति दकोदरं जलोदरम् ।
७८
दक्ख दक्ष ।
दक्खो दक्खिण्णवं णिउणो ।
दगतीर - पानी के पास ।
दगतीरं दगासणं दगब्भासं ति वा एगट्ठ । 'दगवीणिय - जल को प्रणालिका ।
दवीणिय दगवाहो दगपरिगालो य एगट्ठा ।
दण्ड
दया - संयम |
दाय संजमो लज्जा दुगुञ्छाऽछलणा इ य । '
- यातना ।
aust निग्रहो यातना विनाश इति पर्यायाः । ( आवहाटी २ पृ २२६ )
दर्शन - दृष्टि, सिद्धान्त ।
दर्शनं दृष्टि व देश उपदेशो मार्गः ।
दर्शनं मतं सिद्धान्तम् ।
दवि - बंधनमुक्त ।
afar बंधमुक्के छिण्णबंधणे ।
दवी – कुड़छी ।
दव्वी तध कवल्ली य दीविक त्ति कडच्छुकी ।
दारिया - बालिका ।
दारिया बालिया व त्ति सिगिका पिल्लिक त्ति वा । वच्छिका तणिका वत्ति पोतिक त्ति व जो वदे || कण्णत्ति व कुमारि त्ति धिज्जा ।
१. देखें-- परि० २
२. देखें- परि० २
३ देखें परि० २
( ज्ञाटी प १६० )
( अंवि पृ ४ )
( निचूभा ४ पृ ४६ )
( निभा ६३४ )
( उनि १५८ )
( सू २ पृ ४५७ )
( उपाटी पृ १७४ )
( सू १ / ८ / १० )
( अवि पृ७२ )
( अंवि पृ ६८ )
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दारुण-दिद्विवाय : ७६ दारुण-दारुण। दारुणो कक्कसो असाओ।
(प्र १/३६) दारुणसद्द-दारुणशब्द।
दारुणसद्दो कक्कससद्दोऽवि य एगट्ठा । (दशजिचू पृ २८३) दास–दास, नौकर। दासा इ वा, पेस्सा इ वा, भयगा इ वा, भाइल्लगा इ वा।
(ज्ञा १/२/६०) दास किंकर कम्मकर।
(दश्रु ६/२४) दास-भयक-पेस
(प्र १०/३) दासे इ वा, पेसे इ वा, भयए इ वा, भाइल्ले इ वा, कम्मकरे इ वा, भोगपुरिसे इ वा।
(सू २/२/५८) दासे इ वा, पेसे इ वा, सिस्से इ वा, भयगे इ वा, भाइल्लए इ वा, कम्मारए इ वा ।
(जंबू २/२६) बासी-दासी।
दासी कम्मकरी व त्ति पेसि त्ति नत्तिक त्ति वा। (अंवि पृ ६८) दिट्ठ-दृष्ट।
दिट्ठाणं सुयाणं मुयाणं विण्णायाणं निज्जूढाणं वोगडाणं वोच्छिण्णाणं णिसिट्ठाणं णिवूढाणं उवधारियाणं ।
(सू २/७/३४) दिळं सुयं मयं विण्णायं ।
(आ ४/२०) दिदि-दर्शन । दिट्ठी दरिसणं मतं ।
(निपीचू पृ १५) दिट्ठिवाय-दृष्टिवाद (बारहवां अंग) ।
दिट्ठिवाए ति वा, हेउवाए ति वा, भूयवाए ति वा, तच्चावाए ति वा, सम्मावाए ति वा, धम्मावाए ति वा, भासाविजए ति वा, पुव्वगते ति वा ,अणुजोगगते ति वा, सम्वपाण (सुहावहे) ति वा, सव्वभूत (सुहावहे) ति वा, सव्वजीव (सुहावहे) ति वा, सव्वसत्त ...(सुहावहे)... ति वा।
(स्था १०/१२) १. देखें-परि० २
३. देखें-परि०२ २. देखें-परि० २
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८० : द्वितीय समवसरण - दीह
द्वितीय समवसरण - ऋतुबद्धकाल ।
द्वितीय समवसरणं ऋतुबद्ध इति चैकार्थम् । दिपते - दीप्त होता है ।
दिप्पते भासते सोभते ।
दीण - दीन ।
दीणो त्ति दुम्मणो वत्ति परितंतो त्ति वा पुणो । उक्कट्टितो त्ति सोकत्तो चिंता झाणपरो त्ति वा ॥ अणिव्वतो आतुरो त्ति परायितणिरागतो । अकतत्थो असिद्धत्थो अहमो णियमसक्कतो ॥ दीणा दुम्मणा निराणंदा ।
दीति वा कलुणं ति वा एगट्ठा ।
दीव - दीप ( अग्नि का स्थान ) ।
दोविय - प्रकाशित ।
दीविय पभासिउत्ति य पगासितो चेव एगट्ठा ।
दीवति दीवक त्तिय चुडली मधअग्गि चुल्लके वत्ति । विज्जु त्ति विज्जुता आयवोत्ति कज्जोपको वत्ति ॥ अलि त्ति व चुल्लि त्ति व चितक त्ति व फुंफक त्ति वा । *
atar - सिंह |
दीविय विग्ध सद्दल सीह । "
वोह – दीर्घ, ऊंचा ।
दहमुच्चं महंतं ति ।
१. देखें- परि० २
२. देखें —परि० ३
३. देखें - परि० २
( बृकटी पृ ११५१ )
४. देखें- परि० २
५. देखें- परि० २
( निपीच पृ १९ )
( अंवि पृ १२१ )
( ज्ञा १ / २ / ३४ )
(दशजिचू पृ ३१२).
(अंबि पृ २५४ )
( जीतभा २४८ )
( प्र १ / २ )
(अंवि पृ ११५ )
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दीहसक्कुलिका - खजली ( गुड़ से निष्पन्न खाद्य विशेष ) ।
दीहसक्कुलिकं वा, खाखट्टिका वा, खोडके वा, दीवालिकाणि वा, भिसकंटकं वा मत्थकतं वा । (अंवि पृ १८२ )
सरकावा,
दुक्कड - दुष्कृत ।
दुक्कडं ति वा सावज्जमणुट्ठितं ति वा पावकम्ममासेवितं ति वा विट्ठमाइन्नं ति वा एगट्ठा । ( आवचू १३४६ )
दुक्ख – दुःख ।
दुक्खं अणिट्टं अकंतं अप्पियं अमणामं ।
दुक्ख — कर्म ।
दुक्खं ति वा कम्मं ति वा एगट्ठ ।
दुक्खइ - दुःखित होता है ।
दुक्खण – दुःख ।
दीहसक्कुलिका - दुधाण : ८१
दुक्खइ वा सोयइ वा जूरइ वा तिप्पइ वा पीडइ वा परितप्पइ वा ।
( सू २ / १/४२)
दुक्खण-जूरण- सोयण - तिप्पण-पिट्टण-परितपण ।
दुगुणा - संयम |
दुग्गव—दुष्ट बैल 1
दुगंछणा संजमणा अकरणा वज्जणा विउट्टणा णियत्ति त्ति वा एगट्ठा
( आचू पृ ३८ )
दुघाण – दुर्भिक्ष ।
दुग्गवो त्ति वा दुगोणो त्ति वा गलिवद्दो त्ति वा एगट्ठा ।
दुघाणं ति वा दुभिक्खं ति वा एगठ्ठे ।
१. देखें - परि० २
२. देखें - परि० २
३. देखें- परि० ३
( सूचू १ पृ ४८ )
(दश्रुच् पृ २८ )
( सू २ / २ / ३१ )
४. देखें- परि० २
( दशजिचू पृ ३१५)
( ब्रुकचू प ९४८)
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८२ : बुट्ठ वुस्सील
बुटु दुष्ट |
दुट्ठे मूढे वग्गाहिते । '
बुद्ध — दूध ।
दुद्धं पयो वालु खीरं च ।
दुद्धं पओ पीलु खीरं च ।
डुब्बल - दुर्बल ।
दुब्बले किलंते जुंजिए ।
दुम-वृक्ष |
दुमा य पायवा रुक्खा, विडिमी य अगा तरू । कुहा महीरुहा वच्छा, रोवगा भंजगा विय ॥
दुर्भेद—दुर्भेद्य |
दुर्भेदो दुर्मोचो दुःक्षपणीयः । दुरुहइ — आरोहण करता है ।
दुमपुफिया - दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन का नाम । दुमपुफिया य आहारएसणा गोयरे तया उंछो । सप्पे, वणsक्खइसुगोलपुत्तुदए ॥ *
मेस
जलूगा
दुरुहइति विलग्गइत्ति आरुभति त्ति एगट्ठ ।
दुस्सह दुस्सह ।
---
दुस्सहा व्याकुला असमंजसा ।
दुस्सील - दुश्शील ।
(
दुस्सीले दुपरिचर दुरणुणेए दुव्वए ।
१. देखें - परि०
२. देखें – परि० २
३. देखें -- परि० २
(स्था ३ / ४७८ )
( जीतमा ११३२ )
( पिनि १३१ )
( ज्ञा० १ / २ / १८६ )
( विभामहेटी १ पृ ४५६ )
( दशनि १४ )
(दशहाटी प १५ )
४. देखें- परि० २
५. देखें- परि० ३
( निभा ४ पृ २०५ )
( जंबूटी १६७ )
(दश्रु ६ / ३)
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दुहट्ट-धण्ण : ८३
दुहट्ट-दुःखी। दुहट्ट त्ति दुर्घटो दुःस्थगो।
(उपाटी पृ १०८) दूइज्जति–विहरण करता है। दूइज्जति रीयति गच्छति ।
(निचूभा २ पृ १२१) देव-देवता।
देवो अमरो व त्ति सुरो वा विबुधो त्ति वा । (अंवि पृ ६२) देश-भाग। देशः प्रस्तावोऽवसरः विभागः पर्याय इत्यनर्थान्तरम् ।
(दशहाटी प ६) देशन-कथन । देशनं भाषणं देशो निर्देशः ।
(विभामहेटी १ पृ ५६३) देसकालण्ण-देश-कालज्ञ ।
देसकालण्णे खेत्तण्णे कुसले पंडिते विअत्ते मेधावी अबाले मग्गण्णे
मग विदू मग्गस्स गतिआगतिण्णे परक्कमण्णू ।' (सू २/१/६) दोमणस्स–दौर्मनस्य ।
___ दोमणम्सं ति वा दुम्मणियं ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ ३२१) दोसिणा--ज्योत्स्ना।
दोसिणा इ वा चंदलेस्सा इ य एगलै । (सूर्य १६/२) दोसीण-रात का बासी अन्न ।
दोसीण-वावण्ण-कुहिय-पूइय । द्रव्य-भव्य, मोक्षगामी। द्रव्यो भव्यो मुक्तिगमनयोग्यो।
(सूटी १ प ५६) घण्ण-धन्य। धण्णासि पुण्णासि कयत्थासि ।
(जंबू ५/५) १. देखें--परि० ३
३. देखें-परि० २ २ देखें---परि० २
४. देखें-परि० २ ।
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८४ : धम्म-धर्म
धम्म-स्वभाव।
धम्मो त्ति वा सभावो त्ति वा दो वि एगट्ठा। (निचूभा ४ पृ ३७५)
धम्मो सब्भावो लक्खणं ति एगट्ठा। (दजिचू पृ १६) धम्मत्थिकाय-धर्मास्तिकाय।
धम्मे इ वा, धम्मत्थिकाये इ वा, पाणाइवायवेरमणे इ वा, मुसावायवेरमणे इ वा, अदिण्णादाणवेरमणे इ वा, मेहुणवेरमणे इ वा, परिग्गहवेरमणे इ वा, कोहविवेगे इ वा, माणविवेगे इ वा, मायाविवेगे इ वा, लोहविवेगे इ वा, रागविवेगे इ वा, दोसविवेगे इ वा, कलह विवेगे इ वा, अब्भक्खाणविवेगे इ वा, पेसुणविवेगे इ वा, परपरिवायविवेगे इ वा, रइ-अरइविवेगे इ वा, मायामोस विवेगे इ वा, मिच्छादसणसल्लविवेगे इ वा, रियासमिती इ वा, भासासमिती इ वा, एसणासमिती इ वा, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिती इ वा, उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपरिट्ठावणियासमिती इ वा, मणगुत्ती इ वा, वइगुत्ती इ वा, कायगुत्ती इ वा..... 'सव्वेते धम्मत्थिकायस्स अभिवयणा ।'
(भ २०/१४) धम्ममण-धर्म में रक्त मन वाला।
धम्ममणे अविमणे सुहमणे अविग्गहमणे समाहिमणे । (प्र ६/२०) धम्मिय-धार्मिक।
धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मप्पलोई धम्मपलज्जणा धम्मसमुदायारा।
(सू २/२/७१) धरण-धारणा (मति ज्ञान का भेद)। धरणं अविच्चुती धारणा।
(नंदीचू पृ ३४) धरणा धारणा ठवणा पइट्ठा कोठे ।'
(नंदी ४६) धर्म-धर्म ।
धर्मः स्वभावः सम्यग्दर्शनमित्येकार्थम् । (व्यभा १० टी प ४४) १. देखें- परि० २
४. देखें-परि० २ २. देखें-परि० २
५. देखें-परि० २ ३. देखें-परि० २
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धर्म-ध्रुव : ८५ धर्म-व्यवस्था ।
धर्मः स्थितिः समयो व्यवस्था मर्यादेत्यनन्तरम् । (आवचू १ पृ ७) धाय–सुभिक्ष ।
धायं ति वा सुभिक्खं ति वा एगट्ठा। (निचूभा ३ पृ ७०) धारणववहार-धारणा व्यवहार ।
उद्धारण विहारण, संधारण संपहारणा चेव । धारणववहारस्स उ, णामा एगट्ठिता एते ॥'
(जीतभा ६५५) धारयंति-धारण करते हैं। धारयति वा संजमति वा निमित्तंति वा एगट्ठा।'
(दशजिचू पृ २२१) धी-बुद्धि। धी बुद्धि पेहा मतीति ।
(आचू पृ ५४) धीर-धीर।
धीर त्ति वा सूरे त्ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ ११६) धुणण-घूनन ।
धुणणं ति वा करीसणं ति वा एगट्ठा । (आचू पृ १४६) धुण्ण-पाप।
धुण्णं ति वा पावं ति वा एगट्ठा ।' (दशजिचू पृ २६४) धुत-प्रकंपित । धुतः प्रकम्पितः स्फटितः।
(व्यभा ४/१ टी प ५६ धुव-ध्र व। धुवे णितिए (णिइए) सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिच्चे ।'
(इभा ३१/१). १. देखें--परि० २
३. देखें-परि०२ २. देखें-परि० ३
४. देखें-परि० २
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८६ : धुवक-नववधू
धमिका
धुवक-ध्रुव ।
धुवको अचलितो व ति, तधा थावरको त्ति वा । सिवणामो गुत्तणामो, भवो त्ति अभवो त्ति वा ॥ थितो त्ति सुत्थितो व त्ति, तधा ठाणहितो त्ति वा । अकंपो णिप्पकंपो ति, णिव्वरो सुहते ति वा ॥
(अंवि पृ ७६) धूत-संयम। धूतं संयमं मोक्षं वा।
(सूटी १ प १६४) घूमिका-धूसर । धूमिका धूम्रवर्णा धूसरा।
(भटी प १९६) धूर्त-धूर्त । घूर्ता नैकृतिकाः स्तब्धा लुब्धाः कार्पटिकाः शठाः ।।
(उशाटी प २८१) ध्रुव-ध्रुव ।
ध्रुवं नियतं नैत्यिकमिति त्रयोऽप्येकार्थाः। (व्यमा ४/३ टी प ६८) नन्दन-समृद्ध। नन्दनं समृद्धीभवनं वाञ्छितस्याधिगतिरित्यनर्थान्तरम् ।
(बृकटी पृ ५) नन्दि-शास्त्र । नन्दी शास्त्रं एकार्थम् ।
(बृकटी पृ ११) नयन-उत्तेजित करना।
नयनं जलनं जालनं ओसक्कं त्ति एगळं । (निपीचू पृ ८३) नववधू-नववधू । __नववधूः अप्रसूताभिणी वा।
__ (सूचू १ पृ ८४) १. देखें-परि० २
४. देखें-परि०२ २. देखें-परि० २
५. देखें-परि० २ ३. देखें-परि. २
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नस्समाण-निक्षेप : ८७
नस्समाण-नष्ट होता हुआ।
नस्समाणे विणस्समाणे खज्जमाणे छिज्जमाणे भिज्जमाणे लुप्पमाणे विलुप्पमाणे।
(उपा ७/४६) नागदन्तक-खूटी। नागदन्तको नकुंटिको अंकुटिको ।
(जंबूटी प ५०) नाण-ज्ञान ।
नाणं ति वा उवयोगे ति वा एगट्ठा । (दशजिचू प १२०) नापित-नाई।
नापिता नखशोधका वारिका । - (व्यभा १० टी १५) नाय-ज्ञात। नायं दिळं बुद्धं अभिसमण्णागयं ।
(ज्ञा १७/३३) नायं आगमियं ति वा एगळं।
(व्यभा १०/२०८) नायय-सखा। नायए इ वा, घाडियए इ वा, सहाए इ वा, सुहि त्ति वा ।
__(ज्ञा १/२/७५) निअच्छंति-प्राप्त करते हैं। निअच्छंति निग्गच्छंति वा पावंति वा एगट्ठा।'
(दशजिचू पृ ३१४) निकाच-निमंत्रण। निकाचो निकाचनं च्छंदनं निमंत्रणमित्येकार्थाः ।
(व्यभा ५ टी प १२) निक्षेप-न्यास।
निक्षेपः मोचनं रचनं न्यास इति । (विभाकोटी पृ २८८) निक्षेपो न्यासः समर्पणम् ।
(विपाटी प ५२) १. देखें-परि० २ २. देखें-परि०२ ३. देखें-परि० ३
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नि
८८ : निग्गमण-नियोग निग्गमण-निर्गमन। निग्गमणमवक्कमणं निस्सरणपलायणं च एगट्ठा।
(व्यभा ३ टी प १२४) निज्जामय-नाविक।
निज्जामए कुच्छिधारा कण्णधारा गम्भेल्लगा। (ज्ञा १७/१०) निट्ठिय-उपरत । निट्ठिए उवरए उवसंते विज्झाए ।
(ज्ञा १/१/१८३) निद्वियट्ठ-सिद्ध, निर्मल। निट्ठियट्ठा निरेयणा नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा ।
(औप १८४) निठुर-निष्ठुर । निठुर खर फरुस ।
(ज्ञा १/८/७२) निधान-न्यास । निधानं निधिनिक्षेपो न्यासो विरचना प्रस्तारः स्थापनेति पर्यायाः।
(अनुद्वामटी प ४७) निमित्त-हेतु। निमित्तं हेतुरूपदेशः प्रमाणं कारणमित्यनान्तरम् ।
(सूचू २ पृ ३१४) नियाग-मोक्ष । __ नियागो मोक्षः सद्धर्मों वा।
(सूटी १ प ३६) नियाण-निदान, कारण ।
नियाणं हेतुः कारणमित्यनर्थान्तरम् । (सूचू २ पृ ३८०) नियोग-ग्राम । नियोग इति ग्राम इति चैकोऽर्थः ।
(बृकटी पू ३४५) १. देखें-परि० २
३. देखें-परि० २ २. देखें-परि०२
४. देखें-परि०२
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निर्मम-निसर्ग : ८६ निर्मम-निर्मोही।
निर्ममो निरहंकारो वीतरागो निराश्रवः । (उचू पृ २८०) निव्वट्टन-निवर्तन।
निव्वट्टनं ति वा छिण्णणं ति वा एगट्ठा । (आचू पृ १२८) निव्वाण-निर्वाण । निव्वाणे कसिणे पडिपुण्णे अव्वाहए निरावरणे अणंते अणुत्तरे।'
(आचूला १५/३८) निव्वुड-निर्वृत। निव्वुडे वितिमिरे विसुद्धे । ।
(भटी प २१७) निश्चय-निश्चय ।
निश्चयो निर्णयोऽवगम इत्यनर्थान्तरम् । (नंदीटी पृ ५१) निषन्न-बैठा हुआ। निषन्ना अनुपविष्टा स्थिता ।
(व्यभा ७ टी प ४५) निष्कंटक-आवरणरहित ।
निष्कंटका निष्कवचा निरावरणा निरुपघातेति । (राजटी पृ १७८) निष्ठित–पूरा करना। निष्ठितं कृतमित्येकोऽर्थः ।
(बृकटी पृ १०१६) निष्पंक-निर्मल। निष्पंका कलंकरहिता कर्दमरहिता।
(जबूटी प २१) निसृजति–छोड़ता है। निसृजति उत्सृजति मुञ्चति इति पर्यायाः ।'
(विभामहेटी १ पृ १७७) निसर्ग-स्वभाव ।
निसर्गः स्वभावः परिणाम इत्यनान्तरम् । (आवचू १ पृ. ४३६) १. देखें-परि० २ २. देखें-परि० २
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६० : निस्सा-पकप्प निस्सा-आलंबन ।
निस्सोवसंपय ति य एगळं । (व्यमा ४/३ टी प ३१) निस्सील-निश्शील। निस्सीले निव्वए निग्गुणे निम्मेरे ।
(राज ६३५) निस्सीले निव्वए निग्गुणे निप्पच्चक्खाणे ।' (ज्ञा १/१८/१९) नीय-नीचा।
नीयं ति वा अवयं ति वा एगठा । (दशजिच पृ १९६) नोल-नीला, काला।
नीलं तिमिरंधकारं ति, रत्ती उत्तासो ति य ।' (अंवि पृ २४३) पउंजेज्जा-प्रयुक्त करे।
___पउंजेज्ज त्ति वा कुन्विज्ज त्ति वा एगट्ठा । (दशजिचू पृ ३०६) पंडिय-पंडित। पंडिए मेहावी णिट्ठियट्टे वीरे।'
(मा ६/६८) पंडुर-अत्यन्त सफेद। __ पडुरं धवलयं सेयं ।
(ज्ञाटी १७) पंतावेज्ज-क्रोध करे । पंतावेज्ज वा ओभासेज्ज वा उक्कोसेज्ज वा फरुसेज्ज वो ।'
(निचूभा २ पृ १४८) पंथ-पथ, रास्ता । पंथि त्ति मार्गो विहारः ।
(बृकटी पृ ४०६) पकप्प- प्रकल्प, मर्यादा। पकप्पो समायारी मज्जाता।
(आचू पृ २७७) १. देखें-परि०२
४. देखें-परि० २ २. देखें-परि० २
५. देखें-परि० ३ ३. देखें-परि०३
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पकपण-भेद |
पकपणा पकप्पो भेद ।
पकिरण - प्रकीर्ण, बिखरा
हुआ।
पणिं विप्पणिं ति छड्डितं परिसाडियं ।
पगडि - प्रकृति ( पर्याय ) ।
पगत- अधिकार ।
पगडीओ त्ति वा पज्जाय त्ति वा भेद त्ति वा एगट्ठा ।
पगतं अहिगार: प्रयोजन: ।
पगासेति - प्रकाशित करता है ।
पच्चतिक म्लेच्छ ।
पकप्पण - पज्जोसवणा
पच्चक्खाण - प्रत्याख्यान ।
'
पगासेति त्ति वा बुज्झावेति त्ति वा पच्चाणेति त्ति वा एगट्ठा ( आवचू १ पृ १० )
पच्चतिकाणि दस्सुगायतणाणि मिलक्खुणि अणारियाणि दुस्सन्नप्पाणि दुप्पण्णवणिज्जाणि ।
( आचूला ३ / ८ )
पच्चक्खाण नियमा चरित्तधम्मो य होंति एगट्ठा ।
: ६१
( निपीचू पृ ३८ )
( अंवि पृ ८० )
१. देखें - परि० ३ २. देखें परि० २
( आवचू ११३७ )
( निपीचू पृ ३० )
पज्जव - पर्यव, पर्याय |
पज्जवोत्ति वा भेदो त्ति वा गुणो त्ति वा एगट्ठा। (दश जिचू पृ ४ ) पज्जाहार - परिधि ।
पज्जाहारो त्ति वा परिरओ त्ति वा एगट्ठे । (व्यभा २ टीप १०) पज्जोसवणा - पर्युषण |
पज्जोसवणाए अक्खराइ होंति उ इमाई गोण्णाई । परियावत्थवणा, पज्जोसवणा य पागइता ॥ परिसवणा पज्जुसणा, पज्जोसवणा य वासावासो य । पढमसमोसरणं ति य, ठवणा जेट्टोग्गहेगट्ठा ॥ ' ( निभा ३१३८-३६)
३. देखें परि० २
( पंचा प १४६ )
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१२ : पट्टवण-पणिहाण पट्टवण-प्रवर्तन । पट्ठवणं प्रारंभः प्रवर्तनं ।
(अनुद्वाचू पृ ५) पडण-पतन ।
पडणं ति वा उज्झणं ति वा एगळं। (निचूभा २ पृ २३१) पडिकमण-प्रतिक्रमण ।
पडिकमण पडियरणा, परिहरणा वारणा नियत्ती य । निंदा गरिहा सोही।
(आवनि १२३३) पडिपुन्न-प्रतिपूर्ण ।
पडिपुन्नं ति वा निरवसेसं ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ ३२६) पडियाणिया-पैबन्द ।
पडियाणिया थिग्गलयं छंदतो य एगठें। (निचूभा ३ पृ ५६) 'पडिसेवणा-प्रतिसेवना (दोष)।
पडिसेवणा मइलणा भंगो य विराहणा य खलणा य ।
उवघाओ य असोही सबलीकरणं च एगट्ठा।' (ओनि ७८८) पडिहत्थ-अत्यधिक । पडिहत्था अतिरेकिता अतिप्रभूता।
(जंबूटी प ४२) पडुच्च-प्रसंग को प्राप्त कर । पडुच्च त्ति वा पप्प त्ति वा अहिकिच्च त्ति वा एगट्ठा ।
(आवचू १ पृ २१) पणिधि-माया। पणिधी उवधी माया।
(दश्रुचू प ७४) पणिहाण–प्रणिधान (अध्यवसाय)। पणिहाणं ति वा अज्झवसाणं ति वा चित्तं ति वा एगट्ठा ।
(निपीचू पृ २२) १. देखें-परि०२
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पणिहि-पत्थेमाण : ६३ पणिहाणं अभिप्पायो चित्तमिति समाएं। (दशजिचू पृ १८०) पणिहि-निक्षेप, प्रक्षेप। पणिहि निक्खिवियं ति वा पणिहाणं ति वा एगट्ठा ।
(दशजिचू पृ २६५) पण्णत्त-प्रज्ञप्त।
पण्णत्तं पण्णवितं प्ररूपितमित्यनर्थान्तरम् । (नंदीचू पृ १३) पण्णवण-प्रज्ञापन । पण्णवण त्ति परूवण त्ति वा विण्णवण त्ति वा एगलैं ।
(निपीचू पृ १६०) पण्णविय-प्ररूपित। पण्णवियं परूवियं पसिद्धं ।
(प्र ७/२५) पति-स्वामी। पतिः प्रभुः स्वामी।
(निचूभा २ पृ ११८) पतिट्ठा- प्रतिष्ठा, स्थापना। __ पतिढा ठावणा ठाणं, ववत्था संठिती ठिती।
अवट्ठाणं अवत्था य, एगट्ठा चिट्ठणा त्ति य ॥ (बृकभा ६३५६) पत्ति-पत्नी (स्त्री)।
पत्ति वधु त्ति वा। वधू उपवधू व त्ति, इत्थिया पदम त्ति वा । अंगणा महिला णारी, पोहड़ी जूवति त्ति वा। जोसिता धणिता व त्ति, विलक त्ति विलासिणी। इट्रा कंता पिया व त्ति, मणामा हितइच्छिता।
इस्सरी सामिणी व त्ति, तधा वल्लभिक त्ति वा ॥' (अवि पु ६८) पत्थेमाण-चाहता हुआ। पत्थेमाणे पीहेमाणे अभिलसमाणे ।
(विपा १/५७) १. देखें-परि० २
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-२४ : पद - पन्हठ
पद - हिंसा 1
पदं ति वा भूताधिकरणं ति वा हणणं ति वा एगट्ठा ।
'पदपाश - पैरों का बंधन ।
पदपाश: कूड: उपकः ।
पदुम- पद्म ।
पदुमं पुंडरीकं च, पंकयं णलिणं ति वा । सहस्सपत्तं सतपत्तं, सप्फं ति कुमुदं ति वा ॥ तधुप्पलं कुवलयं, तधा गद्दभगं ति वा ।
तणसोल्लिकं ति वा बूया, तधा तामरसं ति वा ॥ इंदीवरं कोज्जकं ति, पाडलं कंदलं ति वा । '
पधावति - दौड़ता है ।
पधावति त्ति वा बूया, संधावति विधावति । परिधावति त्ति वा ब्रूया, तधा णिद्धावति त्ति वा ॥
प्रभास - प्रभासित करता है ।
भासइत्ति वा उज्जोएइ त्ति वा एगट्ठा । पशु - योग्य, समर्थ ।
पभु त्ति वा जोग्गो त्ति वा एगट्ठे । पमिलायति - म्लान होता है ।
पमिलायति पविद्धंसति विद्वंसति । * पन्हठ-विस्मरण ।
पति वा परिठवियं ति वा एगट्ठ ।
१. देखें – परि० २
२. देखें – परि० ३
३. देखें - परि० ३
४. देखें – परि० ३
( दशजिचू पृ २० )
( सूचू १ पृ ३३ )
(अंवि पृ ६३ )
( अंवि पृ ८० )
( दशजिचू पृ ३०७ )
(निचूभा ४ पृ ३३१)
(स्था ३ / १२५ )
(व्यभा८ टीप २)
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पट्ट - विनष्ट |
'पयत्त - संयत ।
पम्हुट्ठे पमुक्के पब्भट्ठे पकिण्णे पविसिते पमुच्छिते पलोलिते परावत्ते परिसडिते परिसोडते पडिसिद्धे पप्फोडिते पडिणायिते पडिहरिते पडिदिन्ने पछुिद्धे पडिते परिवद्धिते पडिलोलिते पडिसरिते पडिओधुते । (अंवि पृ १६९ )
पयतो पयत्तवान् अप्रमत्तः ।
'पयस् - पानी ।
पयः पिच्चं नीरमुदकम् ।
पयाति - उत्पन्न होता है ।
पयाति उपपद्यत इत्यनर्थान्तरम् ।
'पर- ज्येष्ठ |
परं प्रधानं ज्येष्ठम् ।
परग्ध- - महंगा |
परग्घम्हि महग्घम्हि जुत्तग्धहि ।
परज्भ-परवश ।
परज्झा परवसा रागद्दोसवसगा ।
परम प्रधान ।
परमं पहाणं ति होति एगट्ठ ।
परमाणु - परमाणु ।
परमाणुनिरंशो निरवयवो निष्प्रदेशो निर्भेदः ।
परिउसित - पास में बठा हुआ ।
पन्हुटु - परिउसित
परिउसितो पज्जुसितो थितो त्ति वा एगट्ठा ।
१. देखें - परि० ३
६५
( दश्रुचू प ८६ )
( प्रसाठी प २६२ )
( सू २ पृ ३४४-४५)
( निचूभा ३ पृ ४)
(अंवि पृ १६ )
( उच् पृ १२६)
( जीतभा ७०६ )
( आमटी प ४५ )
( आचू पृ. २७३ )
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६६ : परिकम्मण-परिज्जभासि परिकम्मण-परिकर्म, सीवन ।
परिकम्मणं ति वा सिव्वणं ति वा एगठें। (निचूभा ४ पृ. १४३) परिकर्म-भावना।
___ परिकर्मेति वा भावनेति वा एकार्थम् । (बृकटी पृ ३६७) परिक्कमिज्ज–संस्कारित करे, युक्त करे।
__ परिक्कमिज्जासि घडिज्जासि जोत्तेज्जासि । (आच पृ ११०) परिक्खित्त-विस्तारित।
परिक्खित्त त्ति परिक्षिप्तो विस्तारितः । (अंतटी प ७) परिगण्यमान-गिना जाता हुआ।
परिगण्यमानः परीक्ष्यमाणः मीमांस्यमानो वा। (सूचू १ पृ २०८) परिगम-पर्याय, गुण । परिगमो त्ति वा पज्जाहारो ति वा परिरओ त्ति वा एगळं ।
(निचूभा ४ पृ २७६) परिग्गह-परिग्रह।
परिग्गहो, संचयो, चयो, उवचयो, निहाणं, संभारो, संकरो, आयारो, पिंडो, दव्वसारो, महिच्छा, पडिबंधो, लोहप्पा, महद्दी, उवकरणं, संरक्खणा, भारो, संपायुप्पायको कलिकरंडो, पवित्थरो, अणत्थो, संथवो, अगुत्ति, आयासो, अविओगो, अमुत्ति, तण्हा, अणत्थको, आसत्ति, असंतोसो।
(प्र ५/२) परिचेति चेष्टा करता है ।
परिचेति त्ति वा बूया, तधा विप्परिचेट्ठते ।।
परिवत्तते त्ति वा बूया, तधा विप्परिवत्तते ॥' (अंवि पृ ८०) परिज्जभासि—परीक्षापूर्वक बोलने वाला। परिज्जभासि त्ति वा परिक्खभासि त्ति वा एगट्ठा ।
(दशजिचू पृ २६४) १. देखें-परि० ३
३. देखें-परि० ३ २. देखें-परि०२
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परिझा-परिसहण : ६७ परिज्झा-इच्छा ।
परिज्झ ति वा पत्थणं ति वा गिद्धि त्ति वा अभिलासो त्ति वा कंखं ति वा एगट्ठा।
(दशजिचू पृ ३०). परिभासति-निन्दा करता है। परिभासति परिभवति अवमण्ण ति ।'
(दश्रचू प ७) परिभीत-अपमानित । परिभीते अवमाणिते विमाणिते ।
(अंवि पृ १०८) परियट्टण-परावर्तन, अभ्यास । परियट्टणं ति वा अब्भसणं ति वा गुणणं ति वा एगट्ठा।
(दशजिचू पृ २८) परिरय-परिधि । परिरयः पर्याहारः परिधिः ।
(व्यभा २ टी प १०). परिवंदण-परिवंदना। परिवंदण-माणण-पूयणाए ।
(आ १/४४) परिवयण-परिवाद । परिवयणं परिवातो अगुणकित्तणं ।
(निचूभा ३ पृ ५) परिवुट्ट-पुष्ट ।
परिवुड्ढे त्ति णं बूया, बूया उवचिए 'त्ति य ।
संजाए पीणिए वा वि, महाकाए त्ति आलवे ॥ (दश ७/२३) परिवूढ–मोटा। परिवूढं वा उवचितदेहं वा संजातदेहं वा पीणितदेहं वा।
(दशजिचू पृ २५३) परिसहण-सहना ।
__ परिसहणं ति वा अहियासणं ति वा एगट्ठा। (आचू पृ २१०) १. देखें--परि० ३
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£5 : परिहार — पलिउंचण
परिहार -- परिहार |
परिहारः परित्यागो वर्जन ।
परिहार - एक प्रकार का तप ।
परिहार तवो त्ति एगट्ठ ।
परूवण- प्ररूपण ।
परूवित - प्ररूपित ।
परूवण त्ति वा कप्पणे त्ति वा एगट्ठा
परूवण त्ति कहणं ति वक्खाणं ति मग्गो त्ति वा एगट्ठा ।
परूवितं पण्णवितं ति एगट्ठा ।
पर्यव - पर्याय |
पर्यंवा विशेषा धर्मा इत्यनर्थान्तरम् ।
पर्याय- पर्याय, विशेष धर्म ।
पर्यायाः पर्यवाः पर्ययाः धर्मा इत्यनर्थान्तरम् ।
पर्याय: भेदः भाव इत्यनर्थान्तरम् ।
पर्याय- परिपाटी, क्रम ।
पर्यायः परिपाटिरित्यनर्थान्तरम् ।
पलिउंचण - माया ।
(व्यभा २ टीप १०)
(व्यभा ५ / १४३)
पर्याया गुणा विशेषा धर्मा इत्यनर्थान्तरम् । पर्याया भेदा धर्मा बाह्यवस्त्वालोचनप्रकारा इत्यनर्थान्तरम् ।
( निपीचू ३२)
(आवचू १ पृ १७)
( आचू पृ १३९ )
(भटी पृ ११७५)
( प्रज्ञाटी प १७९ )
( आवहाटी पृ १०६ )
पलिउंचणं तिथ माय त्ति य नियडि त्ति य एमट्ठा ।
( विभामहेटी १ पृ ४७ )
( विभामहेटी १ पृ ३३)
( ज्ञाटी प ५५ )
(व्यभा १ टी प ४७ )
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पलिमंथ-पहारेत्थ : ६६ पलिमंथ-विघ्न ।
पलिमंथो वक्खेवो वक्खोड विणास विग्यो य। (बृकनि ६३१४) पवयण-प्रवचन ।
सुयधम्म तित्थ मग्गो, पावयणं पवयणं च एगट्ठा। (आवनि १३०)
पवयणं ति वा सुत्तं ति वा अत्थे ति वा। (आवचू १ पृ १०७) पविट्ठ-प्रविष्ट ।
पविट्ठो त्ति व जो बूया, तधा अतिगतो त्ति वा । तधातिसरितो व त्ति, तधा लीणो त्ति वा पुणो ॥
(अंवि पृ८६) पवेइय-प्रवेदित, कहा हुआ। पवेइया सुयक्खाया सुपन्नत्ता।'
(दश ४/१) पव्वइज्जा-दीक्षित करे। पव्वइज्जा संजमेज्जा संवरेज्जा।'
(स्था ३/१७५) पव्वइय-प्रवजित ।
पव्वइए संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले लूहे तीरट्ठी उवहाणवं दुक्खक्खवे तवस्सी।
(स्था ४/१) पव्वाविय-प्रव्रजित ।
__ पव्वावियं मुंडावियं सेहावियं सिक्खावियं ।' (भ २/५२) पहर-प्रहार करो, मारो।
पहर, छिद, भिंद, उप्पाडेहि, उक्खणाहि, कत्ताहि, विकत्ताहि य,
भंज, हण, विहण, विक्छुभोच्छुभ, आकड्ड, विकड्ड । (प्र १/२७) पहारेत्थ-निश्चय किया।
पहारेत्थ त्ति संप्रधारितवान् विकल्पितवान् । (ज्ञाटी प ३७) १. देखें-परि०२
४. देखें-परि०२ २. देखें-परि० ३
५. देखें--परि०३ ३. देखें-परि०२
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१०० : पहेण–पाद पहेण-उपहृत भोजन ।
पहेणं ति वा उक्खित्तभत्तं ति वा एगट्ठा । (आचू पृ ७७) पागार-प्राकार। पागारो फलिहो त्ति य वति त्ति ।
(अंवि पृ २४१) पाठीण-मछली। पाठीण तिमि तिमिगिल ।
(प्र १/५) पाण-प्राण (प्राणी)। पाणे भूए जीवे सत्ते विष्णू वेदे ।'
(भ २/१४) पाण-चांडाल ।
पाणा डोंबा किणिया सोवागा। (व्यभा ४/२ टी प २१) . पाणवह–हिंसा।
पाणवहुम्मूलणा सरीराओ, अवीसंभो, हिंसविहिंसा, तहा अकिच्चं च, घायणा, मारणा य, वहणा, उद्दवणा, तिवायणा य, आरंभ, समारंभो, आउयकम्मस्स उवद्दवो, (भेय, णिठ्ठवण, गालणा य, संवट्टग, संखेवो) मच्चू, असंजमो, कडग-मद्दणं, वोरमणं, परभव-संकामकारओ, दुग्गतिप्पवाओ, पावकोवो य, पावलोभो, छविच्छेओ, जीवियंतकरणो, भयंकरो, अणकरो, वज्जो, परितावण-अण्हओ, विणासो, निज्जवणा,
लुंपणा गुणाणं विराहणत्ति ।' पात्र-पात्र।
पात्रं भाजनमाधारः इति पर्यायवचनम् । (बृकटी पृ १६४) पात्र—योग्य ।
पात्रस्य योग्यस्य परिणामकस्य । (व्यभा १० टी ५११०) पाद-पाद । पादस्यैवायं पदशब्दः पर्यायो ज्ञेयः ।
(प्रसाटी प ४३) १. देखें-परि०२ २. देखें- परि०२
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पादव-पाव : १०१
पादव-वृक्ष ।
पादवो व दुमो व त्ति, रुक्खो वा अगमो त्ति वा ।
तथा थावरकायो त्ति, विडवि त्ति व जो वदे ॥ (अंवि पृ ६३) पामुद्दिका-पैर का आभूषण ।
पामुद्दिक त्ति वा बूया, वम्मिका पाअसूचिका । तधा पाघट्टिका व ति, तधा खिखिणिक त्ति वा ।
(अवि पृ ७१) पार-अन्त । पारमन्तगमन मित्येकोऽर्थः ।
(सूचू २ पृ ३३५) पारण–पूरा करना। पारणं ति वा पालणं ति वा पारगमणं ति वा एगट्ठा ।
(आवचू २ पृ २५३) पालित-रक्षित।
पालितो रक्खितो चेव विन्नेया गुत्त रक्खिते। (अंवि पृ १५७) पाली-मर्यादा (पाल)। पाली मेरा सीमंतिक त्ति।
(अंवि पृ २४१) पाव-पाप।
पावे वज्जे वयरे, पंके पणये खुहे दुहमसाते । संगे धुण्णे य रए, कम्मे कलुसे य एगट्ठा ।।
(आवचू १ पृ ६०६) पावे वज्जे वेरे पंके पणए।
(उशाटी प ६७) पाव- -पापी, रौद्र कार्य करने वाला।
पावो, चंडो, रुद्दो, खुद्दो, साहसिओ, अणारिओ, निग्घिणो, निस्संसो, महब्भओ, पइभओ, अतिभओ, बीहणओ, तासणओ, अणज्जो, उव्वेयणओ य, निरवयक्खो, निद्धम्मो, निप्पिवासो, निक्कलुणो, निरयवास
गमण-निधणो, मोह-महब्भय-पवड्डओ, मरण, वेमणंसो। (प्र १/२) ' १. देखें--परि० २ २. देखें-परि०२
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१०२ : पावकम्मनिसेहकिरिया-पिड
पावा असंजया अविरया अणिहुण-परिणाम-दुप्पयोगी। (प्र १/४)
पावा चंडदंडा अणारिया णिग्घिणा णिरणुकंपा।' (सूटी २ प १३) पावकम्मनिसेहकिरिया-पाप कर्म की निषेधक क्रिया।
पावकम्मनिसेहकिरिय त्ति वा अवस्सकम्मं ति वा अवस्सकिरिय त्ति वा एगट्ठा।
(आवचू १ पृ ३५०) पावय-पापकारी। पावए सावज्जे सकिरिए सउक्केसे अण्हयकरे छविकरे भूताभिसंकणे ।'
(स्था ७/१३२) पास-बंधन । पासो त्ति य बंधणो त्ति य एगलैं।
(निभा ४३४३) पासाण-पत्थर।
पासाणो पत्थरो व ति, उपलो ति मणि त्ति वा । सिलोपट्टो त्ति वा बूया, गंडसेलो त्ति वा पुणो ।। णामतो गिरिको व ति, तहा पव्वतको त्ति वा ।
सेलो वइरो त्ति वा बूया, मेरुको मरुभूतिको ॥' (अंवि पृ ७८) पासादिय-दर्शनीय।
पासादिए दरिसणिज्जे अभिरुवे पडिरुवे ।' (उपा १/१५) पाहुड-उपहार । पाहुडं ति पहेणगं ति वा एगळं ।
(आचू पृ ३५०) पाहुड पहेण पणयण एगट्ठा ।
(बृकभा २६७८) पिंड-समूह ।
पिंड निकाय समूहे, संपिंडण पिंडणा य समवाए। समोसरण निचय उवचय, चए य जुम्मे य रासी य ॥
(ओनि ४०७४ १. देखें-परि० २
४. देखें-परि०२ २. देखें-परि० २
५. देखें-परि० २ ३. देखें--परि०२
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पिच्चअ - कूटा हुआ ।
पिच्चिउत्ति वा विप्पित्ति वा कुट्टित्तो त्ति वा एगट्ठ ।
पिज्ज — प्रेम |
पिज्ज प्रेम राग ।
पितवण्ण- पीला रंग ।
पितवण्णं ति पीतकं ॥
पउमकेसरवण्णं ति, तिगिच्छसरिसं ति वा । '
पितामह ब्रह्मा ।
पितामहो त्ति वा बूया, तधा बंभं ति वा पुणो । सयंभु त्ति व जो बूया, तधेव य पयावति ॥
पियइ – जानता है ।
पियइत्ति वा मिणइ त्ति वा दो वि अविरुद्धा । '
पियति-पीता है, पान करता है ।
पिवासित - पिपासित ।
पिच्चिअ - पीहन : १०३
---
पियति त्ति वा आपियइत्ति वा एगट्ठा ।*
पीणणिज्ज-- प्रीणनीय |
पिवासितो परिस्तो छातो तण्हाइतो त्ति वा ।
पोहन -- इच्छा करना ।
पीनं अभिलसनं प्रार्थनम् ।
१. देखें - परि० २
२. देखें - परि० २
३. देखें- परि० ३
( निचूभा २ पृ ६८ )
( उशाटी पृ ५६४ )
( व्यभा ६ / २५७ टी प ४६ )
पीणणिज्जे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे बिहणिज्जे ।"
(अंवि पृ ६० )
(अंवि पृ १०१ )
४. देखें- परि० ३ ५. देखें - परि० २
( दशजिचू पृ २०२ )
(अंवि पृ १२१ )
( ज्ञा १ / १२ / ४)
(उच् पृ १११ )
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१०४ : पुच्छणा-पूया पुच्छणा-पृच्छा।
पुच्छणा दावणा णिज्जवणा य एगट्ठा । (आवचू १ पृ ५०८) पुच्छा-पृच्छा, प्रेरणा।
पुच्छ त्ति वा चोदण त्ति वा एगलैं। (निचूभा ३ पृ ५१६) पुज्ज-पूज्य।
पुज्जो पूयणिज्जो त्ति वा एगट्ठा । (दशजिचू पृ ३१८) पुट्ट-पुष्ट । पुढे परिवूढे जायमेए महोदरे ।
(उ ७/२) पुण्य-पुण्य । पुण्या पवित्रा शुभा।
(जंबूटी प २०२) पुप्फ-पुष्प ।
पुप्फाणि अ कुसुमाणि अ, फुल्लाणि तहेव होंति पसवाणि ।
सुमणाणि अ सुहुमाणि अ, पुष्फाणं होंति एगट्ठा। (दशहाटी प १७) पुराण-पुराना। पुराणं जरठं कक्खडीभूतं ।
(विपाटी प ३७) पूज्यभक्त-पूज्यभक्त । पूज्यभक्तं उत्क्षिप्तभक्तं पट्टकभत्तं एतान्येकाथिकानि ।
(बृकटी पृ १०१५) पूयणट्ठि-पूजार्थी।
पूयणट्ठी जसोकामी माण (कामय) सम्माणकामए ।' (दश ५/२/३५) पूया-पूज्य के लिए निष्पादित भोजन ।
पूय त्ति वा उक्खितं ति वा पट्टगो ति वा भत्तं ति वा पन्नागारो ति वा एगळं।
(बृकचू पृ १५०)पूया उक्खित्तं ति य पट्टगभत्तं च एगट्ठा। (बृकटी पृ १०१५) १. देखें-परि० २
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'पूया - पूजा ।
यत्ति वा विणआत्ति वा आयारो त्ति वा एगट्ठं । (उच्च् पृ १६५)
पूर्व - पहला ।
पूर्वं प्रथममादिरिति पर्यायाः ।
पृथु - विस्तार |
पृथु विस्तारः विच्छण्णा ।
पेक्खते-देखता है ।
पेम-प्रेम |
पेक्खते पेच्छते वत्ति, णिज्झायति व पेक्खति । यिक्खेति त्ति वा बूया, णिरिक्खति णिलिक्खति । । ' ( अंवि पृ १०७ )
( दशजिचू पृ २६२ )
( दशजिचू पृ ३२६ )
पेमं ति वा रागोत्ति वा एगट्ठा ।
पेहति -- देखता है ।
पेहति त्ति वा पेच्छति त्ति वा एगट्ठा
पोग्गलत्थकाय - पुद्गलास्तिकाय ।
पोत्थ - वस्त्र |
पोत्थं पोतं वस्त्रम् । -पोरेवच्च - अग्रगामिता ।
पोग्गले इवा, पोग्गलत्थिकाए इ वा, परमाणुपले इवा, दुपए सिए इवा, तिपएसिए इ बा, जाव असंखेज्जपएसिए इ वा, अंगत एसिए इ वा खंधे, जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे पोग्गल त्थिकायस्स अभिवयणा ।
(भ २० / १८ )
पोरेवच्चं पुरोर्वात्तत्वं अग्रेसरत्वम् ।
पूया - - प्रकाश : १०५
'प्रकाश - आविर्भाव ।
प्रकाशः प्रकटत्वम् आविर्भाव इत्यप्यभिन्नार्थम् ।
१. देखें-- परि० ३
२. देखें- परि० ३
(अनुद्वाहाटी पृ ३० )
(उच्च् पृ १८६)
( अनुहामटी प १२ )
( विभामटी २ पृ १४० )
३. देखें- परि० २
( विपाटी प ४६ )
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१०६ :: प्रकृति - प्रथम
प्रकृति - प्रकृति ( सांख्यमत का एक तत्त्व ) ।
प्रकृतिः प्रधानमव्यक्तमित्यनर्थान्तरम् ।
विभाग |
प्रकृतयो भेदाः इत्यनर्थान्तरम् ।
प्रकृति-भेद,
प्रज्ञापनीय - कथनीय |
प्रज्ञापनीय अभिलाप्य इत्येकोऽर्थः ।
प्रणमन-प्रणाम ।
प्रणमनं प्रणामः पूजा ।
प्रणाम पूजा नमस्कारो वंदन मिति पर्यायाः ।
प्रणिधान अभिप्राय ।
प्रणिधानं बुद्धिरभिप्राय इत्यनर्थान्तरम् ।
प्रतिगमन-व्रतभंग ।
प्रतिगमनं प्रतिभञ्जनं व्रतमोक्षम् ।
प्रतिबद्ध - प्रतिबद्ध |
प्रतिबद्धा युक्ता संश्लिष्टा ।
प्रतिमा - प्रतिज्ञा ।
प्रतिमा प्रतिज्ञा अभिग्रहः ।
प्रतीष्ट — स्वीकृत |
प्रतीष्टं प्रतीप्सितं अभ्युपगतम् ।
प्रत्येति - विश्वास करता है ।
प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति ।
प्रथम - पहला ।
प्रथम : आद्यः प्रधानः ।
१. देखें- परि० २
२. देखें- परि० ३
( सू २ पृ ३१९ )
( आवमटी प ४४)
( बृकटी पृ ३०४ )
( उच् पृ १ )
( विभाकोटी पू. ३)
(सूचू २ पृ ३४१)
(व्यभा १० टीप ५८ )
( निचूभा २८ )
( स्थाटीप१८८ )
( ज्ञाटी प २० )
( प्रसाटी प२८८ )
(विपाटी प ५६ )
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प्रथमसमवसरण-प्रीति : १०७.
प्रथमसमवसरण-वर्षावास, चतुर्मास । प्रथमसमवसरणं ज्येष्ठावग्रहो वर्षावास इति चैकार्थम् ।'
(बृकटी पृ ११५१) प्रदेश-भेद । प्रदेशा प्रतिभागा भेदाः।
(व्यभा १० टी प ३२) प्रभव-उत्पत्ति। प्रभव: प्रसूति: निर्गमः।
(सूचू १ पृ २०) प्रभाति-प्रकाशित होता है । प्रभाति शोभते प्रकाशते ।'
(जंबूटी प २१) प्रयोग-प्रयोग। प्रयोग उपाय इत्यनर्थान्तरम् ।
(आवचू १ पृ ५४) प्रवचन-प्रवचन । प्रवचनमुपदेशोऽर्हद्वचनम् ।
(विभाकोटी पृ २) प्रवहण-गाड़ी। प्रवहणं यानं गन्त्री।
(ज्ञाटी प १००) प्रवृत्ति-उत्पत्ति । प्रवृत्तिः प्रवाहः प्रसूतिरित्येकार्थाः ।
(बृकटी पृ ७२) प्रशस्त-प्रशस्त । प्रशस्तं प्रधानं प्रथमं ।
(अनुद्वामटी प ३४) प्राप्ति-लाभ । __ प्राप्तिः गोचरा एगट्ठा।
(आवचू १ पृ ४३१) प्रासुक-प्रासुक। प्रासुकं प्रगतासु निर्जीवम् ।
(दशहाटी प १८१) प्रीति–प्रीति । प्रीति पेमं वा पेज्जं वा।
(सूचू २ पृ ४०६) १. देखें-परि० ३
२. देखें--परि० ३
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१०८ : प्रेक्षण - फुल्ल
प्रेक्षण - देखना |
प्रेक्षणं प्रेक्षा विलोकनं निरीक्षितमिति पर्यायाः । फरस -- कठोर ।
फरुसा णिट्ठरा अमनोज्ञा ।
- फलपडी - फलों का गुच्छा ।
फलपिंडित्ति वा बूया, फलगोच्छो त्ति वा पुणो । फला फलिकत्ति वा बूया, फलमाल त्ति वा पुणो ॥
- फासिय- स्पृष्ट, पालित ।
फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं आराहियं आणाते अणुपालियं । ( प्र ६ / २४ )
- फासेइ - स्पर्श करता है ।
फासिए पालिए तीरिए किट्टिए अवट्ठिए आणाए आराहिए ।' ( आचूला १५ / ४६ )
फुड - भंजन |
फासेइ पालेइ सोभेइ तीरेइ पूरेइ किट्टेइ अणुपालेइ आणाए आराहेइ । '
(भ २ / ५६ )
फुड भंजण छेयण तच्छण विलुंचण ।
फुडित—स्फुटित ।
फुडितं खंडं भग्गं ।
फुलित - भग्न ।
फुलितं दालितं दलियं छड्डितं परिसाडितं भग्गं त्ति । फुल्ल - विकस्वर ।
( बुकटी पृ १७९ )
( आचूपू ३८० )
( अंबि पृ. ७१ )
१. देखें-- परि० २
२. देखें - परि० ३
( प्र १ / ३५ )
फुल्लं विकोचं विकाशं विकसितं उन्मीलितं उन्मिषितं उन्निद्रं विजृम्भितं हसितं उबुद्धं व्याकोशमित्यादि । ( विभामहेटी १ पृ ५०६ )
३. देखें- परि० २
( अंवि पृ ५३ )
( अंवि पृ ८० )
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- फुसित-बहु : १०६ फुल्ल विकचं विकसितमुत्फुल्लबुद्धमुभिन्नम् । (विभाकोटी पृ ३६६) फुसित—पालन करना । फुसिते दुज्झोसए त्ति वा एगहें ।
(आचू पृ १७३) बंभण-ब्राह्मण ।
बंभणो त्ति वियाणीया, तधा बंभरिसि त्ति वा। बंभवत्थो त्ति वा बूया, बंभण्णू पिअबंभणो ॥ दिजाति त्ति व जो बूया, दिजातीवसभो त्ति वा । द्विजातीपुंगवो व त्ति, दिजाईपवरो त्ति वा ॥ विप्पो व त्ति व जो बूया, तधा विप्परिसि त्ति वा। तधा विप्पगुणोवेओ, विप्पाणं पवरो त्ति वा ॥ जण्णो कतो ति वा बूया, जण्णकारि त्ति वा पुणो। जट्ठो पढमजण्णो त्ति जण्णमुंडो त्ति वा पुणो । सोमो त्ति व जो बूया, सोमपाइ ति वा पुणो। सोमपा इत्ति वा बूया, सोमणामं च वाहरे ॥ अग्गिहोत्तं ति वा बूया, आहित ग्गि त्ति वा पुणो। अग्गिहोत्तरती व त्ति, अग्गिहोत्तं हुतं ति वा ॥ वेदो त्ति व जो बूया, वेदज्झाइ त्ति वा पुणो।
वेदाणं पारगो व त्ति, चतुवेदो त्ति वा पुणो ।' (अंवि पृ १०१) बकुश-चितकबरा।
बकुश: शबलः कर्बुर इति पर्यायाः। (प्रसाटी प २१०) बद्ध-बद्ध ।
बद्धे ति वा रइयं इ वा गहियं इ वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ ७७)
बद्धं गृहीतमुपात्तमित्यनर्थान्तरम् । । (अनुद्वाचू पृ ६१) बलाहक-बादल ।
बलाहको त्ति मेघो ति, तधा जलहरो त्ति वा। (अंवि पु ६२ ) बहु-अनेक ।
बहवे ति वा अणेगे त्ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ २६१) १. देखें-परि० २
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११० : बहुजनाचीर्ण-बुद्धि बहुजनाचीर्ण-उचित । बहुजनाचीर्ण मिति वा उचितमिति वा जीतमिति वा एकार्थम् ।'
(व्यभा १ टी प ७) "बाल-मूढ । बाल मंद मूढा।
(उचू पृ १७२) बाला अज्ञा सदसद्विवेकविकलाः ।
(सूटी १ प ६४) बाल-नवीन । बाल: अभिनवः प्रत्यग्रः ।
(सूटी १ प १३३) बालक-बालक।
बालको दारको व त्ति, सिंगको पिल्लको त्ति वा।
वच्छको तण्णको व त्ति, पोतको कलभो त्ति वा ॥ (अंवि पृ९७) बीय-आधार। बीयं ति वा पइट्ठाणं ति वा मूलं ति वा एगट्ठा ।
(दशजिचू पृ २१६) बोहणय-भयभीत ।
बीहणओ तासणओ पइभओ अइभउ त्ति एकार्थाः। (प्रटी प २०) बुझज्ज-बोधि को प्राप्त करो ।
बुज्झज्ज त्ति वा परिजाणेज्ज त्ति वा एगळं ।' (सूचू १ पृ. २१)
(सू १/८/२४) (दशहाटी प १६०)
बुद्ध-बुद्ध ।
बुद्धा महाभागा वीरा।
बुद्धः अवगतत्वः गीतार्थः । बुद्धि-बुद्धि ।
बुद्धी मती मेधा। १. देखें-परि० २ २. देखें-परि०२ ३. देखें-परि० ३
(इभा ३६/गा ७)
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बेंति-भणिय : १११ बैंति-बोलते हैं। बेंति ब्रुवंति कथयन्ति ।'
(निपीचू पृ १८) बोंदि-शरीर।
बोंदिः तनुः शरीरमिति पर्यायाः । (अनुद्वाहाटी पृ ६३) भंग-प्रकार। भंग प्रकारो भेदः।
(अनुद्वामटी प ११०) "भंत-सम्मानवाची संबोधन ।
भंतेत्ति भदंत भयान्त भवान्त ।' (आवचू १ पृ ५६३) भक्ति-भक्ति । भक्तिः सेवा बहुमानो वा ।
(भटी प १६६) भग्ग–अनाथ ।
भग्गो त्ति दुग्गतो किस्सते अणत्तो अगाधो ति। (अंवि पृ २५०) भग्ग-भग्न ।
भग्गे भिण्णे विणठे विपाडिते विक्खिन्ने विच्छुद्धे विच्छित्ते णिलुंचिते विणासिते विसंधिते रूपाकडे झमिते विज्झविते धते। (अंवि पृ १६८) भग्गे छिण्णे भिण्णे विणासिते विपाडिते विक्खिन्ने विच्छुढे विच्छिन्ने विणठे वंते सिंवितालिते ख्यकडे पूसिते विज्झविते।'
(अंवि पृ १७१) भजना-विधि । भजना सेवना परिभोगः ।
(निचूभा २ पृ ४७) भजना सेंवना विधिः।
(विभाकोटी पृ ७७६) भणिय-कथित।
भणियं ति वा वुत्तं ति वा एगट्ठा । (दशजिचू पृ २७४) १. देखें-परि०३ २. देखें-परि० २ ३. देखें-परि० २
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११२ : भद्दग-भाग
भद्दग-कल्याण ।। भद्दगं ति वा कल्लाणं ति वा सोभणं ति वा एगट्ठा ।
(दशजिचू पृ २०१) भमर-भंवरा। भमरा मधुकर तोड्डा पतंग ।
(अंवि पृ २३७) भय-भय । भयं दुक्खं असातं मरणं असंति अणत्थाणमिति एगट्ठा ।'
(आचू पृ २६) भव-जन्म । भवो गति जन्मेति पर्यायाः ।
(नंदीटी पृ ३७) भवण-घर। भवण-घर-सरण-लेण ।
(प्र १/१४) भवति-होता है। भवति हवइ त्ति वा एगट्ठा ।'
(दशजिचू पृ ३२६) भवन होना। भवनं भूति भावः ।
(अनुद्वाचू पृ २६) भवनं भाव: पर्यायः ।
(निपीचू पृ ३३) भवनं वर्तनं करणं ।
(उचू पृ२४६) भविय-भविष्य में होने वाला।
भविय त्ति भव्यो भावीत्यनर्थान्तरम् । (व्यभा २ टी प ४). भव्य-योग्य ।
भव्यो योग्यो दलं पात्रमिति पर्यायाः । (अनुद्वाहाटी पृ १५) भाग-विभाग। भागा अविभागा पलिच्छेदा इति चानन्तिरम् ।।
(नकन ५ टी पृ ११७) १. देखें-परि०२
३. देखें-परि० ३ २. देखें-परि० २
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भाव-भूमि : ११३ भाव-अभिप्राय । भावः अभिप्रायः प्रार्थना ।
(दशहाटी प ६७) भाव-भाव।
भावः अधिगम उपयोग इत्यनर्थान्तरम् । (निचूभा पृ २७६) भासा-व्याख्या, कथन । भासा विभासा अर्थव्याख्या।
(निपीचू पृ ३१) भिक्खु-भिक्षु ।
तिण्णे ताती दविए वती य खते य दंत विरते य । मुणि तावत पण्णवगुज्जु भिक्खु बुद्धे जति विदू य ॥ पव्वयिये अणगारे पासंडी चरय बंभणे चेव । परिव्वाए समणे निग्गंथे संजते मुत्ते ॥ साह लहे य तधा तीरट्ठी होति चेव' णातव्वे । णामाणि एवमादीणि होति तवसंजमरताणं ॥
(दशनिगा २४४-४६) भिक्खु त्ति वा जति ति वा ख मग त्ति वा तविस्स त्ति वा भवंते ति वा एगट्ठा ।'
(निचूभा ४ पृ २७४): भिण्ण-भिन्न, व्यक्त ।
भिण्णं ति वा उज्झियं ति वा एगट्ठा। (निचूभा ४ पृ २३६) भीम-भयानक । भीमा भयानका भयभैरवाः ।
(उचू पृ २३७) भीय-भयभीत। भीया तत्था तसिया उब्विग्गा ।'
(विपा १/१/६५) भूमि-अवस्था विशेष । भूमिरिति स्थानमिति अवस्थारूपकाल इति त्रयोऽपि शब्दा एकार्थाः ।।
- (व्यभा १० टी प १००) १. देखें-परि० २
३. देखें-परि० २ .
२. देखें-परि० २ . . . . .
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११४ : भेउरधम्म-मंदर
भेउरधम्म-अशाश्वत, नष्ट होने वाला।
भेउरधम्म विद्धंसण-धम्म अधुवं अणितियं असासयं चयावचइयं विपरिणामधम्म ।
(आ ५/२९) भेद-विकल्प।
भेदा विकल्पा अंशा इत्यनर्थान्तरम् । (नंदीटी पृ ५६) भेय-विकल्प। भेउ त्ति वा विकप्पो त्ति वा पगारो त्ति वा एगट्ठा।
(आवचू १ पृ १०) भेसण-डराना। भेसण-तज्जण-तालणाते।'
(पृ ६/११) भोज्ज-भोज, जीमनवार ।
भोज्जं ति वा संखडि त्ति वा एगहें। (बृकटी पृ ८६०) भोयण-भोजन ।
भोयणं जेमणं व त्ति आहारो त्ति व जो वदे। (अंवि पृ ६४) मइ-मति। मइ सण्णा णाणं एगत्था ।
(आचू प ६) मइ त्ति वा मुत्ति (सइ) त्ति वा सण्ण त्ति वा आभिणिबोहियणाणं ति वा एगट्ठा।
(दशजिचू पृ २६) मंद-मन्द । मन्दा जडा अशक्ता।
(सूटी १ प ८१) मंदर-मेरुपर्वत ।
मंदर मेरु मणोरम सुदंसण सयंपभे य गिरिराया । रयणुच्चयपियदसण मज्झे लोगस्स नाभी य॥ अत्थे अ सूरियावत्ते, सूरियावरणे त्ति थ ।
उत्तरे य दिसाई य, वडेंसे इअ सोलसे॥ (सम १६/३) १. देखें-परि० २
२. देखें-परि० २
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मग्गण- - मणसंकप्प : ११५
मंदर मेरुमणोरम सुदंसण सयंपभे य गिरिराया । रणोच्चए सिलोच्चए मज्भे लोगस्स नाभी य ॥ अच्छे य सुरियावत्ते सूरियावरणेत्तिय । उत्तमे य दिसादी य, वडेंसे ति य सोलस ॥ (जंबू ४ / २६० ) मंदरंसि मेरुंसि मणोरमंसि सुदंसणंसि सयंपर्भसि गिरिरायंसि रयणुच्चयंसि सिलुच्चयंसि लोयमज्झसि लोयणाभिसि अच्छंसि सूरियाबत्तंसि सूरियावरणंसि उत्तमंसि दिसादिसि अवतंसंसि धरणिखीलंसि धरणिसिंगंसि पव्वतिदंसि पव्वयरायंसि । ( सूर्य ५ / १ ) मंदरो मेरुः सुदर्शनः सुरगिरिः ।
( सूटी १ पृ १४७ )
( दश जिचू पृ १११ )
मग्गणं ति वा पिथकरणं ति वा विवेयणं ति वा विजओ त्ति वा, एगट्ठा । ( दशजिचू पृ २२६ )
मग्गण - एषणा ।
मग्गणं ति वा एसणं ति वा एगट्ठा ।
मग्गण— पृथक्करण ।
मग्गत — पीछे |
मग्गतो त्ति वा पिट्ठउ ति वा एगट्ठा ।
मज्जाया - मर्यादा ।
मज्जायत्ति वा ओहि त्ति वा मेर त्ति वा एगट्ठा ।
मज्भ- मध्य ।
मज्झिमतिको मज्भो मज्झिमो ।
मोत्ति मज्झिमो त्ति य, मज्झत्थो मज्झदेसकं वत्ति । महो मज्झट्ठिय, तम त्ति
मण संकष्प -- अध्यवसाय ।
( आवचू १ पृ ५६ )
१. देखें- परि० २
( आवचू १३७ ) -
मज्झहमेतेहिं ॥
मणसं कप्पोत्ति वा अज्झवसाणं ति वा चित्तं ति वा एगट्ठ ।
( अंवि पु २४७ ) (अंवि पृ ७७ )
( निचुभा ३ पृ७० )
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११६ : मणाम-महन्भय
मणाम-सुन्दर ।
मणामो त्ति व जो बूया, छलिको (छंदको) त्ति व जो वदे । पियदसणो त्ति वा बूया, तधा भावस्सिओ त्ति वा ॥
(अंवि' पृ १२०) मणुण्ण-मनोज्ञ । मणुण्णा मणहरा निब्बुइकरा ।
(जीवटी प ४०१) मतिसहित-मति-सहित ।
मतिसहितं ति वा मतिअणुगयं ति वा एगट्ठा। (आवचू १ पृ९) मधुर-मधुर ।
मधुरा य मणोहरा य इट्ठा य णिव्वुतिकरा य । चित्ता आणंदकरा य ।...।
(अंवि पृ २५६) मनन–पर्यालोचन । मननं चिन्तनं पर्यालोचनम् ।
(सूटी १ पृ २६४) मन्नंति–जानते हैं।
मन्नति वा जाणंति वा एगट्ठा ।' (दशजिचू पृ २३३) मयूर-मोर। मयूरो कारंडओ पिलओ सिरिकंठो ।
(अंवि पृ ६२) मरण-मृत्यु। मरणं मच्चू वा मारो।
(आचू पृ १०८) मल-पाप। मलं ति वा पावं ति वा एगट्ठा ।
(दशजिचू पृ २६४) महत्थ-महान् । महत्थं महग्धं महरिहं ।
(ज्ञा १/१/११६) महब्भय-भयंकर । महब्भयं भयंकर पतिभयं उत्तासणगं ।
(प्र ३/७) १. देखें परि० ३
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महव्वय—माण : ११७
महव्वय-बड़ी उम्र वाला, बूढा ।
महव्वयो त्ति वा बूया, तधा जुण्णवयो त्ति वा। तधा तीतवयो व त्ति, तधा गतवयो ति वा ॥ थेरो जुण्णो त्ति वा बूया, वुड्डो परिणतो त्ति वा । जरातुरो त्ति वा बूया, खीणवंसो त्ति जो वदे ।। वत्तुस्सयो त्ति वा बया, णिवत्त ति व जो वदे । उववुत्तं ति वा बूया, झीणं वा णिट्टितं ति वा ॥ वातं ति मलितं व त्ति, तधा परिमलितं ति वा । मिलाणं परिसुक्खं ति, तधा परिसडितं ति वा ॥'
(अंवि पृ १००) महाकम्मतर-महाक्रिया ।
महाकम्मतराए महाकिरियतराए महासवतराए।। (भ ५/१३३) महापउम–महापद्म (नृप)। ___ महापउमे देवसेणे विमलवाहणे ।'
(स्था ६/६२) महापण्ण-महाप्रज्ञ ।
महापण्णे प्रधानप्रज्ञः विस्तीर्णप्रज्ञो वा । (सूचू १ पृ २०४) महामुणि-महामुनि।
महामुणी त्ति वा महानाणी त्ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ ३४८) महित-पूजित ।
महितो पूजितो नमंसितो एगट्ठा। (आवचू १ पृ ८६) माण-मान, अभिमान ।
माणे मदे दप्पे थंभे गव्वे अत्तुक्कोसे परपरिवाए उक्कोसे अवक्कोसे उण्णते उण्णामे दुण्णामे ।
(भ १२/१०४) मानः स्तम्भो गर्व उत्सुको अहंकारो दर्पः स्मयो मत्सर ईर्ष्या ।'
(अनुद्वाहाटी पृ ६२-६३) १. देखें-परि० २ २. देखें-परि० २ ३. देखें-परि० २
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११८ : माण-मित्त
माण-माप । माणं ति वा परिच्छेदो त्ति वा गहणपगारो त्ति वा एगट्ठा ।
(आवचू १ पृ ३७७) मातंग-हाथी। मातंगो त्ति मतिंगो त्ति गयो ति ।
(अंवि पृ ६२) मातंगे दुपाणे कुंजरे।
(जीव ३/११८) माया-माया ।
माया उवही नियडी वलए गहणे णूमे कक्के कुरुए जिम्हे किब्बिसे आयरणया गृहणया वंचणया पलिउंचणया सातिजोगे।
(भ ११/१०५) मायाप्रणिधिरुपधिनिकृति वंचना दम्भः कूटमभिसंधानं साठ्यमनार्जवम् ।'
(अनुद्वाहाटी पृ ६३) माहण-श्रमण, माहन । माहणे त्ति वा समणे त्ति वा भिक्खु त्ति वा णिग्गंथे त्ति वा ।
(सू १/१६/१) मिच्छा-मिथ्या।
मिच्छ ति वा वितहं ति वा असच्चं ति वा असट्ठियं ति वा अकरणीयं ति वा एगट्ठा।
(आवचू १ पृ ३४६) मिणति-मापता है। मिणति त्ति वा परिच्छिदति त्ति वा गिण्हाति त्ति वा एगट्ठा।
(आवचू १ पृ ३७७) मित-परिमित । मित परिमितं स्तोकम् ।
(उचूपृ २४६) मित्त-मित्र, स्वजन ।
__ मित्त-नाइ-नियग-सयण संबंधि-परियणा । (ज्ञा १/२/१२) १. देखें—परि० २ २. देखें-परि० ३
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मित्ति-मुखर : ११६ मित्ते ति वा वयंसे ति वा सही ति वा सुहिए ति वा संगतिए ति वा ।
(जीव ३/६१३) मित्ता इ वा, वयंसा इ वा, णायए इ वा, घाडिए इ वा, सहाए इ वा, सही इ वा, संगइए इ वा .'
(जंबू २/२६) मित्ति-मैत्री। मित्ति सम्मोइ संपीति ।
(अंवि पृ ११२) मिथ्या-असत्य ।
मिथ्या वितथमनृतमिति पर्यायाः । (स्थाटी प ४७८) मिय–परिमित। मिय माइय त्ति एकाौँ ।
(प्रटी प ८१) मुंडावित्तए-मुंडित करने के लिए।
मुंडावित्तए सिक्खावित्तए उवट्ठावित्तए । (स्था २/१६८) मुक्क-मुक्त। मुक्को विरते ति एगट्ठा।
(आच पृ ६४) मुक्त--छोड़ा हुआ। मुक्तं त्यक्तं क्षिप्तं उज्झितं निरस्तमित्यनर्थान्तरम् ।
(अनुद्वाचू पृ ६१) मुकुल-अर्धविकसित पुष्प । मुकुलं कुड्मलं कोरकं जालकं कलिकावृन्तमित्यादिः ।
(विभामहेटी १ पृ ५०६) मुकुलं कुड्मलं पोण्डाप्रविबुद्धम् । (विभाकोटी पृ ३६६) मुख–मुख । मुखं वक्त्रं वयणं च एगळं ।
(निचूभा २ पृ २८५) मुखर-वाचाल ।
मुख रा बाचाला असम्बद्धप्रलापिनः । (जंबूटी प २६४) १. देखें-परि० २
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१.२०
मुच्छा - मूर्च्छा ।
मुच्छा-मूढ
मुच्छा य गिद्धि य दो वि एगट्ठा ।
मुच्छिय - आसक्त ।
मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्भोववण्णे त्ति एकार्था: । '
मुणि-मुनि ।
मुणित्ति वा णाणि त्ति वा एगट्ठा । मुणित्ति वा समणो त्ति वा माहणो त्ति वा ।
मुणित - ज्ञात ।
मुणितं गमितमित्ये कोऽर्थः ।
मुदित - प्रसन्न ।
मुदितो त्ति व जो बूया, तधा हट्ठो तुट्ठो पहट्ठो, उदत्तो
मुदिता - प्रीति ।
मुदिते वा पमोदं वा हासं पीति ।
मुद्ध - मुख्य ।
मुद्धं परं प्रधानमाद्यम् ।
मुनि मुनि ।
मुनिः संयतः इति पर्यायो ।
मुम्मुर - अग्नि की अवस्था विशेष ।
मूढमूढ ।
( दशजिचू पृ ३४५-४६)
पमुदितो त्ति वा । सुमणो त्ति वा ॥
मूढो त्ति वा बालोत्ति वा एगट्ठा ।
१. देखें - परि० २
( दशजिचू पृ २७६ ]
( आचू पृ १०६ )
( विपाटी प ४१ )
मुम्मुरेति वा अच्ची इ वा जाले इ वा अलाए इ वा सुद्धागणी इ
वा ।
[ ज्ञाटी प २११]
( सूचू २ पृ ३३५)
२. देखें- परि० २
( अंवि पृ १२१ )
(अंवि पृ १२१ )
( निचूभा २ पृ ४४६ )
(दशहाटी प १८४ )
( आचू पु १५६ )
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मूच्छित-मैथुनिको : १२१ मूच्छित-आसक्त।
मूच्छिता मूढाः गृद्धिमन्ताः। ...... (उशाटी प ३३७)
मूच्छितो मूढो गतविवेकचैतन्यः । । .... (ज्ञाटी प ६१] मूल आदिबिन्दु। ___मूलमादिरित्यनन्तरम् ।
(उचू पृ १०४) मूल आधार। मूलं प्रतिष्ठा आधारो य एगट्ठा ।
(आचू पृ ४४) मूलं ति वा प्रतिष्ठानं ति वा हेतु त्ति वा एगट्ठा । (आचू पृ ११०) मूल-निमित्त ।
मूलमिति निमित्तं कारणं प्रत्यय इति पर्यायाः। (आटी पृ १८) मूलच्छेज्ज-मूलोच्छेद । मूलच्छेज्जं ति वा मूलगुणपडिवाओ ति वा एगट्ठा।
(आवचू १ पृ १०२) मेढी-आधार। मेढी पमाणं आहारे आलंबणं चक्खू ।'
(उपा १/१३) मेघावो-मेधावी ।
मेधावी प्रज्ञावान् मर्यादाव्यवस्थितो वा। (सूटी १ ५४६) मेरा-मर्यादा । मेरा मर्यादा सामाचारी।
(व्यभा ३ टी प ५२) मेलना-मिलाना। - मेलना योजना घटनेत्येकोऽर्थः ।
(आवमटी प ३५०) मैथुनिकी–वेश्या।
मैथुनिक्या मैथुनाजीवया वेश्यया । __ मैथुनिक्या मैथुनाजीवया पणाङ्गनया। . . (व्यभा ४/१ टी प ६७) १. देखें-परि० २ . . . .
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रागे।
१२२ : मोत्ति-रज्ज मोत्ति-मुक्ति।
मोत्ती णिज्जाणं निव्वाणं च एगट्ठियाणि । (दश्रुचू प ६१) मोहणिज्जकम्म-मोहनीयकर्म।
मोहणिज्जस्स णं कम्मस्स बावन्नं नामधेज्जा पण्णत्ता-कोहे, कोवे, रोसे, दोसे, अखमा, संजलणे, कलहे, चंडिक्के, भंडणे, विवाए, माणे, मदे, दप्पे, थंभे, अत्तुक्कोसे, गव्वे, परपरिवाए, उक्कोसे, अवक्कोसे, उन्नए, उन्नामे, माया, उवही, नियडी, वलये, गहणे, णूमे, कक्के, कुरुए, दंभे, कूडे, जिम्हे, किब्बिसिए, अणायरणया, गृहणया, वंचणया, पलिकुंचणया, सातिजोगे, लोभे, इच्छा, मुच्छा, कंखा, गेही, तण्हा, भिज्जा, अभिज्जा, कामासा, भोगासा, जीवियासा, मरणासा, नंदी,
(सम ५२) यजन-यज्ञ । यजनं इज्या यागः ।
(अनुद्वामटी प २६) यत-संयत। यतः प्रयतः प्रयत्नवान् ।
(सूटी १ प २०६) यतः प्रयतः सत्संयमवान् ।
(सूटी १ प २६६) युवा-युवक। युवा यौवनस्थः प्राप्तवया ।
(अनुद्वामटी प १६२). योग-अवसर। योगः प्रस्तावोऽवसरः ।
(विभाकोटी पृ ५) योग–सामर्थ्य, चेष्टा।
योगो विरियं थामो, उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा । सत्ती सामत्थं ति य, योगस्स हवंति पज्जाया ॥ (आवचू १ पृ. ६०६)
योगो व्यापारः कर्म क्रियेत्यनर्थान्तरम्। (आवहाटी १ पृ १०) रज्ज-राज्य । रज्जं देसो ति य जणपदो।
(अंवि पृ २४१) १. देखें-परि० २
२. देखें-परि० २
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रज्जति-रहस्स : १२२ रज्जति--आसक्त होता है। रज्जति वा पच्चति वा डज्झति (बज्झति) वा एगट्ठा।'
(आचू पृ १७६) रति-मैथुन । रतिः रतं निधुवनम् ।
(प्रटी प ६७) रमंति-क्रीड़ा करते हैं। रमंति ललंति कीलंति किट्टंति मोहेति ।
(राज १८५) रमंति ललंति कीडंति ।
(जीवटी प ३५१) रयणी-रात्री। रयणि त्ति सव्वरि त्ति य णिस त्ति खणता णिवियरत्ति ।
(अंवि पृ २४५) रयस्-वेग । रयः वेगः चेष्टाऽनुभवः फलमित्यनर्थान्तरम् ।'
(आवहाटी १ पृ २६३) रस-रस।
रसो जूसो त्ति वा बूया खलको पाणियं ति वा। (अंवि पृ ६४) रसिय--कथित । रसिय-भणिय कूविय-उक्कूइय ।
(प्र १/२७) रहस्स-ह्रस्व, अल्प, छोटा।
रहस्सं मडहकं व त्ति, संखित्तं खुडितं ति वा । रुद्धं ति सण्णिरुद्धं ति, संपीलितं ण पीलितं ॥ संपिंडितं पेंडितं ति, सन्नद्धं सन्निकासियं । अप्पं थोवं ति किंचि त्ति, अतिथोवं ति वा पुणो । आकुंडितं संहितं ति, तधा संवेल्लितं ति वा ।
उस्सारितं ति णिम्मठें अवमट्ठाऽपमज्जियं ॥ (अंवि पृ ११५) १. देखें-परि० ३
४. देखें--परि० २ २. देखें-परि० ३ . देखें-परि० २
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१२४ : राग-रुसिय
राग–अनुराग।
रागो त्ति वा संगो त्ति वा एगट्ठा। (निचूभा ३ पृ १६०) इच्छा मूर्छा कामः स्नेहो गायं ममत्वमभिनन्दः अभिलाषो इत्यनेकानि रागपर्यायवचनानि ।'
(उशाटी प ६३०) राशि-राशिगणित। राशिर्गच्छ इत्यनर्थान्तरम् ।
(व्यभा २ टी प ६५) राहु-राहु (देव विशेष)। सिंघाडए जडिलए खतए खरए दद्दुरे मगरे मच्छे कच्छभे कण्हसप्पे ।
(भ १२/१२३) रिउ-ऋतु, ऋतुमास ।
रिउ त्ति वा कम्ममासो वा एगळं।। (निचूभा ४ पृ २७८) रीत-पद्धति । रीतं रीतिः स्वभावः।
(भटी प २१२) रुइय-रुचिकर । रुइयं ति वा सेयं ति वा एगट्ठा ।
(दशजिचू ३२६) रुटरुष्ट, कुपित। रुठे कुविए चंडिक्किए।
(भटी प ३२२) रुट्टा परिकुविया समरवहिया अणुवसंता। (भ ७/१८१) रुण्ण-रोदन । ___ रुण्णे वा कंदिते वा कूजिते वा।
(अवि पृ १६२) रुग्ण-रडिय-कंदिय-निग्घुट्ठरसिय-कलुणविलवियाई।' (प्र १०/१४) रुद्धापित-रोका हुआ।
रुद्धापिते य संतापिते य संतप्पमाणे य । (अंवि पृ २५४) रुसिय-रुष्ट होना। रुसिय हीलिय निदिय खिसिय ।
(प्र १०/१४) १. देखें-परि० २
३. देखें-परि०२ २. देखें-परि० २
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रोयमाणी - रुदन करती हुई ।
रोयमाणी कंदमाणी तिप्पमाणी सोयमाणी विलवमाणी ।'
लंचा- रिश्वत ।
लंचा उत्कोच इत्यनर्थान्तरम् ।
लघुक - प्रायश्चित्त का एक प्रकार ।
लज्जामो -- दया करते हैं ।
लघुकमिति वा उद्घातितमिति वा शुक्लमिति वा लघुकस्य नामानि ।
( ब्रुकटी पृ ११ )
( आचू पृ २५६ )
लज्जामो त्ति वा दयामो त्ति वा एगट्ठा ।
लज्जिय— लज्जित ।
लज्जया विलिया वेड्डा ।
लज्जिया विलिया विड्डा ।
लता - श्रेणि ।
लता श्रेणि: परिपाटी चेत्येकार्थाः । *
लद्ध - प्राप्त ।
लाओ पत्ताओ अभिसमण्णागताओ ।
लद्धट्ठ–लब्धार्थं ।
रोयमाणी - लद्धमईय : १२५.
लद्धमई - मतिमान् ।
लद्धमईए लद्धसुइए लद्धसणे
१. देखें - परि० २
२. देखें - परि० २
३. देखें- परि० ३
( ज्ञा १ / २ / १०६ )
(व्यभा १ टी प ८ )
लद्धट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा अभिगयट्ठा विणिच्छियट्ठा ।'
४. देखें- परि० २
५. देखें-- परि० २
६. देखें- परि० २
(जंबू २ / ६० ) (निर ८३ )
( प्रसाटी प ४३५ )
(स्था ३ / ३६६ )
(भ २ / ६४ )
' (ज्ञा १७ /१२)
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१२६ : लम्मति-लोटन लब्भति-प्राप्त करता है। लब्भति त्ति वा दीसति त्ति वा पन्नायति ति वा एगट्ठा।'
(आवचू १ पृ १०३) लय-लीनता।
लयः लीनता तिरोभाव इत्यनर्थान्तरम् । (विभामहेटी २ पृ १४०) लयण-घर।
लयणं ति वा गिहं ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ २६०) लाविय-अल्पेच्छा।
लाघविय अप्पिच्छा अमुच्छा अगेही अपडिबद्धया। (भ १/४१७) लाभ-लाभ, प्राप्ति ।
लाभे आगमे य उवगमण उवगमो वा वि। (अंवि पृ २५५)
लाभः प्राप्तिः परिच्छित्तिरित्येकोऽर्थः । (आवमटी प ६४) लिङ्ग–चिह्न ।
लिंगं चिंध निमित्तं, कारणमेगट्ठियाई एयाई। (जीतभा १७) लिगिय-लिंग-हेतु से निष्पन्न ।
लिंगियं ति वा चिंधणिप्फण्णं ति वा करणनिष्फण्णं ति वा परनिमित्त_णिप्फण्णं ति वा एगहें ।
(आवचू १ पृ ७) लुटण-लुटना।
लुटण लोट्टण पलोट्टण उट्ठाणं चेव एगट्ठा । (व्यभा ३ टी प १२४) लूसग-हिंसक। .. लूसगा भंजगा विहारगा एगट्ठा ।
(आचू पृ २४२) लोटन-लुटना।
लोटनं लुठनं प्रलोटनमवधावन मिति चैकार्थः । (व्यभा ३ टी प १२४) १. देखें-परि०३
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लोम-वंद : १२७ लोभ-लोभ ।
लोभे इच्छा मुच्छा कंखा गेही तण्हा झिज्झा अभिज्झा आसासणया पत्थणया लालप्पणया कामासा भोगासा जीवियासा मरणासा नंदिरागे।
(भ १२/१०६) लोभो रागो गाय॑मिच्छा मूर्छाऽभिलाषो संगः कांक्षा स्नेहः ।'
__ (अनुद्वाहाटी पृ ६३) लोमसिका-ककड़ी।
तधा लोमसिका व त्ति, अक्खोल त्ति व जो वदे।
तधा कक्कुडिगा व ति, तधा संगलिक ति वा ॥२ (अंवि पृ ७१) लोमहरिसजणण-रोमाञ्चक । लोमहरिसजणणे भीमे उत्तासणए ।
(भ ६/८५) लोलुग-प्रगाढ ।
लोलुगं भृशं गाउं प्रगाढ़ निरन्तरम् ।' (सूचू १ पृ १३०) लोलुय–लोलुप । ___ लोलुया मुच्छिया गढिया गिद्धा अज्झोववण्णा। (उपा ८/२०) वहर-वज्र । वइरं वज्जं ति एगहें।
(व्यभा १०/३) बंक-वक्र, कुटिल।
वंक वंकसमायारे, नियडिल्ले अणुज्जुए। पलिउंचग ओवहिए।
(उ ३४/२५) वंझा-वंध्या।
वंझा अवियाउरी जाणुकोप्परमाया। (ज्ञा १/२/८) वंद-समूह ।
वंदो संघो त्ति गणो महाजणो आउलं णिकायो त्ति । (अंवि पृ २४०) . १. देखें-परि० २
३. देखें-परि० २ २. देशों-परि० २
४. देखें-परि. २
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१२८ : वंदण-वचन वंदण-वंदन। वंदण-माणण-पूयणासु ।
(अंवि पृ १४६) वंदण नमसण पूयण ।
" (नंदीचू पृ ४८) वंदणग-वंदनकर्म ।
वंदणगंति वा चितिकमंति वा कितिकमंति वा पूजाकंमंति वा विणयकमंति वा एगट्ठिताणि ।'
(आवचू २ पृ १४) वंवित-वंदित । वंदिते पूजिते सक्कते संथुते अच्चिते पणमिते अभिवादिते।'
(अंवि पृ २६८) वंश-वंश परम्परा।
वंशः प्रवाहः आवलिका इत्येकार्थाः । (जंबूटी प २५८) पक्क-वाणी।
वक्कं वयणं च गिरा, सरस्सती भारती य गो वाणी ।
भासा पण्णवणी देसणी, य वईजोग जोगे य ॥' (दशनि १७२) वक्कमंति-च्युत होते हैं। वक्कमंति विउक्कमंति चयंति ।'
(भ २/११३) वक्र—वक्र।
वक्र: कुटिलो निष्कारणप्रतिसेवी। (व्यभा १ टी प १४) वक्षस्कार-सीमा-पर्वत ।
वक्षस्कारपर्वतो गजदन्तापरपर्यायः । (जंबूटी प ३१४) वगडा-बाड, परिक्षेप।
वगडा पलिहतं वतिपरिक्खेव इत्यनन्तरम् । (बृकटी पृ २०२). वचन-वचन । वचनं वागित्येकार्थम् । .
- (बृकटी पृ ६०) १. देखें-परि० २ . . . . . . ३. देखें-परि० २ ... २. देखें-परि० २
४. देखें-परि० ३ ...
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वच्छक-वध : १२९ वच्छक--वत्सक।
वच्छके पुत्तके चेति पोतके पिल्लके तधा। सिंगके तण्णके व त्ति
(अंवि पृ १४२) वज्ज-कर्म ।
वज्जं ति वा पातं ति वा चोण्णं ति वा। (सूच १ पृ १२०) वज्ज-वैर।
वज्जं ति वा वेरं ति वा परं ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ. २२५) वड-विभाग। वडो वंटगो विभागो एगठें।
(निचूभा ४ पृ २४४) वडो वंडूगो विभागो एगळं ।
(आवचू २ पृ २३४) वडभिका-वामन, ह्रस्व ।
वडभिका मडहकोष्ठा वक्राधःकाया। (जंबूटी प १६१) पण्णित-वणित ।
वण्णिताई कित्तिताई बुइयाई पसत्थाई अग्भणुण्णताई। (स्था ५/३५) वणिय-वर्णित ।
___ वण्णियं ति वा देसियं ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ २२२) वन्दते-वन्दन करता है। वंदते स्तौति नमस्यति ।
(सूर्यटी प ६) वध-वध । वधे तालणे मालणे ।
(आचू पृ १५२) . वध बंधण तालणंकण निवायण ।
(प्र १/३०) वध बंधण जायण।
(प्र २/२०) वध बंधण विधाय. दुविधाय ।।
... (प्र४/१) १. देखें--परि०३ २. देखें-परि०२
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१३० : वमण-ववण
वमण-वमन ।
वमणं ति वा विरेयणं ति वा विगिचणं ति वा विसोहणं ति वा एगट्ठा।
(आचू पृ १२६) वमेंति-वमन करते हैं। वमेंति परिच्चयंति छड्डेंति ।
(नंदीचू पृ ५०) वयंति-जाते हैं।
वयंति ति वा गच्छंति त्ति वा एगट्ठा । (दशजिचू पृ ३२४) वयत्थ-वयस्थ । वयत्थो पवत्तो उदग्गो पोअडो।
(अंवि पृ ६८) वर-श्रेष्ठ । वरा प्रधाना श्रेष्ठा।
(दश्रुचू प ७६) वर्द्धन-व्याख्या। वर्द्धनं वृद्धि व्याख्या।
(अनुद्वाचू पृ ६०)
ववगत-व्यपगत । ववगतं चत्तं विप्पजढं ।
(अनुद्वाचू पृ ६) ववगय–व्यपगत । ववगय-चुय-चइय-चत्त।
(भ ७/२५) ववगय-चुय-चाविय।
(अनुद्वा ३७) ववण- वपन।
ववणं ति रोवणं ति य पकिरण परिसाडणा एगळं। (व्यभा १/४) १. देखें-परि० ३ २. देखें-परि० ३
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ववसाय-वाम :
ववसाय-व्यवसाय, अवबोध । ववसाउ त्ति वा णिच्छयत्थपडिवत्ति त्ति वा अवबोहो त्ति वा एगट्ठा ।
(आवचू १ पृ १०) ववसाओ बुद्धिअज्झवसाओ एगळं ।
(आचू पृ २७६) ववहार-व्यवहार।
सुत्ते अत्थे जीए कप्पे मग्गे तहेव नाए य ।' (व्यभा १/७) ववहार–प्रायश्चित्त ।
ववहारो आलोयण, सोही पच्छित्तमेव एगट्ठा। (व्यभा ४/१/६०)
ववहारो आरोवण, सोही पच्छित्तमेयमेगळं। (जीतभा १८४) वसित्तु-पालन करके। वसित्तु वा पालित्तु वा एगट्ठा ।
(आचू पृ २०६) वसुम- वसुमान् ।
वसुमं ति व वसिमं ति व वसति व वुसिमं व। (निभा ५४२०) वस्तु-वस्तु । वस्तु द्रव्यं दलिकमित्यनर्थान्तरम् ।
(बृकटी पृ ३००) वहित-व्यथित । वहितं ति वा चलियं ति वा (खोभियं ति वा) एगट्ठा ।
(आचू पृ १७७) वाघात- व्याघात । वाघातो विणासो य एगट्ठा ।
(व्यभा १०/३२२) वाट-बाड, कांटों की परिधि । वाटेन वाटकेन वृत्त्या।
(प्रटी प २२) वामप्रतिकूल।
उत्तरं ति व वामं ति, वामावट्टो त्ति वा पुणो ।
वामसीलो ति वा बूया, वामायारो त्ति वा पुणो ॥ १. देखें-परि०२
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१३२ : वारण-विक्खिण्ण
वामपक्खं ति वा बूया, वामदेसं ति वा पुणो । वामभागं ति वा बूया, वामतो त्ति व जो वदे ॥ अपवामं ति वा बूया, अपसव्वं ति वा वदे।
अवसव्वं ति वा बूया, अप्पग्छ ति वा पुणो ॥' (अंवि पृ७६) चारण-निवारण । वारणं निवारणं प्रवारणं ।
(उचू पृ ५६) वावड-व्यापृत। __ वावडो व्यापूतः नियुक्तः।
(निचूभा ३ पृ. १२०) वावण्ण–विनष्ट।
वावण्णं विणठें कुहितं पूति । (निचूभा २ पृ. ६३) वाहिय-रोगी।
वाहियाण य गिलाणाण य रोगियाण य । (ज्ञा १/१३/२२) विउस्सग--व्युत्सर्ग।
विउस्सग्गो ति वा विवेगो त्ति वा अधिकिरणं ति वा छड्डणं ति वा वोसिरणं ति वा एगट्ठा।
(दशजिचू पृ ३७) विकल्प-विकल्प । विकल्पो व्याहृतिर्भजना।
(विभामहेटी १ पृ ७५७) विकल्प-अंश । विकल्पा अंशा इत्यनर्थान्तरम् ।
(आवहाटी १ पृ ७) विकल्पित--विकल्पित
विकल्पितं रचितं स्वेच्छाकल्पितम् । (व्यंभा ३ टी प ११३) विकूणित-रुदित ।
विकूणिते कूविते य, रुण्ण विक्कंदिते तधा। (अंवि पृ १५५) विविखण्ण-विकीर्ण ।
तधा विक्खिण्ण णिक्खिण्णे विप्पकिण्णे विणासिते । अवकिण्णे।
(अवि पृ १०८) १. देखें-परि० २
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विक्षेप-विजय : १३३ विक्षेप–व्याघात । विक्षेपो व्याघातः पलिमन्थः ।
(व्यभा ८ टी प ३) विगत-नष्ट । विगतं विनष्टमतीतम् ।
(विभामहेटी २ पृ १२) विगिचण-विवेक। विगिचणं ति वा विवेगो त्ति वा खवण त्ति वा एगट्ठा ।
(आचू पृ १२७) विग्घ-विघ्न । विग्घो वक्खोडो बंधणं ति वा एगट्ठा ।
(आचू पृ ४१) विग्घित-बाधित।
विग्घित त्ति विप्पित त्ति वा एगट्ठा । (आचू पृ २४२) विचल-अध्र व।
विचले अधुवे व ति, ओधुते संधुते त्ति वा।
अधुवे त्ति गए व त्ति, आधुते त्ति धुते त्ति वा ॥ (अंवि पृ ८०) विचिकित्सा-संशय ।
विचिकित्सा चित्तविप्लुतिः संशयज्ञानम् । (सूटी १ प २६१) विचीयते-निर्णय किया जाता है। विचीयते निर्णीयते पर्यालोच्यते ।
(स्थाटी प १८३) विच्छिण्णतर–विस्तृत ।
विच्छिण्णतराए चेव विपुलतराए चेव महंततराए। (जंबू ४/१०२) विच्छिन्न-विस्तीर्ण । विच्छिन्नं ति वा अणंतं ति वा विउलं ति वा एगट्ठा ।
(दशजिचू पृ २१५-१६) विजय-पराभव ।
विजयः अभिभवः पराभवः पराजय इति पर्यायाः। (आटी प ८३) विजय-विचय, चिंतन । विजयो विचारणा मग्गणा एगट्ठा ।
(आनि ४३)
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१३४ : विज्ञापना - विद्वस्
विज्ञापना - परिभोग |
विज्ञापना परिभोग एकाथिकानि ।
विणय-विनय |
विजय पणामो य एगट्ठा ।
विणिच्छय
विण्णाण - विज्ञान, अभिप्राय ।
विणिच्छओत्ति वा अवितहभावो त्ति वा एगट्ठ | ( दशजिचू पृ २८७ )
विष्णाणं वेयणा भावो अभिप्पातो त्ति तुल्लं ।
वितर्क-वितर्क |
वितर्क मीमांसेत्यनर्थान्तरम् ।'
वितिगिच्छा - विचिकित्सा, संदेह ।
वितिमिच्छा विमर्षः मतिविप्लुति संदेहः ।
वित्थिन्न- विस्तृत |
वित्थिन्नं वित्तं वत्ति, वत्थितं ति व जो वदे । विततं वियाणकं वत्ति, तथा पत्थरियं ति वा ॥
विदित - ज्ञात |
विदितं आगमितं उपलब्धं ।
विदितं मुणितमेकोऽर्थः ।
विदु - ज्ञानी ।
विदु त्ति वा नाणित्ति वा एगट्ठा ।
विद्वस् - विद्वान् ।
विद्वान् पण्डितो विरतः ।
विद्वान् पण्डितो धर्मदेशनाभिज्ञः ।
१. देखें - परि० २
( सूचू १ पृε७)
( आवनि १०६२)
( दशअचू पृ ७ )
(सूत्र १ पृ ३६ )
( निचूभा ३ पृ ६८ )
(अंवि पृ ११७ )
(दश्रुचू पृ १७ )
( आवचू १ पृ८६ )
( दशजिचू पृ ३३४ )
( सूटी ९प १६१ )
( सूटी १ प २४६ )
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विधि-विरत : १३५ विधि-प्रकार ।
विधिविधानं भेदः प्रकार इत्यनर्थान्तरम् । (बृकटी पृ १६६) विधिविधानं प्रकारः।
(सूचू १ पृ ४२) विनयन्ति-प्रेरित करते हैं। विनयन्ति प्रेरयन्ति अतिवाहयन्ति ।'
(प्रटी प ६४) विन्नत्तिकारण-ज्ञान का हेतुभूत ।
विन्नत्तिकारणं ति वा जाणितव्वगसामत्थजुत्तं ति वा विन्नत्तिहेउभूयं ति वा एगट्ठा ।
(आवचू १ पृ ७३) विपरिणामइत्ता-विपरिणत कर। विपरिणामइत्ता परिपालइत्ता परिसाडइत्ता परिविद्धंस इत्ता।
(जीवटी प २१) विप्फालण-पूछना।
विप्फालण त्ति पुच्छण त्ति वा एगढ़।। (व्यभा २ टी प २१) विभजन-विभाग। विभजनं विभागः विस्तरः ।
(निचूभा ४ पृ ४०२) विमल-मल रहित । ... विमलं सुद्धं परिमज्जितं ।
(अवि पु २४५) वियंजित-तथ्य ।
वियंजितं ति वा तत्थं ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ २८६) वियालण-चिन्तन । . वियालणं ति वा मग्गणं ति वा ईहणं ति वा एगळं ।
(आवचू १ पृ १०) विरत--विरत, संयमी। विरते समिए सहिए सया जए।
(सू १/१६/३) १. देखें-परि० ३
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.१३६ : विरति-विसय
विरति - विरति । विरतिविरमणं निवृत्तिः ।
विरमण - विरमण |
विरमण विरति सावद्ययोगनिवृत्तिः ।
विरल्लिय - प्रसारित ।
विरल्लिओ त्ति प्रसारितः क्षिप्तः ।
विराहणा- विराधना ।
विराहणा खंडणा भंजणा य एगट्ठा ।
विरिय - वीर्य, सामर्थ्य |
विरियं सामत्थं वा, परक्कमो चेव होइ एगट्ठा ।
विल्लरी - राजहंसिनी ।
विल्लरी रायहंसित्ति कलहंसि ।
विवाद-विवाद |
विवादे विग्गहे त्तिय कलहं ।
विवेक-विवेक |
विवेकं पृथग्भावं विनाशम् ।
विशति - वास करता है ।
विशति निविशति प्रविशति ।
विशुद्ध-विशुद्ध ।
विशुद्धो निर्मलः स्नातकः ।
विशोषि- शुद्धीकरण ।
विशोधिः प्रायश्चित्तमित्यनर्थान्तरम् ।
10
विसय - विषय, उपपत्ति ।
१. देखें —परि० ३
( विभामहेटी १ पृ७६४ )
(पंचा पृ १३ )
( ज्ञाटी प २४१ )
( निपीचू पृ १३ )
( जीतभा १७७४ )
(अंवि पृ ६६ )
(अंवि पृ १४३ )
विसओ त्ति वा संभवोत्ति वा उवयत्ति त्ति वा एगट्ठा ।
( सूटी १ प १६४ )
( निभा २ पृ २४४ )
( प्रसादी प २१२ )
( बुकटी पृ ११२ )
( आवच १ पृ २१)--
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"विसारत - विशारद ।
विसारतो पंडितं बुद्धिमंतं ।
विश्र - दुर्गन्धयुक्त ।
विश्रा आमगन्धयः कुथिताः ।
विह-प्रकार |
विहत्ति वा भेदत्ति वा एगट्ठा ।
विहरण- विहरण |
!
विहरणं क्रीडनं विहारः ।
बहि-- विधि, क्रम ।
वीथि - मार्ग, गली ।
अणुवी परिवाडी कमो य नायो ठिई य मज्जाया । होइ विहाणं च तहा, विहीए एगट्टिया हुति |
विहि मेरा सीमा आयरणा इति एगट्ठा ।
वीथी रत्था वा मग्गो वा एगट्ठा ।
वीर -धर्मवीर
I
वीरा समिता सहिता जता ।
वीर-वीर ।
वीरा सूरा विक्रान्ताः ।
वीरिय- वीर्य ।
विसारत - वीरिय : १३७
वीरियं ति वा सामत्थं ति वा सत्तीति वा एगट्ठा ।
(अंवि पृ १२३ )
(प्रटी प १६ )
( दश जिचू पृ ३२६ )
( सूटी १ प ८ )
( बृकभा २०८ )
( आवहाटी २ पृ 2 )
( आचू पृ २६ )
वीरियं ति वा बलं ति वा सामत्थं ति वा परक्कमो ति वा थामो ति वा एगट्ठा ।
( निपी पु २४ )
( आचू पृ १५३ )
( दशअचू पृ ६३ )
( आवचू १ पृ ३७६ )
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१३८ : वग्गह—-वेवित
वुग्गह-- कलह |
बुग्गहो त्ति वा कलहो त्ति वा भंडणं ति वा विवादो त्ति वा एगट्ठा । ( निचूभा ४ १०१ )
वुच्चमाण - निर्भत्सित होता हुआ ।
वच्चमाणो असुस्सूसमाणो निदिज्जमाणो वा णिब्भच्छिज्ज माणो वा ।
( सूच १ पृ १८२ )
वुड्ड – वृद्ध, श्रावक ।
बुड्ढा सावगा बंभणा ।
वृत्त - कथित |
वृत्तं ति वा भणितं ति वा एगट्ठा । वृक-भेड़िया |
वृका ईहामृग पर्यायाः ।
वृणीते - वर्णन करता है । वृणीते वृणोति वर्णयति ।
वेच्च – बुना हुआ |
वेच्चं व्यूतं वानम् |
वेर-कर्म ।
वेरे वज्जे य कम्मे ।
वरति - विरति ।
वेरति वा वांति वा वेरमणं ति वा एगट्ठ |
वेला - सीमा |
वेला मेरा सीमा मज्जाय त्ति एगट्ठं । वेला सीमा मर्यादा सेतुरित्यनर्थान्तरम् ।
वेवित — कंपित |
( अनुद्वाच् पृ १२ )
( दशजिचू पृ २२१ )
(प्रटी प ६ )
( उच्च पृ १०२ )
( जीवटी प २१० )
( उशाटी प २०६ )
( सूचू २ पृ ३६९)
वेविते परिदेविते पयलाइते पत्ते पतिते विप्पलोट्टिते । (अंवि पृ १५५)
१. देखें - परि० २
२. देखें- परि० ३
( सूचू १ पृ १८२ ) ( उचू पृ ५६ )
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वैगुण्य- विपरीतता । वैगुण्यं वैधर्मता विपरीतभावः ।
बोस — छोड़ा हुआ |
वोसट्ठति वा वोसिरियं ति वा एगट्ठा । वोसिरति-त्याग करता है ।
वोरिति विसोधेति णिल्लवेति एगट्ठ ।
व्यक्तिकर— व्याख्याकार |
व्यक्तिकरो वार्त्तिकर इत्येकार्थौ ।
व्यञ्जक—- उद्दीपित करने वाला ।
व्यञ्जकं दीपक मित्यनर्थान्तरम् । व्यञ्जनाक्षर — अक्षरों की आकृति ।
व्यञ्जनाक्षरं द्रव्याक्षरमित्यनर्थान्तरम् । व्यत्यय --- व्यत्यय, विपर्यास |
व्यत्यये विपर्यासे उक्तमोल्लंघने । व्यवसायिन् - उद्यमी ।
व्यवसायी अनलस उद्योगवान् ।
व्यवहार - व्यवहार ।
व्यापन्न - विनष्ट ।
व्यापन्नं विपन्नं विनष्टम् ।
व्यावृत्त-निवृत्त ।
व्यवहारः अनुपदेशः अननुमार्गः इत्यनर्थान्तरम् ।
व्यावृत्तं निवृत्तमपगतम् ।
व्युत्सर्ग-- कायोत्सर्ग |
वैगुण्य - व्युत्सर्ग
व्युत्सर्ग: कायोत्सर्ग इत्यनर्थान्तरम् ।
१. देखें – परि० ३
( निचूभा ४ पृ २५० )
( दशजिचू पृ ३४४ )
1
: १३६
( बृकटी पृ ६४ )
( आवटि पृ ४४ )
( विभामहेटी १ पृ ८६ )
( व्यभा ३ टीप १३५ )
( व्यभा ४ / ३ टीप १८ )
( आचू पृ ३६६ )
( सूचू २ पृ ४०३ )
( प्रसाटी प २७५ )
(समटी प ४ )
( व्यभा १ टी प ३६ )
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१४० 33 शंकित — संकण
शंकित - शंकित |
शंकितमिति वा भिन्न मिति वा कलुषितमिति वा एकार्थम् ।
शांत-उपशांत |
शान्त: उपशान्तः प्रशान्तः अकषायवान् । शान्तो निशान्तः अक्रोधवान् ।
शापित - बुलाया हुआ ।
शापितः शब्दित आकारितः ।
शिक्षित - प्रशिक्षित ।
शिक्षितमित्यंतंनी तमधीतम् ।
शुभ वृद्धि - कल्याणवृद्धि |
शुभवृद्धि कल्याणोपचयं सुखवर्धनं वा ।
शृणोति-सुनता है, ग्रहण करता है ।
शृणोति गृह्णाति उपलभत इति पर्यायाः । कोधि-शोधि ।
शोधिरिति वा धर्म इति वा एकार्थः ।
श्लक्ष्ण - चिकना ।
श्लक्ष्णो मसृण : स्निग्धः ।
श्लोक- प्रशंसा ।
श्लोकं श्लाघां कीर्तिम् आत्मप्रशंसाम् ।
सअट्ट - हेतु सहित, सप्रयोजन ।
अट्ठ सहेउं सनिमित्तं ।
अट्ठ सहेउं सकारणं ।
संकण - शंका |
संकणं संका चिन्ता |
१. देखें- परि० ३
( व्यभा १० टी प ३३ )
( उचू पृ ६२) उच् पृ २८ )
( व्यभा ३ टीप ८३ )
( अनुद्वाहाटी पृ 2 )
(पंचा पृ १२१ )
( आवहाटी १ पृ८ )
( व्यभा १० टीप ६७ )
२. देखें- परि० २
( जंबूटी प २६८ )
( सूटी १ प २४६ )
( सू २ / १ / ११) ( निचूभा ४ पृ३८८)
( निपीचू पृ १५ )
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संकित-संघाड : १४१
संकित-शंकित । संकिते कंखिते विति गिच्छिते ।
(स्था ३/५२३) संकीर्ण-व्याप्त । संकीर्णं व्याप्तं सभिन्नम् ।
(विभामहेटी १ पृ ४६८) संख-निर्मल, श्वेत । संख-उज्जल-विमल-निम्मल-दहिघण-गोखीर-फेण-रयणियरप्पयासे ।
__ (ज्ञा० १/१/१५६) संखेव-संक्षेप।
संखेव समासो त्ति व, ओहो त्ति व होंति एगट्ठा। (जीतभा ६) संग-विध्न ।
संगो त्ति वा विग्यो त्ति वा वक्खोडो त्ति वा एगट्ठा । (सूचू १ पृ ८३) ___ संगो त्ति वा वग्यो त्ति वा वक्खोडि त्ति वा एगट्ठा। (आचू प ३) संग-बंधन ।
संगो त्ति वा बंधणं ति वा एगळं । (निचूभा ४ पृ १४३) संग-इन्द्रियों के विषय ।
संगो त्ति वा इंदियत्थो ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ ३४६) संगाम–संग्राम ।
संगामे जुद्धसद्देसु अब्भातलपलाइते । सन्नाहे जुद्धसंरागे ।
(अंवि पृ १४४) संघ-संघ। , संघ गणं कुलं गच्छं वा ।'
(आचू पृ ३३०) संघाड-प्रकार, भेद ।
संघाड त्ति वा लय त्ति वा पगारो त्ति वा एगळं । (बृकटी प ८११) १. देखें--परि० २
३. देखें-परि० २ २. देखें--परि० २
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१४२ : संघात-संजायते संघात-समागम ।
संघातः समिति समागम एते एगट्ठा। (अनुद्वाचू पृ ५६) संचालयंति-संचालित करते हैं।
संचालयन्ति-संचारयन्ति पर्यालोचयन्ति ।' (ज्ञाटी प २७) संजत--संयमी। संजते विमुत्ते निस्संगे निप्परिग्गहरुई निम्ममे निन्नेहबंधणे ।'
(प्र १०/११) संजम–संयम । संजमो विरती य एगट्ठा।
(दश्रुचू ६२) संजमो त्ति वा सामाइयं ति वा एगट्ठा। (आवचू १ पृ ३४६) संजमठाण-संयमस्थान ।
संजमठाणं ति वा अज्झवसायठाणं ति वा परिणामठाणं ति वा एगळं।
(निचूभा ४ पृ २८१) संजमतवड्डय-संयम-तप-वर्धक । संजमतवड्डए त्ति वा आउत्ते त्ति वा अविधिपरिहारि त्ति वा एगट्ठा ।
(आवचू १ पृ ३४८) संजमबहुल-संयमबहुल ।
संजमबहुले संवरबहुले संवुडबहुले समाहिबहुले। (प्र ८/११) संजय-संयत ।
संजय-विरय-पडिहय (पावकम्मे) पच्चक्खाय-पावकम्मे अकिरिए संवुडे एगंतपंडिए।'
(सू २/४/२५) संजायते होता है। संजायते संभवति संचिट्ठते ।
(अंवि पृ ८३) . १. देखें-परि० ३
३. देखें-परि० २ २. देखें--परि० २
४. देखें-परि० ३
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संठाण-संथुणण : १४३ संठाण-संस्थान, आकृति ।
_संठाणं ति वा आगिति त्ति वा एगट्ठा। (आवचू १ पृ ५५) संत-तथ्य । संते तच्चे तहिए अवितहे सन्भूए।
(ज्ञा १/१२/१९) संत-शांत ।
संते पसंते उवसंते पडिणिव्वुड़े छिण्णसोए निरुवलेवे। (जंबू २/६८) संते पसंते उवसंते परिनिव्वुडे अणासवे अममे अकिंचणे निरुवलेवे।
(ज्ञा १/५/३५) संत-श्रान्त, थका हुआ। संता तंता परितंता निविण्णा।
(ज्ञा १/९/४५) संत-सत्, अस्तित्व वोला । संतं त्ति वा अस्थि ति वा विज्जमाणं ति वा एगठ्ठा ।
(आवचू १ पृ १७) संतत--निरन्तर। सन्ततमनुबद्धं प्रारब्धम् ।
(प्रटी प १२५) संदाण-बंधन ।
संदाण निदाणं ति य पव्वो य होंति एगट्ठा। (दश्रुनि १३५)
संताणं ति वा निदाणं ति वा बंधो त्ति वा ॥ (दश्रुचू प ८६) संति-शांति ।
संति त्ति वा व्वाणं ति वा मोक्खो ति वा कम्मक्खयो ति वा एगळं।
(सूचू १ पृ १००) संति विरति उवसमं निव्वाणं ।
(आ ६/१०२) संथुगण-संस्तवन ।
संथुणण संथवो तू, थुणणा वंदणग मेगळं। (जीतभा १४२०) १. देखें-परि०२
४. देखें-परि० २ २. देखें-परि० २ ३ देखें--परि०२
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१४४ : संघयेत् - संरंभ
संधयेत् —संधान करे ।
संघयेत् अभिसन्दध्यात् प्रार्थयेत् । '
संधान - संसार ।
संधानं संधि संसारः ।
संधि-मैत्री |
संधी संपीइ सम्मोइ मित्ति णिव्वाणिमेव वा ।
संपण्ण - पंडित, प्रज्ञावान् ।
संपण्णा पंडिता पवियक्खणा तुल्लं ।
पेति त्ति संप्रेक्षते पर्यालोचयति ।
संबुद्ध-संबुद्ध ।
( दशअ प ४८ )
संपुण्णदोहला - जिसका दोहद पूर्ण हो गया हो वह स्त्री । संमाणियदोहला विणीयदोहला विच्छिण्णदोहला
संपुष्णदोहला संपण्णदोहला ।
( विपा १ / २ / ३० )
संपेहेति — देखता है ।
संबुद्धा पंडिया पवियक्खणा ।
समय - सम्मत |
संमत्त वा अणुमओ त्ति वा एगट्ठा ।
संयत-संयत ।
संयतः विरतः निवृत्तः ।
संयताः साधवः सुसमाहिताः ।
संरंभ - हिंसा |
संरंभे सरंमा आरंभे । "
१. देखें- परि० ३
२. देखें - परि० ३
३. देखें- परि० २
( सूटी १ प १८६ )
(दश्रुचू प ६१ ) :
४. देखें- परि० २ ५. देखें- परि० २
(अंवि पृ १२ )
( ज्ञाटी प ३७ ) -
(दश २ / ११)
( दश जिचू पृ २९३ )
( सूचू १ पृ ६१ ) (दशहाटी प २०२ )
( व्यभा १ / ४२ )
ह
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संवर-संवरण |
संवर घट्टण पिणं एगट्ठ ।
संवरित - स्थगित ।
"संवरिताः स्थगिता निवारिता ।
संविग्न - संविग्न साधु |
संविग्ना उद्यतविहारिणः आयतस्थिताः ।
संविचिण्ण-आसेवित ।
संविचिणेत्ति संविचरित आसेवितः ।
संविद् - ज्ञान ।
संविदधिगमो ज्ञानं भाव इत्यनर्थान्तरम् । संशय-संशय ।
संवित् ज्ञानमवगमो भावोऽभिप्राय इत्यनर्थान्तरम् ।
संस्कृत - संस्कारित ।
संशय: संदेहो वितर्कः ऊहा वीमंसेत्यनर्थान्तरम् ।
संस्कृतं तवा करणं ति वा एगट्ठा ।
संस्तव - परिचय |
'संस्तवपरिचयमभिष्वङ्गं ।
संहर्ष - समूह |
संहर्षः समुदाय: पिण्ड इत्यनर्थान्तरम् । सकर्मवीरय - प्रमाद में प्रयुक्त वीर्य ।
सकल – सम्पूर्ण |
सकर्मवीरियं ति वा बालवीरियं ति वा एगट्ठ |
सकल : परिपूर्णोऽच्छिन्नो ।
संवर — सक्क
सक्क— शक्य ।
सक्कति वा सहयत्ति वा एगट्ठा ।
( निभा २ पृ २७१)
१४५
( जीतभा ७०७ )
( व्यभा ६ टीप ६ )
( ज्ञाटी प १०६ )
( आमटी प 8 )
( सू २ पृ ४४३ )
( सूचू १ पृ ३५ )
(उच् पृ १०३ )
( सूटी १ प ६५ ).
( आवच १ पृ ५७५)
( सूच १ पृ १६८ )
( विभामटी २ पृ ८१)
( दशजिचू पू३२० )
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१४६ : सक्क—सण्णा
सक्क-इन्द्र।
सक्कं देविंदं देवरायं, मघवं पाकसासणं । सयक्कतु सहस्सक्खं, वज्जपाणि पुरंदरं ॥
दाहिणड्डलोगाहिवइं एरावणवाहणं सुरिदं ।' (प्र३/१०६) सक्कार-सत्कार।
सक्कारे इ वा, सम्माणे इ वा, किइकम्मे इ वा, अन्मुट्ठाणे इ वा, अंजलिपग्गहे इ वा, आसणाभिग्गहे इ वा, आसणाणुप्पदाणे इ वा ।'
(भ १४/३२) सक्त-आसक्त। सक्ता गृद्धा अध्युपपन्ना।
(सूटी १ ५ १५) सच्च-सत्य ।
सच्चं सब्भूयं अवितहं अविसंदिदं । (अनुद्वाचू पृ८६) सच्चं तहियं आहातहियं ।
(सू २/१/३५) सज्जइ-आसक्त होता है।
सज्जइ रज्जइ गिज्झइ मुज्झइ अज्झोववज्जइ ।' (ज्ञा १५/१४) सज्जिय-आसक्त ।
सज्जिय रज्जिय गिज्झिय मुज्झिय लुब्भिय । (प्र १०/१४) सडइ-सडता है। सडइ वा पडइ वा गलइ वा।
(निर १/५१) सडण-विध्वंसन । सडण-पडण-विद्धंसण ।
(ज्ञा १/१/१०७) सडण-पडण-विकिरण विद्धसणधम्म ।
(इभा २४/१) सण्णा-संज्ञा । सण्ण त्ति वा बुद्धि त्ति वा नाणं ति वा विण्णाणं त्ति वा एगट्ठा ।
(पृ. १२) १. देखें-परि० २
३. देखें-परि०३ । २. देखें-परि० २
४. देखें-परि० ३
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ज्य:।
सणिहि-सबल : १४७ सण्णिहि-संग्रह। सण्णिही इ वा सण्णिचया इ वा निही इ वा निहाणा इ वा ।'
(भ ३/२६८) सद्दहइ-श्रद्धा करता है। ___ सद्दहइ पत्तियइ रोएइ।'
(भ ६/२३५) सदूल-सिंह। सदूल सीह चिल्लला ।'
(प्र १/६) सन्त्राण-रक्षण ।
सन्त्राणं-परित्राणं रक्षणमित्येकोऽर्थः । (बृकटी पृ ५८१) सन्धि-छिद्र। सन्धिं छिद्रं विवरं ।
(सूटी १ प २६) सन्नतपास-सुन्दर पार्श्व वाला।
सन्नतपासा संगतपासा सुंदरपासा सुजातपासा । (प्र ४/८) सन्नद्ध-सन्नद्ध। सन्नद्ध बद्ध कवचिय।
(ज्ञाटी प २२८) सप्पज्जाय-अस्तित्वयुक्त । सपज्जाय त्ति वा अस्थिभावो त्ति वा विज्जमाणभावो त्ति वा एगट्ठा ।
(आवचू १ पृ २६) सप्पभ-प्रभा सहित । सप्पभा समिरीया सउज्जोया।
(जंबू १/८) सप्पभे समीरिईए सउज्जोवे ।
(आवचू १ पृ ४७६) सबेल--चितकबरा।
सबलो ति वा चित्तलो त्ति वा एगळं। (आवचू १ पृ १३८) १. देर ----परि० २ २. देखें-परि० ३ ३. देखें--परि० २
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१४८ : समण - समाणधम्मिय
समण - शमन ।
समणं संति परिहरणा दुगंछा वा एगट्ठा ।
( आचू पु ४० )
समणेति वा, माहणे ति वा, खते ति वा, दंते ति वा, गुत्ते त्ति वा, मुत्तेति वा, इसी ति वा, मुणी ति वा, कती ति वा, विदूति वा, भिक्खुति वा, लूहेति वा, तीरट्ठी ति वा, चरणकरण - पारविउ । ( सू २/१/७२)
समण -- श्रमण ।
पव्वइए अणगारे, पासंडी चरक तावसे भिक्खु । परिवायए य समणे, णिग्गंथे संजए मुत्ते ॥ तिणे या दविए, मुणी य खंते य दंत विरए य । लूहे तीरट्ठी वि हवंति समणस्स णामाई || समण समाहिय समत्त समजोगि ।
"
( दशनि ६५-६६) (जंबू ५ / ५८ )
समणं संजयं दंतं सुमणं ।
( ओनिभा ११० )
समत्ति वा माहणेत्ति वा मुणित्ति वा एगट्ठ । ' ( आचू पृ ९३ )
समय - संकेत |
समयः आगम: संकेतो वा ।
समर - युद्ध ।
समर-संग्राम-डमर -कलि कलह ।'
समवयन्ति - सम्मिलित होते हैं ।
समवयन्ति वा समवतरन्ति सम्मिलन्ति । "
समागम - समागम ।
समाणधम्मिय—साधर्मिक |
समागमं वा सम्मोई वा संपीति वा मित्तसंगमं वा वीवाहं वा ।
१. देखें - परि० २
२. देखें- परि० २
( सूटी १ प २०३ )
( प्रश्न ३ / १ )
( समटी प १ )
समाणधम्मियाः साहम्मिया स्वप्रवचनं प्रतिपन्न: । ( निपीचू पृ ११७ )
३. देखें- परि० ३
( अंवि पृ १४५ )
जन
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समास-ससंभम .. १४६
समास-संक्षेप । समासो संखेवो पिंडार्थः।
(निपीचू पृ १०१) समित–उपशांत । समितं ति वा सेवितं ति वा एगट्ठा ।
(आचू पृ १०१) समुस्सय–ढेर।
समुस्सयो त्ति वा रासि त्ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ २१९) समूह–समूह।
समूहो वर्ग: राशिः इति पर्यायाः । (विभामहेटी पृ २७८) समूहः समुदायो मीलनक इति । (विभामहेटी पृ ३६३) समूहः संघात इत्यनर्थान्तरम् ।
(सूचू २ पृ ४५०) सयय--सतत ।
सययं ति वा सव्वकालं ति वा एगट्ठा। (दशजिचू पृ ३२४)
सययं ति वा अणुबद्धं ति वा एगट्ठा । (दशजिचू पृ ३२३) सरभ-शरभ । सरभा परासरेति पर्यायाः।
(प्रटी प ६) सर्व-सम्पूर्ण। सर्व संपूर्णमखण्डं निरवशेषं कृत्स्नमिति पर्यायाः ।
(विभाकोटी पृ ६५६) सर्वर्जु-संयम। सर्व : संयमः सद्धर्मों वा।
(सूटी १ प ३५०) सव्व-सम्पूर्ण । • सव्वं कसिणं पडिपुण्णं निरवसेसं ।
(अनुद्वा ५५७) सव्वओ-सब ओर से। सव्वओ समंत त्ति एकाथौं ।
(भटी पृ ७८) ससंभम-शीघ्रता। ससंभमं तुरियं चवलं ।
(राजटी पृ ४६)
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१५० , सहइ-सामायिक
सहइ-सहन करता है। सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ ।'
(अंत ६/५) सागय स्वागत । सागयं सुसागयं कथञ्चिदेकाौँ ।
(भटी प ११६) सागारिक-जननेन्द्रिय । सागारिक मेहनं लिङ्गम् ।।
(आवटि प २५) सागारिय-शय्यातर ।
सागारियस्स णामा, एगट्ठा णाणावंजणा पंच । सागारिय सेज्जायर, (सेज्जा) दाता य (सेज्जा) धरे (सेज्जा) तरे वावि ।।
(निभा ११४०) सात-सुख ।
सातं ति वा सुहं ति वा अभयं ति वा परिणिव्वाणं ति वा एगट्ठा । सातं ति वा सुहं ति वा परिणिट्ठाणं ति वा अभयं ति वा एगट्ठा ।
(आचू पृ ३१) सातं सुखं रतिरित्येकोऽर्थः।
(बृकटी पृ ६६७) साधु-साधु। साधु त्ति वा संजतो त्ति वा भिक्खु ति वा एगळं ।
(दशजिचू पृ २६३). साधुः निसंगो मुनिः।
(विभाकोटी पृ ६१३) साध्यते-निष्पन्न किया जाता है। ___ साध्यते निष्पाद्यते ज्ञाप्यते ।
(दशहाटी प ३४) सामायिक–सामायिक ।
समया सम्मत्त पसत्थ संति सुविहिअ सुहं अनिदं (अनिई ? ) च ।
अदुगुंछियमगरिहियं अणवज्जमिमेऽवि एगट्ठा। (आवनि १०३३) १. देखें-परि० ३
४. देखें-परि० २ । २. देखें-परि० २ ३. देखें-परि० ३
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सायण-ध्वंस |
सायण धंसो विणासो त्ति एगट्ठा ।
सारक्खमाण-रक्षा करता हुआ ।
सारक्खेमाणे संगोवेमाणे अणुपालेमाणे अणुकंपमाणे ।
साला - शाखा ।
सालत्ति वा साह त्ति वा एगट्ठा । साहरण - बाहर निकालना ।
साहरणं उक्करणं, विरेयणं चैव एगट्ठ | साहसिक - शीघ्र कार्य करने वाला ।
साहा— शाखा ।
साहसिको मेहावी लहुको सद्धो त्ति मुक्कहत्थोति । चंडो सूरो दच्छो त्ति |
साहा साहुली वृक्षसाला ।
सिंगबेर - अदरख ।
सिंगबेरं सुंठी अल्लगं वा ।
सिक्ख - शैक्ष |
सिक्ख त्ति वा सेहो ति वा सीसोत्ति वा ।
सिक्खिय - शिक्षित ।
सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं ।
सिखंड-सिर ।
सिखंडो मत्थको सीसं तधा सीमंतको ।
सायण सिग्ध
सिग्ध - शीघ्र ।
सिग्धं तुरियं चवलं चंडं वेइयं । सिग्धं तुरियं जइणं ।
१. देखें - परि० २
:
१५१
( जीतभा ८६३)
( आवचू १ पृ ५१३ )
( दश जि प ३०८ )
( जीतभा १५५७ )
( अंवि पृ २४१ )
( निपीच पृ ८५ )
( आचू पृ ३४० )
२. देखें - परि० २
( सूचू १२२७ )
( अनुद्वा ३४ )
(अंवि पृ ५६ )
(भ ११ / १३९ ) ( जंबू ५ / २८ )
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१५२ : सिज्झइ -- सिद्धउपपत्ति
सिज्झइ - मुक्त होता है ।
सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाइ सव्वदुक्खाणमंत करेइ । '
सिणाण - स्नान ।
सिणाणं ति वा पहाणं ति वा एगट्ठा ।
सिणाण मज्जणा दो वि एगट्ठा ।
सिह— ओस ।
सिन्ह त्ति वा ओसत्ति वा एगट्ठ ।
सिद्ध-सिद्ध |
सिद्धतिय बुद्धत्तिय, पारगयत्ति य परंपरगयति । उम्मुक्क - कम्म कवया, अजरा अमरा असंगा य ॥ विच्छिण्णसव्वदुक्खा, जाइजरामरणबंधणविमुक्का । सिद्धे बुद्धमुत्ते अंतकडे परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे ।
सिद्ध - प्रसिद्ध |
सिद्ध प्रख्यातं प्रथितं ।
सिद्धउपपत्ति - सिद्धि, अपुनर्जन्म |
सिद्धः प्राप्तनिष्ठ इत्यनर्थान्तरम् । सिद्धो मुत्तोत्ति तिष्णो त्ति, णीरयो णिव्वुतो त्तिय । असंगो केवली बुद्धो, असरीरकधासु य ॥
कम्मो णिप्पयोगो त्ति ।
१. देखें - परि० ३
२. देखें- परि० २
( दशजिचू पृ २३१)
( निभा ३ पृ ३७८ )
(भ १/४४ )
( निपीचू पृ ६८ )
( औप १६५ )
(जंबू २ / ८८ )
( आवचू १ पृ ५३६ )
सिद्धउपपत्ति मोक्खो अपुणब्भवो संसारविप्पमोक्खो असंसारोपपत्ती ।
(अंवि पृ २६४ )
( अंवि पृ २६६ )
( निपीचू पृ १९ )
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सिद्धत्य - सिद्धार्थ (महावीर के पिता का नाम ) ।
सिद्धत्थे सेज्जसे जससे ।
सिद्धत्थ - जिसका प्रयोजन सिद्ध हो गया ।
सिद्धिगत-सिद्धि को प्राप्त ।
सिद्धिगते णिव्यगते अयोगगते परिसुद्धगते ।
सिद्धिमग्ग - सिद्धि का मार्ग ।
सिद्धत्यो सुभगोत्तिय । धण्णो य सुहभागी य सुद्धभावी य ।
सीईभूय - प्रशान्त ।
सीत - शीतल, ठंडा ।
सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निज्जाणमग्गे निव्वाणमग्गे सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे । ( ज्ञा १ / २ / ११२ )
सीतं हिमं ति सीतलं ति ।
सीमा -- मर्यादा ।
सीईओ परिनिव्वुओ य संतो तहेव पण्हाणो ( ल्हाओ ) ।
सीमा मेरा मर्यादा इत्यनर्थान्तरम् ।
सीलमंत - शीलवान् ।
सिद्धत्य — सुकड :
सीलमंता वयमंता गुणमंता ।"
सुकड - सुकृत ।
तिण्णगते अरुजगते अकम्मगते मुक्कगते (अंवि पृ २६८ )
१. देखें- परि० २
( आचूला १५ / १७ )
सुकडे ति वा सुट्ठकडे ति वा साहुकडे ति वा ।
१५३
(अंवि पृ १०३ )
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( आनि २०६ )
( अंवि पृ २४४ )
( आवचू २ पृ २५६ )
( आचूला २ / ३८ )
( आचूला ४ / २१ )
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१५४ . सुक्क — सुविवेग
सुक्क - शुष्क, मांस रहित ।
सुक्के लक्खे निम्मंसे किडकिडियाभूए अट्ठिचम्मावणद्धे धमणिसंतए ।
( ज्ञा १ / २ / २०२ )
(अंवि पृ २५० )
सुक्कल - शुक्ल, सफेद ।
सुक्किले सप्पभेसु ओवातेसु ।
सुत्त - श्रुत, सूत्र ।
सुय सुत्त गंथ सिद्धंत सासण आणवयण उवएसे । पण्णवण आगमे य, एगट्ठा पज्जवा सुत्ते ॥ सुत्तं तंतं गंथो पाढो सत्थं च एगट्ठा ।
'
सुत्तं ति वा पवयणं ति वा एगट्ठा सुद्ध - शुभ्र, विमल 1
सुद्धं ति पंडरं ति य, विमलं उज्जोतितं पभा वति । दिवसोत्ति णीरयो त्ति य पडिरूवं ।'
सुबुद्धिक-बुद्धिमान् ।
सुभ-शुभ ।
सुबुद्धिको त्ति वा बूया, सुबुद्धिमंतो त्ति वा पुणो । तधा पसण्णबुद्धि त्ति, कितबुद्धित्ति वा पुणो ।। (अंवि पृ १२२)
( आचूला १५ / २८ )
सुभं चारु कंतं ।
सुभासिय - सुभाषित |
सुभासियं सुव्वयं सुकहियं सुदिकं ।
सुरा - मद्य विशेष ।
सुरं वा मेरगं वा वि मज्जगं रसं । *
सुविवेग – सु- प्रव्रज्या ।
( अनुद्वा ५१ ) ( आवनि १३० )
( आवचू १ पृ ६२ )
१. देखें - परि० २
२. देखें- परि० २
( अंवि पृ २४३ )
सुविवेगो त्ति वा सुणिक्खंत त्ति वा सुपव्वज्ज ति वा एगट्ठ ।
३. देखें – परि० २
४. देखें- परि० २
( प्र ७ / १)
( दश ५ / २ / ३६ )
( सूचू १ पृ ६८ )
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सुसंहत-सोम : १५५ सुसंहत-सघन । सुसंहता सुश्लिष्टा निर्विचाला ।
(जंबूटी प ११४) सुसील-सुशील । सुसीला सुव्वया सग्गुणा समेरा।
(स्था ३/१३६) सूर-शूर । सूरे वीरे विक्कते।
(ज्ञा १/१/२६) सूरे ति वा वीरे ति वा सत्तिए त्ति वा एगट्ठा । (आच पृ ८३) सूरलेस्सा -आतप।
सूरलेस्सा इ वा आतवे इ य एगठे ।। (सूर्य १६/४) सेज्जा-बैठने तथा सोने में काम आने वाले आसन ।
सेज्जा खट्टा भिसी व त्ति, आसंदी पेढिक त्ति वा ।
महिसाहा सिला व त्ति, फलकी इट्टक त्ति वा ॥ (अंवि पृ ७२) सेत-श्वेत, शुभ्र ।
सेतं ति पंडरं व त्ति, विमलं णिम्मलं ति वा। सुद्धं ति वाति विसुद्धं ति, तधा वितिमिरं ति वा ॥ सप्पभं सुचिमं ।
(अंवि पृ ६०) सेसवती-शेषवती, (महावीर की दौहित्री)। सेसवती ति वा जसवती ति वा।
(आचूला ५/२४) सोऊण-सुनकर ।
सोऊण वा सोच्चाण वा एगट्ठा । (दशजिचू पृ ३२४) सोभंत-शोभित । ' सोभंत-रुइल-रमणिज्जं ।
(जीव ३/५६७) सोम-सौम्य । सोमे सुभगे पियदसणे सुरूवे ।
(ज्ञा १/५/३) १. देखें-परि०२
३. देखें-परि० २ २. देखें-परि० २
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१५६ : सोह-हंतव्व
सोह - शोधि ( शुद्धि) |
सोहत्ति व धम्मो त्ति व एगट्ठ ।
सौकरिक - कसाई |
सौकरिकाः श्वपचाश्चाण्डालाः खट्टिकाः ।
स्थान- प्रवृत्ति ।
स्थानं वृत्तं कर्मेत्यनर्थान्तरम् ।
स्थान – स्वाध्याय भूमि ।
स्थानमिति वा नैषेधिकीति वा एगट्ठ ।
स्थान- कारण ।
स्थानं कारणमित्ये कोऽर्थः ।
स्थापना- -आकार ।
स्थापना आकारी मूर्तिरिति पर्यायाः ।
स्पर्शना-प्राप्ति |
स्पर्शना प्राप्तिरवगाहो लंभ |
स्पृष्ट - व्याप्त ।
स्पृष्ट: व्याप्तः पूर्ण इत्यनर्थान्तरम् ।
स्वर्— स्वर्ग ।
स्थिति-अवस्थिति ।
स्थतिरायुः कर्मानुभूतिर्जीवनमिति पर्यायाः ।
हंतव्व - हनन करने योग्य ।
( व्यभा १० टी प ६७ )
१. देखें-- परि० २
२. देखें - परि० २
( सूटी २ प ६३)
( सूचू २ पृ ४४३ )
स्वः स्वर्गः सुरसद्म त्रिदशावासः त्रिविष्टपं त्रिदिवमित्याद्येकाथिकनाम । '
( विभामहेटी पृ ५०७ )
( व्यभा ३ टीप ५४ )
( बृकटी पृ १४२५ )
( बृकटी पृ २६० )
( आवचू १ पृ ४८६)
( आमटी प ३५ )
हंतव्वा अज्जावेयव्वा परिघेतव्वा परियावेयव्वा उद्दवेयव्वा । '
( प्रज्ञाटी प १६६ )
( आ ४ / २० )
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हंता-हयतेय : १५७ हंता-हनन करके।
हंता छेत्ता भेत्ता लुंपित्ता विलुपित्ता उद्दवित्ता।' (आ २/१४) हक्कार-हाहाकार। हक्कार रुदित कंदित ।
(अवि पृ २५३) हट्ट-नीरोग ।
हट्ठो णिरोगो णिव्वाधितो समत्थो । (निचूभा २ पृ. ३१५) हट्ठा अरोगा बलिया कल्लसरीरा। .
(स्था ४/४५१) हट्ठचित्त-प्रसन्न।
हट्ट (चित्त) तुटुचित्तमाणंदिए णंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए।'
(भ २/४३) हत्थखड्डुग-हाथ का आभूषण (अंगूठी)।
हत्थस्स खड्डुगं व ति, अणंतं खड्डुगं ति वा। (अंवि पृ ६५) हत्थभंडक-हाथ का आभूषण (कंकण)।
___ हत्थस्स भंडको व ति, कंकणं वेढको त्ति वा। (अवि पृ ६५) हत्थिक-हाथ का आभूषण ।
अधवा हत्थिको व ति, तधा चक्ककमिहुणगं ।
तधेवज्झंककं व ति, कडगं खडुगं ति वा ।' (अंवि पृ ६४) हत्या हनन । हत्या हननमुद्धारम् ।
(विपाटी प ७५) हय-हत। हय महिय घाइय विवडिय ।'
(ज्ञा १६/२५३) हयतेय-जिसका तेज नष्ट हो गया है ।
___हयतेए गयतेए नट्ठतेए भट्ठतेए लुत्ततेए विणट्ठतेए। (भ १५/११६) १. देखें-परि० २
४. देखें-परि० २ २. देखें-परि० २
५. देखें-परि० २ ३. देखें-परि० २
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१५८ : हरंति-हिय हरंति हरण करते हैं।
हरंति वा विभयंति वा णूमेंति वा एगळं ।' (सूचू १ पृ १७६) हर्ष-हर्ष । हर्षः प्रमोदोऽनुरागः।
(ज्ञाटी प १३८) हसंति-हंसते हैं। हसंति रमंति ललंति ।।
(भ ६/१३५) हसित-मुदित । हसितप्पहिछे मुदिते।
(अंवि पृ २५१) हायपति–तिरस्कृत करता है।
हापयति परिभवति विलुपति ।' (व्यभा २ टी प २५) हार-हरण ।
हारं हरणं हित्यते इति वा एकार्थम् । (व्यभा १/४ टी प ५) हाहाभूय-हाहाकार। हाहाभूए भभन्भूए कोलाहलभूए ।
(भ ७/११७) हाहाभूए भंभाभूए कोलाहलभूए ।
(जंबू २/१३१) हिटिमनिकृष्ट । हिट्ठिमो निकृष्टो जघन्यः ।
(उचू पृ २४७) हिमानि-हिम समूह ।
हिमानि वा, हिमपुज्जानि वा, हिमपटलानि वा, हिमकूटानि वा, एतान्येव पदानि नानादेशविनेयानुग्रहाय पर्यायाचष्टे ।
(जीवटी प १२४) हिय-हित ।
हियं सुहं खमं णिस्सेयसं (नीसेसं) आणुगामियं ।' (आ ८/६१) १. देखें-परि० ३
४. देखें-परि० ३ २. देखें-परि० ३
५. देखें--परि० २ ३. देखें—परि०३
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हियकामग-हेउगोवएस : १५६ हियकामग-हितेच्छ ।
हियकामगस्स सुहकामगस्स पत्थकामगस्स आणुकंपियस्स निस्सेसियस्स।
(भ १५/६३) हीणस्सर-निंद्यस्वर।
हीणस्सरा दीणस्सरा अणिटुस्सरा अकंतस्सरा अप्पियस्सरा
अमणुण्णस्सरा अमणामस्सरा अणादेज्जवयणा । (जंबूटी प १६५) होलणा-अवहेलना । हीलणाओ निंदणाओ खिसणाओ तज्जणाओ ताडणाओ गरहणाओ।'
(राज ७७६) होलिज्जमाणी-तिरस्कृत होती हुई।
हीलिज्जमाणी खिसिज्जमाणी निदिज्जमाणी गरहिज्जमाणी तज्जिज्जमाणी पव्वहिज्जमाणी धिक्कारिज्जमाणी थुक्कारिज्जमाणी।'
_ (ज्ञा १/१६/२९) होलेति-निंदा करता है। हीलेति निदेति खिसति गरिहति परिभवति अवमण्णति ।'
(सू २/२/११) हुतासिणा सिहा-अग्निशिखा ।
हुतासिणा सिहा व ति, तधा अग्गिसिह ति वा । तधा दीवसिहा व त्ति, ओदीवसिह त्ति वा ॥ दीविगाय सिहा व ति, चिडिलीय सिहि त्ति वा । एते उत्ता समा सद्दा।
(अवि पृ ६१-६२) हेउगोवएस--संज्ञा का एक प्रकार । - हेउगोवएसो ति वा कारणोवएसो ति वा पगरणोवएसो त्ति वा एगट्ठा ।"
(आवचू १ पृ ३१) १. देखें--परि०२ २. देखें--परि०२ ३. देखें--परि० ३ ४. देखें-परि० २
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१६० : हेतु
हेतु — हेतु ।
हेतुः कारणं निमित्तमित्यनर्थान्तरम् । हेतू कारण उवाओ ।
हो - लज्जा ।
ह्री लज्जा संयम इत्यनर्थान्तरम् ।
( नंदीचू पृ ४७ )
( आवचू १ पृ ५५७ )
(सुचू १२२१)
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परिशिष्ट
१. शब्द- अनुक्रम २. विशेष शब्द विवरण
३. धातु-अनुक्रम
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परिशिष्ट १
___शब्द-अनुक्रम (प्रस्तुत परिशिष्ट के अन्तर्गत जिन शब्दों के आगे कोष्टक में पृष्ठ संख्या अथवा शब्द दिए गए हैं, वे एकार्थवाची शब्दों के प्रारंभिक शब्द के द्योतक हैं।) अइवल (१) अंताहार
(पृ १) अइब्बल (ओहबल) अंतिक
(पृ २) अइभय (बीहणय) अंदोलति
(पृ २) अंकण (वध) अंधकार
(छाया) अंकुटिक (नागदन्तक) अंधकार
(नील) अंग (पृ १) अंधकार
(तमस्) अंग (आयार) अंधकार
(तमुक्काय) अंगजक (गंडूपक) अंबर
(आगासत्थिकाय) अंगणा
(पत्ति) अंबरस (आगासत्थिकाय) अंगुलेयक (पृ १) अंश
(कला) अङ्गज (अत्तय) अंश
(विकल्प) अंचेति (१) अंश
(भेद) अंजलिपग्गह (सक्कार)
(पृ २) अंत (तीरित) अकंटय
(ओहयकंटय) अंतनीत (शिक्षित) अकंत
(अणिट्ठ) अंतगड (सिद्ध) अकंत
(दुक्ख) अंतजीवि (अंताहार) अकंतस्सर
(होणस्सर) अंतर (पृ १) अकंप
(धुवक) अकतत्थ
(दीण) अंतर
अकथ्य
(गरहित) अंतरप्प
(पृ १) अकम्म
(सिद्ध) अंतरप्प (जीवत्थिकाय) अकम्मगत
(सिद्धिगत) अंतलिक्ख (आगासत्थिकाय) अकम्मवीरिय
(पृ २)
अंस
अंतर
(छिद्द) (छिड्ड)
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१६२ । परिशिष्ट
अकयस्थ-अग्ग
(पृ ३)
अकिट्ठ
अकयस्थ (अधन्न) अक्खोडभंग
(खोडभंग) बकयलक्खप (अधन) अक्खोला
(लोमसिका) अकरणा (दुगुंछणा) अक्रिया
(पृ २) अकरणाए बन्मुट्टिज्जइ(आलोइज्जइ)
अक्रोधवद्
(शान्त) वकरणीय (मिच्छा) अक्षताचार
(पृ ३) बकलुस
(अदीण) अखंड अकलुस (अणासव) अखंड
(पृ३) अकषायवद् (शान्त) अखण्ड
(सर्व) अकसाइ (अणाइल) अखमा
(कोह) अकिंचण (अणासव) अखमा
(मोहणिज्जकम्म) अकिंचण (संत) अखिल
(अचल) अकिच्च (पाणवह) अग
(दुम) (२) अगणि
(अग्गि) अकिरिय (संजय) अगणिझामिय
(पृ३) अकुक्कुच
(अचवल) अगणिभूसिय (अगणिझामिय) अकुटिल
(ऋजु) अगणिपरिणामिय (अगणिझामिय) अकुटिलत्तण (उज्जुगत्तण) अगम (बागासस्थिकाय) अकुडिल (पृ २)
(पादव) अकुडिल (उज्जुय) अगरिहिय
(सामायिक) अकुसल (पृ २) अभिणी
(नववधू) अक्कोस (पृ २) अगीतार्थ
(अल्पश्रुत) अक्कोसति (आहणइ) अगुणकित्तण
(परिवयण) अक्कोसेज्ज (पृ २) अगुत्ति
(परिग्गह) अक्कोह (पृ३) अगृद्ध
(पृ ३) अक्ख (दुमपुफिया) अगृहीतव्य
(पृ३) अक्षण (आलोयण) अगेहि
(लाघविय) अक्खय (धुव) अगेहि
(असंजण) अक्खयायार ( ३)
(पृ ३) अक्खर (चेयण्ण) अग्ग
(पृ ३) अक्खुभिय
(अभीय) अग्ग अक्खेव (अदिण्णादाण) अग्ग
(चला)
अगम
अगोय
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अगि-अद्विकसंकम
परिक्षित : १६३ अग्गि (पृ ४) अच्छिद्द
(अणासव) अग्गिकुंड (अग्घुप्पत्ति) अच्छिन्न
(सकल) अग्गिट्ठ (अग्घुप्पत्ति) अछलणा
(दया) अग्गिसिहा (हुतासिणा सिहा) अजर
(सिद्ध) अग्गिहोत्त (बंभण) अजरामर
(अचल) अग्गिहोत्तरति
(बंभण) अजीवाभिगम (जीवाभिगम) अग्धातित
(४) अजोग
(अणल) अग्घुप्पत्ति (४) अज्जावेयव्व
(हंतव्व) अग्र
(पृ ४) अज्जीवाइवात (अहिंसा) अग्रेसरत्व (पोरेवच्च) अज्झत्थिय
(पृ ४) अचंचल
(असाहस) अज्झयण
(पृ ५) अचंचलसील (अबालसील)
अज्झयणछक्कवग्न (आवस्सय) अचपल
( ४) अज्झवसाण
(पणिहाण) अचल
(पृ ४) अज्झवसाण
(मणसंकप्प) अचलित
(धुवक) अज्झवसायठाण (संजमठाण) अचलिय (अभीय) अज्झीण
(अज्झयण) (अणुविग्ग) अज्झीत
(उवचार) अचवल अचवल (अतुरिय) अज्झोववज्जइ
(सज्जइ) अचवल (असाहस) अज्झोववण्ण
(पृ ५) अचिंतण (असरण) अझोववण्ण
(लोलुय) अचियत्त
(पृ ४) अज्झोववण्ण
(मुच्छिय) अचोक्ख (असुइ) अज्झोस
(पृ ५) अच्चण (थुइ) अज्ञ
(बाल) अच्चलीण (अणुपविट्ठ) अज्ञानावृत
(मन्द) अच्चि
(मुम्मुर) अच्चि
अट्ट
(अलिय) अच्चित (वंदित) अट्ट
(मागासस्थिकाय) अच्चिय (पृ ४) अट्यते
(अद्य ते) अच्छ (पृ ४) अट्टिक
(णिम्मंसक) अच्छ
(तरच्छ) अट्ठिकलेवर (णिम्मंसक) अच्छ
(मंदर) अट्ठिकसंकल (जिम्मंसक)
अट्ट
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१६४ :
अचम्माणद्ध
अडवी
अड्ढ
अड्ढग
परिशिष्ट १
अण
अनंत
अनंत
अनंत
अनंत
अनंत
अणंत
अनंत
ria एसियखंध
अतरहित
अनंतराय
अतरिय
अणण्ण
अणत्त
अणत्थ
अणत्थ
अणत्थक
अण पज्झ
1
अणकर
अणगार
अणगार
अणगार
अणज्ज
अणज्ज
अणज्ज
अणज्जव
अणतावित्ता
(सुक्क )
( गहण )
(पृ. ५)
(गडिक)
( पृ ५)
( पृ ५)
( अणुत्तर)
(विच्छिन्न)
(हत्थखड्डुग )
( निव्वाण )
(आगास त्थिकाय ) (केवल )
( पोग्गल त्थिकाय )
( अनंतरिय )
( पृ ५)
( पृ ५)
( पाणवह)
( उज्जु)
( समण )
( भिक्खु)
(पाव)
( अकुसल ) (अलिय )
( उवधि ) (अविविचित्ता)
( पृ ५)
( भग्ग )
(भय)
( परिग्गह)
( परिग्गह)
( पृ ५)
अचिम्मावद्ध- अणिदुस्सर
( इट्ठत्ता)
( पृ ५)
( अग्गि)
अणभिज्भियत्ता
अणल
अणल
अलि
अणवज्ज
अणाइल
अणाइल
अणाइलभाव
अणाउय
अणाउल
अणाढायमाण
अणादेज्जवयण
अणाध
अणाबाहपय
अणाम
अणायतण
अणायरण
अणारिय
अणारिय
अणावरण
अणावुट्ठि
अणासव
अणासव
अणासव
अणाह
अणिग्गयभाव
अणिग्गह
afore
अणिट्ठ
अणि
अणिस्सर
( दीव)
( सामायिक )
( पृ ६ )
( अदीण )
( पृ ६)
( पृ ६ ) (अभीय)
( असरण ) (हीणस्सर )
( भग्ग )
( णिव्वाण )
( पृ ६)
( पृ ६) (मोहणिज्जकम्म)
( पच्चं तिक)
(पाव)
( पृ ६ )
( अपातय )
( पृ ६ )
(संत)
( अहिंसा)
( अत्ताण )
( अणाइलभाव )
( अबंभ )
(उच्चच्छंद)
( पृ ६ ) (दुक्ख)
(हीणस्सर )
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अणितिय अतिक्रिमण
परिशिट १
१६५
: (विहि)
(सयय) (असाहस)
(णियत) : (संमय)
(थेज्ज) (पृ ७)
(८)
. (अभीय)
(८) (८) (पृ ८)
अणितिय
(भेउरधम्म) अणुपुवि अणियत
(उच्चच्छंद) अणुबद्ध अणिवारियवावार (केवल) अणुब्भड अणि ते
(दीण) अणुभूत अणिह ।
(अकुडिल) अणुमयः अणिहुयपरिणामदुप्पयोगि (पाव) अणुमय अणु .
(पृ ६) अणुमात्र अणु
(कस) अणुवसंत अणुओम :
. (पृ ७) अणुव्विग्ग अणुकः
(कस) अणुव्विग्ग अणुक
(खुड्डुलक) अणुसंचरह अणुकंपण
(पृ. ७) अणुसट्टि अणुकंपमाण (सारक्खेमाण) अणुसमय अणुकंपा ... (अणुकंपण) । अणेग अणुक्कम. .. (आणंतरिय) अणेगणामभेद अणुजोगगत
(दिट्टिवाय) अणेगपज्जाय अणुज्जग
(अलिय) अणेगपडिरय अणुज्जल
(असाहस)
अणेह अणुज्जुय
(वंक) .अणोज्जा • अणुण्णा
(७) अण्ण
(अणुत्तर) अण्णाण अणुत्तर
(पृ ७) अण्णाय अणुत्तर
(पृ ७)
अण्णसणा अणुत्तर
.. (अणंत) अण्हयकर अणुत्तर
(निव्वाण) अण्हयकर : अणुत्तर
' (खेम) अण्हेते अणुपरिवाडि (आणंतरिय) अतत्थ अणुपविट्ठ
(७) अतथाभूय अणुपविट्ठ
(अतिगत) अतलपलाइत अणुपालेइ
(फासेइ) अतिकाय - अणुपालेमाण (सारखेमाण) अतिकिमण
अणुत्तम
(अणेगपडिरय) (अणेगपडिरय)
(पृ ८) (णिण्णेहक)
( ८) (पृ ८) (अवद्य)
( ८) (एसणा)
(८) .(पावय) (जेमेति) (अभीय)
(गट्ठ) ' (संगाम)
(अलस)
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१६६
अतिक्कंत
अतिगत
अतिगत
अतिगत
अतिच्छिय
अतिथोव
अतिदिग्ध
अतिदूर
अतिदूर
अतिपण्डर
अतिप्रभूत
अतिभय
:
अतिम्महंत
अतियार
अतिरेकित
अतिवत्त
परिशिष्ट १
अतिवाहयन्ति
अतिविसुद्ध
अतिस
अतिसरित
अतीत
अतीत
अतुरिय
अत्त
अत्तकम्म
अत्तय
अत्तव
अत्ताण
अत्तुको
अतुक्कोस
अत्थ
( अतिवत्त)
( पृ ८)
( अणुपविट्ठ)
( पविट्ठ)
( अतिवत्त)
(रहस्स)
( अतिदूर)
( पृ 8 )
( अतिगत )
(अवदात )
( पsिहत्य)
(पाव)
( अतिदूर)
(पृ 2)
( पsिहत्य)
( पृ ह)
( विनयन्ति )
(सेत) ( अरति)
( पविट्ठ)
( अतिवत्त)
( विगत)
(पृ 2)
( पृ )
(आहाकम्म)
( पृ )
( पृ )
( पृ 8 )
( माण)
( मोह णिज्जकम्म)
( पृ )
अस्थ
अत्थ
अस्थ
अत्थयति
अत्थरक
अत्थाम
अत्थि
अस्थि
अस्थिभाव
अदत्त
अदर्शन
अदिट्ठ
(सपज्जाय)
(अदिण्णादाण )
( छन्न)
(अण्णाय)
अदिण्णादाण
( पृ १० )
( अधम्मत्थिकाय )
अदिण्णादाण अदिण्णादाणवेरमण ( धम्मत्थिकाय )
( पृ १० )
( सामायिक)
अदीण
अदुगंछिय
अतिक्कंत-अधम्मत्थिकाक
( बवहार)
( पवयण)
(मंबर)
( पृ १० )
(डिप्फर)
अदृष्ट
अद्दी माणस
अद्धकविट्ठग
अदा
अद्धा
अद्धा
अद्धितिकरण
अधण
अधण्ण
अधन्न
अधम
अधम्म
अधम्म
raafrate
( पृ १० )
( पृ १० )
(संत)
( अपूर्व )
( अणाइल)
(तट्टक)
( पृ १० )
(काल)
(अवड्ढ )
(अधिकरण)
( पृ १० )
( पृ १० )
( पृ ११)
(अधर)
( अबंभ )
( अधम्मस्थिकाय ) ( पृ ११ )
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________________
अधर-अन्तगमन
परिशिष्ट १ : १६७
अनिद्द ,
अधर अधर्म अधिकरण अधिकरण अधिकार अधिकिरण अधिगम अधिगम अधिगम अधिगम अधितिकरण अधीत अधीत अधुव अधुव अधुव अधेकम्म अध्यवसाय अध्युपपन्न अध्युपपन्न अनगार अनध्युपपन्न अननुकूल अननुमार्ग अनभिप्रेत अनर्थ अनल
अनुगुण
अनायतन (घात) अनारंभ
(पृ ११) अनार्जव (अधितिकरण) अनिंद (उपयोग)
अनित्य (विउस्सग) अनित्य (उवचार) (भाव)
अनुकाश (णाण) अनुकूल (संविद्) अनुकूल (पृ ११) अनुकूलप्रतिकूल (शिक्षित) अनुक्रम (उवचरित) अनुगत (भेउरधम्म) (विचल)
अनुद्घाति (अनित्य) (आहाकम्म) अनुपद्रव (ज्ञान)
अनुपयोग (सक्त)
अनुपरिपाटिन् (ग्रथित) अनुपलब्धि (पृ ११) अनुपविष्ट
(अगृद्ध) अनुपशम (असमंजस) अनुपादेय . . (व्यवहार) अनुबद्ध (असमंजस) अनुबद्ध
(पृ ११) अनुभव
(पृ १२) अनुमत (व्यवसायन्) अनुराग (अनायतन) अनुलोम (अणप्पज्झ) अनृत (अश्लाघा) अन्तगमन
(पृ१२) (अक्रिया)
(माया) (सामायिक) (आशाश्वत)
(पृ १२) (सामायिक)
(पृ १२) (अनुलोम) (अविजात) (उच्चावच) (आनुपूर्विन्)
(पृ १२) (अनुलोम)
(गुरुक) (व्यवहार) (कल्याण)
(अनर्थ) (आनुपूर्विन्)
(छन्न) (निषन्न)
(क्रोध) (अगृहीतव्य) (अनुगत) (संतत). (रयस्) (अनुगत)
अनुपदेश
अनलस
अनाचार
अनात्मवश
(पृ १२) (मिथ्या)
(पार)
अनादर
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________________
१६८
अन्विष्ट
अपंगुत
अपंडिय
: परिशिष्ट १.
अपकडूति
अपकडित
अपगत
अपगत
अपचय
-अपच्चल
अपछुद्ध
अपछुद्ध
अपविद्धया
अपणत
अपणत
अपणामित
अपणासित
अपधजात
अपनीतबन्धन
अपमज्जिय
अपमट्ठ
अपमाण
अपरक्कम
अपरच्छ
अपरिणिव्वाण
अपरितंतजोगि
अपरिताविय
अपरिमियबल
अपरिस्पन्द
अपरिस्सावि
अपलिखित
-अपलोलित
( पृ १२ )
अपट्टित
( उद्वित)
अपवत्त
(जड़)
अपवाम
( नीहारेति ) अपविट्ठ
( अपसारित)
अपसव्व
अपसारित
अपसारित
( पृ १२)
( व्यावृत्त)
( क्षपणा )
( अणल)
( अपमट्ठ)
( अपसारित)
( लाघविय)
( अपमट्ठ)
( अपसारित)
( अपमट्ठ)
( अपसारित)
( उट्ठित )
( उद्दामित)
( रहस्स)
( पृ १२ )
( पृ १२ )
( अत्थाम)
( अविण्णादाण )
( असात )
(अदीण)
( अकिट्ठ)
( अइबल)
( अक्रिया )
( अणासव )
( अपमट्ठ)
( अपमट्ठ)
अपहित
अपहृतचित्त
अपातय
अपात्र
अपाय
अपियत्त
अपुणब्भव
अपुन्न
अपुरिसक्कार
अपुरुस
अपूर्व
अपृथग्
अपेत
अपोह
अपोह
अपोह
अप्प
अप्प
अप्पकम्मतर
अप्पकरियतर
अपग्गंथ
अप्पग्घ
अप्पच्चय
अप्पच्चय
अन्विष्ट - अप्पच्चय
(अपमट्ठ)
( अपमट्ठ)
(वाम)
( अपमट्ठ)
(वाम)
( पृ १२)
( अपमट्ठ)
( अपसारित)
' (क्षिप्त)
( पृ १३ ) ( पृ १३)
(अयध्यवसाय)
( अचियत्त) (सिद्धउपपत्ति)
( अधन्न )
( अत्थाम)
( णपुंसक)
( पृ १३)
(अणण्ण)
( अपगत)
(आभिणिबोहिय)
( आभोग )
( ईहा )
( अणुमात्र)
(रहस्स)
( पृ १३ )
( अप्पकम्मतर )
( अप्प डिबद्ध )
(वाम)
( अलिय )
( अदिण्णादाण )
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________________
अप्प डिकंटय-अभिनव
अप्पडिकंटय
अप्पडिबद्ध
अप्पमाय
अप्पसंत
अप्पाय
अप्पासवतर
अप्पिच्छा
अप्पिय
अप्पिय
अप्पियववहारिय
अप्पियस्सर
अप्पीइ
अफिडित
अडिय
अप्रकाश
अप्रमत्त
अप्रयोजन
अप्रविबुद्ध
अप्रसूता
अबंधव
अबंभ
अबल
अहिलेस
अबहुश्रुत
अबाल
अबालसील
अब्भंगण
अब्भंतर
अभंतरग
अब्भक्खाण
अब्भक्खाण
( ओहयकंटय )
( पृ १३) ( अहिंसा)
( कलुस) (कम्म)
( अप्पकम्मतर )
( लाघविय)
(दुक्ख) ( अणिट्ठ)
( पृ १३ ) ( हीणस्सर )
( अरति)
( अपसारित)
( अखंड )
( छन्न)
( पयत )
( अनर्थ )
(मुकुल) ( नववधू)
( अत्ताण )
( पृ १३ )
( अत्थाम)
( अणाइलभाव )
( अल्पश्रुत)
( देसकालवण )
( पृ १३ )
( उस्सिंघण )
( अणुपविट्ठ)
( अणुप विट्ठ) ( अलिय )
( अधम्मत्थिकाय )
परिशिष्ट १
अब्भक्खाणविवेग
अब्भणुण्णत
अब्भपलाइत
अब्भसण
अब्भहितर
अब्भास
अब्भुक्कढित
अब्भुग्गय
अब्भुज्जय
अब्भुट्ठाण
अब्भुट्टि
अभुट्टिय
अब्भुट्टिय
अब्भुण्णय
अभय
अभय
अभव
अभाजन
अभार
अभिगच्छइ
अभिगच्छति
अभिगयट्ठ
अभिग्रह
अभिज्जा
अभिभा
अभिभा
अभिणिव्वट्ट
अभिणिव्वुड
अभिण
अभिनन्द
अभिनव
१६६
( धम्मस्थिकाय )
(वणित )
(संग्राम)
( परियट्टण )
( पृ १३)
( पृ १४ )
( णिन्भामित)
( पृ १४ )
( अब्भुग्गय )
(सक्कार )
( आउट्टि)
( उवद्विय)
( अब्भुग्गय )
( अब्भुग्गय )
(सात)
(अहिंसा)
( धुवक )
( अपात्र )
(अलस)
( जाणइ )
( पृ १४)
( लढट्ठ)
(प्रतिमा)
( मोहणिज्जकम्म)
( पृ १४)
(लोभ) (अभिसंभूत)
(खंत)
( अणण्ण )
(राग)
(बाल)
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________________
१७० : परिशिष्ट १
अभिनव–अमुर्छित अभिनव (तरुणय) अधिसंधान
(माया) अभिनिषद्या (तका) अभिसंभूत
(पृ १४) अभिन्नाचार (अक्षताचार) अभिसंवुड्ढ (अभिसंभूत) अभिन्नायार (अक्खयायार) अभिसन्दध्यात्
(संधयेत्) अभिप्पात (विण्णाण) अभिसमण्णागत
(लद्ध) अभिप्पाय (१४) अभिसमण्णागय
(नाय) अभिप्पाय (पणिहाण) अभिहणति
( १४) अभिप्पायंति (अभिलसंति) अभिहणेज्ज
(पृ १४) अभिप्राय (संविद्) अभीय
(अणुविग्ग) अभिप्राय (प्रणिधान) अभीय
(१५) अभिप्राय (छंद) अभूतिभाव
(पृ१५) अभिप्राय (भाव) अभेद
(अणु) अभिभव (विजय) अभ्याश
(अंतिक) अभिरुइय (इच्छिय) अभ्युपगत
(प्रतीष्ट) अभिरूव (पासादिय) अमणाम
(दुक्ख) अभिलषणीय (कान्त) अमणाम
(अणि?) अभिलसइ
(आसाएइ) अमणामस्सर
(अणिट्ठस्सर) अभिलसइ (कंखइ) अमणुण्ण
(अणिट्ट) अभिलसंति
(पृ १४) अमणुण्णस्सर (हीणस्सर) अभिलसन (पीहन) अमनोज्ञ
(फरस) अभिलसमाण (पत्थेमाण) अमम
(अणासव) अभिलाप्य (प्रज्ञापनीय) अमम
(संत) अभिलाष (राग) अमर
(सिद्ध) अभिलाष (लोभ) अमर
(देव) अभिलाष (छंद) अमाघाय
(अहिंसा) अभिलासा (परिज्झा) अमाण
(पृ १५) अभिवादित (वंदित) अमाया
(पृ १५) अभिवायण (पृ १४) अमुच्छा
(लाघविय) अभिशय्या (तका) अमुत्ति
(परिग्गह) अभिष्वङ्ग (संस्तव) अमुय
(अण्णाय) अभिसंजात (अभिसंभूत) अमूढ
(पृ १५)
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________________
अमूढ-अवगम
अमूर्छित अमोह अमोहा अयन अयुक्त अयोगगत अयोग्य अयोग्य अरइय अरंजर अरति अरभस अरय अरय अरविंद अरविन्द अरसाहार अरह अरि अरिट्ट अरिह अरुजगत अरुणोदय अरोग अरोगशाला अर्थविज्ञान अर्थव्याख्या अर्थाध्यवसाय अर्थापयति अद्यते अर्पित
परिशिष्ट १ । १७१ (अगृद्ध) अर्पित
(गमित) (पृ१५) अर्यते
(पृ १६) (जंबू) अहंद्
(पृ १६) (पृ १५) अर्हद्वचन
(प्रवचन) (अस्थान) अलंदक
(करोडक) (सिद्धिगत) अलकपरिक्खेव (तिरीड) (अपात्र) अलक्तक
(आदर्श) (अनल) अलम
(पृ १६) (गंड) अलस
(पृ १७) (पृ १५) अलस
(पृ १७) (पृ १५) अलाय
(मुम्मुर) (असाहस) अलिंद
(अरंजर) (पृ १६) अलिय
(पृ १७) (कम्म) अलियधम्मनिरय (अकुसल) (उप्पल) अलियाण
(अकुसल) (कमल) अलोह
(पृ १७) (अंताहार) अल्पश्रुत
(१७) (पृ १६) अल्पसत्व
(अधितिकरण) (पृ१६) अल्लग
(सिंगबेर) (पृ१६) अल्लीण
(अनुपविट्ठ) ( १६) अवंग
(णिडालमासक) (सिद्धिगत) अवंगुत
(उभिण्ण) (तमुक्काय) अवकड्ढित
(पृ १७) (हट्ट) अवकिण्ण
(विक्खिण्ण) (तेगिच्छियसाला) अवक्कमण
(निग्गमण) (चित्त) अवक्कोस (मोहणिज्जकम्म) (भासा) अवक्कोस
(माण) (पृ १०) अवगततत्व
(बुद्ध) (आग्राहयति) अवगम
(अर्थाध्यवसाय) (पृ १६) अवगम
(निश्चय) अवगम
(संविद्)
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________________
१७२ परिशिष्ट १
अवगाढ
अवगाढावगाढ
अवगास
अवगाह
अव गिरण
अवग्गह
अवज्ञा
अवट्ठाण
अवट्टिय
अट्ठिय
अवड्ढ
अवतंस
अवतरति
अवत्थग
अवत्था
अवत्था
अवत्थाण
अवस्थित
अवत्थिय
अवत्थु
अवदात
अवद्य
अवधान
अवधारण
अवधावन
अवधि
अवधित
अवन
अवबोह
अवमट्ठ
अवमाणण
( पृ १७ ) (आइण्ण)
( ओवास )
( स्पर्शना) (उस्सग्ग)
( उग्गह)
( अश्लाघा )
( पतिट्ठा)
(धुव)
( फा सिय)
( पृ १७ )
(मंदर)
( उवेति )
(अलिय )
( पृ १८ )
( पतिट्ठा)
( अवस्था )
( अचल )
( असाहस )
(अलिय )
( पृ १८)
( पृ १८ )
( पृ १८)
( उग्गह)
( लोटन )
( अवधान )
( चोदित)
( पृ १८ )
( ववसाय)
(रहस्स)
( अक्कोस )
अवमाणित
अवमण्णति
अवमण्णति
अवय
अवयव
अवयव
अवलंबण
अवलोव
अवसक्कित
अवसर
अवसर
अवसर
अवसव्व
अवसारित
अवस्थारूपकाल
अवस्सकम्म
अवस्सकरण
अवस्सकरणिज्ज
अवस्सकायव्व
अवस्aकिरिया
अवहड
अवहार
अवहीय
अवाय
अविकम्पित
अविगतचित्त
अविग्गहमण
अविचालित
अविच्चुति
अवगाढ- अविच्चुति
(परिभीत) (होलेति )
( परिभासति )
(नीय)
(अंग )
(कला)
( उग्गह)
(अलिय )
(उट्टित)
( पृ १८)
(देश)
(योग)
(वाम)
(उट्ठित)
(भूमि)
(पावकम्मनिसेह)
किरिया )
( आवस्सग )
( आवस्सय )
( आवस्सग )
(पावकम्मनि सेह)
किरिया )
( खीण)
( अदिण्णादाण )
(अलिय )
( पृ १८ )
( केवल )
( अविमनस् )
( धम्ममण )
(अपूर्व )
(धरण)
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________________
अविजात-असंजम
परिशिष्ट १ : १७३
अविजात अविज्जमाणभाव अविण्णाय अवितह अवितह
अवितह अवितह
अवितह भाव अविदित अविद्धत्थ अविधिपरिहारि अविधूणित्ता अविनीत अविभाग अविमण अविमण अभिमनस् अवियाउरी अवियोग अविरति अविरति अविरय अविरल अविरहितोवयोग अविराधित अविराय अविलीण अविविचित्ता अविवित्त अवि वित्त अविसंदिद्ध
(पृ.१८) अविसादि
(अदीण), (असपज्जाय) अविसुद्ध
(पृ १६) (अण्णाय) अविसोहि
(अतियार) (जहाभूत) अवीइ
(अणुसमय) (तह) अवीरिय
(अत्थाम) (सच्च) अवीर्य
(अक्रिया) (सत) अवीसंभ
(पाणवह) (विणिच्छय) अवेगिय
(असाहस) अवेयण
(पृ १६) (अविराय) अव्यक्त
(पृ १६) (संजमतवय) अव्यक्त
(प्रकृति) (अविविचित्ता) अव्वय
(धुव) (खलुंक) अव्वहित
(अणाइल) (भाग) अव्व हिय
(अकिट्ठ) (धम्ममण) अव्वाहय
(निव्वाण) (अदीण) अव्वोकड्ढ
(उक्कड्ढ) (पृ १८) अशक्त
(मन्द) अशाश्वत
(पृ १९) (परिग्गह) अशून्यमनस् (अविमनस्) (आरंभ) अशेष
(पृ १६) (अवद्य) अश्रुत
(अपूर्व) সংলাঘ
(पृ १६) (अखंड) असंकि लिट्ट
(अणासव) (केवल) असंक्लिष्टाचार (अक्षताचार) (अखंड) असंखेज्ज (गणणमतिक्कंत) (पृ १८) असंखेज्जपएसियसंध (अविराय)
(पोग्गलत्थिकाय) (पृ १८) असंग
(असंजण) (अविसुद्ध) असंग
(सिद्ध) (गरहित) असंजण
(पृ १६) असंजम
(आरंभ)
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________________
१७४ : परिशिष्ट १
असंजम-अहातच्च
(पाव)
असात असात असाधारण
असाम्प्रत
असाय
(अदिण्णादाण) (पाणवह)
(पाव) (अलिय)
(भय) (परिग्गह) (जहाभूत)
(तह) (अतुरिय) (अभीय)
असंजम असंजम असंजय असतक असंति असंतोस असंदिद्ध असंदिद्ध असंभंत असंभंत असमुच्छित्ता असंसारोपपत्ति असक्कत असक्कार असगल असच्च असच्चसंधत्तण अस ट्ठिय असण असपज्जाय असवलाधार असमंजस असमंजस असमञ्जस असमय असम्बद्धप्रलापिन् असम्भव
(सिद्धउपपत्ति)
(दीण) (अपमाण)
(अंग) (मिच्छा) (अलिय) (मिच्छा) (पृ १६)
(पृ १६) (अक्खयायार)
(१९) (दुस्सह) (उच्चावच) (अलिय)
(मुखर) (अनायतन) (अत्ताण) (पृ १९) (सिद्ध) (पृ १९)
असाय असार असासय असाहस असित असिद्धत्थ असिद्धत्थ असीलया असुइ असुभ असुस्सूसमाण असोहि असोहिठाण अस्थान अस्थान अस्सि अस्सुत अहंकार अहकम्म अहम अयकम्म अहरगतीगाहण अहाअत्थ अहाकप्प अहाछंद अहातच्च
(भय) (केवल) (अस्थान) (दारुण) (कम्म)
(तुच्छ) (भेउरधम्म) (पृ.२०)
(कण्ह) (अधण्ण)
(दीण) (अबंभ) (२०)
(अट्ठि ) (वुच्चमाण) (पडिसेवणा) (अणायतन)
(पृ २०) (अनायतन)
(पृ २०) (अण्णाय)
(माण) (आहाकम्म)
(दीण) (आहाकम्म) (अधिकरण)
(पृ २०) (अहासुत्त)
(पृ २०) (अहाअत्थ)
असरण
असरण असरीरकध असात
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________________
अहातच्च-आगम
परिशिष्ट १ : १७५
अहातच्च अहामग्ग अहामग्ग अहासम्म अहासुत्त अहिंसा अहिंसा अहिकरण अहिकिच्च अहिगच्छइ अहिगम अहिगार अहिट्ठयति अहिधावति अहियासण अहियासेइ अहियासेति अहीकरण अहीय अहीरकरण अहेकम्म । अहोकरण अहोतरण आइक्खइ आइक्खामि आइण्ण आइण्ण आइन्न आउट्टि आउडिज्जमाण आउत्त
(अहासुत्त) आउयकम्मस्स उवद्दव (पाणवह) (अहासुत्त) आउयकम्मस्स गालणा (पाणवह) (अहाअत्थ) आउयकम्मस्स गिट्ठवण (पाणवह) (अहासुत्त) आउयकम्मस्स भेय (पाणवह) (पृ २०) आउयकम्मस्स संखेव (पाणवह)
(पृ २०) आउयकम्मस्स संवट्टग (पाणवह) (तितिक्खा) आउल
(गण) (अधिकरण) आउल
(वंद) (पडुच्च) आओडावेइ
(पृ २१) (जाणइ) आओसण
( २१) (णाण) आओसेज्ज
(पृ २२) (पगत) आकड्ड
(पहर) (पृ २१) आकार
(स्थापना) (ओधावति) आकारित
(शापित) (परिसहण) आकुंडित
(रहस्स) (सहइ) आकुट्टि
(पृ २२) (खमिति) आक्रान्त
(आस्पृष्ट) (अधिकरण) आक्रोश
(पृ २२) (उवचार)
आखोटयति (आओडावेइ) (अधिकरण) आख्यात
(आहित) (आहाकम्म) आख्यात
(पृ २२) (अधिकरण) आख्यातुम्
(पृ २२) (अधिकरण) आख्यान
(आलोचन) (पृ २१) आख्यापयति
(आग्राहयति) (पृ २१)
(पृ २२) (पृ २१) आगम
(पृ २२) (आयार) आगम
(लाभ) (पृ २१)
(छन्द) (पृ २१) आगम
(आय) (पृ २१) आगम
(आणा) (संजमतवडय) आगम
(णिप्फत्ति)
आगत
आगम
आगम
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________________
१७६
: परिशिष्ट १
अग्गम
आगम
आगम
आगमित
आगमित
आगमित
आगमिय
आगमिय
आगर
आगरिसण
आगार
आगार
आगारित
आगाल
आगास
आगासत्थिकाय
आगिति
आगिति
आग्राहयति
आघवणा
आघविय
आचरण
आचार
आचार
आचाल
आचिक्खति
आज्जाइ
अढाइ
आणंतरिय
आनंद
आणंदकर
(सुत्त)
(समय)
(ज्ञान)
(ज्ञान)
( आगत )
( विदित)
( उवचार )
(नाथ) (आयार )
( कढण )
( पृ २२ )
( पृ २२) (आरित)
(आयार )
( आगासत्थिकाय )
( पृ २२)
( आगार )
( संठाण)
( पृ २३ )
( पृ २३ )
( पृ २३)
( आचार)
( पृ २३ )
( कल्प)
(आयार )
( पृ २३ )
(आयार )
( पृ २३ )
( पृ २३)
(तुट्ठि) (णिव्वाणिकर)
आणंदकर
आनंदिय
आणवयण
आणा
आणा.
आणाए आराहिय
आणाए आराइ
आणाते अणुपालिय
आणुकंपिय
आणुगामिय
आणुपुव्वि
आति
आतट्ठि
अतव
आताहम्म
अतिक्खिय
अतिण्ण
आतुर
आत्मज
'आत्मन्
आत्मप्रशंसा
आत्मार्थिन्
आदर्श
आदान
आदि
आदित्य
आदियणा
आदियति
आदियति
आदेश
आदेस
आगम-आदेस
(मधुर)
( हट्ठचित्त )
( सुत्त)
( पृ २४ )
( उववाय)
( फासिय)
( फासेइ )
( फासिय)
(हियका मग )
(हिय)
( पृ २४ )
( पृ २४ )
( पृ २४ )
(सूरलेस्सा)
( आहाकम्म)
( अग्घातित )
( पृ २४)
( दीण)
( अत्तय )
(जीव )
( श्लोक )
( आतट्ठि)
( पृ २४ )
( पृ २४)
(मूल)
( पृ २४ )
( अदिण्णादाण )
( पृ २४)
( आपिबति )
( पृ २४)
( उपदेश )
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________________
आद्य - आयाहकम्म
आद्य
आद्य
आधार
आधार
आधार
आधुत
आनुपूविन्
आपडित
आपति
आपियइ
आपीड
आपूरित
आप्त
आप्त
आभिणिबोहिय आभिणिबोहियाण
आभोग
आभोगण
आभोगण
आमगन्धि
आमेलक
आमोक्ख
आम्बिली
आम्रचिञ्चा
आय
आय
आय
आय
आयंत
आयगुत्त आयजोगि
(प्रथम)
( मुद्ध )
(आगासत्थिकाय )
(मूल)
( पात्र)
( विचल)
( पृ २५ )
( अपमट्ठ)
( पृ २५)
( पियति )
(आमेलक )
( पृ २५ )
( पृ २५)
( पृ २५)
( पृ २५ )
( मइ )
( पृ २५ )
( पृ २५ )
( ईहा ) (विश्र )
( पृ २६ )
( पृ २६ )
( पृ २६)
( जीवथिकाय )
परिशिष्ट १
( अज्झयण)
( पृ २६ ) (आयट्ठि) (आयट्ठि)
आयट्रि
आयणिप्फेडय
आयतण
आयतन
आयतस्थित
आयतार्थिन्
आयपरक्कम
आययण
आयर
आयरइ
आय रक्खिय
आयरण
आयरणा
आयरिस
( पृ २५ )
(आयार ) आयाणुकंपय (आम्रचिचा)
आयाम
आयार
आयार
आयार
आयार
आयार
आयास
आयास
आय हम्म
: १७७
( पृ २६ ) (आयट्ठि)
(अहिंसा)
( पृ २६ )
( संविग्न )
( आतट्ठि) (आयट्ठि)
(माया)
(विहि)
(आयार)
आयव
( दीव)
आय
(आयट्ठि) आयाकम्म (आहाकम्म) आयाणभंडमत्त निक्खेवणाअस्समिति
' (अधम्मत्थिकाय )
( पृ २६ )
( परिगह )
( अहिट्ठयति)
(आयट्ठि)
आयाणभंडमत्त निक्खेवणासमिति
( धम्मत्थिकाय ) (आयट्ठि)
( पृ २६ )
( पृ २६ )
( पृ २६ )
( कप्प )
( जीवाभिगम)
( पूया )
( परिग्गह)
( पृ २७ )
(आहाकम्म)
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________________
१७८
आयुष्
आयुष्क
आरंभ
आरंभ
आरंभ
आरंभकड
आरभइ
आरम्भ
: परिशिष्ट १
आराहणा
आराहिय
आरित
आरिय
आरियदसि
आरियपण्ण
आरुभति
आरूढ
आरोग
आरोवण
आरोह
आलंब
आलंब
आलय
आलीन
आलुक्कई
आलोइज्जइ
आलोचन
आलोय
आलोयण
आलोयण
आलोयणा
आलोलित
(स्थिति) (जीवित)
आवट्टण
आवलिका
आवस्सग
( पृ २७ ) (पाणवह)
आवस्सय
(संरंभ) आवहंति
( पृ २७ )
( पृ २७ )
(करण)
( आवस्य )
( फासिय)
( पृ २७ )
( पृ २७ ) (आरिय )
( आरिय )
( दुरुहइ )
( अवगाढ)
( णिव्वत)
( ववहार )
( पृ २७ )
( पृ २७ )
(मेढि )
( उवसग )
( पृ २८ )
( पृ २८)
( पृ २८)
( पृ २८ )
( आभोग )
( पृ २८)
(ववहार )
( पृ २८ ) (हात)
आवासत
आविर्भाव
आविल
आवीलए
आश्रय
आश्रव
आसंद
आसंदी
आसणाणुप्पदाण
आसणाभिग्गह
आसत्ति
आसन्न
आसव
आससणायवसण
आसाएइ
आसारेइ
आसास
आसास
आसासण
आसुरत्त
आसेवित
आस्पृष्ट
आहकम्म
आहणइ
आहरण
आह्वान
आयुष्- आह्वान
(अवाय)
(वंश)
( पृ २८ )
( पृ २८ )
( पृ २६ )
( आवस्य )
(प्रकाश)
( आयास)
( पृ २६)
( आदान )
( आगम )
( पृ २६ )
(सेज्जा)
(सक्कार )
(सक्कार )
( परिग्गह )
( अंतिक )
( अरिट्ठ)
( अदिण्णादाण )
( पृ २६ ) ( उब्व तेइ )
(अहिंसा)
(आयार )
(लोभ)
( पृ २६) (संविचिण)
( पृ २६ )
( आहाकम्म )
( पृ २६ )
( णाय)
( पृ २६ )
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________________
इट्ठत्ता
इट्रा
इसि इसु
इंद
आहाकम्म-उक्कर
परिशिष्ट १ : १७६ आहाकम्म (पृ २९) इट्ठ
(पृ ३१) आहातहिय (सच्च) इट्ट
(मधुर) आहार (मेढि) इट्ठ
(णिवाणिकर) आहार (आलंब)
(आप्त) आहार (भोयण)
(पृ३१) आहारएसणा (दुमपुफिया)
(पत्ति) आहारं कुरुते (जेमेति) इत
(पृ ३१) आहित (पृ ३०) इत्थिया
(पत्ति) आहितग्गि (बंभण) इसि
( ३१) आहुणिज्जमाणी (पृ ३०) इसि
(समण) आहेवच्च (पृ. ३०)
(इसिपब्भारपुढवी) इंखिणी (पृ ३०)
(दुमपुप्फिया) इंगालछारिगा. (पृ ३०) इस्सर
(पृ३१) (पृ ३०) इस्सरी
(पत्ति) इंदियस्थ (संग) इस्सापंडक
(णपुंसक) इंदीवर
ईप्सित
(उद्दिष्ट) इच्छा
(पृ ३०) ईर्ष्या
(माण) इन्छा
(छंद) ईश्वर
(पृ ३१) इच्छा
(मोहणिज्जकम्म) ईसिपब्भार (ईसिपब्भारपुढवी) इच्छा
___(राग) ईसिपब्भारपुढवी (पृ३१) इच्छा
(लोभ) ईहण
(वियालण) इच्छा (अदिण्णादाण)
(आभिणिबोहिय) इच्छाछंद
(आभोग) इच्छित (पृ ३०) ईहा
(पृ ३२) इच्छिय (पृ ३०) ईहामग
(वृक) इच्छियत्ता (इट्टत्ता) उउमास
(पृ ३२) इच्छियपडिच्छिय (इच्छिय) उंछ
(दुमपुफिया) इज्जा
उक्कंचण
(पृ ३२) इज्या (यजन) उक्कंपित
(पृ ३२) इट्टका
(सेज्जा ) उक्कट्ठित उक्कड
(उज्जल)
(पदुम)
ईहा
(अहाछंद)
ईहा
(दीण)
o
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________________
१८० : परिशिष्ट १
उक्कड-उज्जोएइ उक्कड्ढ (पृ ३२) उग्घायण
(पृ ३३) उक्कड्ढति (णिकड्ढति) उचित
(बहुजनाचीर्ण) उक्कड्डिय (णिच्छुद्ध) उच्च
(दीह) उक्कत्त (कप्पिय) उच्च
(उदन) उक्कसण (पृ ३२) उच्च
(ऊसढ) उक्किट्ठ
(पृ ३२) उच्चच्छंद उक्किरण (साहरण) उच्चयरक
(३३) उक्कूइय
(रसिय) उच्चारपासवणखेलसिंघाणउक्कूजिय
(अक्कोस) जल्लपरिट्ठावणियाअस्समिति उक्कूल (अलिय)
(अधम्मस्थिकाय) उक्कोडभंग
(खोडभंग) उच्चारपासवषखेल उक्कोस
(माण) सिंघाणजल्लपरिट्ठावणियासमिति उक्कोस (मोहणिज्जकम्म)
(धम्मत्थिकाय) उक्कोसेज्ज (पंतावेज्ज) उच्चारित
(उल्लोइत) उक्खणाहि
उच्चावच
(पृ ३४) उक्खित्त (ओसारित) उच्छंदण
(उस्सिघण) उक्खित्त
(पूया) उच्छल्लिज्जति (चालिज्जति) उक्खित्तभत्त
(पहेण) उच्छाडित (उल्लोहित) उक्खिन्न
उच्छायण
(घाय) उक्तक्रमोल्लंघन (व्यत्यय)
उच्छाह
(जोग) उक्ति (पृ ३३) उच्छाह
(योग) उखड्डमड्ड (पृ ३३) उच्छुद्ध
(ओसारित) उग्गम (पृ ३३) उच्छुद्ध
(पहर) उग्गय (पृ ३३) उच्छोलेंति
(पृ ३४) उग्गविस (पृ ३३) उज्जल
(३४) उग्गह (पृ ३३) उज्जल
(संख) उग्गह (पृ ३३) उज्जु
(भिक्खु) उग्गह (उवहि) उज्जु
(पृ ३४) उग्गहित (ओसारित) उज्जुगत्तण
(पृ ३४) उग्गिण्हण (उग्गह) उज्जुय
(पृ ३४) उग्गोवणा (एसणा) उज्जोएइ
(ओभासेइ)
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________________
उज्जोएइ — उद्दवेन्ज
उज्जोएइ
उज्जोतित
उज्झण
उज्झणा
'उज्झित
-उज्झित
उज्य
उज्भीयति
उट्ठाण
उट्ठाण
उति
उडुप
उष्णत
उष्णमणी
उण्णाम
उणामित
उन्ह
उत्कोच
उत्क्षिप्तभक्त
उत्क्षिप्यति
उत्तम
"उत्तम
उत्तर
उत्तर
उत्तरकरण
उत्तरति
उत्तरपगडि - उत्तारिय
उत्तास
उत्तासणग
उत्तासणय
( पभासति )
(सुद्ध )
( पडण )
(उस्सग्ग)
(मुक्त)
(छादित)
( भिण्ण)
( पृ ३४)
(लुटण)
( पृ ३४)
( पृ ३५)
. (चन्द्र)
( माण ) (अण्णा)
( माण)
( उल्लोइत )
(तेउ)
(लंचा ) ( पूज्यभक्त)
( ( चालिज्जति)
( ओराल )
(मंदर)
(वाम)
(मंदर)
( पृ ३५ )
( उवेति )
(अंस)
( पृ ३५ )
( नील)
( महन्भय ) ( लोमहरिसजणण)
उत्तुदति
उत्थित
उत्पाटित
उत्पादयति
उत्प्रेक्षते
उत्फुल्ल
उत्सर्ग
उत्सुक
उत्सृजति
उदक
उदग्ग
उदग्ग
उदग्ग
उदग्र
उदत्त
उदत्त
उदय
उदय
उदसी
उदार
परिशिष्ट १
उदार
उदीरणा
उदीरित
उद्घातित
उद्दवण
उद्दवण
उद्दवणकरी
उद्विज्जमाण
उद्दवित्ता उद्वेज्ज
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१८१
(तुदति )
( उल्लोइत )
( उधृत )
( पृ ३५ )
( उवेहति )
( फुल्ल )
( ओघ )
( माण )
( निसृजति )
( पयस् )
( पृ ३५)
( ओराल )
( वयत्थ )
( पृ ३५)
( मुदित)
( ओराल)
( उग्गय )
(दुमपुफिया)
(तक्क)
( पृ ३५)
( ओराल )
(एजणा)
( चालित)
(लघुक)
( पृ ३५)
( पाणवह)
(छेयणकरी)
(आउ डिज्नमाण )
(हंता )
( अक्को सेज्ज)
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________________
उहवेति-उप्पायण
१८२ : परिशिष्ट १ उद्दवेति
(अभिहणति) उपदेश उद्दवेयव्व
(हंतव्व) उपदेश उद्दामित
(पृ ३५) उपदेस उद्दिट्ट
(पृ ३५) उपधि उद्दिष्ट
(पृ ३५) उपनीत उद्द ढ
(पृ ३६) उपनीयते उद्धंसण
(आओसण) उपपदरिसिते उद्धरण
(कढण)
उपपद्यते उद्धर्षणा
(आक्रोश) उपयोग उद्धार
(हत्या)
उपयोग उद्धारणा (धारणववहार) उपयोग उद्धिय
(ओहय) उपयोग उद्धिय कंटय
(ओहयकंटय) उपल उद्ध्य
(उक्किट्ठ) उपलब्ध उद्धृत
(पृ ३६) उपलभते उद्बुद्ध
(फुल्ल) उपलभते उद्भिन्न
(फुल्ल) उपलोलित उद्यतविहारिन् (संविग्न) उपवत्त उद्योगवद् (व्यवसायिन्) उपवधू उन्नय
(मोहणिज्जकम्म) उपवप्पित उन्नाम (मोहणिज्जकम्म) उपशान्त उन्निद्र
(फुल्ल) उपश्रा उन्मिषित
(फुल्ल) उपसारित उन्मीलित
(फुल्ल) उपात्त उपक
(पदपाश) उपादान उपकड्ढित
(उल्लोइत) उपाय उपकार
(गुण) उप्पज्जते उपचार
(आदेश) उप्पल उपणत
(उल्लोइत) उप्पल उपणद्ध
(उल्लोइत) उप्पाडेहि उपदेश
(प्रवचन) उप्पायण
(दर्शन) (निमित्त) (पृ ३६) (माया) (गमित) (पृ ३६) (उपनीयते) (पयाति)
(भाव) (३६)
(ज्ञान) (पृ ३६) (पासाण) (विदित) (शृणोति) (गलाति) (उल्लोइत) (उल्लोइत)
(पत्ति) (उल्लोइत)
(शान्त) (पृ ३६) (उल्लोइत)
(बद्ध) (आय) (प्रयोग) (पृ ३६) (पदुम) (पृ३६) (पहर) (पृ ३७)
:
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________________
उपायण उवसम
-
उप्पायण
उपिलावण
उब्भिण्ण
उभय
उम्मुअणा
उम्मुक्ककम्मकवय
उम्मूलण
उराल
उराल
उल्लुत्त
उल्लोइत
उल्लोकित
उल्लोहित
उवउत्त
उवएस
उवकरण
उवगम
उवगमण
उवगरण
उवग्गह
उवधाय
उवचय
उवचय
उवचय
उवचरित
उवचार
उवचित
उवचितदेह
उवचिय
उट्ठात्तिए उट्टिय
( पृ ३६) उवट्टिय
( पृ ३७)
( पृ ३७ )
( पृ ३७ ) (उस्सग्ग)
(सिद्ध)
( पाणवह)
( इट्ठ)
( ओराल )
( कस)
( पृ ३७)
( णमोक्कत)
( पृ ३७)
( अतिवत्त)
(सुत्त)
( परिग्गह)
(लाभ)
(लाभ)
( उब हि)
( उवहि)
(डिसेवणा)
( परिगह )
(काय)
(पिंड)
( पृ ३७ )
( पृ ३७ )
( थूल)
( परिवूढ )
( परिवुड्ढ )
(मुंडावत्तए)
( पृ ३७)
उवणय
उवणामेति
उवत्थड
उवदंसण
उवदसिय
उववेस
उवधारण
उवधारिय
उवधि
उवधि
उवम्म
उवयंति
उवयत्ति
उवयोग
उवयोग
उवरय
उवलंभणा
उववाय
उववाय
उवविसणा
उववृत्त
उववूह
उवसंत
उवसंत
उवसंत;
उवसंत
उवसंधार
उवसंपया
उवसग
उवसम
परिशिष्ट १
: १८३
( उवसंत ) (गिदंसण)
( आणेति)
(आइन्च)
(णिवंसण)
( आघविय)
( आणा)
(उग्गह)
(बिट्ठ)
( पृ ३७)
(पणिधि)
( पृ ३८ )
(३८)
(वितय)
(नाथ)
(चेपण)
(नियिय)
(खज्जगिया)
( पृ ३८)
(BITUIT)
( णिसियणा )
(महव्वय)
(पृ३८)
(हिप)
(संत)
(३८)
(निट्ठिय)
(णिदंसण)
( निस्सा)
( पृ ३८ )
( संति)
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________________
१८४
वसम
उवसमण
उवसमप्पभव
उवसममूल
उवसमसार
उवहाणव
उहि
उवहि
उवहि
उवहि असुद्ध
उवाय
उवेइ
उवेति
उति
उव्वट्टण
उव्वत्तेइ
उव्वलित
उब्विग्ग
उब्विग्ग
उब्वियंति
उव्वेयणय
परिशिष्ट १
उसभ
उसभक
उस्सग्ग
उस्सय
उस्सय
उस्सय
उस्सय
उस्सारित
उसिंघण
उस्सित
( पृ ३८ )
( पृ ३८ )
( उवसमसार )
( उवसमसार )
( पृ ३८)
( पव्वइय)
(माया)
( मोहणिज्जकम्म)
(३८)
( अलिय )
( हेतु )
( पृ ३६)
( पृ ३६ )
( पृ ३६ )
( उस्सिंघण )
( पृ ३६ )
(उल्लोहित)
(तस्थ)
(भीय)
(तसंति)
(पाव)
( पृ ३६)
( तिरोड )
( पृ ३९ )
(काय)
( अहिंसा)
( पृ ३६ )
( जण्ण)
( रहस्स)
( पृ ३६)
(उल्लोइत )
ऊसढ
ऊसय
ऊहा
ऊहित
ऋजु
ऋतुबद्ध
ऋतुसंवत्सर
ऋषि
एइज्जमाण
एकग्गहणगहिय
एकांश
एग
एगंत पंडिय
एगणामभेद
एगपज्जाय
एगपडिरय
एजणा
एजन
एरावणवाहण
एसणा
एसणा
एसणाअस्समिति
एसणासमिति
ओकट्ठित
ओकड्ढ
ओडित
ओगेण्हण
ओघ
ओच्छन्न
ओछुद्ध
ओझीण
उवसम - ओझीण
( पृ ३६ )
(तुट्ठि)
( संशय)
( पृ ३६ )
( पृ ४० )
(द्वितीय समवसरण)
( पृ ४० )
( पृ ४० )
( पृ ४० )
(कसिण)
(अणु)
(संजय)
(केवल )
( एगपडरय)
( एगपडिरय)
( पृ ४० )
( पृ ४० )
( पृ ४० )
( सक्क)
( पृ ४० )
( मग्गणा )
( अधम्म त्थिकाय ) (धम्म टिथकाय )
( ओसारित)
( उक्कड्ढ )
( ओसारित)
( उग्गह)
( पृ ४० ) (अलिय )
( ओसारित)
( णिम्मंसक)
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________________
ओणत-कंत
ओह
ओहय
ओहि
ओणत ओणामित ओतारित ओतारिय ओतिण्ण ओदीवसिहा ओधावति ओधुत ओपुप्फ ओभासेइ ओभासेज्ज ओमस्थित भोमथित ओमुक्क ओय ओयंसि ओयण ओराल ओलोकित ओलोलित ओवट्टित ओवत्त ओवम्म ओवहिय ओवात ओवास ओवासंतर ओवील ओवीलेमाण ओवेढग ओसक्क
परिशिष्ट १ : १८५ (ओसारित) ओसरित (ओसारित) (ओसारित) ओसा
(सिण्ह) (ओसारित) ओसारित
(पृ ४१) (ओसारित) ओसारेति
(पृ ४२) (ओसारित)
(पृ ४२) (हुतासिणसिहा) ओह
(संखेव) ओहबल
(पृ ४२) (विचल)
(४२) (अतिवत्त) ओहयकंटय
(पृ ४२) (पृ ४१) ओहसित
(अतिवत्त) (पंतावेज्ज)
(मज्जोया) (ओसारित) ओहिज्जत
(अतिवत्त) (ओसारित) कइयव
(कवड) (ओसारित) कंकण
(हत्थभंडक) (कंति) कंखइ
(४२) (पृ ४१) कंखा
(लोभ) (पृ ४१) कंखा
(परिज्झा) (पृ ४१) कंखा
(अदिण्णादाण) (ओसारित) कंखा
(गेहि) (ओसारित) कंखा
(मोहणिज्जकम्म) (ओसारित) कंखित
(संकित) (ओसारित) कंखिय
(अस्थि ) (णाय) कंचिकलापक
(कडीय) (वंक) कंची
(पृ ४२) (सुक्किल) कंटका
(कंची) (पृ ४१)
(णावा) (आगासस्थिकाय) कंत
(पृ ४२) (अदिण्णादाण) कंत
(अत्त) (पृ ४१) कंत
(आप्त) (केज्जूर) कंत
(इट्ट) (नयन) कंत
(सुभ)
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________________
१८६
कंतत्ता
कंता
कंति
कंति
कंदंति
कंदण
कंदप्प
कंदमाणी
कंदल
कंदित
कंदित
कंदूग
कंपेति
कक्क
कक्क
कक्क
कक्क
कक्कणा
कक्कब
कक्करण
कक्कस
कक्कस
कक्कस
कक्कससद्द
कक्कुडगा
कक्कुस
कक्खड
कक्खडी
कक्खडीभूत
कच्छभ
कज्ज
परिशिष्ट १
( इट्ठत्ता )
(पत्ति)
( अहिंसा)
( पृ ४३ )
( थणंति)
( पृ ४३ ) (णंदी)
( रोयमाणी )
( पदुम) (रुण्ण)
( हक्कार )
(केज्जूर)
(अंचेति)
( पृ ४३ )
( पृ ४३ )
(माया)
( मोहणिज्जकम्म)
(अलिय )
( गुलोवलद्वीय)
( कूजण)
( पृ ४३ )
( उज्जल )
( दारुण)
( दारुणसद्द )
( लोमसिका)
(तुस )
( उज्जल )
( पृ ४३ )
(पुराण)
( राहु )
( पृ ४३ )
कज्ज
कज्जोपक
कटुक
कट्ठ
कठिन
कडग
कडग
कडग-मद्दण
कडच्छकी
कडपल्ल
कडि उपक
कडीय
कडुय
कडुय
कङ्क्षिति
कढण
कण्णकोवग
कण्णखी क
कण्णधार
कण्णपील
कण्णपूर
कण्णलोडक
कण्णा
कण्ह
कण्हराति
कण्हसप्प
कत
कतकज्ज
कतत्थ
कतपुव्व
कति
कंतता- कति
(कारण)
(दीव)
( प्राम्यवचन)
(नावा)
(कक्खडी)
( हरिथक)
( पृ ४३ )
( पाणवह)
(दब्बी)
( पृ ४३)
(कडीय)
( पृ ४३ )
( उज्जल )
( कक्कस)
(णिकडूति)
( पृ ४३ )
( कुंडल)
( कुंडल)
(निज्जामय )
( कुंडल)
(कुंडल)
(कुंडल)
(दारिया )
( पृ ४४ )
( पृ ४४ )
( राहु )
( अतिवत्त)
( कतत्थ )
( पृ ४४ ) (नियत)
( समण )
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________________
कत्त—कलह
कत्त
कत्ताहि
कथयन्ति
कथित
कधेति
कप्प
कप्प
कप्प
कप्प
कप्प
- कप्पण
कप्पिय
कप्पिय
कम
कम
कमढ
कमनीय
कमल
कम्पन
कम्म
कम्म
कम्म
कम्म
कम्म
कम्मकर
: कम्मकरी
कम्मक्खय
कम्ममास
कम्ममास
कम्मारय
कयत्थ
( जीव तिथकाय )
( पहर)
( बेंति)
( आहित ) (आचिक्खति )
( पृ ४४ )
. ( पृ ४४ ) (अणुष्णा)
(काल)
(ववहार )
( परूवण )
( पृ ४४)
( अज्झत्थिय )
(विहि)
( आणपुवि )
( जल्ल)
( कान्त)
कयार
करण
करण
करण
करण
करण
करण निप्पण्ण
करीस
करीसण
करुण
करोडक
कर्कश
कर्दम रहित
कर्पर
कर्बुर
कर्म
कर्म
कर्मन्
कर्मबन्ध
( पृ ४४ )
(एजन)
( पृ ४४ )
( उट्ठाण )
( दुक्ख )
कलभ
(पाव)
कलश
(वेर)
कलस
(दास)
कलह
(दासी) कलह्
( संति)
कलह
( उ उमास )
कलह
(रिउ)
कलह
(दास)
कलह
( धण्ण)
कलह
परिशिष्ट १
कर्मानुभूति
कलंकरहित
१८७
( पृ ४५ )
( पृ ४५)
(उबहि)
(जोग)
(भवन)
(संस्कृत)
( लिंगिय )
( गोब्बर )
( धूणण )
(१४५)
( पृ ४५ )
( प्राम्यवचन )
(निष्पंक)
(छेद)
( बकुश)
(क्रिया)
(योग)
(स्थान)
(क्रिया)
(स्थिति)
(निष्पंक)
(बालक)
(घट) (अरंजर)
( पृ ४५)
( अधम्मत्थिकाय )
(अधिकरण)
( आयास)
(समर)
( कोह)
(डिम्ब )
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________________
१८८
कलह
कलह
कलह
कलहंसी
कलहविवेग
कला
कलि
कलिकरंड
कलिका
परिशिष्ट १
कलुण
कलुष
कलुषित
कलुस
कलुस
कलुस
कलुस
कलेवर
कल्प
कल्प
कल्मष
कल्याण
कल्याणोपचय
कल्लसरीर
कल्लाण
कल्लाण
कल्लाण
कल्लाण
कल्लाण
कल्हार
कवचिय
कवड
( मोहणिज्जकम्म)
(विवाद)
( बुग्गह)
( विल्लरी)
( धम्मत्यिकाय )
( पृ ४५ )
(समर)
( परिह)
( मुकुल)
( दीण )
( कषाय )
( शंकित )
( पृ ४५)
(कम्म)
( किव्विस )
(पाव)
( काय )
( जीत )
( पृ ४५ )
( किव्विस )
कण
कति
कहेस्सामि
काउस्सग्ग
कांक्षा
कांत
काण
कान्त
( पृ ४५) कापुरिस
काम
( शुभवृद्धि )
( हट्ठ)
( इट्ठ)
कवड
कवड
कवड
कवल्ली
( पृ ४६ )
( अहसा )
( भद्दग )
( ओराल )
( उप्पल)
( सन्नद्ध )
कषाय
कस
कसाय
कसिण
कसिण
कसि
कसि
कसिण
कामगम
कामगुण
कामभोग- मार
कामयंति
कामासा
कामासा
काय
काय
( कूड) काय अगुत्ति
कलह-काय अगुति
(अलिय )
(उक्कं चण)
( पृ ४६ )
( दव्वी)
( पृ ४६ )
( पृ ४६ )
( पृ ४६ ) -
( पृ ४६ )
( सव्व)
( अनंत )
( निव्वाण )
( अणुत्तर)
(परूवण ) -
(किट्टते)
( कित्तइस्सामि )
( पृ ४६ ) (लोभ)
( इट्ठ)
( पृ ४६ )
( पृ ४६ )
(कीव)
( राग )
( पृ ४६ )
( अबंभ )
( अबंभ ) (अभिसंति)
( मोहणिज्जकम्म )
(लोभ)
( पृ ४७)
( गण )
( अम्मत्थि काय )
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________________
कायगुत्ति-कुंडल
कायगुत्ति कायर कायोत्सर्ग कारंडय
(पृ ४७)
कारग
कारण
कारण
कारण
कारण
कारण कारण
कारण
कारण कारणोवएस कार्पटिक
परिशिष्ट १ : १८६ (धम्मत्थिकाय) कितिकम्म
(वंदणग) (कोव) कित्तइस्सामि
(पृ ४७) (व्युत्सर्ग) कित्तण (मयूर) कित्ति
(पृ ४७) (कारण) कित्ति
(अहिंसा) (४७) कितित
(वणित) (स्थान) किब्बिस
(अलिय) (नियाण) किब्बिस
(माया) (निमित्त) किब्बिसिय (मोहणिज्जकम्म) (अत्थ) किरियंति (उत्पादयंति) (लिंग) किरीट
(तिरीड) (कज्ज) किलंत
(दुब्बल) (हेउ) किलामिज्जमाण (आउडिज्जमाण) (हेउगोवएस) किलामेज्ज (अमिहणेज्ज) (धूर्त) किलिट्ठ
(कलुस) (४७) किलिम
(णपुंसक) (अद्धा) किलेस
(कम्म) (कण्ह) किस्विस
(पृ ४७) (गुरुक) किस
(कस) (पृ ४७) किस
(सुक्क) (सक्कार) किसिण
(कण्ह) (दास) किस्सते (रहस्स) कीडंति
(रमंति) (रमंति) कीर्ति (पृ ४७) कीलंति
(रमंति) (फासिय) कीव
(पृ ४८) (फासेइ) कुंचि
(४८) (आइक्खामि) कुंजर
(मातंग) (सुक्क) कुंजित
(रुण्ण) (पाण) कुंडग
(अरंजर) (सुबुद्धिक) कुंडल
(पृ ४८)
काल
काल
कालक
कालक
(श्लोक)
काहापण किइकम्म किंकर किंचि किट्टंति किट्टते किट्टिय किट्टेइ किट्रेमि किडिकिडियाभूय किणिय कितबुद्धि
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________________
१० : परिशिष्ट १
कुंभीकपंडक कुच्छति कुच्छिधार
(णावा) कुब्वइ (णपुंसक) कुन्विज्ज
(पृ ४८) कुशल (निज्जामय) कुसल - (घट) कुसल (कुंचि) कुसीलसंसग्गि (वक्र) कुसुम
कुटिल
कुहिय
.
.
कूट
कुमल कुढारक थित
24.
ड
कुब्ज
कुंभ-केतु (आवहंति) (पउंजेज्ज)
(पृ ४८) (देसकालण्ण)
(छेयं) (अणायतण)
(पुप्फ)
(दुम) (वावण्ण) (दोसीण) (पृ ४८) (माया) (पृ ४६)
(अलिय)
(उक्कंचण) (मोहणिज्जकम्म)
(पदपाश) (अदिण्णादाण)
(ओयण) (अविण्णादाण) (विकूणित)
(रसिय) (चेतित) (निष्ठित) (पृ ४६) (अशेष)
(सर्व) (पृ ४६) (पृ ४६)
पृ ४६) (पृ ४६)
कुजिक
कुमारी
(४८) कुहित (पिच्चिय)
(छिन्न) कूजण (मुकुल) (अरंजर)
(विश्र) (पृ ४८) (४८) कूड
(कुन्ज) कूड (दारिया) कूड
(पदुम) (उप्पल) कूरिकड
(घट) कूवित (कुंडल) कूविय (माया) कृत
(कक्क) कृत (मोहणिज्जकल्म) कृत्स्न
(४८) कृत्स्न
(संघ) कृत्स्न (अदिण्णादाण) कृश (पदुम) केज्जूर
केतन (आसुरत्त) केतु
कुमुद कुमुय
कुरवक
कुरुय
कुरुय कुरुय
कुल कुल कुलमसि कुवलय कुविय कुविय
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________________
केवल-खसिमवन्मका
परिशिष्ट
: १६१
केवल केवलणाण केवलि केवलि केवलिठाण कोंटक कोकणय कोज्जक कोट्टिब कोट्टिम कोट्ठ कोडि कोप
(पृ ५०) (क्षामित)
(कुब्ब) (पृ ५०)
(पृ ५०) (विरल्लिय)
(मुक्त) (क्षिप्त) (कुशल) ( ५०) (अतिवत्त) (फुडित)
(अंग)
कोमल
कोरक कोलाहलभूय कोव कोव कोह
(४६) क्षपणा (केवल) क्षपित (अरह) क्षाम (सिद्ध) क्षामित (अहिंसा) क्षिप्त
(तुस) क्षिप्त (उप्पल) क्षिप्त (पवुम) क्षिप्तचित्त (णावा)
क्षुण्ण (डिप्फर) क्षुद्र (धारणा) खइय (अस्सि ) खंड .
(क्रोध) खंड (तरुणय) खंडणा
(मुकुल) खंडित (हाहाभूय) खंडित्तए
(कोह) . खंत (मोहणिज्जकम्म) खंत
(४६) खंत (अधम्मत्थिकाय) खंति (मोहणिजकम्म) खंध
(खमा) खज्जमाण (धम्मत्थिकाय) खट्टा
(चन्द्रिका) खट्टिक (४६) (एजन) खड्डुग (पृ ५०)
(योग) खण्ड (विहरण)
(पृ ५०) खत्तपक (अनगार) खत्तियधम्मक
कोह
कोह निग्गह कोहविवेग कौमुदी क्रमति क्रिया । "क्रिया
(विराहणा)
(पृ ५०) (चालितए)
(पृ ५०) (भिक्खु) (समण) (अहिंसा)
(गण) (नस्समाण)
(सेज्जा ) (सौकरिक)
(हत्थिक) (हत्थखड्डुक)
(रयणी)
(छेद)
(राहु) (काहापण) (गंडूपक)
खडुग
खणता
क्रिया
खतय
क्रीडन क्रोध
क्षपण
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________________
खर
खलक
१६२ । परिशिष्ट १
खत्तियधम्मका-खेम खत्तियधम्मका (खिखिणिका) खिसणिज्ज (हीलणिज्ज) (पृ ५०) खिसति
(होलेति) खम
(हिय) खिसिज्जमाणी (हीलिज्जमाणी) खमइ (सहइ) खिसिय
(रुसिय) खमग (भिक्खु) खिज्जणिया
(पृ ५१) खमति (पृ ५०) खित्त
(उक्कंपित) खमा (पृ ५०) खिल
(अंग) खमिति (पृ ५१) खिलीभूत
(गाढीकय) खर (पृ ५१) खीण
(पृ ५१) खर
(उज्जल) खीणंतराय (अणंतराय) (निठुर) खीणक्कोह
(अक्कोह) खरय (राहु) खीणगोय
(अगोय) (रस) खीणनाम
(अणाम) खलणा (पडिसेवणा) खीणमाण
(अमाण) खलुंक (पृ ५१) खीणमाया
(अमाया). खवण (विगिचण) खीणमोह
(अमोह) खवण (झोसण) खीणलोह
(अलोह) खविय (खीण) खीणवंस
(महन्वय) खह (आगासस्थिकाय) खीणवेयण
(अवेयण) खाइम (असण) खीणाउय
(अणाउय) खाखट्टिका (वीहसक्कुलिका) खीणावरण (अणावरण).. खात
(पृ ५१) खीर खाति (जेमेति) खुडित
(रहस्स) खामिय (पृ ५१) खुड्डतर
(पृ ५१) (डिम्ब) खुड्डलक
(पृ ५१) खिखिणिका (पृ ५१) खुद्द
(पाव) खिखिणिका
(पामुद्दिका) खुह खिसइ
(पृ५१) खिसण (अक्कोस) खेत्तण्ण
(देसकालण्ण) खिसणा (हीलणा) खेम
(पृ ५२) खिसणा (इंखिणी) खेम
(पृ ५२)
खार
खुह
(पाव)
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________________
खेव - गम्यते
खेव
खोडक
खोडभंग
खोभणा
खोभित्तए
खोभिय
खोभेइ
खोरक
गंड
गंड सेल
गंड
गंडू क
गंडूपक
गंथ
गंथ
गगण
गच्छ
गच्छ
गच्छइ
गच्छति
गच्छति
गच्छति
गच्छति
गच्छति
गजदन्त
गडूल
गड्ड
गढिय
गढिय
गण
गण
( अदिण्णादाण ) (बोहसक्कुलिका)
( पृ ५२ )
(एजणा)
( चालित्तए)
(वहित )
( उव्वत्तेइ )
( पृ ५२ )
( पृ ५२ ) (पासाण )
( पृ ५२ )
( पृ ५२ )
( पृ ५२ )
(तंत)
( सुत्त)
( आगासत्थिकाय )
(राशि)
(संघ)
( उवेइ)
( वयंति)
( इज्ज्जति)
(अणुसंचरइ )
( कखइ )
(चरति )
( वक्षस्कार )
(अलस)
( पृ ५२)
(मुच्छिय)
( लोलुप )
( पृ ५३ )
(कुल)
गण
गण
गणमतिक्कं त
गणिय
गणिय
गत
गत
गत
गत
गत
गत
गतवय
गत विवेकचैतन्य
गति
गति
गति
गद्दभग
गन्तु
गब्भेल्लग
परिशिष्ट १
गमन
गमन
गमन
गमन
गमन
गमित
गमित
गमित
गमित
गम्यते
गम्यते
गम्यते
:
१६३
( बंद)
(संघ)
( पृ ५३)
( उद्दिट्ठ)
( णाय)
( पृ ५३ )
( पृ ५३ )
( अतिक्कंत )
( इत)
(ठित )
( अतिवत्त)
( महव्वय)
( मूच्छित )
(अहिंसा)
(चरण)
(भव )
( पदुम)
( प्रवहण )
(निज्जामय )
( अयन )
( अवन )
(एजन )
(चरण)
(चार)
( उवचरित)
( पृ ५३ )
( अर्पित )
( मुणित)
(अर्द्यते)
( अर्थ ते)
(चर्यते)
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________________
१९४ : परिशिष्ट १
मय-गिद्धि
वाय
गव्व
गय
गय
३ ४ ३ ३ वू ३ ३ ३ ३ ३ ३ ।
गय गयतेय गरहणा गरहति गरहिज्जमाणी गरहित गरिहति गरिहा गरिहा गरिहिज्जइ गरुलक गर्व गहित गलइ गलत गलन गलि गलि गलि गलियकंटय गलिवद्द गवेषणा गवेसण गवेसणा गवसणा गवेसणा गवेसि गवेसिय
(पृ ५३) (विचल) गव्व
(णाय) गहण (मातंग) गहण (हयतेय) गहण (होलणा) गहण (कुच्छति) गहण
गहणपगार (पृ ५३) गहणा (होलेति) (आलोयणा) गहिय? (पडिकमण) गाढ (आलोइज्जइ) गाढलीण
(तिरीड) गाढलीण (माण) गाढीकय (अवद्य) गाढोपगूढ (सडइ) गाढोपगूढ (चंचल) गामधम्मतत्ति (पृ ५३) गाय
(गंडि) गार्थ्य (खलुंक) गाल (तंडि)
गाह (ओहयकंटय) गाहा
(दुग्गव) गिज्झइ (ईहा) गिझिय
गिण्हाति (आभिणिबोहिय) गिद्ध
(आभोग) गिद्ध (एसणा) गिद्ध
(अत्थि) गिद्धि (अन्विष्ट) गिद्धि
(माण) (मोहणिज्जकम्म)
(पृ ५३) (अलिय) (एसणा)
(माया) (मोहणिज्जकम्म)
(माण) (गहण)
(बद्ध) (लट्ट) (लोलुग) (अणुपविट्ठ) (अतिगत)
(पृ ५३) (अणुपविट्ठ) (अतिगत) (अबंभ) (राग) (लोभ) (गलन) (चिट्ट) (पृ ५४) (सज्जा ) (सज्जिय) (मिणति) (५४) (मुच्छिय)
(लोलुय) (परिज्झा) (मुच्छा )
३ ३ ३ ३
* ३ ३ ३
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________________
गिरा-गोबर
परिशिष्ट १ : १६५
गिरा गिरा गिरि गिरिक गिरिराय
गिलाण
गिल्लिरी गिल्ली
गिह
गिह
गिह
गीतार्थ गीय गुज्झ
गृहीत
गुण
गुण
. (पृ ५४) गुरुक
(वक्क) गुरुक
(णग) गुलमग (पासाण) गुलोवलदीय
(मंदर) ग्रहण (वाहिय) ग्रहण (तिसरा) गृहण (थिल्लो) गृहण (आगार) गृद्ध (गाहा) गृद्धिमन्त (लयण) गृहिपर्याय
(बुद्ध) गृहीत (पृ ५४) गृहीत (अबंभ) (पृ ५४)
गृह्णाति (पृ ५४) गृह्णाति (पज्जव) गेण्हिति
(पर्याय) (जावंताव) गेहि (परियट्टण) (सोलमंत) गेहि (पाणवह) (ऊहित) (आगत) गोउल
(णाय) गोखीर (पृ ५४)
गोचर (दंतप्प)
गोज्झक (पालित)
गोज्झकपति (समण)
गोणस (धुवक) गोधिका (अहिंसा) गोबर
(कृत्स्न ) (पृ ५४) (अरंजर) (पृ ५४) (णिहण)
(पृ ५४) (मोहणिज्जकम्म)
(माया)
(सक्त) (मूच्छित) (पृ ५५) (उद्धृत) (उवचार)
(बद्ध) (पृ ५४) (शृणोति) (आदियति) (पृ ५५)
(छंद)
(तण्हा) (मोहणिज्जकम्म)
(लोभ) (वक्क) (घोस) (संख) (प्राप्ति) (पृ ५५) (गोज्झक) (पृ ५५) (पृ ५५) (पृ ५५)
गुण गुण
गेहि
गेहि
गुणकार गुणण गुणमंत गुणविराहणा
गेहि
गुणित
गुणिय गुणिय गुणेति गुत्त
गुत्त
गुत्त गुत्तणाम गुत्ति
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________________
घुमति
'घट्टण
घट्टणा
३ ४ ३४ प्रवाई में 4 48 # 43 44 4 4 4 है हैं हैं है है
गोयर-चञ्चूर्यते
(डंड) (पाणवह) (पृ ५६)
(अरि) (तिसरा) (अंदोलति)
(उज्जल) (उग्गविस)
(पृ ५६) (ववगय) (छड्डे) (पृ ५७) (छज्जिय) (पृ ५७)
(पाव) (साहसिक) (उक्किट्ठ) (उज्जल) (सिग्ध)
(पाव) (उग्गविस) (पृ ५७)
(कोह) (मोहणिज्जकम्म)
(रुट्ठ) (आसुरत्त)
१९६ : परिशिष्ट १ गोयर
(पृ ५५) घायण गोयर
(दुमपुफिया) घायण गोल
(दुमपुफिया) घायय गोवण
(गृहण)
घायय अथित
(पृ ५५) घिसरा -ग्रहगृहीत
(अणप्पज्झ) ग्रहण
(उवचार) घोर ग्राम
(नियोग) घोरविस ग्राम्यवचन
(पृ ५५) घोस "घट
(पृ ५६) चइय 'घटना
(मेलना) चए
(संवर) चएज्ज घट्टण
(पृ ५६) चंगेरिय
(एजणा) चंचल घट्टेइ
(उव्वत्तेइ)
(अच्छ) (पृ ५६) चंड
(आवहंति) चंड घडक
(अरंजर) चंड घडति
(क्रमति) चंडदंड घडिज्ज
(परिक्कमिज्ज) चंडविस घडितव्व
(पृ ५६) चंडाल घण
(पृ ५६) चंडिक्क घर
(भवण) चंडिक्क
(गाहा) चंडिक्किय घाइय
(हय) चंडिक्किय घाट
(पृ ५६) चंद घाडियय
(नायय) चंदलेस्सा घात
(पृ ५६) चक्ककमिहुणग घात
_ (दंड) चक्खु घाय
(पृ ५६) चञ्चूर्यते
चंड
चंड
घट्ट घट्ट
घड
(दोसिणा) (हत्थिक)
(मेढि) (चरति)
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________________
चार
चतुवेद चिकित्साशाला
परिशिष्ट १ । १९७ चतुवेद (बंभण) चलणा
(एजणा) चत्त (ववगत) चलित
(पृ ५८) चत्तदेह -
(पृ ५७) चलिय
(चलित) चलिय
(वहित) चन्द्र
(पृ ५७) (चन्द्रिका)
चवल चन्द्रातप
(उक्किट्ठ) चवल
(पृ ५७) चन्द्रिका
(खद्ध) चवल
(चंचल) चम्मणद्ध
(हिम्मंसक) चवल
(ससंभम) (पिंड) चय
चवल
(सिग्ध) चय
(परिग्गह)
चहित 'चय (काय)
(पृ ५८) चहिय
(पृ ५८) चयंति
(वक्कमंति) चाउम्मासित
(पृ ५८) चयण
(उस्सग्ग) चाएति
(पृ ५८) चयावचइय
(भेउरधम्म) चाण्डाल
(सौकरिक) चयाहि (पृ ५७)
(पृ ५८) (अबंभ) चरत
चार
(पृ ५८) चरक
(समण) चारु
(सुभ) चरण
(पृ ५७) चालिज्जति
(पृ ५८) चरण
(पृ ५७) चालित
(पृ ५६) चरण
(चार) चालित्तए
(पृ ५६) चरण
(चार) चालेइ
(उव्वत्तेइ) 'चरण .
(जीवाभिगम) चाविय
(ववगय) चरणकरणपारविय
(समण) चाहित
(चहित) चरति (पृ ५७) चिंता
(ईहा) चरति
(५८) चितापर
(दीण) चरय (भिक्खु) चिंतित
(इच्छित) चरित्तधम्म (जीवाभिगम) चिंतित
(ऊहित) चरित्तधम्म (पच्चक्खाण) चितिय
(अज्झत्थिय) चरिया (चार) चितेहिति
(पृ ५६) चर्यते (पृ ५८) चिंध
(लिंग) चल
(चलित) चिंधणिप्फण्ण (लिगिय) चल
(अनित्य) चिकित्साशाला (तेगिच्छियसाला)
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________________
१६८
चिक्कण
faraftaa
चिञ्चनिका
चिट्ठ
चिटुणा
विट्ठणा
चिडिलीसिहा
चितक
चितिकम्म
चित्त
चित्त
चित्त
वित्त
चित्त
चित्तल
चित्तविप्लुति
चिन्तन
चिन्ता
चिन्ता
चिन्ता
चिर
चिरजुसिय
चिरपरिचिय
चिरसंयुय
चिरसं सिट्ठ
चिराणु गय
चिराणुवत्ति
चिल्लल
चिल्लिक
परि १
चिह्न
चुडलि
( पृ ५६)
( गाढीकय )
(आनचिञ्चा)
( पृ ५६ )
( अवस्था )
( पतिट्ठा)
(हुत सिण सिहा )
( दीव)
(वंदग)
( पृ ५६ )
(अंतरप्प )
(पणिहाण)
(मधुर)
( मणसं कप्प )
(सबल)
(विचिकित्सा)
( मनन )
( उपयोग )
( उपयोग )
( संकण )
( पृ ५६)
( चिरसं सिट्ठ)
. (चिरसंसिट्ठ) (चिरसं सिट्ठ)
( पृ ५६ )
( चिरसं सिg )
( चिरसं सिट्ठ)
( सद्दल )
(पुंसक)
(केतु)
(दीव)
चुण्ण
चुय
चुय
चुल्लक
चुल्लि
चूला
चेट्ठा
चेत
चेतण
चेतित
चेय
चेयण्ण
चेष्टा
चैत्य
चोक्ख
चोक्खा
चोक्ष
चोण्ण
चोदणा
चोदित
चोयणा
चोरिक्क
छंद
छंद
छंद
छंदत
छंदक
छंदण
छंदन
छगण
चिक्कण - छगण
(अंग)
(गय)
(वषय)
(दीव)
(दोष)
( पृ ५६)
(योग)
(अंतरप्प )
( णाण)
( पृ ६० )
( जीवत्यि काय )
(१६०)
( रयस्)
( आयतन )
(आयंत)
(अहिंसा)
( पृ ६० )
( वज्ज)
(पुच्छा)
( पृ ६० ) (१६०)
( अदिण्णादाण )
( पृ ६० )
i ( पृ ६० )
(इच्छा)
(पडियाणिया )
( मणाम)
( पृ ६० )
(निकाच )
( गोब्बर )
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--------------------------------------------------------------------------
________________
छज्जिय-- जज्जर
छज्जिय
खड्डण
छड्डण
छड्डित
छड्डित
छड्डिय
छड्डे
छड्डें
छड्डेहि
छण
छण
छन्द
छन्न
छर्दित
छलिक
छविकर
छ विच्छेय
छात
छायण
छाया
छाया
छाया
छासि
छिंद
छिदंत
छिदंति
छिज्जमाण
छिड्ड
छिड्ड
छिण्ण
छिण्णण
(१६०) ( विउस्सग )
(उस्सग्ग)
(फुलित)
(पकिण्ण)
( पृ ६० )
( पृ ६० )
(बमेंति)
( चयाहि)
( जण्ण)
(उस्सय)
( पृ ६१ )
( पृ ६१ )
( पृ ६१ )
( मणाम)
( पावय)
( पाणवह)
( पिवासित )
(हिण )
( जुइ )
( पृ ६१)
(कंति)
(तक्क)
( पहर )
( पृ ६१)
( पृ ६१ )
(नस्समाण )
( पृ ६१ )
( आगासत्थि काय )
(भग्ग )
( निवट्टन)
छिण्णबंधण
छिण्ण सोय
छिद्द
छिद्द
छिद्र
छिन्न
छिन्न
छिन्नंति
छिन्न सोय
छुद्ध
छुभति
छेत्ता
छेद
छेदन
छेय
छेय
छेयकर
छेयण
छेयणकरी
जइ
जइण
जइण
जंतु
जंपति
जंबू
जंबूका
जंबूफलक
जग्गतक
जघन्य
जघन्य
जज्जर
परिशिष्ट १
१६६
( दविय)
(संत)
:
( अन्तर )
( पृ ६१ )
( सन्धि )
( कप्पिय )
( पृ ६१ )
( पृ ६१)
( अणासव )
( णिच्छुद्ध)
(उपयंति)
(हंता )
(पृ६१)
(आकुट्टि)
( उधिक)
( पृ ६२) (अण्हयकर)
(फुडण )
( पृ ६२)
( भिक्खु)
( उक्किट्ठ)
(सिग्ध)
( जीव त्थिकाय)
( आचिक्खति )
( पृ ६२) (कंची)
( करोडक)
( पृ ६२)
(अधर)
(हिट्टिम)
(जुण्ण)
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________________
२००
जड
जडलय
जड्डु
जढ
: परिशिष्ट १
जणकलकल
जणपद
जणबोल
जणवूह
जसंमद्द
जणसण्णिवाय
जणुक्कलिया
जणुम्मि
जण्ण
जण्ण
जण्णकत
Goणकारि
मुंड
जत
जति
जतितव्व
जन्म
जन्मपर्याय
जय
जय
जयणा
जरठ
जरती
जरत्का
जरातुर
जराविमुक्क
जलण
(मंद)
(राहु )
( पृ ६२ )
(छड्डिय)
( जणसं मद्द )
(रज्ज)
( जण संमद्द )
( जणसंमद्द) (पृ६२)
( जण संमद्द )
( जणसं मद्द )
( जण संमद्द )
( पृ ६२) (उस्सय )
( बंभण)
(बंभण)
( बंभण)
(वीर)
( भिक्खु )
( घडितब्व)
(भव)
( गृहिपर्याय) ( उवसंत)
( जीवस्थिकाय)
( अहिंसा)
जलन
जलपानस्थान
जलरुह
जलहर
जलूग
जलोदर
जल्ल
जल्लिय
जवइत्तय
( पृ ६२)
( महव्वय )
जवण
जवित्तय
जस
जसंस
जसंसि
जसवती
जसोकाभि
जसोधरा
जहाभूत
जहाहि
जहेज्ज
जाइविमुक्क
जाणइ
जाणंति
जड - जायको उहल्ल
(नयन)
(तीर्थ)
(पुराण) जाणुकोप्परमाय
( जरत्का)
जात
जाततेय
जाम
जाय
( सिद्ध) ( अग्गि) जायको उहल्ल
जाणितव्वगसामत्थजुत्त
( कमल)
( बलाहक) (दुमपुफिया )
(बजवर)
( पृ ६२)
( पृ ६३ )
( पृ ६३)
( उक्किट्ठ)
( पृ ६३)
( पृ ६३ )
( सिद्धत्थ)
(ओयंसि )
(सेसवती )
(पूयण हि )
(जंबू)
( पृ ६३)
(चयाहि)
(चएज्ज)
( सिद्ध)
( पृ ६३ )
(मन्नंति)
(विशत्तिकारण)
(झा)
(पृ६३)
( अग्गि)
( पृ ६३)
(अरह )
( जायसड्ढ )
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________________
जायमेय----जोणि
परिशिष्ट १ : २०१
जायमेय जायसंसय जायसढ़ जाल
जाल
जालक
जालन जावंताव जिइंदिय जिण
(लोभ) (मोहणिज्जकम्म)
(पृ६५) (दुब्बल) (पृ ६५) (अतिवत्त) (महव्वय) (महन्वय) (परग्घ)
(कंति) (पृ ६५) (संगाम)
(पिंड) (पत्ति )
जुत्ति
जित
जितकरण जिम्ह जिम्ह
जुम्म
जिय जिव्हिका जीत
(पुट्ट)
जीवियासा (जायसड्ढ) जीवियासा
(पृ ६३) जुइ (मुम्मुर) जंजिय (तिसरा) जुण्ण (मुकुल)
जुण्ण (नयन) जुण्ण (पृ६३) जुण्णवय
(खंत) जुत्तग्घ (अरह)
जुद्ध (पृ ६३)
जुद्ध (माया) (मोहणिज्जकम्म)
जुवति (सिक्खिय)
जुवाण (पृ६४)
जुवाण
जूरइ (बहुजनाचीर्ण)
(ववहार) (जरत्का )
जूह (पृ. ६४)
जेट्ठोग्गह (जीवस्थिकाय)
जेमण (पाण) (पृ ६४)
जेया (स्थिति)
जोग (अणुण्णा)
जोग (पृ ६४) जोग (पृ. ६४)
जोगनिग्गह (पृ ६४) जोग्ग (जीवन) जोग्ग (पाणवह) जोणि
(पृ.६४)
जीत
जूरण
जूस
जीय जीर्णा
(जोव्वण) (दुक्खइ) (दुक्खण)
(रस) (पृ ६५)
(बंभण) (पज्जोसवणा)
(भोयण)
जीव जीव
जेमेति
जीव जीवन जीवन जीववढिपय जीवा जीवाभिगम जीवित जीवित जीवियंतकरण
(जीवत्थिकाय)
(पृ६५) (पृ ६५)
(वक्क) (काउस्सग्ग) (अरिह)
(पभु) (जीवस्थिकाय)
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________________
जोति-डंड
(आभोगण)
(उव्वत्तेइ)
ठवणी
ज्येष्ठ
२०२ । परिशिष्ट १ जोति
(अग्गि) झोसण जोतिस
(संवत्सर) झोसण जोत्तेज्ज (परिक्कमिज्ज) टिट्टियावेइ जोव्वण
(पृ६५) ठप्प जोव्वणक
(जोव्वण)
ठवणा जोव्वणत्थ
(जुवाण)
ठवणा जोव्वणत्थ
(जोव्वण)
ठवणा
ठवणा जोसिता
(पत्ति)
ठवणा ज्ञा
(ज्ञान)
ठवणिज्ज ज्ञान
(संविद्) ज्ञाप्यते
(साध्यते)
ठविय
(पर) ज्येष्ठावग्रह
ठवेति (प्रथमसमवसरण)
ठाण ज्योत्सना
(चन्द्रिका)
ठाण झंझक
(हत्थिक)
ठाण झपित
(उक्कंपित)
ठाण झवणा
(अज्झयण)
ठाण झवित
(णिप्पीलित)
ठाण झविय
(खामिय)
ठाण झाणपर
(दीण) ठाणद्वित झिज्झा
(लोभ) ठावणा झिल्लिरी
(तिसरा) ठिइ झीण
(पृ६६) ठिइकरण झीण
(णिप्पीलित) ठित झीण
(महव्वय) ठिति झीण
(अतिवत्त) ठिति झुसिर
(तुच्छ) ठिति झुसिर
(आगासस्थिकाय) ठिति झमित
(भग्ग) ठिय झोस
(पृ ६६) डंड
(धारणा) (णिक्खेव) (अणुण्णा)
(अवस्था) (पज्जोसवणा)
(ठप्प) (अवत्था) (मिक्खित्त)
(णिहित) (णिसोहिया)
(पतिट्ठा) (पृ ६६) (पृ ६६) (अचल) (उवसग)
(णाम) (धुवक) (पतिट्टा)
(विहि) (अणुण्णा ) (पृ ६६) (अहिंसा) (पृ ६६) (अवत्था) (पतिद्वा) (सिक्खिय) (पृ ६६)
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________________
डंभण-णिक्खेव
परिशिष्ठ १ । २०३
डंभण
डझति -डमर
डमर डहरक डिब डिप्फर - डोंब • जंगल
णंदि .णंदिय
(पासाण) (अंचेति) (पृ६८) (६८) (अणुण्णा)
(मित्त) (पत्ति) (६८) (णिक्खेव)
(धुव) (वक्ख) (इंखिणी)
(उवधि) (णीहारेति)
(६८)
णिइय
णिदणा
•णग
(कक्क) णामत (रज्जति) णामेति
णाय (डिब) णाय (कलह) णाय
णायय . (६६) णारी (पृ६६) णावा (पाण)
णास (पृ६७) (पृ६७) णिउण (हढचित्त) (पृ६७) णिकडि (पृ६७)
णिकड्ढति (णिहय)
णिकड्ढति (असपज्जाय) णिकम्मदरिसि (पृ ६७)
णिकाय (आढाइ)
णिकायण (अणुण्णा) णिकुज्जित (६७) णिज्जित (६७) णिक्कंखित (णपुंसक) णिक्कड्ढित (उप्पल) णिक्कढित (पदुम)
णिक्खंत
णिक्खणंत (६७) णिक्खण्ण (मुणि) णिक्खिण्ण (पृ६८) णिक्खित्त (६८) णिक्खित्त (उवसमण) णिक्खुस्सति (अणुण्णा) णिक्खेव
•ण?
त्थिभाव णपुंसक णमंसइ णमणी णमोक्कत रिंद णरेतर णलिण णलिण •णाण •णाण
णाणि •णाणि •णाम
णामण भणामणी
(वंद)
(छंदण) (णिस्सारित) (णिम्मज्जित) (णिस्संकित) (णिस्सारित) (हिम्मज्जित)
(६८)
(छिदंत) (णिम्मज्जित) (विक्खिण्ण) (णिस्सारित)
(पृ ६८) (णीहारेति) (पृ६६)
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________________
२०४
णिगलित
णिग्गंथ
णिग्गंथ
1
णिग्गत
णिग्गत
णिग्गलित
णिच्च
णिच्च मंडिया
णिच्छय
णिच्छयं णाहिति
णिच्छयत्थ पडिवत्ति
णिच्छालित
निच्छिड्डु
णिच्छिय
णिच्छुद्ध
णिच्छुद्ध
णिच्छुद्ध
णिच्छोडण
णिच्छोलित
णिच्छोलित
णिजुद्ध
णिज्जरा
णिज्जरा
णिज्जवणा
णिज्जाण
णिज्जूढ
णिज्झायति
परिशिष्ट १
णिट्ठित
णिट्ठित
गिट्टियट्ठ
णिट्ठत
णिट्ठर
( णिप्पीलित ) (समण)
गिट्ठर
( माहण)
णिट्टर
( उट्ठित)
णिट्ठर
( णिच्छुद्ध) णिडाल
( णिभामित)
( धुव)
(जंबू)
( पृ ६६ ) (चितेहिति)
( ववसाय )
( णिस्सारित)
(घण)
(णियय )
( पृ ६६ )
( णिस्सारित)
( णिम्म ज्जित )
( पृ ६६ )
( णिस्सारित)
( णिम्म ज्जित )
( जुद्ध)
( अणुष्णा )
(१६)
(पुच्छणा )
(मोत्ति)
(जवित्तय )
( पेक्खते)
( महव्वय)
( अतिवत्त) (पंडिय)
( णिम्मज्जित )
पिडालमासक
णिड्डील
णिण्णामित
णिण्णीत
णिण्णेहक:
णितिय
णितिय
पित्थणित
पित्थुद्ध
णिदंसण
णिदंसिय
निदरिसण
गिद्दीण
णिद्धाडित
णिद्धाडित
णिद्धावति
णिष्पकंप
णिप्पतित
णिप्पयोग
णिप्पीलित
णिप्फत्ति
णिष्फल
णिष्फाडित
णिप्फावित
णिप्फीलित
णिप्फेडत
णिगलित-णिकेडित
(उज्जल )
(फरुस)
( कक्कस)
( खर)
( पृ ६६ )
( पृ ६६ )
( णिस्सारित)
( णिस्सारित)
( णिम्मज्जित )
( पृ ६९ )
( धुव )
( पृ ६६ ) (णिम्मज्जित )
( णिम्मज्जित )
( १६e )
( आघविय)
( णाय)
( णिम्म ज्जित )
( णिस्सारित)
( णिम्म ज्जित )
( पधावति )
( धुवक )
( णिस्सारित)
(सिद्ध)
( पृ ७० )
( पृ ७० )
( अतिवत्त)
( णिस्सारित)
(णिम्मज्जित )
( णिस्सारित)
( णिम्मज्जित )
1
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________________
णिब्भच्छिज्जमाग-णिव्वुयगत
परिशिष्ट १ : २०५ णिन्भच्छिज्जमाण (वुच्चमाण) . णिल्लक्खित (णिम्मज्जित) णिब्भामित
(पृ ७०) पिल्लवेति (वोसिरति) णिमंतण (छंदण) जिल्लालित
(उठित) णिम्मंसक
(पृ ७०) णिल्लिक्खण (णिच्छोडण) णिम्मज्जित (पृ७०) णिल्लिखित
(उहित) णिम्मट्ठ (रहस्स) पिल्लुवित
(हिम्मज्जित) णिम्मम (णीरागदोस) णिल्लोकित
(उठित) णिम्मल
(निट्ठियट्ठि) णिल्लोलित (णिस्सारित) णिम्मल (अरय) णिवूढ
(दि ) णिम्मल
(सेत) णिवाल्लित (णिम्मज्जित) णियखेति (पेक्खते) णिव्वंजीयंति
(पृ ७०) णियडि
(उक्कंचण) णिव्वट्टित (णिम्मज्जित) णिय डिजोग (उवधि) णिव्वत
(महव्वय) (पृ ७०) णिव्वत्तणम
(उप्पायण) (अचल) णिव्वर
(धुवक) णियत्ति (दुगुंछणा) णिव्वर
(छिन्न) णियय (पृ ७०) णिव्वलक
(णिच्छोडण) णियया (जंबू) णिव्वाघाय
(अणुत्तर) णिरणुकंप
(पाव) णिव्वाडित (णिस्सारित) णिरत्ति (रयणी) णिव्वाण
(पृ ७१) णिराकत (णिस्सारित) णिवाणि
(संधि) णिराकार (अपमाण) णिवाणिकर
(पृ ७१) णिरागत (दीण) णिव्वाधित
(हठ्ठ) णिराणंद
(णिम्मज्जित) णिव्वामित (णिस्सारित) णिराणत
(णिस्सारित) णिव्वासित (णिम्मज्जित) णिरिक्खति (पेक्खते) णिव्वि?
(णिम्मज्जित) णिरोग
(हट्ठ) णिब्बितिगिच्छित (णिस्संकित) णिलिक्खति
(पेक्खते) णिव्वुत
(सिद्ध) णिलुंचित (भग्ग) णिव्वुत
(पृ ७९) णिलुलित (णिम्मज्जित) णिवुतिकर
(मधुर) णिलूचित (णिस्सारित) णिब्वुयगत (सिद्धिगत)
णियत णियत
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________________
निसरति-तच्च
(अरय) (सिद्ध) (पृ७२) - (कण्ह) (णीरागदोस) (गीहारेति)
(पृ ७२) (मोहणिज्जकम्म)
(माया) (गृहण) (हरंति) (समण) (केवल)
णूम
णू में ति
२०६ : परिशिष्ट १ णिसरति
(णीहारेति) णीरय णिसा
(रयणी) गीरय णिसारेति
(णीहारेति) णीरय णिसिट्ठ
-- (दिट्ठ) णीरागदोस णिसित्त
(णिस्सारित) णील णिसियणा
(पृ ७१) णीसल्ल णिसीहिया
(उवसग) णीहरति णिसीहिया
(पृ७१) णीहारेति णिस्संकित
(पृ ७१) णिस्मंग
(णीरागदोस) णूम णिस्सरित
(णिस्सारित) णूमण णिस्सरित (णिज्जित) णिस्ससित (णिस्सारित) णेय णिस्ससित (गिम्मज्जित)
णेयाउय हिस्सारित
(णिम्मज्जित) णेवाण णिस्सारित
(पृ ७१) णोल्लति णिस्सावित (णिम्मज्जित) णोल्लसति पिस्सिघित
(णिम्मज्जित) णो सुह णिस्सित
(णिम्मज्जित) व्हाण णिस्सुक्क
(हिम्मंसक)
हात णिस्सेयस
(हिय)
ण्हाय णिहण
(पृ ७१)
तंडि णिय
(पृ ७१) तंत
(पृ ७२) तंत णिहेति
(णिहित) तंत णीत
(तीरित) तका णीपुर
(गंडूपयक) तक्क णोपुरग
(गंडूपक) तक्क णोयतराय
(खुड्डुतराय) णीरक्कय
(णिम्मज्जित) तक्केइ
(घ१) तच्च
(संति)
(ओधावति)
(अंचेति) (अणिट्ठ) (सिणाण) (पृ ७२) (पृ ७२) (पृ ७२) (पृ ७२) (सुत्त)
(संत) (पृ७२) (पृ ७२)
(पृ७२) (अविण्णादाण) (आसाएइ)
(संत)
णिहित
तक्करत्तण
णीरय
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________________
तच्चावाय- सरणय
तच्चावाय
तच्चित
तच्चित्त
तच्छ्रण
तज्जण
" तज्जण
तज्जण
तज्जण
-तज्जिज्जमाण
• तज्जिज्ज माणी
तज्जित
तज्जेंति
तज्जेज्ज
तज्जेति
- तज्जे माण
तट्टक
तण
तणपल्ल
-तणसोल्लिक
तणु
तणुतणू
तणुयतर
तणूयरी
तण्णक
तण्णक
तण्णक
तण्णका
लहा
तण्हा
तण्हा
तण्हा
(विट्टिवाय)
( पृ ७४ ) (अज्झोववण्ण)
(फुडण )
(हीलण )
(सण)
(अक्कोस)
(कुट्टण)
(आउडिज्ज माण)
( होलिज्जमाणी) (चोदित)
(उसभ)
(वच्छक)
(बालक)
(दारिया )
( मोह णिज्जकम्म)
(लोभ)
( परिग्गह)
( पृ ७३)
तण्हाइत
तण्हा - गेही तत्तिव्वज्भवसाण
तत्थ
तत्थ
तत्थ
तत्थ तत्थ
तत्व
तदुभय
( पृ ७४) (आओसेज्ज) तद्दिट्ठि
( अमिहणति ) (ओवीले माण )
( पृ ७३ )
(काय)
कडपल्ल)
( पदुम) (ईसिपमारपुढवी )
(ईसिपमारपुढवी ) (ईसिपमारपुढवी)
(ईसिपग्भारपुढवी )
तदज्भवसिय
तदट्ठोवउत्त तदप्पियकरण
तनु
तनु
परिशिष्ट १
तनुतरशरीर तन्निवेसण
तप्पक
तप्पण
तप्पुरक्कार तब्भावणाभाविय
तम
तमस्
तमुक्काय
तम्मण
तम्मण
तम्मोत्ति
तरछ
तरु
तरुण
तरुणय
: २०७
( पिवासित )
( अविण्णादाण )
( तच्चित)
( पृ ७३)
(भीय) (वियंजित)
( पृ ७३)
( पृ ७३ )
( तच्चित)
( तच्चित्त)
(तच्चित)
(अण्णा)
( पृ ७३)
(बोंदि)
( कृश )
( पृ ७३ )
( तद्दिट्ठि)
( णावा )
(तुस )
( तद्दिट्ठि)
( तच्चित्त)
(तमुक्काय)
( पृ ७३ )
( पृ ७३)
(अज्झोववण्ण )
( तच्चित्त)
( तद्दिद्र)
( पृ ७४)
(दुम)
( जोवण )
( पृ ७४)
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________________
२०८ : परिशिष्ट १
तलपत्तक तलभ तलिय तल्लेस तल्लेस तव
तव ..
तवरत तवस्सि तवस्सि तवस्सि
तवेइ
तसंति तसिय तस्सण्णि तह तहि-तहिं तहिय तहिय ताडण
(कुंडल) तालेज्ज
(केज्जर) तालेति .(डिप्फर) तालेमाण (तच्चित्त)
तावत (अज्झोववण्ण) तावस
(परिहार) तासण (णिज्जरा) तासणय
(भिक्खु) तासणय ' (पृ ७४) तिउल (पव्वइय) तिगिच्छसरिस
(भिक्खु) तिण्ण (ओभासेइ). तिण्ण (पृ.७४) तिण्ण
(भीय) तिण्ण (तद्दिट्ठि) तिण्णगत (पृ ७४) तितिक्खइ (तत्थ-तत्थ) तितिक्खति (सच्च)
तितिक्खा (संत)
तितिक्खा (कुट्टण) तित्ति
(हीलणा) (आउडिज्जमाण) तिपएसियखंध (अहिंसा)
तिप्पड़ (भिक्खु)
तिप्पण (कमल) तिप्पण (पदुम) तिप्पण (उप्पल) तिप्पमाणी (भेसण)
(वध) तिमिगिल (होलणा) तिमिर (तज्जेंति) तिमिर
तलपत्तक-तिमिर
(आओसेज्ज) (अभिहणति) (ओवीलेमाण)
(भिक्खु) (समण) (अक्कोस) (बोहणय)
(पाव) (उज्जल) (पितवण्ण)
(सिद्ध) (भिक्खु) (समण) (पृ ७४) (सिद्धिगत)
(सहइ) (पृ ७४)
(खमा) (पृ ७५) (अहिंसा)
(पवयण) (पोग्गलत्थिकाय)
(दुक्खइ) (दुक्खण) (कूजण)
(कंदण) (रोयमाणी) (पाठीण) (पाठीण) (नील) (तमस्)
ताडणा
तित्थ
ताडिज्जमाण
ताण ताति तामरस
तामरस
तामरस तालण
तिमि
तालण
तालणा तालति
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________________
तिरोड - थिर
तिरीड
तिरोभाव
तिलक
तिलक्खली
तिलोवलद्धीय
तिवायणा
तिव्व
तिसरा
तिसला
'तीतवय
तीरट्ठि
तीरट्ठि
तीरट्ठि
तीरित
तीरिय
तीरेइ
तीर्थ
तुंब
तुच्छ
तुच्छ
तुच्छाहार
तीय पच्चुप्पन्न मणागय वियाणय
तुट्ठ
तुट्ठ चित्त
तुट्टाए ति
सुट्ट
तुट्ठ
तुदति
तुयट्टण
तुरिय
( पृ ७५) तुरिय (लय)
तुरिय
तुरिय
तुलना
तुस
ते गिच्छियसाला
तेणिक्का
तेय
य
तेयंसि
तोड
( णिडाल मासक ) (तिलोवलद्धीय)
( पृ ७५ )
( पाणवह)
(उज्जल )
( पृ ७५)
(पृ. ७५ )
( महव्वय)
(अरह )
( पव्वइय )
(समण )
( भिक्खु)
( पृ ७५)
( फासिय)
( फासेइ )
( पृ ७५ )
( णावा)
( पृ ७५)
( कृश )
( अंताहार )
( मुदित) (चित्त)
(चाएति)
( पृ ७६ )
( णंदी)
( पृ ७६ )
( त्वग्वर्तन )
( ससंभम )
त्यक्त
त्यक्त
त्रिदशावास
त्रिदिव
त्रिविष्टप
त्वग्वर्तन
थंभ
थंभ
थणंति
थाम
थाम
थाम
थाल
थालक
थावरक
थावर काय
थिग्गलय
परिशिष्ट १ :
थित
थित
थिर
२०६
( खद्ध )
( सिग्ध )
( उक्किट्ठ)
( पृ ७६)
( पृ ७६ )
( पृ ७६ ) (अदिण्णादाण )
(१७६)
( जुइ )
(ओयंसि )
(भमर )
(मुक्त)
(छादित):
(स्वर्)
(स्वर)
(स्वर्)
( पृ ७६ )
( माण)
( मोह णिज्जकम्म )
( पृ ७६ )
( वीरिय)
(योग)
(जोग)
( तट्टक)
(तट्टक)
( धुवक )
( पादव)
(पडियाणिया ) ( परिउसित )
( धुवक )
( पृ ७६)*
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________________
२१० : परिशिष्ट १
चिरसंघयण-दलिक
(छेय) (पृ.७८)
थुइ
दक्ख दक्ख दक्खाणक दक्खिण्णव दक्ष दगतीर दगपरिगाल दगन्भास दगवाह दगवीणिय
(दक्ख) (कुशल)
(पृ ७८) (वगवीणिय)
(दगतीर) (वगवीणिय)
( ७८) (बगतीर) (साहसिक) (थिरसंघयण)
(पृ७८)
(महव्वय)
दगासण्ण
दच्छ
(परममि)
दढसंघयण
दण्ड दति
(णावा)
थिरसंघयण
(७६) थिल्ली
( ७६) थुइ
(अणुसट्ठि)
(पृ ७७) थुक्कारिज्जमाणी (होलिज्जमाणी) थुणण
(संथुणण) थुणण
(थुइ)
(७७) थूल
(पृ ७७) थेज्ज
(पृ ७७) थेर थेरकप्प
(पृ ७७) थेरकाल थेरट्ठाण
(थेरभूमि) -थेरभूमि
(पृ ७७) थेरमज्जाता थेरसमायारि
(थेरकप्प) थोक
(खुड्डुलक) थोव
(अणुमात्र) थोव
(रहस्स) दउदर
(पृ७८) (पृ ७७)
(घात) (पृ ७७) (समण)
(खंत)
(भिक्खु) (मोहणिज्जकम्म)
(आविय) दंसिय
(उब्भिण्ण) दकादर
(दउदर)
(थेरकप्प) ददुर
दप्प
दप्प
दप्प दप्पणिज्ज
दम्भ
दया
दया दया दयामो दरिसण दरिसणिज्ज दर्दरिका दर्प
(राहु) (मोहणिज्जकम्म)
(माण)
(अबंभ) (दीवणिज्ज)
(माया). (पृ.७८) (अणुकंपण)
(अहिंसा) (लज्जामो)
(दिट्टि) (पासादिय) (गोधिका)
(माण) (७८) (भव्य)
दंसिय
दर्शन
दल
दलिक
(वस्तु)
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________________
दलिय -- दोहसक्कु लिका
दलिय
दवfरका
दविय
दविय
दविय
दविय
दव्वसार
दव्वी
दव्वीकर
दसा
दसीरिका
दस्सुगायतण
दहिघण
दारक
दारिया
दारु
दारुण
दारुण
दारुण
दारुणसद्द
दालित
दावणा
दास
दासी
दाहिणड्ढलोगहिवद दिग्घपस्सि
दिजाईपवर
दिजाति
दिजातीवसभ
दिट्ठ
दिट्ठ
दिट्ठत
(फुलित)
(जीवा) (दंत)
( भिक्खु)
( पृ ७८)
(समण ) (परिह)
(पृ७८)
( गोणस )
(अंग)
( बीहसक्कुलिका)
( पच्चतिक)
( संख) (बालक)
( पृ ७८ ) (जग्गंतक)
( पृ ७६ )
( चिक्कण )
( उज्जल )
( पृ ७६ )
(फुलित )
(पुच्छणा )
( पृ ७६ )
( पृ ७६ )
( सक्क)
(अलस)
( बंभण)
( बंभण)
( बंभण )
( पृ ७६ )
( नाय )
( णिदंसण)
दिट्ठत
दिट्टि
दिट्टिवाय
दित्ति
दिनकर
दिप्पते
दिवस
दिव्व
दिसाइ
दिसादि
दिसते
दीण
दीणस्सर
दीन
दीपक
दीपकाण
दीर्घत्व
दीव
दीव
दीवक
परिशिष्ट १
दीवणिज्ज
दीवसिहा
दीवालिका
दीविका
दीविगासहा
दीविय
दीविय
दीसति
दीह
दीह
दीहसक्कुलिका
:
२११
(गाय)
( पृ ७६ )
( पृ ७e )
(कंति) (आदित्य)
( पृ ८० )
(सुद्ध)
( उक्किट्ठे )
(मंदर)
(मंदर)
( उप्पज्जते )
( पृ ८० )
(हीणस्सर) (करुण)
( व्यञ्जक )
(काण)
(आरोह)
(अहिंसा)
( पृ ८० )
( दीव) ( पीण णिज्ज)
( हतासिणसिहा )
(बीहसक्कुलिका)
( दव्वी)
(हुता सिणसिहा )
( पृ ८० )
( पृ ८०)
( लब्भति)
८०
( पृ 50 ) (चिर )
( पृ ८१)
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________________
२१२
:
दुःक्षपणीय
दुःस्थग
दुक्कड
दुक्ख
दुक्ख
दुक्ख
दुक्ख
दुक्ख
दुक्ख
दुक्खइ
दुक्खक्खव
दुक्खण
दक्खाणक
दुगंछणा
दुगंछा
दुगुञ्छा
दुग्ग
दुग्गत
दुग्गत
दुग्गतिप्पवाय
दुग्गव
दुधाण
दुसय
दुट्ठ
दुगोण
दुष्णाम
दुद्ध
दुपए सियखंध
दुपरिचय
दुपाण
दुप्पक्ख
परिशिष्ट १
(दुर्भेद)
( दुहट्ट )
( पृ ८१ )
( पृ ८१)
( पृ ८१ ) (अणिट्ठ)
( असात )
(भय)
( उज्जल )
( पृ ८१)
( पव्वइय)
( पृ ८१ )
( कुंडल)
( पृ ८१)
(समण)
(दया)
(उज्जल )
( भग्ग )
( अधण )
( पाणवह )
( पृ ८१ )
( पृ ८१ )
( फुसित )
( पृ ८२)
( दुग्गव )
( माण )
( पृ ८२)
( पोग्गल स्थिकाय)
( दुस्सील)
( मातंग ) (कम्म)
दुप्पण्णवणिज्ज
दुब्बल
दुब्बल
दुभिक्ख
दुम
दुम
दुमपुप्फिया
दुम्मण
दुम्मणिय
दुरणुणेय
दुरहियास
दुरुह इ
दुर्घट
दुर्भेद
दुर्मोच
दुव्वय
दुब्बिघाय
दुस्सन्नप्प
दुस्सह
दुस्सील
दुह
दुहय
दुहट्ट
दुहट्ट
इज्जति
दूभग
दूरत
दूरातिसरित
दूरोगाढ
दूसित
दृष्ट
बुक्षपणीयदृष्ट
( पच्चं तिक)
( पृ ८२)
( कस)
( दुधाण )
( पृ ८२)
( पादव)
( पृ ८२ )
( दीण )
(दोमणस्स)
( दुस्सील) (उज्जल )
( पृ ८२)
(बुहट्ट)
( पृ ८२)
(दुर्भेद) ( दुस्सील)
( वध )
( पच्चं तिक)
( पृ ८२)
( पृ ८२)
(पाव)
(उभय)
( पृ ८३ )
(अट्ट)
( पृ ८३)
(अधरण)
( अतिगत )
( अतिगत )
( अतिगत )
(बट्ठ)
( चहित)
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________________
हुष्टि-धम्ममण
ਵਹਿ देति देव
देव
देवंधगार देवतमस देवतमिस देवपडिक्खोभ देवपलिक्खोभा देवफलिह देवफलिहा देवरण देवराय
देवराय देववूह देवसेण
परिशिष्ट १ : २१३ (दर्शन) दोस (अधम्मत्थिकाय) (आणेति) दोस (मोहणिज्जकम्म)
(पृ ८३) दोसविवेग (धम्मत्थिकाय) (तनुतरशरीर) दोसिणा
(पृ८३) (तमुक्काय) दोसीण
(पृ ८३) (तमुक्काय) द्रव्य
(पृ ८३) (तमुक्काय) द्रव्य
(वस्तु) (तमुक्काय) द्रव्याक्षर (व्यञ्जनाक्षर) (कण्हराति) द्विजातीपुंगव
(बंभण) (तमुक्काय) द्वितीयसमवसरण
(पृ ८०) (कण्हराति) द्वेष
(उपश्रा) (तमुक्काय) धंत
(भग्ग) (गोज्झक) धंस
(सायण) (सक्क) धणिता
(पत्ति ) (तमुक्काय)
(पृ ८३) (महापउम) धण्ण (सक्क) धण्ण
(सिद्धत्थ) (दर्शन)
(ओराल) (पृ ८३) धन्नशाला
(कडपल्ल) (देशन) धमणिसंतय
(सुक्क) (पृ८३)
(सोहि) (अंग) धम्म
(जीवाभिगम) (रज्ज) धम्म
(पृ८४) (पृ८३) धम्म
(कप्प) (वक्क) धम्म
(धम्मत्थिकाय) (वणिय) धम्मक्खाइ
(धम्मिय) (तत्थ-तत्थ) धम्मत्थिकाय
(पृ ८४) (काय) धम्मपण्णत्ति (जीवाभिगम) (चत्तदेह) धम्मपलज्जण (धम्मिय) (पृ ८३) धम्मप्पलोइ
(धम्मिय) (कोह) धम्ममण
(पृ ८४)
धण्ण
देविद
देश
धन्न
देश
देश
देशन
.
धम्म
देस
देस देसकालण्ण देसणी देसिय देसेदेसे देह देहोवरय दोमणस्स दोस
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________________
धम्मिट्ट
ध्रुव
धूत
ध
११४ : परिशिष्ट १
धम्मसमुदायार-नमस्यति धम्मसमुदायार (धम्मिय) धुत
(८५) धम्माणुय .(धम्मिय) धुत
(विचल) धम्मावाय
(विट्ठियाय) (धम्मिय)
(पृ८५) धम्मिय (पृ ८४) धुव
(अचल) धरण (पृ ८४)
(थिर) धरणिखील (मंदर) धुवक
(पृ ८६). धरणिसिंग (मंदर) धुवकायव्व
(आवस्सग) धर्म (पृ.८४) धुवनिग्गह
(आवस्सय) धर्म (पर्यव)
(पृ ८६) (पर्याय) धूमिका
(पृ ८६) (शोधि) धूम्रवर्ण
(धूमिक) धर्म (पृ ८५) धूर्त
(पृ ८६) धर्मदेशनाभिज्ञ (विद्वस्) धूलि
(कयार) धवलय (पंडुर) धूसर
(धूमिक) धाडेति (चाएति) ध्रुव
(पृ८६) धाय (पृ ८५) ध्वज
(केतु) धारणववहार (पृ८५) नंदा
(अहिंसा) धारणा (धरण) नंदिराग
(लोभ) धारणिज्ज (थिर) नंदी
(मोहणिज्जकम्म) धारयंति (पृ८५) नखशोधक
(नापित) धावति (अणुसंचरइ) नट्ठतेय
(हयतेय) धिक्कारिज्जमाणी (होलिज्जमाणी) नत्तिका
(दासी) धिज्जा (दारिया) नन्दन
(पृ८६) धिति (अहिंसा) नन्दि
(पृ८६) (१८५)
(आगासत्थिकाय) धीर
(पृ ८५) नमंसण
(वंदण) (अमूढ) नमंसण
नमंसित
(पृ ८५) धुणण
(महित) धुण्ण
नमस्कार
(प्रणमन) धुण्ण (पृ८५) नमस्यति
(वन्दते)
धी
नभ
धीर
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________________
नयन - निठुर
नयन
नर्कटिक
नववधू
नस्समाण
नाइ
नागदन्तक
नाण
नाण
नाण
नाणि
नापित
नाय
नाय
नाय
नाय
नायय
नायय
निअच्छंति
निउणसिप्पोवगय
निंदणा
निंदणा
निदति
निदति
निंदा
निंदिज्जइ
निंदिज्जमाण
निंदिज्जमाणी
निंदिय
निदेति
निकाच
निकाय
' ( पृ ८६)
( नागदन्तक)
( पृ ८६)
( पृ ८७)
( मित्त )
( पृ ८७ )
(पृ ८७)
( सण्णा)
( आणा )
( विदु)
( पृ ८७) (आवस्सय)
(वबहार )
( पृ ८७) (विहि )
( जीवत्थिकाय)
( पृ ८७)
( पृ ८७)
(छेय)
(हीलणा)
( आलोयणा)
(खिसइ)
( कुच्छति )
( पडिकमण )
( आलोइज्जह )
( वच्चमाण )
( हीलिज्ज माणी)
( रूसिय)
(होलेति )
( पृ ८७ ) (पिंड)
निकाय
निकाय
निकृति
निकृष्ट
निक्कलुण
निक्कोह
निक्खिविय
निक्षेप
निक्षेप
निगर
निगोय
निग्गंथ
निग्गच्छंति
निग्गमण
निग्गह
निग्गुण
निग्धिण
निग्घुट्ठ
निग्रह
निचय
निचिय
निच्छोडेज्ज
निज्जवणा
निज्जाणमग्ग
निज्जामय
निज्जित
निज्जूढ
निट्टिय
निट्टिय
निट्ठियट्ठ
निठुर
परिशिष्ट १
२१५
(छंद)
( गण )
(माया)
(हिट्टिम)
(पाव)
(अवको ह)
(पणिहि )
( निधान)
( पृ ८७)
( गण )
( अगोय)
( भिक्खु )
(निअच्छंति) (955)
( आवस्सग )
( निस्सील)
(पाव)
( रुग्ण )
( दण्ड )
(पिड)
( घण)
( आओसेज्ज)
( पाणवह)
( सिद्धिमग्ग )
(g ==)
( ओहय )
(विट्ठ)
(खीण)
(g 55)
(Į sa)
(§ 55)
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________________
२१६ : परिशिष्ट १
निठुर-निरंश
(खीण) (अच्छ)
(संख) (अहिंसा) (अमाण) (अमाया) (निस्सील) (अमोह)
(मित्त) (पलिउंचण)
(उक्कंचण) (मोहणिज्जकम्म)
(माया) (कक्क)
निठुर निण्णाम निदरिसण निदाण निस निद्देस निद्धम्म निधान निधि निधुवन निन्नेहबंधण निन्हव निपुण निप्पंक निप्पच्चक्खाण निप्परिग्गहरुइ निप्पिवास निप्पीलए निभंच्छण निभंछण निब्भच्छेज्ज निमंतण निमंत्रण निमित्त निमित्त निमित्त निमित्त निमित्तंति निम्न निम्मंस निम्मम
(उज्जल) निम्मल (अणाम) निम्मल
(णाय) निम्मल (संताण) निम्मलतर (आणा) निम्माण (उववाय) निम्माया (पाव)
निम्मेर (पृ ८८) निम्मोह (निषान) नियम
(रति) नियडि (संजत) नियडि (आह्वान) नियडि ' (कुशल) नियडि
(अच्छ) नियडि (निस्सील) नियडिआयरण (संजत) नियडिकम्म
(पाव) नियडिल्ल (आवीलए) नियत (आओसण) नियति
(अक्कोस) नियत्ति (आओसेज्ज) नियम
(छंद) नियर (निकाच) नियाग (पृ८८) नियाण
(मूल) नियुक्त (लिंग) नियोग (हेतु)
नियोग (धारयंति) नियोजना
(कुब्ब) निरंतर (सुक्क) निरंतराय (संजत) निरंश
(अदिण्णादाण)
(वंक)
(ध्रुव) (अलिय) (पडिकमण) (पच्चक्खाण)
(पृ ८८) (पृ८८) (वावड) (अणुओग)
(पृ ८८) (चोयणा)
(घण) (अणंतराय) (परमाणु)
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________________
“निरतिचार-निव्वय
परिशिष्ट १ : २१७
निरतिचार
(अखंड) निरुवसग्ग निरत्थय
(अलिय) निरेयण निरन्तर
(अणुसमय) निर्गम निरन्तर
(लोलुग) निर्जरा निरय
(खीण) निर्जीव निरय
(कम्म) निर्णय निरय
(अच्छ) निर्णय निरय-वास-गमण-निधण (पाव) निर्णीयते निरवयक्ख
(पाव) निर्देश निरवयव
(परमाणु) निर्भर्त्सना निरवशेष
(सर्व) निर्भेद निरवसेस
(पडिपुन्न) निर्भेद निरवसेस
(कसिण) निर्मम निरवसेस
(सव्व) निर्मल निरस्त
(मुक्त) निर्मल निरहंकार
(निर्मम) निर्मास निराउय
(अणाउय) निर्विचाल निराणंद
(दीण) निविवेक निरावरण
(अणावरण) निल्लक्खित निरावरण
(निव्वाण) निल्लालिय निरावरण
(अणुत्तर) निल्लेव
(निष्कंटक) निल्लोह निरावरण
(अणंत) निवायण निराश्रव
(निर्मम) निवारण निरिक्षण
(आभोग) निवारित निरीक्षित
(प्रेक्षण) निविशति निरीक्षित
(चहित) निवृत निरुपघात
(निष्कंटक) निवृत्त निरुपध
(ऋजु) निवृत्ति निरुवलेव
(अणासव) निव्वट्टन निरुवलेव
(संत) निव्वय
**1111111111
(खेम) (निट्ठियट्ठ)
(प्रभव) (क्षपणा)
((प्रासुक) (अर्थाध्यवसाय)
(निश्चय) (विचीयते)
(देशन) (आक्रोश) (परमाणु)
(अणु) (पृ ८६) (विशुद्ध) (अवदात) (कक्खडो) (सुसंहत)
(बाल) (णिम्मज्जित)
(चंचल) (खीण) (अलोह)
(वध) (वारण) (संवरित) (विशति)
(संयत) (व्यावृत्त) (विरति) (पृ ८६) (निस्सील)
निरावरण
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________________
२१८
निव्वाघाय
निव्वाण
:
निव्वाण
निव्वाण
निव्वाण
निव्वाणमग्ग
निव्विण्ण
निव्विण्णाण
निब्बुइ
निव्वुइकर
निव्वुड
निव्वेयण
निशाकर
निशान्त
निश्चय
निश्चय
निषन्न
निष्कंटक
निष्कवच
निष्कारण
निष्कारणप्रतिसेविन्
निष्ठित
निष्ठुर
निष्पंक
निष्पाद्यते
निष्प्रदेश
निसृजति
निसंग
निसर्ग
परिशिष्ट १
निसीहिया
निस्संग
(अनंत)
( अहिंसा)
(मोत्ति)
(संति)
( 52 )
( सिद्धिमग्ग)
(संत)
( जड्डु )
( अहिंसा)
( मणुष्ण )
(पृह)
(अवेयण)
(चन्द्र)
( शान्त)
( पृ ८ )
( अर्थाध्यवसाय )
( पृ ८8 )
( पृ ८ ) (निष्कंटक)
(अनर्थ)
( वक्र)
( पृ 58 )
( प्राम्यवचन )
(I =ε)
( साध्यते )
(परमाणु)
( पृ ८ )
( साधु )
(८)
( ठाण)
( संजत )
निस्संस
निस्सरण
निस्सा
निस्सील
निस्सेसिय
निहतकंटय
निहाण
निहाण
निहि
नीय
नीय
नीर
नीरय
नील
नीसेस
नूम
नैकृतिक
नैत्यिक
नषेधिकी
न्यास
न्यास
पट्ठा
पइट्ठा
पट्ठाण
पइभय
पइभय
पउंजेज्जा
पउम
पउमकेसरवण्ण
पएस
पंक
निव्याधाय पंक
(पाव)
( निगमण )
( पृ ० )
( पृ० )
(हियका मग )
(ओहयकंटय )
(सणिहि )
(परिग्गह)
(सणिहि )
( पृ 20 )
( चंडाल )
( पयस् ) (निट्ठियट्ठ)
( पृ ६० )
(हिय)
(अलिय )
(धूर्त)
( ध्रुव)
(स्थान)
(निक्षेप)
( निधान)
( धारणा )
(अहिंसा)
( बीय)
( बोहणय )
(पाव)
( पृ ० )
( उप्पल)
( पितवण्ण)
(अंग )
(कम्म)
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________________
पंक-पट्टकमत
पंक पंकय पंकज पंकिय "पंगुल पंडक “पंडर
पंडर
पंडित
पंडित
पंडित
पंडित
परिशिष्ट है . २१९ (पाव) पगत
(पृ९१) (पदुम) पगरणोवएस (हेउगोवएस) (कमल) पगाढ
(उज्जल) (जल्लिय) पगार
(भेय) (अलस) पगार
(संघाड) (णपुंसक) पगासकरण
(आलोयण) पगासिंति
(ओभासेइ) (सेत) पगासित
(दोविय) (विसारत) पगासेति
(पृ ६१) (विद्वस्) पग्गह
(उवहि) “(वेसकालण्ण) पगहिय
(ओराल) (संपण्ण) पच्चंतिक
(पृ ६१) (मकम्मवीरिय) पच्चक्खाण
(पृ ६१) पच्चक्खायपावकम्म.
(संजय) पच्चति
(रज्जति) (पृ९०) पच्चाणेति
(पगासेति) (अंताहार) पच्चामित्त
(अरि) (६०) पच्चावट्टण
(अवाय) (अंताहार) पच्छित्त
(ववहार) (पृ९०) पज्जव
(६१) (कयार) पज्जव
(अंग) (एइज्जमाण) पज्जव
(गुण) (६०) पज्जाय
(पगडि) (पकप्पण) पज्जाहार
(परिगम) (६१) पज्जाहार
(६१) (६१) पज्जुसणा (पज्जोसवणा) (पम्हट्ठ) पज्जुसित
(परिउसित) (ववण) पज्जोसमणा (पज्जोसवणा) (उवयंति) पज्जोसवणा
(६१) (णपुंसक) पझंझमाण
(एइज्जमाण) (पृ ६१) पट्टकभत्त
(पूज्यभक्त)
पंडितवीरिय पंडिय पंडिय पंडुर पंतजीवि पंतावेज्ज पंताहार पंथ पंसुक . पकंपमाण पकप्प
(संबुद्ध)
पकप्प
पकप्पण पकिण्ण पकिण्ण पकिरण पक्खति पक्खापक्खि पगडि
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________________
पट्टग-पण्णवण
(कंत) (पासादिय)
पडण
पडल
२२० । परिशिष्ट १ पट्टग
(पूया) पडिरूव पट्टगभत्त
(पूया) पडिरूव पठ्ठवण
(पृ९२) पडिरूव पडइ
(सडइ) पडिलेही पडण
(६२) पडिलेहा (सडण) पडिलोलित
(अंग) पडिविरत पडलग
(छज्जिय) पडिसग पडिओधुत
(पम्हुट्ट) पडिसरित पडिकमण
(पृ ६२) पडिसिद्ध पडिक्कमिज्जइ (आलोइज्जइ) पडिसेवणा पडिच्छिय
(इच्छिय) पडिहत्थ पडिछुद्ध
(पम्हट्ट) पडिहयपावकम्म पडिणायित
'(पम्हट्ठ) पडिहरित पडिणिव्वुड
(संत) पडुच्च पडिणीय
पढमजण्ण पडिणीयय
(अरि) पढमसमोसरण पडित
(खंडित) पणग पडित
(पम्हुट्ठ) पणमित पडिदिन्न
(पम्हुट्ठ) पणय पडिपुण्ण
पणयण पडिपुण्ण
(अणुत्तर) पणसक पडिपुण्ण
(कसिण)
पणाङ्गना पडिपुण्ण
(केवल) पणाम पडिपुण्ण
(निव्वाण) पणिधि पडिपुण्ण
(सव्व) पणिहाण पडिपुन्न
(पृ६२) पणिहाण पडिबंध
(आलंब) पणिहि पडिबंध
(परिग्गह) पण्णत्त पडियरणा
(पडिकमण) पण्णवग पडियाणिया
(पृ ६२) पण्णवण
(आभोग) (आणा) (पम्हुट्ठ) (उवसंत) (उवसग) (पम्हु) (पम्हट्ठ) (६२) (६२) (संजय) (पम्हुट्ट) (पृ९२)
(बंभण) (पज्जोसवणा)
(कम्म) (वंदित)
(पाव), (पाहुड)
(तट्टक) (मैथुनिकी)
(विणय) (६२) (पृ९२). (पणिहि) (पृ९३) (पृ६३) (भिक्खु) (उपदेस);
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________________
पण्णवण -पमासा :
पण्णवण
पण्णवण
पण्णवणा
पण्णवणी
पण्णविन
पण्णवित
पण विय
पण विय
पण्णवेइ
पण्णा
पण्णा
पहाण
पतंग
पति
पतिट्ठा
पतिट्ठा
पतिट्ठा
पतित
पतिभय
पत्त
पत्त
पत्तट्ठ
पत्तभंड
पत्ति
पत्तियइ
पत्थंति
पत्थकामग
पत्थण
पत्थणा
पत्थयंति
पत्थयति
पत्थर
(सुत्त)
( पृ ६३ )
( आघवणा)
( वक्क)
( पण्णत्त)
( पवित)
( पृ ६३)
( आघविय)
(आइक्खड )
(आभिणिवो हिय)
( तक्क)
(सीईभूय)
( अमर )
( पृ ६३ )
( पृ ६३)
( अवत्था )
( धारणा )
(वेवित) (महरुभय)
( अरिह)
(लद्ध)
(छेय)
(अरंजर)
( पृ ε३)
( सद्दहइ )
( कखइ)
( हियका मग )
(लोभ)
(परिज्मा)
(अभिसंति)
( अरथयति )
(पासाण )
पत्थरिय
पत्थित
पत्थिय
पत्थिय
पत्थे इ
पत्येइ
पत्थे माण
पद
पद
पदपवर
पदपाश
पदुम
पदेस
पद्म
पधान
पधावति
पधोवेंति
पन्नवेस्सामि
पन्नागार
पन्नायति
पप्प
पफोड
पब्भट्ठ
पभव
पभव
पभा
पद्मा
पभा
परिशिष्ट १
पभावणपयार
पभासइ
पभासा
: २२१
(वित्थिन्न )
(उट्ठित)
(इच्छित )
(अज्झत्थिय )
(आसाएइ)
(कखइ)
(g e३)
( पृ ६४ )
(पाव) (अण्णा)
( पृ e४)
( पृ ४)
(अंग )
( कमल)
( उदग्ग)
( पृ ६४ ) (उच्छोलेंति)
(पवेस्सामि )
( पूया )
( लब्भति)
( पडुच्च)
(पम्हुट्ट)
( पहुड)
( अणुण्णा)
(उग्गम)
(कंति)
( जुइ)
(सुख)
(अणण्णा)
( पृ ४) (अहिंसा)
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________________
२२२ । परिशिष्ट १
पमासिय-पराजित पभासिय . दीविय) परक्कम
(योग) पभासेइ (ओभासेइ) परक्कम
(वीरिय) पभु (६४) परक्कम
(जोग) पभु
परक्कम
(उढाण) पमत्त
(अलस) परक्कमण्णु (देसकालण्ण) पमदा
(पत्ति) परक्कमितव्व (घडितव्य) पमाण (अग्ग) परग्ध
(पृ.६५) पमाण
परग्घतरक
(उच्चयरक) पमिलायति (पृ ६४) परज्झ
(पृ.६५) पमुक्क
(पम्हद) परिधणम्मि गेहि (अविण्णादाण) पमुच्छित
(पम्हट्ठ) परनिमित्तनिप्फण्ण (लिंगिय) पमुदित
(मुदित) परपरिवाय (अधम्मत्थिकाय) पमोद
(णंदी) परपरिवाय . (माण) पमोद
(मुदिता) परपरिवाय (मोहणिज्जकम्म) पमोय
(अहिंसर) परपरिवायविवेग (धम्मत्थिकाय) (पृ १४) परभव-संकामकारय (पाणवह) (६४) परम
(पृ ६५) पय (दुद्ध) परमसुइभूय
(आयंत) पयंड
(उज्जल) परमसोमणस्सिय (हट्ठचित्त) प्रयत्त (६५) परमाणु
(पृ ६५) पयत्त (ओराल) परमाणु
(अणु) पयत्तकड
(आरंभकड) परमाणुपोग्गल (पोग्गलत्थिकाय) पयत्तवद् (पयत) परमार्थ
(तत्व) पयलाइत
(वेवित) परमासक
(गंडूपक) (६५)
(अवकड्ढित) पयाति
परलाभ
(अविण्णादाण) पयावति (पितामह) परवस
(परज्झ) पर
(अदिण्णादाण) पर
पराजय
(अपमाण) पर
पराजय
(विजय) परंपरगय (सिद्ध) पराजित
(अवकड्ढित)
पम्हठ
पम्हुट्ठ
पयस्
परम्मुह
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________________
पराजित - परिनिव्वाह
पराजित
पराजित
पराभव
परायित
परावत्त
परासर
पराहूत
परिउसित
परिकम्मण
परिकर्म
परिकर्मन्
परिकस
परिकुविय
परिक्कमिज्ज
परिभासि
परिक्खित्त
परिक्खीण
परिक्षिप्त
परिगण्यमान
परिगम
परिगह
परिग्गह
परिग्गहवेरमण
परिघुमति
परिघेतव्व
परिचय
• परिचेति
परिच्चयंति
परिच्छिदति
परिच्छित्ति
परिच्छेद
(ओहय)
( उदृढ )
(विजय)
( दीण)
( पम्हुट्ठ)
( सरभ )
( अवकट्टित )
( पृ ६५)
( पृ ६६ )
( पृ ६६ )
(तुलना )
( कस) (रु)
( पृ ६६ )
(परिज्जभासि )
( पृ ६६ )
(झीण)
(परिक्खित)
( पृ ६) ( पृ ६६ ) ( पृ ६६ )
( अधम्मत्थिकाय )
( धम्मत्थिकाय )
(अंदोलति )
(हंतब्य )
( संस्तव)
( पृ ६६ ) (वर्मेति )
( मिणति )
(लाभ)
( माण )
परिच्छेद
परिजाइ
परिजाणेज्ज
परिजिय
परिज्जभासि
परिभा
परिठविय
परिणत
परिणाम
परिणामक
परिणामठाण
परिणाह
परिणिट्टाण
परिणिव्वाण
परिणिव्वुड
परितंत
परितंत
परितप्पइ
परितप्पण
परिताले ति
परिशिष्ट १
परितावण- अण्य
परितावणकरी
परिताविज्जमाण
परितावेति
परित्याग
परित्राण
परिदेवण
परिदेवित
परिधावति
परिधि
परिनिव्वाइ
२२३
( अयन )
(आढाइ )
1
( बुझेज्ज)
( सिक्खिय)
( पृ e६)
( पृ ६७)
(पम्हठ )
( महव्वय)
(निसर्ग )
( पात्र )
( संजमठाण )
( आरोह)
(सात)
(सात)
(संत)
( ( दीण)
(संत)
(दुक्ख इ)
( दुक्खण)
( अभिहणति )
(पाणवह)
(छेपणकरी)
( आउडिज्ज माण )
( अभिहणति )
( परिहार )
( सन्त्राण )
(कंदण)
(वेवित)
(पधावति)
( परिश्य )
(सिज्झइ )
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________________
(लता) परिवद्धित
२२४. : परिशिष्ट १
परिनिम्र-परिस्संत परिनिव्वुड (संत) परिरय
(पृ९७) परिनिव्वुड (सिद्ध) परिरय
(परिगम) परिनिव्वुय (सीईभूय) परिरय
(पज्जाहार) परिपाटि (पर्याय) परिवंदण
(पृ.६७) परिपाटिन् (आनुपविन्) परिवत्तत्ते
(परिचेति) परिपाटिन्
(पम्ह ) परिपालइत्ता (विपरिणामइत्ता) परिवयण
(पृ ६७) परिपूर्ण (अलम्) परिवहति
(तज्जति) परिपूर्ण (सकल) परिवाडि
(आणुपुन्वि) परिपूर्णक (कृत्स्न) परिवाडि
(विहि) परिब्भम (अंदोलति) परिवात
(परिवयण) परिभवति (खिसइ) परिवायय
(स मण) परिभवति
(परिभासति) परिविद्धंसइत्ता (विपरिणामइत्ता) परिभवति (हीलेति) परिवुड्ढ
(६५) परिभवति (हापयति) परिवूढ
(६७) परिभासति (पृ ६७) परिवूढ
(पुट्ठ) परिभीत (पृ६७) परिव्वाय
(भिक्खु) परिभोग (भजना) परिसडित
(पम्हुट्ठ) परिभोग (विज्ञापना) परिसडित
(महव्वय) परिमज्जित
(विमल) परिसवणा (पज्जोसवणा) परिमलित
(महव्वय) परिसहण
(पृ९७) परिमाण
(अग्ग) परिसाडइत्ता (विपरिणामइत्ता) परिमित (मित) परिसाडण
(ववण) परियट्टण (पृ९७) परिसाडणा
(उस्सग्ग) परियट्टति (गुणेति) परिसाडित
(फुलित) परियण
(मित्त) परिसाडिय
(पकिण्ण) परियत्तेइ (उव्वत्तेइ) परिसुक्ख
(महव्वय) परियाय (कसाय) परिसुद्धगत
(सिद्धिगत) परियायवत्यवणा (पज्जोसवणा) परिसोडित
(पम्हट्ठ) परियावेज्ज (अभिहणेज्ज) परिस्पन्द
(क्रिया परियावेयध्व (हंतव्व) परिस्संत
(पिवासित
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________________
परिहरण–पवित्र
परिहरण परिहरणा परिहरणीय परिहायंत परिहायति परिहार परिहार परिहीण परिहेरक परिहेरग परीक्ष्यमाण परूपित
परूवण
परूवण
परूवण परूवित परूविय परूविय परूवेइ परूवेस्सामि पर्यय पर्यव पर्यव पर्याप्त पर्याय
परिशिष्ट १ : २२५ (समण) पर्यालोच्यते (विचीयते) (पडिकमण) पर्याहार
(परिरय) (गरहित) पलल
(तिलोवलद्धीय) (अधण) पलात
(ण ) (उज्झीयति) पलायण
(निग्गमण) (पृ९८) पलिउंचग
(बंक) (६८) पलिउंचण
(पृ९८) (णिम्मंसक) पलिउंचण
(माया) (गंडूपयक) पलिकुंचण (मोहणिज्जकम्म) (केज्जूर) पलिच्छेद
(भाग) (परिगण्यमान) पलिमंथ
(पृ ६६) (पण्णत्त) पलिमन्थ
(विक्षेप) ..(पृ९८) पलियंचण
(गृहण) (उपदेस) पलिहत
(वगडा) (पण्णवण) पलुक्कइ
(आलुक्कइ) (पृ६८) पलोट्टण
(लुटण) (आघविय) पलोयण
(आभोग) (पण्णविय) पलोलित
(हात) (आइक्खइ) पलोलित
(पम्हुट्ठ) (कित्तइस्सामि) पलोठित
(हात) (पर्याय) पल्लीण
(अनुपविट्ठ) (पर्याय) पवण
(अग्गि) (६८)
(वयत्थ) (अलम्) पवयण
(पृ ६६) (पृ६८) पवयण
(सुत्त) (भवन) पविट्ठ
(पृ६६) - (देश)
(अतिगत) (पृ९८) पवित्ता
(अहिंसा) (मनन) पवित्थर
(परिगह) (संपेहेति) पवित्र
(चोक्ष) (संचालयंति) पवित्र
(पुण्य)
पवत्त
पर्याय
पविट्ठ
पर्याय पर्याय पर्यालोचन पर्यालोचयति पर्यालोचयन्ति
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________________
पहिट्ट
२२६ : परिशिष्ट १ पविद्धंसति (पमिलायति) पसव पवियक्खण
(संपण्ण) पसारित पवियक्खण
(संबुद्ध) पसिद्ध पविसित
(पम्हट्ठ) पसुत्त पवीलए
(आवीलए) पसूइ पवेइय
(६६) पहट्ठ पवेदेमि
(आइक्खामि) पहर पव्व
(संताण) पहाण पव्व
(अंग)
पहाण पव्वइज्जा
(पृ९६) पहारेत्थ पव्वइय
(पृ ६६)
पहिज्जते पव्वइय
(णिक्खंत) पव्वइय
(समण) पहीण पव्वत
(ग) पहेण पव्वतक
(पासाण) पहेण पवर्तिद
(मंदर) पहेणग पव्वयराय
(मंदर) पाअसूचिका पव्वयिय
(भिक्ख) पाकसासण पवहिज्जमाणी (हीलिज्जमाणी) पागइत पव्वति
(तज्जेंति) पागडिय पव्वाविय
(६६) पागार पसंग
(अबंभ) पाघट्टि का पसंत
(णिहय) पाटयति पसंत
(संत) पाठीण पसंतडमर
(खेम) पाडल पसंतडिंब
(खेम) पाढ पसंसण
(कित्तण) पाण पसंसा
(उववह) पाण पसण्णबुद्धि
(सुबुद्धिक) पाण पसत्थ
(वणित) पाण पसत्थ
(सामायिक) पाण
पविक्षसति-पाण
(पुप्फ) (णिस्सारित) (पण्णविय)
(वेवित) (उग्गम) (मुदित) (६६)
(अग्ग) . (परम)
(पृ.६९) (अतिवत्त)
(हसित) (अतिवत्त) (१००) (पाहुड)
(पाहुड) (पामुद्दिका)
(सक्क) (पज्जोसवणा) (उभिण्ण) (पृ १००) (पामुद्दिका) (ओसारेति) (पृ १००) (पदुम)
(सुत्त) (पृ १००)
(जीव)
(असण) (जीवस्थिकाय)
(१००)
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________________
पाण
- पिंडण
पाण
पाण
पाणवह
पाणाइवाय
पाणावायवेरमण
पाणातिपात विरइ
पाणिय
पात
पात्र
पात्र
पात्र
पाद
पादकलावग
पादख डुयक
पादफल
पादव
पादोपका
पाप
पाप
पापढक
पामुद्दिका
पामुहिका
पायच्छित्तकरण
पायव
पार
पारगमण
पारगय
पारण
पालण
पालित
पालित्तु
( चंडाल )
( काय )
( पृ १०० )
( अधम्मस्थिकाय ) पाव
( धम्मत्थिकाय )
पाव
पाव
पाव
(अहिंसा)
(रस)
( वज्ज)
( पृ १०० )
( पृ १०० )
( भव्य )
( पृ १०० ) (गंडूपक)
(गंडूपक)
(आसंदग )
( पृ १०१ ) (खिखिणिका)
( अवद्य )
( किव्विस )
(गंडूपक) (खिखिणिका)
( पृ १०१ )
( उत्तरकरण )
(दुम)
( पृ १०१ )
(पारण)
(सिद्ध)
( पृ १०१)
(पारण)
पालिय
पाली
पालेइ
( पृ १०१ )
( वसित्तु )
पावकोव
पावण
पावय
पावयण
पावलोभ
पाव
पावइ
पावंति
पावकम्मकरण
पावकम्मनिसेहकिरिया पावकम्ममासेवित
पास
पासइ
पासंडि
पासंडि
पासाण
पासादिय
पाहुड
पिअबंभण
परिशिष्ट १
पिंड
पिंड
पिंड
पिंड
पिंडण
२२७
( फासिय)
( पृ १०१ )
( फासेइ )
:
( पृ १०१ )
( पृ १०१ )
(कम्म)
( धुण्ण)
(मल)
( अभिगच्छति )
(निअच्छंति)
( अदिण्णादाण )
( पृ १०२ )
(दुक्कड)
(पाणवह)
(आय)
( पृ १०२) (पवयण)
( पाणवह)
( पृ १०२ )
( जाणड )
( भिक्ख)
(समण )
( पृ १०२ )
( पृ १०२ )
( पृ १०२ )
(बंभण)
( पृ १०२ )
(ओह )
( गण ) (परिह)
(पिंड )
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________________
२२८ : परिशिष्ट १
पिहण
पिंडय पिंडार्थ पिंडिका पिच्च पिच्चिय पिज्ज पिट्टण पिट्टण पिट्ठय पिढरक पिण्ड पित पितवण्ण पितामह पिथकरण
(गंड) पिल्लिका (समास) पिवासित (णावा) पिवासिय
(पयस्) पिसुण (पृ १०३) (पृ १०३) पीइगम
(कुट्टण) पीइमण (दुक्खण)
पीडइ (मग्गत) पीढफलक (अरंजर)
पीणक (अतिवत्त) पीणणिज्ज (पृ १०३) (१०३) पीणितदेह (मग्गण) पीणिय
(अत्त) पीतक (आप्त)
पीति
पिंडय-पुच्छणा
(दारिया) (पृ १०३)
(अत्थि ) (अधम्मत्थिकाय)
(संवर) (कामगम) (हट्ठचित्त) (दुक्खइ) (डिप्फर)
(थूल) (खोरक) (पृ १०३) (णिव्वुत) (परिवूढ) (परिवुड्ड) (पितवण्ण) (मुदिता) (रहस्स)
पीण
पीणित
पिय
पीलित
(थूल)
पीहन
पिय पिय पियइ पियकारिणी पियति पियत्ता पियदसण पियदंसण पियदंसण पियदंसण पियदंसणा पिया पिलय पिल्लक पिल्लक
(पृ १०३) पीलु (तिसला) पीवर (पृ१०३) (इट्टत्ता) पीहेइ (कंत) पीहेइ (मंदर) पीहेमाण (मणाम) पुंज
(सोम) पुंडरीक (अणोज्जा) पुक्खरपत्तग
(पत्ति) पुक्खल (मयूर) पुक्खलच्छिभग (बालक) पुच्छणा (वच्छक) पुच्छणा
(पृ १०३) (आसाएइ)
(कंखइ) (पत्थेमाण)
(गण) (पदुम) (तट्टक) (उप्पल) (उप्पल) (पृ १०४) (विष्फालण)
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________________
'पुच्छा-पेम
परिशिष्ट १
:
२२६
'पुच्छा पुच्छा पुच्छियट्ट पुज्ज पुट्ठ पुट्ठि पुणो पुणो
(आतिण्ण)
(अर्हद्) (पृ १०४)
(वावण्ण) (अभिवायण)
(वंदण) (परिवंदण) (पृ १०४)
(पुज्ज) (पृ १०४) (पृ १०५) (अहिंसा)
पुण्ण
"पुण्य
पुत्त
पुत्तक पुत्थव्व पुप्फ 'पुरंदर पुरंदर
(थुइ)
पूरेइ
पुराण पुराण
(पृ १०४) पूजित
(घट्टण) पूजोचित
(लट्ठ) पूज्यभक्त (पृ १०४) पूति (पृ १०४) पूयण
(अहिंसा) पूयण (उखड्डमड्ड) पूयण ।
(धण्ण) पूयणट्टि (पृ १०४) (दुमपुष्फिया) पूया (वच्छक) पूया
(थूल) पूया (पृ१०४) पूया
(इंद) पूयित (सक्क) (पृ १०४) पूर्ण (अतिवत्त) पूर्व (काहापण) पूसित (उठाण) पृथग् (पोरेवच्च)
पृथग्भाव (विठ्ठिवाय) पृथु
(असुइ) पेंडित (अच्चिय) पेक्खण (दोसीण) पेक्खति (चहिय) पेक्खते
(थुत) पेच्छति (प्रणमन) पेच्छते (वंदणग) पेज्ज (वंदित) (महित) पेढिका (अहं) पेम
पुराण पुरिसक्कार पुरोवर्तित्व पुव्वगत . पूइय
(णमोक्कत) (फासेइ)
(स्पृष्ट) (पृ १०५)
(भग्ग) (अण्ण) (विवेक) (पृ १०५)
(रहस्स) (आभोग)
(पेक्खते) (पृ १०५)
पूइय
(पेहति)
पूइय पूइय पूइय. पूजा पूजाकम्म पूजित पूजित 'पूजित
पेज्ज
(पेक्खते)
(इ ) (प्रीति) (सेज्जा ) (पृ १०५)
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२३०
पेम
पेस
पेसी
पेण विवेग
पेस्स
पेहति
पेहा
पोअंड
पोअड
पोंडरीय
पोग्गल
पोग्गल
पोग्गलत्थकाय
पोद्रह
पोण्ड
पोत
पोत
पोतक
पोतक
पोतिका
पोत्थ
: परिशिष्ट १
पोरेवच्च
पोरेवच्च
पोहट्टी
प्रकटत्व
प्रकम्पित
प्रकार
प्रकार
प्रकार
प्रकार
प्रकाशते
(प्रीति)
(दास)
( दासी)
( धम्मथिकाय )
(दास)
( पृ १०५ )
(धो)
( जुवाण)
( वयस्थ )
( उप्पल)
( पोग्गल स्थिकाय )
( जीवत्थिकाय )
( पृ १०५)
(गडिक)
(मुकुल)
(णावा)
( पोत्थ )
(बालक)
( वच्छक)
(दारिया )
( पृ १०५)
( पृ १०५ )
( आहेबच्च)
(पत्ति )
(प्रकाश)
प्रकाशन
प्रकृति
प्रकृति
प्रकृति
प्रक्षीणदोष
( पृ १०५)
( प्रभाति )
प्रख्यात
प्रगतासु
प्रगाढ
प्रगुण
प्रचोदयति
प्रज्ञापनीय
प्रज्ञापयितुम्
प्रज्ञावद्
प्रणमन
प्रणाम
प्रणाला
प्रणिधान
प्रणिधि
प्रतिगमन
प्रतिज्ञा
प्रतिबद्ध
प्रतिभञ्जन
प्रतिभाग
प्रतिमा
प्रतिलोम
प्रतिष्ठा
प्रतिष्ठान
प्रतीप्सित
( धुत )
(जात)
(विधि)
(भंग) प्रतीष्ट
प्रत्यग्न
प्रत्यञ्चा
पेम — प्रत्यञ्चा
( आलोचन )
(अव्यक्त)
( पृ १०६ )
( पृ १०६ )
(आप्त )
(सिद्ध)
( प्रासुक)
(लोलुग)
(ऋजु)
(तुबति)
( पृ १०६ ) (आख्यातुम् ) ( मेधाविन्)
( पृ १०६ )
( प्रणमन )
( जिव्हिका)
( पृ १०६ )
(माया)
( पृ १०६ ) (प्रतिमा)
( पृ १०६ )
( प्रतिगमन )
(प्रदेश)
( पृ १०६ )
(खलंक)
(मूल)
(मूल)
( प्रतीष्ट)
( पृ १०६)
(बाल)
(जीवा)
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--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रत्यय - प्रस्ताव
प्रत्यय
प्रत्यायति
प्रत्येति
प्रथम
प्रथम
प्रथम
प्रथमसमवसरण
प्रथित
प्रथित
प्रदर्शित
प्रदेश
प्रधान
प्रधान
प्रधान
प्रधान
प्रधान
प्रधान
प्रधान
प्रधान
प्रधानप्रज्ञ
प्रपन्न
प्रभव
प्रभव
प्रभव
प्रभाति
प्रभु
प्रभु
प्रमाण
प्रमाणयुक्त
प्रमोद
प्रयत
( निमित्त)
( आग्राहयति)
( पृ १०६ )
( प्रशस्त )
( पृ १०६ ) (पूर्व)
( पृ १०७ )
(सिद्ध)
( खात) ( गमित)
( पृ १०७ )
( प्रशस्त )
(मुख)
(ओराल)
( प्रथम )
( पर)
(वर)
(प्रकृति)
(अग्र)
( महापण )
( अवगाढ)
( आगम )
( पृ १०७ )
( णिष्फत्ति )
( पृ १०७ )
(ईश्वर)
(पति)
( निमित्त )
( आलीन)
(हर्ष)
( यत)
प्रयत्न
प्रयत्नवद्
प्रयोग
प्रयोजन
प्ररूपित
प्रलंबित
प्रलोटन
प्रवचन
प्रवर्तन
प्रवहण
प्रवारण
प्रवाह
प्रवाह
प्रविबुद्ध
प्रविशति
प्रवृत्ति
प्रवेशयति
प्रव्रजित
प्रशस्त
प्रशान्त
प्रसर
प्रसारित
प्रसूति
प्रसूति
प्रसूति
प्रसूति
प्रसूति
प्रस्तार
प्रस्ताव
प्रस्ताव
परिशिष्ट १
२३१
(करण)
( यत)
( पृ १०७ )
(पगत)
( आख्यात)
(उद्दा मित)
( लोटन )
( पृ १०७)
( पटुवण)
( पृ १०७)
( वारण)
( प्रवृत्ति )
(वंश)
(मुकुल) ( विशति )
( पृ १०७)
( आओडावेड )
(अनगार)
( पृ १०७)
( शान्त)
( अनुकाश )
(विरल्लिय)
( आदान)
( प्रवृत्ति )
( आगम )
( प्रभव ) (णिप्फत्ति)
( निधान)
(देश) ( अवसर )
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२३२ : परिशिष्ट १
प्रस्ताव-फुडीकज्जति
(एजणा) (उब्वत्तेइ)
(काण) (पृ १०८) (निठुर) (णिण्णेहक) (कक्कस) (उज्जल) (अक्कोस)
फरुस
प्रस्ताव प्राणधारण प्राणिन् प्रादुष्करण प्राप्त प्राप्तनिष्ठ प्राप्तवयस् प्राप्ति प्राप्ति प्राप्ति प्राप्ति प्राप्यते प्राभृत प्रायश्चित्त प्रारंभ प्रारब्ध प्रार्थन
फरुस
(योग) फंदणा (जीवन) फंदेइ
(जीव) फरल (आलोचन) फरुस
(गत) फरुस (सिद्ध) फरुस (युवा) (आय) (स्पर्शना) फरुस (पृ १०७) फरुस
(लाभ) फरुसेज्ज
(चर्यते) फल (अधिकरण) फलकी (विशोधि) फलगोच्छ
फलपिंडी
फलमाला (पीहन)
(छंद) फलिका (भाव)
फलिह (अभिज्झा) फलिह
(संधयेत्) फाणित (पृ १०७)
फालिय (पृ १०७) फालेंत (पृ १०८) फासिय (प्रेक्षण) फासेइ (चहित) फुफक (पिज्ज) (चोयणा) (विनयन्ति) फुडण
(णावा) (उप्पिलावण) फुडीकज्जति
फला
प्रार्थना
प्रार्थना प्रार्थना प्रार्थयेत् प्रासुक प्रीति
(पंतावेज्ज)
(रयस्) (सेज्जा ) (फलपिडी) (पृ १०८) (फलपिंडी) (फलपिंडी) (फलपिंडी)
(पागार) (आगासस्थिकाय) (गुलोवलद्धीय)
(कप्पिय) (छिदंत) (पृ १०८) (पृ १०८)
(दीव) (णिण्णेहक) (आइण्ण) (१०८)
(पृ १०८) (णिव्वंजीयंति)
प्रक्षण
प्रेक्षा प्रेक्षित प्रेम
प्रेरणा
प्रेरयन्ति प्लव प्लावण
फुडित
.
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--------------------------------------------------------------------------
________________
"फुरफुरत-बीव
परिशिष्ट १ : २३३
फुरफुरेंत फुलित फुल्ल फुल्ल फुसित फेण
बंध
बंधण बंधण बंधण बंधणविमुक्क बंधणुम्मुक्क बंधुविप्पहूण -बंधेज्ज बंधेज्ज बंभ बंभ बभ बंभचेर बंभचेर-विग्ध बंभण बंभण बंभण
(चंचल) बद्ध
(सन्नद्ध) (पृ १०८) बल
(उढाण) (पृ १०८) बल
(वीरिय) (पुप्फ) बल
(उज्जल) (पृ १०६) बलाहक
(पृ १०६) (संख) बलितसरीर (थिरसंघयण) (संदाण) बलिय (विग्ध) बलिवद्द
(उसभ) (पास) बहल
(कषाय) (संग) बहल
(थूल) (सिद्ध) बहिद्ध
(उभिण्ण) (दविय) बहु
(पृ १०६) (अत्ताण) बहुजणाचीर्ण (पृ ११०) (आओसेज्ज) बहुमय
(थेज्ज ) (अक्कोसेज्ज) बहुमाण
(अबंभ) (पितामह) बहुमाण
(भक्ति) (इसिपम्भारपुढवी) बहुसो (बंभण) बाधित
(चोदित) (आचार) बाल
(अबंभ) बाल (पृ१०६) बाल
(पृ ११०) (वड्थ) बाल
(पृ ११०) (भिक्खु) बालक
(पृ ११०) (बंभण) बालवीरिय (सकर्मवीरिय) (बंभण) बालिया
(दारिया) (इसिपब्भारपुढवी) बाहणा पदाणं
(अबंभ) (बंभण) बाहिर
(चंडाल) (कुंडल) बाह्यवस्त्वालोचनप्रकार (पर्याय) (पृ १०६) बिहणिज्ज
(पीणणिज्ज) (रज्जति) बीभिति
(तसंति) (१०६) बीय
(पृ ११०)
(क्षुद्र)
बंभण्णु
बंभरिसि बंभवडेंसय बंभवत्थ बक
बकुश बज्झति
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२३४
बीहणग
बीय
बीहणय
बुइय
बुंदि
बुज्झइ
बुज्झइ
बुझावे
बुज्भेज्ज
बुद्ध
बुद्ध
बुद्ध
बुद्ध
बुद्ध
बुद्धि
बुद्धि
बुद्धि
बुद्धि
बुद्धि
बुद्धि
बुद्धि
● परिशिष्ट १
बुद्धिअभवसाय
बुद्धिमंत
बेंति
बोंदि
बोल
बोहि
ब्रुवंति
भंग
भंग
भंज
(
( पृ ११० )
(पाव)
(वण्णित)
उज्जल 1)
( काय )
( जाणइ )
(सिज्झइ )
( पगासेति )
( पृ ११० )
( नाय )
( सिद्ध )
( फुल्ल )
( पृ ११० )
( भिक्खु)
( अवाय )
( पृ ११० )
( अभिप्पाय )
( प्रणिधान)
भंजग
भंजग
भंजण
भंजणा
भंभभूय
भंभाभूय
भक्खति
भक्खते
भक्ति
भग्ग
( सण्णा)
भग्ग
(अहिंसा)
भग्ग
(धी)
भग्ग
( ववसाय )
भग्ग
( विसारत)
भजना
( पृ १११ )
भजना
( पृ १११ ) भट्टित्त
(डिंब )
भट्ठ
( अहिंसा)
( बेंति)
( पृ १११ )
( प डिसेवणा)
(पहर )
भंजित्तए
भंडग
भंडण
भंडण
भंडण
भंडण
भंडण
भंत
भट्ठ
भट्टतेय
भणति
भणित
भणिय
बोहण - भणिय
(तुम)
(लूसग )
(फुडण ) (विराहणा )
( चालित्तए)
(उवहि)
( आयास)
( कलह )
(कोह)
( मोहणिज्जकम्म)
( बुग्गाह)
( पृ १११ )
(हाहाभूय )
(हाहाभूय )
( चरति )
(जेमेति)
( पृ १११ )
( पृ १११ )
( पृ १११)
(छिन्न)
( फुडित)
(फुलित )
( पृ १११ )
(विकल्प)
( आहेबच्च)
( गट्ठ)
( णिहय) (हयतेय)
(आचिक्खति )
( वुत्त)
( पृ १११)
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________________
भणिय-मासा
परिशिष्ठ ।। २३५
भणिय
भव्य
(रसिय) (ओयण)
भस्स
भत्त
भत्त्थ "भदंत भद्दग भद्दपीढ भद्दय भद्दा भमते
भाइल्ल भाइल्लग भाग भाग भाग भाजन भायण भायण भार भारती
• भमर
भय
भय
भाव
भयंकर भयंकर भयग भयभैरव
भाव भाव
(भंत) (पृ ११२) (आसंदग) (आइण्ण) (अहिंसा) (अंदोलति) (पृ११२) (पृ ११२)
(असात) (पाणवह) (महन्भय)
(दास) (भीम) (दास) (भीम)
(भंत) (तरच्छ) (११२)
(धुवक) (भिक्खु) (पृ ११२) (पृ ११२) (पृ ११२)
भाव
(इंगालछारिगा)
(दास)
(दास) (पृ११२)
(अंग) (अंस) (पात्र)
(अरिह) (मागासस्थिकाय)
(परिग्गह)
(वक्क) (पृ ११३) (पृ ११३) (भवन) (ज्ञान)
(णाण) (विण्णाण) (संविद्) (पर्याय) (कसाय) (अब्भास) (अज्मोस) (परिकम) (तुलना) (मणाम) (भविय) (देशन) (दिप्पते) (पृ ११३) (अणुओग)
भाव
'भयय
भाव
भयानक
“भयान्त
'भल्ल भव
भव
भाव भाव भाव भावणा भावना भावना भावना भावस्सिय भाविन् भाषण
भवंत भवण भवति भवन भवान्त भविय भव्य भव्य
(पृ ११२) (पृ ११२)
भासते भासा
(भविय)
भासा
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________________
२३६ । परिशिष्ट १
मासा-भेद
भिदति
भूमि
भिक्खु
भिक्खु
भासा
(वक्क) भुंजते भासाअस्समिति (अधम्मत्थिकाय) भुत्त भासाविजय
(दिट्टिवाय) भूत भासासमिति (धम्मस्थिकाय)
भूतपुव्व भासेइ
(आइक्खइ) भूताधिकरण भास्कर
(आदित्य) भूताभिसंकण भिद
(पहर) भूति भिदंत
(छिदंत) भूति (छिदति) (पृ११३) भूय
(माहण) भूय भिक्खु
(समण) भूयत्थ भिक्खु ।
(साधु) भूयवाय भिज्जमाण
(नस्समाण) भूयो भूयो भिज्जा (मोहणिज्जकम्म) भृश
(पृ ११३) भेउरधम्म
(खंडित) भेत्ता भिण्ण
(अण्ण) भेद भिण्ण
(भग्ग) भेद भिन्न
(छिन्न) भेद भिन्न
(शंकित) भिल्लिरी
(तिसरा) भेद भिस
(उप्पल) भिसकंटक (वीहसक्कुलिका) भिसमुणाल
(उप्पल) भेद भिसरा
(तिसरा) भिसी
(सेज्जा ) भीम
(पृ ११३) भेद भीम (लोमहरिसजणण) भेद
(पृ ११३) भीरू
(अलस) भेद
(जेमेति) (अतिवत्त) (आपूरित) (णियत)
(पद)
(पावय) (इंगालछारिगा)
(भवन) (पृ ११३) (जीवत्थिकाय)
(पाण) (उज्जुय) (विट्टिवाय) (उखड्डमड्ड)
(लोलुग) (पृ ११४)
(हंता) (पृ ११४) (विधि)
(भंग) (पकप्पण)
भिण्ण
भिण्ण
(विह)
he
(विधि) (ठाण) (प्रकृति)
(अंग) (प्रदेश) (पज्जव) (पगडि) (णाम) (पर्याय
भीय
भेद
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
भेद - मच्छ
भेद
भेद
भेद
भेदकर
भेय
भेयणकरी
भेसण
भोगपुरि
भोगासा
भोगासा
भोज्ज
भोयण
मइ
मइ
मइलणा
मइल्ल
मइल्लिय
मउड
मउलि
मंगल
मंग लिज्ज
मंगल्ल
मंगल्ल
मंचक
मंड
मंडलि
मंतुलित
मंहति
मंथर
मंद
मंद
(जात)
( अंस)
(ठाण)
( अण्हयकर )
( पृ ११४ ) (छेयणकरी)
( पृ ११४ )
(बास)
( मोहणिज्जकम्म)
(लोभ)
( पृ ११४)
( पृ ११४)
( पृ ११४ ) (आभिणिबोहिय)
( प डिसेवणा )
(कम्म)
( जल्लिय)
( तिरोड )
( गोणस )
( अहिंसा)
( णिव्वाणिकर)
( इट्ठ)
( ओराल )
(डिप्फर)
परि १
( थूल)
( गोणस ) (खंडित)
मघव
(चितेहिति) मघा
(अलस) मच्चु
( पृ ११४) (बाल)
मच्चु
मच्छ
मंदर
मक्खण
मगर
मगरक
मग्ग
मग्ग
मग्ग
मग्ग
मग्ग
मग्ग
मग्ग
मग्ग
मग्गइ
मग्गण
मग्गण
मग्गण
मग्गण
मग्गण
मग्गणा
मग्गणा
मग्गणा
मग्गणा
मग्गण्ण
मग्गत
( पृ ११५ ) ( देसकालण्ण)
मग्गविदु
मग्गस्स गतिआगतिरण ( देसकालण्ण )
२३७.
( पृ ११४) ( उस्सिघण)
( राहु ) (तिरीड)
(अण्णा)
(आगासत्थिकाय )
( आवस्य )
( कप्प )
( पवयण )
( परूवण )
( ववहार )
( वीथि)
( अत्थयति )
( पृ ११५)
( पृ ११५ )
(आभोगण )
( विद्यालण )
(हा )
(आभिणिबोहिय )
(आभोग )
(विजय)
( एसणा)
(देसकालण्ण)
(सक्क) ( कण्हराति)
( मरण) (पाणवह)
(राहु )
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३८ । परिशिष्ट १
मज्जगरस-मद
मज्जगरस
मणाम
भज्जणा
(सुरा) (सिणाण) (इज्जा )
मणाम
मज्जा
मज्जाता मज्जाया
(पृ ११६)
(इ8) (इट्ठत्ता)
(पत्ति) (पासाण)
(अत्त) (पृ ११६)
मणामत्ता मणामा मणि मणुण्ण मणुण्ण
(पृ ११५) (अणुण्णा)
मज्जाया
मज्जाया
मज्जाया
मणुण्ण
मज्जाया मज्जिय मज्झ
(विहि) (वेला) (हात) (११५)
मझ भझंतिक मज्झट्ठिय
(इट्टत्ता) (कामगम) (अज्झत्थिय) (कामगम)
(मंदर) (मधुर) (दिट्ठि) (दर्शन) (धी)
मज्झण्ह मज्झत्थ
मज्झत्थ
मणुण्णत्ता मणोगम मणोगयसंकप्प मणोरम मणोरम मणोहर मत मत मति मति मतिअणुगय मतिंग मतिम मतिविप्लुत मतिसहित मत्थक मत्थक मत्थककंटक
मज्झत्थसील मझदेसक मझिम
(मज्झ) (मज्झ) (मज्झ) (मझ)
(अलस) (अबालसील)
(मज्झ) (मज्झ) (अच्छ)
(घट्ट) (रहस्स) (वड भिका) (अधम्मत्थिकाय) (धम्मत्थिकाय) (पृ ११५)
(अबंभ) (मणुण्ण)
(इ)
मट्ठ
मट्ठ मडहक मडहकोष्ठा मणअगुत्ति मणगुत्ति मणसंकप्प मणसंखोभ मणहर मणाभिराम
(मतिसहित) (मातंग)
(अमूढ) (वितिगिच्छा) (पृ ११६) (णिडाल) (सिखंड)
(तिरीड) (ोहसक्कुलिका)
(कुंडल) (माण)
(माण) (मोहणिज्जकम्म)
मत्थकत
मत्थग
मत्सर
मद
मद
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मनन
मल्ल
मधअग्गि-महन्मय-पवाय
परिशिष्ट १ । २३६ मधअग्गि (वीव) मर्यादा
(वेला) मधु (अरिट्ठ) मर्यादा
(मेरा) -मधुकर (भमर) मर्यादा
(सीमा) मधुर
(पृ ११६) मर्यादाव्यवस्थित (मेधाविन्) (पृ ११६) मल
(पृ ११६) मनस् (चित्त) मल
(कम्म) मनोज्ञ (उदार) मलित
(अतिवत्त) मन्नति (पृ ११६) मलित
(णिम्मंसक) ममत्व
(राग) मलित
(महव्वय) मम्मण
(अलिय) मलियकंटय (ओहयकंटय) मय (गय)
(जल्ल) -मय (विट्ठ) मल्लकमूलक
(करोडक) मयंग
(चंडाल) मल्लगभंड
(अरंजर) मयणिज्ज (पीणणिज्ज) मसूरक
(डिप्फर) मयास (चंडाल) मसृण
(श्लक्ष्ण) मयूर (पृ ११६) महंत
(दोह) मरण (पृ ११६) महंततर
(विच्छिन्नतर) मरण
महंती
(अहिंसा) मरणविमुक्क
(सिद्ध) महंधकार
(तमुक्काय) मरणवेमणंस (पाव) महग्ध
(महत्थ) मरणासा
(लोभ) महग्ध
(परग्घ) मरणासा (मोहणिज्जकम्म)
महतरक
(उच्चयरक) मराल
(खलंक) महत्तरगत्त
(आहेवच्च) मराली (गंडि) महत्थ
(पृ ११६) मराली (तंडी) महद्दि
(परिगरह) मरिसेति
(खमति) महब्बल
(अइबल) मरुभूतिक (पासाण) महब्बल
(ओहबल) मर्यादा (अवधान) महन्भय
(पृ ११६) -मर्यादा (चरण) महब्भय
(असात) मर्यादा (जीत) महब्भय
. (पाव) मर्यादा (धर्म) महन्भय-पवड्डय
(पाव)
(भय)
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४० : परिशिष्ट १
महरिह
महर्षि
महव्वय महाकम्मतर महाकाय महाकाय महाकिरियतर महाजण महाणुभाग महानाणि महापउम महापण्ण महापोंडरीय महाभाग महामुणि महाविस महावीर्य महासवतर महासार महिच्छ माहित माहिय महिय महिला महिसाहा महीरुह महेज्ज महेश्वर महोदर माइ माइय
(महत्थ) मांसल
(ऋषि) माधवई (पृ ११७) माण (पृ ११७) माण (परिवुड्ड) माण
(थूल) माण (महाकम्मतर) माणक
(वंद) माणकामय (ओराल) माणण (महामुणि) माणण (पृ ११७) माणण (पृ ११७) माणव (उप्पल)
माणविवेग (बुद्ध) माणिय (पृ ११७) मात
(उग्गविस) मातंग (तनुतरशरीर) माया (महाकम्मतर) माया
(थूल) माया (परिग्गह) माया (पृ११७) माया (चहिय) माया
(हय) माया (पत्ति) माया (सेज्जा) माया
(दुम) मायामोस (आओसेज्ज) मायामोस (ईश्वर) मायामोसविवेग
(पुट्ठ) मायाविन् (कम्म) मायाविवेग (मिय) मार
महरिह-मार
(थूल) (कण्हराति) (पृ ११७)
(पृ ११८) (अधम्मत्थिकाय) (मोहणिज्जकम्म)
(अरंजर). (पूयणट्ठि ) (उक्कसण) (परिवंदण)
(वंदण) (जीवत्थिकाय) (धम्मत्थिकाय)
(अच्चिय) (णिम्मंसक) (पृ ११८) (पृ ११८) (कक्क)
(पणिधि) (मोहणिज्जकम्म) (अधम्मत्थिकाय)
(इज्जा ) (उक्कंचण) (पलिउंचण) - (अलिय) (अधम्मस्थिकाय) (धम्मत्थिकाय)
(कुंचि) (धम्मत्थिकाय)
(अबंभ
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मार-मुच्छिय
परिशिष्ट १ : २४१
मार्ग
मार
(मरण) मिलाण मारण
(घात) मिसीमिसीयमाण मारण
मिसिमिसेमाण मारण
(डंड) मिहुणग मारणा
(पाणवह) मीमांसा मारय
(घायय)
मीमांसा
(पंथ) मीमांस्यमान मार्ग
(दर्शन) मीलनक मार्गणा
(ईहा) मुंचण मालण
(वध) मुंडक मासाल
(डिप्फर) मुंडग माहण
(समण) मुंडावित्तए माहण
(मुणि) मुंडाविय माहण
(पृ ११८) मुकुट मिच्छत्त
(अवद्य) मुकुल मिच्छा
(पृ ११८) मिच्छादसणसल्ल (अधम्मत्थिकाय) मुक्क मिच्छादसणसल्लविवेग
मुक्क (धम्मत्थिकाय) मुक्कगत मिच्छापच्छाकड (अलिय) मुक्कहत्थ मिणइ
(पियइ) मुक्त मिणति
(पृ ११८) मुक्तिगमनयोग्य मित
(पृ ११८) मित्त
(पृ ११८) मुखर मित्तसंगम
(समागम) मुच्चइ मित्ति
(पृ ११६) मुच्छा मित्ति
(संधि) मुच्छा मिथ्या
(पृ ११६) मुच्छा (११६) मुच्छा (सिक्खिय) मुच्छिय (पच्चंतिक) मुच्छिय
मुक्क
(महव्वय) (आसुरत्त) (मासुरत्त) (हत्थिक)
(तक्क)
(वितर्क) (परिगण्यमान)
(समूह) (झोसण) (खोरक)
(तट्टक) (पृ ११६) (पवाविय)
(तिरीड) (पृ ११६) (पृ ११६) (अणाइल) (उभिण्ण) (सिद्धिगत) (साहसिक) (पृ ११६)
(द्रव्य) (पृ ११६) (पृ ११६) (सिज्झइ)
(पृ १२०) (अदिण्णादाण) (मोहणिज्जकम्म)
(लोभ) (पृ १२०) (लोलुय)
मुख
मिय
मिय
मिलक्खु
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________________
२४२ : परिशिष्ट १
मुच्छिय मुज्झइ मुज्झिय मुञ्चति
मुच्छिय-मेरा (अधम्मस्थिकाय) (धम्मस्थिकाय) (पिडालमासक)
(मूच्छित) (पृ १२०)
मूढ
मुणि
मुणि
मुणि मुणि मुणि
(बुट्ट) (बाल)
.(लोभ)
मुणित मुणित मुणित मुत्त मुत्त
(गिद्ध) मुसावाय (सज्जइ) मुसावायवेरमण (सज्जिय) मुहफलक (निसृजति) (पृ १२०) मूढ
(उज्जु) मूढ (णाणि) मूढ (भिक्खु) मूढ (समण) मूर्छा (पृ १२०) मूर्छा
(गीय) मूच्छित (विदित) मूर्ति (तिण्ण) मूल (भिक्ख) मूल (समण) मूलगुणपडिवाय
(सिद्ध) मूलच्छेज्ज (इसिपब्भारपुढवी) मृत (ईसिपब्भारपुढवी) मेखला
(मइ) मेख लिका (सिद्धिमग्ग) मेघ (पृ १२०) मेढि
(हसित) मेदित (पृ १२०) मेधस् (अंगुलेयक) मेधाविन् (पृ १२०) मेधावि (पृ १२०) मेधावि (अनगार)
मेरक
मेरग (पृ १२०) मेरा
(दिट्ठ) मेरा
(राग) (पृ १२१) (स्थापना) (पृ १२१)
(बीय) (मूलच्छेज्ज) (पृ १२१)
(गत) (कंची) (कडीय) (बलाहक) (पृ १२१)
मुत्त मुत्तालय मुत्ति मुत्ति मुत्तिमग्ग मुदित मुदित मुदिता मुद्देयक मुद्ध
मुनि
(बुद्धि) (पृ १२१) (देसकालण्ण)
(छेय) (अरिद्व)
(सुरा) (पृ१२१)
(वेला)
(साधु)
मुम्मुर
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________________
मेरा-रक्सित
परिशिष्ट १ : २४३
मेरा
(पृ १२२)
(पाव)
मेरा
मेरा
(रमंति)
मेरा
मेरा
मेरु
मेरुक
(अनगार)
(तत्व) (पृ १२२) (पृ १२२)
(ऋषि) (अनगार)
(छंद) (यजन) (प्रवहण) (अनविष्ट)
मेरुवर मेलना
मेस
मेहन मेहराति
मेहा
मेहावि मेहावि मेहुण मेहुण मेहुणवेरमण मैथुनाजीवा मैथुनिकी मोक्ख मोक्ख मोक्खदरिसि मोक्ष मोक्ष मोक्षमार्गगामि मोक्षमार्गाभिज्ञ मोचन मोत्ति
(पाली) मोहणिज्जकम्म (ठिति) मोहपवड्डय (विहि) मोहेंति
(कप्प) मौनी (मज्जाया) मौनीन्द्राभिप्राय (सीमा) यजन
(मंदर) यत (पासाण) यति
(णग) यति (पृ १२१) यथारुचि (दुमपुल्फिया) याग (सागारिक) यान (कण्हराति) याचित
(उग्गह) यातना (साहसिक) युक्त (पंडिय)
युज्यते (अबंभ) युवा (अषम्मस्थिकाय) यूथ (धम्मत्थिकाय) योग
(मैथुनिकी) योग (पृ १२१) योग्य
(संति) योग्य (सिद्धउपपत्ति) योजना (णिकम्मदरिसि) यौवनस्थ
(धूत) रइ-अरइ (नियाग) रइ-अरइविवेग (आप्त) रइय (कुशल) रइल्लिय (निक्षेप) रंगण (पृ १२२) रक्खा
(अबंभ) रक्खित
(प्रतिबद्ध)
(क्रमति) (पृ १२२)
(कुल) (पृ १२२) (१२२)
(पात्र) (भव्य) (मेलना)
(युवा) (अधम्मत्थिकाय) (धम्मत्थिकाय)
(जल्लिय) (जीवत्थिकाय)
(अहिंसा) (पालित)
मोह..
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________________
२४४
रक्षण
रचन
रचित
रजनिकर
रज्ज
रज्जइ
'रज्जति
रज्जिय
रत
रति
रति
रति
रति
रत्त
रत्ति
रत्था
रन्न
रमंति
रमंति
रमणिज्ज
रमणिज्ज
रय
रय
रणिय रपयास
रयणी
रयणुच्चय
रयणोच्चय
यस्
रतिपुव्व
परिशिष्ट १
रस
रसणा
( सन्त्राण )
(निक्षेप)
( विकल्पित)
(चन्द्र)
( पृ १२२ )
( सज्जइ)
( पृ १२३ )
( सज्जिय)
(रति)
( पृ १२३ )
(सात)
( अबंभ )
( अहिंसा)
(कक्क)
(नील)
(वीथि)
( गण )
(हसंति)
( पृ १२३ )
(सोभंत)
( कंत)
( कयार )
(पाव)
( संख)
( पृ १२३ )
(मंदर )
(मंदर)
( पृ १२३ )
( णियत)
( पृ १२३ ) (कंची)
रसिय
रहस्स
रहस्स
राइ
राग
राग
राग
राग
राग
राग
राग
रागद्दोसवसग रागविवेग
रायहंसी
राशि
राशि
रासि
रासि
रासि
राहु
रिउ
रिण
रित्तक
रिद्धि
रिया अस्समिति
रियासमिति
रिसि
रीत
रीति
यति
रुइय
रक्षण - रुइय
( पृ १२३ )
( पृ १२३ )
( अबंभ )
(छिड)
( अधम्मत्किाय)
( पृ १२४)
( अबंभ)
( मोह णिज्जकम्म)
(लोभ)
(पेम)
(पिज्ज)
( परज्झ )
( धम्मस्थिकाय )
(विल्लरी)
( पृ १२४)
(समूह)
( पिंड )
(समुस्सय )
( गण )
( पृ १२४ )
( पृ १२४)
(अण)
(तुच्छ) (अहिंसा)
( अधम्मत्थिकाय )
( धम्मत्थिकाय )
(इसि )
( पृ १२४)
( रीत)
( इज्जति)
( पृ १२४)
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________________
रुइल-लिगिय
परिशिष्ट १ : २४५
रुइल रुइल रुंटणा रुंभेज्ज रुक्ख रुक्ख रुचक
लण्ह
रुण्ण रुण्ण रुदित
लब्भति
लय
'रुद्ध रुद्धापित रुपाकड रुयकड रुसिय
(कंत) लघुक (सोभंत) लज्जा (खिज्जणिया) लज्जा (अक्कोसेज्ज) लज्जामो
लज्जिय (पादव)
(कडग) लता (पृ१२४) लद्ध (आसुरत्त) लट्ठ (विकूणित) लद्धमईय (पृ १२४) लद्धसण्ण (हक्कार) लद्धसुईय
(पाव) लद्धि (रहस्स) (पृ १२४)
(भग्ग)
(भग्ग) लयण (पृ १२४) ललंति (कयार) ललंति (सद्दहइ) लहुक (वाहिय) लहुभूय (पृ १२५) लाधविय
(दुम) लाढेत्तय (ववण) लाभ (क्रोध) लाभ
(कोह) लाभ (मोह णिज्जकम्म) लालप्पण
(णंगल) लालप्पमपत्थणा (पृ १२५) लिंग (स्पर्शना) लिंग (धम्म) लिगिय
लय
(पृ १२५)
(ही) (दया) (पृ १२५) (पृ १२५)
(अच्छ) (पृ १२५) (पृ १२५) (१२५) (पृ १२५) (लद्धमईय) (लद्धमईय)
(अहिंसा) (पृ १२६)
(संघाड) (पृ १२६) (पृ १२६) (रमंति)
(हसंति) (साहसिक) (अप्पडिबद्ध) (पृ १२६) (जवइत्तय)
(आय) (णिप्फत्ति) (पृ १२६)
(लोभ) (अदिण्णादाण)
(पृ १२६) (सागारिक) (पृ १२६)
रेणु
रोएइ
रोगिय . रोयमाणी रोवग रोवण रोष रोस
रोस
लंगल लंचा लंभ लक्षण
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________________
लुठण
लुद्धग
२४६ । परिशिष्ट १
लोण-वंचण लीण (पविट्ठ) लोटन
(पृ १२६) लीनता (लय) लोट्टण
(लुटण) लुंपणा (पाणवह) लोभ
(छंद) लुंपणा धणाणं (अदिण्णादाण) लोभ
(तण्हा ) लुपित्ता (हंता) लोभ
(अभिज्झा) लुक्कई
(आलुक्कई) लोभ (मोहणिज्जकम्म) लुक्ख (सुक्क) लोभ
(पृ १२७) (पृ १२६) लोमसिका
(पृ १२७) लुटण
(लोटन) लोमहरिसजणण (पृ १२७) लुत्ततेय
(हयतेय) लोयग्ग
(ईसिपब्भारपुढवी) (अत्थि) लोयग्गथूभिगा (ईसिपब्भारपुढवी) लप्पमाण
(नस्समाण) लोयग्गपडिबुज्झणा लुब्ध (घूर्त)
(ईसिपब्भारपुढवी) लुब्भिय
(सज्जिय) लोलिक्का (अदिण्णादाण) लूसग (पृ १२६) लोलुग
(पृ १२७) (समण) लोलुय
(पृ १२७) (भिक्खु) लोह (अधम्मत्धिकाय) (पम्वइय) लोहप्प
(परिग्गह) लूहाहार
(अंताहार) लोहविवेग (धम्मत्थिकाय) लेण (भवण) लोहिल्ल
(अविसुद्ध) लेसा (जुइ) ल्हाय
(सीईभूय) लेसा
(कंति) वइअगुत्ति (अधम्मत्थिकाय) लेसा
(जुइ) वइगुत्ति (धम्मत्थिकाय) लेसेज्ज (अभिहणेज्ज) वइजोग
(वक्क) लोकपडिपूरण (ईसिपन्भारपुढवी) वइर
(पासाण) लोगंधगार (तमुक्काय) वइर
(पृ १२७) लोगग्गचूलिया (ईसिपब्भारपुढवी) वंक
(पृ १२७) लोगतमस
वंकसमायार लोगतमिस (तमुक्काय) वंचण
(उक्कंचण) लोगनाभि
(मंदर) वंचण (मोहणिज्जकम्म) लोगमज्झ (मंदर) वंचण
(कूड)
लूह लूह
(वंक)
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________________
वंचण-वण
परिशिष्ट १ : २४७
(पृ १२८)
(गण)
वंचण वंचण वंझा वंटग वंडग
वंत
* *
वंदइ वंदण वंदण वंदण वंदण वंदणग वंदणग
(माया) वगडा (अलिय) वग्ग (पृ १२७) वग्घ
(वड) वचन (वड) वचन
वच्चंसि (पृ १२७) वच्छ (आढाइ) वच्छक (प्रणमन) वच्छक (पृ १२८) वच्छक
वच्छिका (अभिवायण) वज्ज (पृ १२८) वज्ज (संथुणण) वज्ज
(प्रणमन) वज्ज (णमोक्कत) वज्ज (पृ १२८) वज्ज (अच्चिय)
वज्ज (पृ १२८) वज्जण (पृ १२८) (पृ १२८) वज्जपाणि (परूवण) वज्जपाणि (पलिमंथ) (पलिमंथ) वट्टक
(संग) वट्टपीढक (विग्घ) वट्टमाणक
(मुख) वड (पृ १२८) वडभिका
(कुब्ज) वडेंस (वडभिका) वड्ड . (पृ १२८) वण
(संग) (पृ १२८)
(उक्ति ) (ओयंसि)
(दुम) (पृ १२६)
(उसभ) (बालक) (दारिया) (पृ १२६) (पृ १२६) (वइर)
(वेर) (कम्म)
वंदन वंदित
वंदित बंदिय
(पाव)
वंश
(पाणवह) (उस्सग्ग) (दुगुछणा),
(सक्क)
वज्जणा
वक्क वक्कमंति वक्खाण वक्खेव वक्खोड वक्खोड वक्खोड
वज्जा
वक्त्र
(इज्जा ) (खोरक) (आसंदग) (करोडक) (पृ १२९) (पृ १२६) (मंदर) (थूल) (गहन)
वक्र
वक्रजघ
वक्राध:काय
वक्षस्कार
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२४८
वण
वण्ण
वण्ण
वण्णित
वण्णिय
वणिस्सामि
वति
वति
तिपरिक्खेव
वत्तिय
वत्तुस्सय
वत्तेज्ज
वस्थित
वध
वधु
वधू
वन्दते
वप्फति
वमण
बमेंति
वम्मिका
* परिशिष्ट १
वय
वयंति
वयंति
वयंस
वयण
घयण
वयण
वयण
वयत्थ
वयमंत
(दुमपुफिया)
(जस)
(कित्ति )
( पृ १२e ) ( पृ १२६)
( कित्तहस्सा मि )
( भिक्खु)
(पागार)
( बगडा )
( अणुओग )
( महव्वय)
( अभिहणेज्ज) (वित्थिन्न)
( ( पृ १२६)
(पत्ति )
(पत्ति )
( पृ १२e ) (जेमेति)
( पृ १३० )
( पृ १३० ) (पामुहिका)
(जाम)
( पृ १३० )
( उबेइ)
( मित्त)
( आणा )
(मुख)
( वक्क)
( गिरा )
( पृ १३० )
( सोलमंत )
वयर
वर
वर
वरढ
वर्ग
वर्जन
वर्णयति
वर्तन
वर्द्धन
वर्य
वर्षावास
वलय
वलय
वलय
वलय
वलयग
वल्लभ
वल्लभका
ववगत
ववगय
ववण
ववत्था
ववसाय
ववसाय
ववहार
ववहार
वसट्ट
वसति
वसधि
वसितु
वसिम
-- वसिम
वण----
(पाव)
( पृ १३० )
( अग्ग )
(थूल)
(समूह)
(परिहार )
( वृणीते)
(भवन)
( पृ १३० )
(अग्र)
(प्रथमसमवसरण )
( कडपल्ल) (माया)
( मोह णिज्जकम्म)
( अलिय )
(केज्जूर)
( इट्ठ)
(पत्ति )
( पृ १३० )
( पृ १३० )
( पृ १३० )
( पतिट्ठा)
( पृ १३१ )
( अहिंसा)
( पृ १३१)
( पृ १३१ )
(अट्ट)
( वसुम)
( उवसम)
( पृ १३१)
(वसुम)
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________________
वसुम-विकच
वसुम वसुमंत वस्तु वस्त्र वह वहण वय
(अरि)
वहित
(जोग)
वाग वाग्योग वाघात वाचाल वाञ्छितस्याधिगति घाट वाटक वाणी वाणी वात वातफलिह वातफलिहखोभ वांति वातिक
परिशिष्ट १ : २४९ (पृ १३१) वायपलिक्खोभा
(कण्हराति) (अड्ड) वायफलिहा
(कण्हराति) (पृ १३१) वारक
(अरंजर) (पोत्थ) वारण
(पृ १३२) (घाय) वारणा
(पडिकमण) (पाणवह) वारिक
(नापित) वातिककर
(व्यक्तिकर) (पृ १३१)
वालु (वचन) वावड
(पृ १३२) (उक्ति) वावण्ण
(पृ १३२) (पृ १३१) वावण्ण
(दोसीण) (मुखर) वावत्ति
(अबंभ) (नन्दन)
वावार (पृ १३१) वाविद्ध
(णिस्सारित) वासारत्तिय (चाउम्मासित) वासावास (पज्जोसवणा)
(आपूरित) (चाएति)
(पृ १३२) (तमुक्काय) विअत्त
(देसकालण्ण) विउक्कमंति
(वक्कमंति) (गपुंसक) विउट्टणा
(आलोयणा) (वेच्च) विउट्टणा
(दुगुठंणा) (पृ १३१) विउट्टिज्जइ (आलोइज्जइ) (वाम) विउल
(उज्जल) (वाम) विउल
(विच्छिन्न) (वाम) विउलतर
(अब्भहियतर) (वाम) विउसग्ग
(काउस्सग्ग) (वाम) विउस्सग
(पृ १३२) (वाम) विउस्सरण
(उस्सग्ग) (वाम) विकच
(फुल्ल)
(वाट) (गिरा)
(वक्क) (महव्वय) (तमुक्काय)
वासित वासे हि वाहिय
(वेरति)
वान
वाम
वामत वामदेस वामपक्ख वामभाग वामसील वामायार
वामावट्ट
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________________
विधाय
विकल्प
२५० : परिशिष्ट १
विकटन-विज्जमाणभाव विकटन (आलोचन) विगिचण
(पृ १३३) विकड्ड (पहर) विगिचण
(वमण) विकडुति (णिकड्डति)
(विवाद) विकडुति (णीहारेति) विग्ध
(पृ १३३) विकड्डित (णिच्छुद्ध) विग्ध
(संग) विकत्ता (जीवत्थिकाय) विग्ध
(पलिमंथ) विकत्ताहि (पहर) विग्धित
(पृ १३३) विकप्प (भेय)
(अबंभ) विकल्प (पृ १३२) विचल
(पृ.१३३) (पृ १३२) विचलित
(चलित) विकल्प (भेद) विचारणा
(विजय) विकल्पित (पृ १३२) विचालण
(घट्टण) विकल्पितवद् (पहारेत्थ) विचिकित्सा
(पृ १३३) विकसित (फुल्ल) विचीयते
(पृ १३३) विकाश (फुल्ल) विच्छण्ण
(पृथ) विकाश (अनुकाश) विच्छिंदति
(छिदति) विकिरण
(सडण) विच्छिण्णतर (पृ १३३) विकूणित
(पृ १३२) विच्छिण्णदोहला (संपुण्णदोहला) विकोच (फुल्ल). विच्छिण्णसव्वदुक्ख
(सिद्ध) विक्कंत (सूर) विच्छित्त
(भग्ग) विक्कंदित
(विकणित) विच्छिन्न विक्ख (णपुंसक) विच्छिन्न
(भग्ग) विक्खंभ (आयाम) विच्छुद्ध
(णिम्मज्जित) विखण्ण
( १३२) विच्छुद्ध वि क्खिन्न (उक्खिन्न) विच्छुभ
(पहर) विक्खिन्न
विजय
(पृ १३३) विक्खेव (अदिण्णादाण) विजय
(पृ १३३) विक्रान्त
विजय
(मग्गण) विक्षेप (पृ १३३) विजृम्भित
(फुल्ल) विगत
विज्जमाण
(संत) विगय
विज्जमाणभाव (सपज्जाय)
(वीर)
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________________
विज्जा-वितिमिर
विज्जा
विज्जु
विज्जुता
विज्भवित
विज्झाय
विज्भीयति
विज्ञान
विज्ञापन
विज्ञापयितुम्
विडवि
विडिमी
विडु
विणट्ठ
विट्ठ
विणट्ठ
विणट्ठ
विणट्ठ
विणट्ठतेय
विणय
विणय
विणय
विणय
विणयकम्म
विणस्समाण
विणास
विणास
विणास
विणास
विणास
विणासभाव
विणासित
(UTTOT)
( दीव)
( दीव)
( भग्ग )
(निट्टिय)
( उज्भीयति)
(चित्त)
( पृ १३४)
(आख्यातुम् )
( पादव)
(दुम)
( लज्जिय)
( वावण्ण)
( हयतेय )
( पृ १३४ )
(पूया)
विष्णवणा
विण्णाण
विष्णाण
विष्णाण
(भग्ग) विष्णाय
( खीण)
(झीण)
(ण)
( उववाय)
(आयार )
( बंदणग)
(नस्समाण )
( घाय)
( सायण )
(पलिमंथ)
(पाणवह)
( वाघात)
( अभूतिभाव )
( विक्खिण्ण)
विणासित
विणासिय
विणिग्गत
विणिच्छिय
विणिच्छियट्ठ
विणियत्त
विणीय
विणीयदोहला
विष्णवण
परिशिष्ट १
विष्णु
विष्णु
वितड्ढमाइन्न
वितत
वितथ
वितर्क
वितर्क
वितह
विति किण्ण
वितिगिच्छा
वितिगिच्छित
वितिगिण्ण
वितिमिर
वितिमिर
वितिमिर
वितिमिर
वितिमिर
1 २५१
( भग्ग ) ( खामिय)
( अतिवत्त)
( पृ १३४)
(लट्ठ)
( अतिवत्त)
(आइण्ण)
( संपुण्ण दोहला)
( पण्णवण )
( आघवणा)
( पृ १३४ )
( सण्णा)
(अवाय)
(दिट्ठ)
( जीवत्थिकाय)
( पाण)
( दुक्कड) (वित्थिन्न)
( मिथ्या )
( संशय)
( पृ १३४)
(मिच्छा )
(आइण्ण)
( पृ १३४)
( संकित )
( उक्खिन्न)
(निट्ठियट्ठ)
(निव्ड)
( अरय)
( अणुत्तर)
(सेत)
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________________
वित्थत वित्थिन्न
विदु
विदु
विदेहजंबू
२५२ । परिशिष्ट १
वितिमिरतर-विप्फालण वितिमिरतर (अब्भहियतर) विनीत
(अविजात) वितोसिय (खामिय) विनीत
(जितकरण) (विस्थिन्न) विन्नत्तिकारण
(पृ १३५) (पृ १३४) विन्नत्तिहेउभूय (विन्नत्तिकारण) विदित (पृ १३४) विन्नव
(अत्तव) (पृ १३४) विपण्ण
(गट्ठ) (समण) विपन्न
(व्यापन्न) विदु (भिक्खु) विपन्न
(गत) (जंब) विपरिणामइत्ता (पृ १३५) विदेहदिण्णा
(तिसला) विपरिणामधम्म (भेउरधम्म) विद्देसगरहणिज्ज
(अलिय) विपरिणामित्तए (चालितए) विद्धंसण (सडण) विपरीतभाव
(वैगुण्य) विद्धंसणधम्म (भेउरधम्म) विपर्यास
(व्यत्यय) विद्धंसणधम्म (सडण) विपाडित
(भग्ग) विद्धंसति (पमिलायति) विपुल
(ओराल) विद्धत्थ (खीण) विपुलतर
(विच्छिण्णतर) विद्धि (अहिंसा) विप्प
(बंभण) (पृ १३४) विप्पइण्ण
(उक्खिन्न) विध (विहि) विप्पकिण्ण
(विक्खिण्ण) (विधि) विप्पकिण्ण
(पकिण्ण) विधावति (पधावति) विप्पगुणोवेय
(बंभण) (पृ १३५) विप्पजढ
(ववगत) विधि (भजना) विप्पपवर
(बंभण) विधि (कल्प) विप्पमुंचण
(उठित) विनष्ट
(व्यापन) विप्परिचेते (परिचेति) विनष्ट
(विगत) विप्परिवत्तते (परिचट्ठति) विनाश (विवेक) विपरिसि
(बंभण) (दण्ड) विप्पलोट्टित
(वेवित) विनाश (गलन) विप्पित
(विग्घित) विनाशित (क्षामित) विप्पिय
(पिच्चिय), विनाशिन् (अशाश्वत) विप्फालण
(पृ १३५)
विद्वस्
विधान
विधि
विनाश
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________________
विष्फालण-विरल्लिय
परिशिष्ट १ : २५३
विप्फालण विबुध विब्भम विभंग विभजन विभयंति विभयामि
(संजत)
(अहिंसा) (मागासथिकाय)
(उत्तारिय) (पृ १३५) (उद्दिट्ठ)
(दीविय) (मागासस्थिकाय) (आलोयणा)
(रयणी) (वित्थन्न) (घट्टण).
विभाग
विभाग विभाग विभाग विभाग विभाविज्जति विभावेमि विभासा.
विभासा
(घट्टण) विमुत्त
(देव) विमुत्ति (अबंभ) विमुह (अबंभ) विमोक्खित (पृ १३५) वियंजित
(हरंति) वियंजिय (आइक्खामि) वियग्ध (अवसर) वियट्ट
(वड) वियडणा (विभजन) वियरत्ति (अवसर)
वियाणक (देश) वियारण (णिव्यंजीयंति) वियालण (आइक्खामि) विरचना (अणुओग) विरत
(भासा) विरत (अहिंसा) विरत
(चूला) विरत (आभिणिबोहिय) विरत (तक्क)
विरति (उपयोग)
विरति (ईहा)
विरति (वितिगिच्छा) विरति
(व्हाय) विरति (संख) विरमण (सेत) विरमण
(सुद्ध) विरय (पृ १३५) विरय (अहिंसा) विरय (महापउम) विरय (परिभीत) विरल्लिय
(निधान) (मुक्क) (संयत) (विद्वस्) (भिक्खु) (पृ १३५)
विभूति
विभूसण विमंसा विमर्श विमर्श विमर्ष विमर्ष विमल विमल विमल विमल विमल विमल-पभासा विमलवाहण विमाणित
(विरमण)
(संति) । (संजम) (अहिंसा) (पृ १३६) (विरति) (तिण्ण) (संजय) (अरय) (समण) (पृ १३६)
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________________
5
२५४
विरसाहार
विरह
विरह
विराहण
विराहणा
विराहणा
विराहणा
विरिय
विरिय
विरेयण
विरेयण
विलका
विलग्गइ
विलवण
विलवमाणी
विलासिणी
विलिय
विलुंचण
विलुंपति
विलुंपित्ता
विलुप्पमाण
विलोकन
विल्लरी
विवक्ख
विवडिय
विवर
विवर
विवर
विवाडेंत
विवाद
विवाद
परिशिष्ट १
(अंताहार ) विवाद
विवाय
विवेक
विवेग
(अंतर)
( छिद्द )
( उद्दवण)
( पृ १३६ )
( प डिसेवणा )
( अबंभ )
(योग)
( जोग)
( साहरण )
(वमण)
(पत्ति )
( दुरुह )
( कूजण )
( रोयमाणो )
(पत्ति)
( लज्जिय)
(फुडण )
( हापयति )
( हंता )
( नस्समाण )
(प्रेक्षण)
( पृ १३६ )
(अलिय )
(हय)
( छिड्डु)
(सन्धि )
( आगासत्थिकाय)
(छिदंत)
( बुग्गह)
( पृ १३६ )
विवेग
विवेग
विवेयण
विशति
विशालता
विशुद्ध
विशेष
विशेष
विशेषयति
विशोधि
विश्र
विष्कंभ
विसंधित
विसत
विसम
विसय
विसरा
विसल्लीकरण
विसारत
विसाल
विसाला
विसिदिट्ठि
विसिण्ण
विसुद्ध
विसुद्ध
विसुद्ध
विसुद्ध
विरसाहार - विसुद्ध
(कोह)
( मोहणिज्जकम्म)
( पृ १३६ )
( विउस्सग )
(उस्सग्ग)
(विचिण)
( मग्गण )
( पृ १३६ )
( आरोह)
( पृ १३६)
(पर्यव)
(पर्याय)
( उवेहति )
( पृ १३६)
( पृ १३७ ) (आरोह)
( भग्ग )
( गोयर)
( आगासत्यिकाय )
( पृ १३६ ) . (तिसरा)
( उत्तरकरण )
( पृ १३७)
(ओराल)
(जंबू)
( अहिंसा)
( अतिवत्त)
( व्हाय)
(निट्ठियट्ट)
(खोण)
( अरय)
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________________
विसुद्ध-वृक
विसुद्ध
विसुद्ध विसुद्धतर विसुद्धि विसूरण विसेसक विसेसादिट्ट विसोधेति विसोहण विसोहि विसोहि विसोहिज्जइ विसोहीकरण विस्तर विस्तराल विस्तार विस्तारित विस्तीर्णप्रज्ञ विस्वर
परिशिष्ट १ : २५५ (अणुत्तर) विहि
(उस्सय) (निम्बुड) वीतगेहि
(खंत) (अब्भहियतर) वीतराग
(निर्मम) (अहिंसा) वीतरागादेस
(आणा) (आयास) वीथि
(पृ १३७) (णिडालमासक) वीभिति
(तसंति) (अप्पियववहारिय) वीमंसा (आभिणिबोहिय) (वोसिरति) वीमंसा
(ईहा) (वमण) वीमंसा
(संशय) (आलोयण) वीयि (आगासस्थिकाय) (आवस्सय) वीर
(पृ १३७) (आलोइज्जइ) वीर
(पृ १३७) (उत्तरकरण) वीर (विभजन) वीर
(सूर) (ओराल) वीर
(पंडिय) (पृथ)
(जोग) (परिक्खित्त) वीरिय
(उट्ठाण) (महापण्ण) वीरिय
(११३७) (करुण) वीवाह
(समागम) (पृ १३७) वीसास
(अहिंसा) (आगासस्थिकाय) वुग्गह
(अबंभ) (पहर)
(पृ १३८) (ओवीलेमाण) दुग्गाहित (पृ १३७) वुच्चमाण
(पृ १३८) (उढ) वुड्ढ
(जुग्ण) (विहि)
(पृ १३८) (पंथ) वुड्ड
(महन्वय) (विहरण) वृत्त
(भणिय) (लूसग) वृत्त
(पृ १३८) (धारणववहार) सिम
(वसुम) (पृ १३७) वृक
(पृ १३८)
' ' ཡཾ ཡཾ ཀྐཱ ཙྪཱ ཟླ བློ ཀློ ཙྪཱ ཙྪི ཙླི ཨཱི ༧ ༈ # ཝ ལ སྒྲ ཙྪཱ ཙྪཱ ཙྪཱ ཙྪཱ བློ་
वीरिय
विह
वुग्गह
विह विहण विहम्मेमाण विहरण विहल विहाण विहार विहार विहारग विहारणा
विहि
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________________
वृणोति
वेरति
वेरिय
वेला
बेलु
वेवित वेश्या
वेग
जन
२५६ : परिशिष्ट १ वृक्षसाला
(साहा) वेर वृणीते
(पृ १३८) वेर
(वृणीते) वृत्त
(स्थान) वेरति वृत्त
(चरण)
वेरमण वृद्धि
(वर्द्धन) वृन्त
(मुकुल) वेइज्जमाण (एइज्जमाण) वेइय
(सिग्ध) वेइय
(खद्ध) वेंटक
(अंगुलेयक) वेस्सासिय
(रयस्) वैगुण्य वेच्च
(पृ १३८) वैधता
(लज्जिय) वोगड वेढक
(हत्थभंडक) वोच्छिण्ण वेद
(बंभण)
वोण्ण
(छन्द) वोम वेद
(पाण) वोरमण वेदज्झाइ
(बंभण) वोस? वेदणा
(एजणा) वासट्टकाय वेदन
(अवन) वोसिरण वेदपारग
(बंभण) वोसिरति वेदित
(अपगत) वोसिरिय वेय
(जीवस्थिकाय) वोसिरे
(णाण) व्यक्तिकर वेयणा
(विण्णाण) व्यञ्जक (पृ १३८) व्यञ्जनाक्षर
व्यत्यय (आयास) व्यपलाप (कम्म) व्यवशमित (डिब) व्यवसायिनु
वृक्षसाला व्यवसायिन्
(पाव) (अबंभ) (तितिक्खा) (पृ १३८) (वेरति)
(अरि) (पृ १३८)
(णावा) (पृ १३८) (मैथुनिकी)
(थेज्ज) (पृ १३९) (वैगुण्य) (विट्ठ) (विट्ठ)
(कम्म) (मागासस्थिकाय)
(पाणवह) (पृ १३९)
(दंत) (विउस्सग) (पृ १३६) (वोसट्ठ)
(छड्डे) (पृ १३९) (पृ १३९) (पृ १३६) (पृ १३९) (आह्वान) .(क्षामित), (पृ १३९)
वेद
वेयण
वेर
बेर
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________________
व्यवस्था - सउज्जव
व्यवस्था
व्यवस्था
व्यवहार
व्यवहार
व्यवहार
व्याकुल
व्याकोश
व्याख्या
व्याघात
व्यापन्न
व्यापार
व्यापृत
व्याप्त
व्याप्त
व्याप्त
व्याप्त
व्यावृत्त
व्याहृति
व्युत्सर्ग
व्यूत
व्रतमोक्ष
व्रतिन्
शंकित
शठ
शठ
शबल
शब्दित
शयन
शरीर
शरीरभृद्
शशिन्
( जीत )
(धर्म)
( पृ १३६ )
(आदेश)
( कल्प)
( दुस्सह)
(फुल्ल)
(वर्द्धन)
( विक्षेप)
( पृ १३९ )
(योग)
( वावड)
(आस्पृष्ट)
(आपूरित)
( स्पृष्ट) (संकीर्ण )
( पृ १३६ )
( विकल्प )
( पृ १३९ )
(वेच्च)
( प्रतिगमन )
(अनगार )
( पृ १४० )
( खलुंक)
. (धूर्त)
( बकुश)
[ ( शापित )
(त्वग्वर्तन)
शांत
शापित
शास्त्र
शिक्षित
शिव
शीलहीन
शुक्ल
शुद्ध
शुभ
शुभवृद्धि
शृणोति
शेखरक
शोधि
शोभते
शोभन
शोभन
श्रद्दधाति
श्रमण
श्रेणि
श्रेयस्
श्रेष्ठ
श्लक्ष्ण
श्लाघा
श्लोक
श्वपच
अट्ठ
सइ
सइ
( बोंदि) संउक्केस
(जीव )
(चन्द्र)
सउज्जाय
सउज्जोव
परिशिष्ट १
: २५७
( पृ १४० )
( पृ १४० )
( नन्दि )
( पृ १४० )
(कल्याण)
(क्षुद्र )
(लघुक)
(आदर्श)
(पुण्य)
( पृ १४० )
( पृ १४० )
(आमेलक)
( पृ १४० )
( प्रभाति )
( उदार)
(उदग्ग)
( प्रत्येति )
(अनगार)
(लता)
(कल्याण)
(वर)
( पृ १४० )
(श्लोक)
( पृ १४० )
( सौकरिक)
( पृ १४० )
(आभिणिबोहिय)
( मइ )
( पावय)
( सप्पम )
( सप्पभ )
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________________
२५८
संकण
संकप्प
संकर
सकर
संका
संकित
संकीर्ण
संकुयंति
संकेत
संकेत
संकेतन
संक्षेप
संक्षेप
संक्षेप
संख
संखड
संखित्त
संखेव
संखेव
संखेव
संखोभिज्जमाणी
संग
संग
संग
संग
संग
संग
संग
संग
परिशिष्ट १
संगतपास
संगलिका
( पृ १४० )
( अबंभ )
(परिग्गह)
( णणुंसक)
(संकण )
( पृ १४१ )
( पु १४१ )
( तसं ति)
(केतन)
(समय)
(केतन )
( ओघ )
(ओह )
( जूह )
( पृ १४१ )
( भोज्ज )
(रहस्स)
( पृ १४१ )
(समास )
( ओह )
(आहुणिज्जमाणी)
(राग)
( पश्व)
( पृ १४१ )
( पृ १४१ )
( पृ १४१)
(कम्म)
(लोभ)
( मित्त)
( सम्नतपास )
( लोमसिका)
संगह
संगह
संगाम
संगाम
संगाम
संगोवेमाण
संघ
संघ
संघ
संघट्टेज्ज
संघट
संघाड
संघाड
संघात
संघात
संघाय
संघाय
संचय
संचारयंति
संचालयंति
संचालिज्जमाणी
चिट्ठ
संजत
संजत
संजत
संजम
संजम
संज
संजम
संजम
संजमठाण
संकण - संजमठाण
( अणुण्णा)
( उबहि)
( पृ १४१ )
( जुद्ध)
(समर)
( सारवलेमाण)
(वंद)
( पृ १४१ )
(कुल)
( अभिहणेज्ज)
(घाट)
( णावा)
( पृ १४१ )
(समूह)
( पृ १४२ )
( गण )
( काय )
( परिगह )
( संचालयंति )
( पृ १४२ )
(आहुणिज्जमाणी )
(संजायते)
( पृ १४२ )
(साधु)
( भिक्खु)
(अहिंसा)
(दया)
(जस)
( आचार)
( पृ १४२ )
( पृ १४२)
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________________
संजमणा संपिडण
संजमणा
संजमत वड्डय
संजमति
संजम बहुल
संजमबहुल
संजभरत
संजमेज्जा
संजय
संजय
संजलण
संजण
संजातदेह
संजाय
संजायते
संजायभय
संजूह
संज्ञापयितुम्
संठाण
संठाण
संठिति
संठिति
संढ
संत
संत
संत
संत
संत
संतप्पमाण
संतापित
संतास
संति
संति
(दुगंधणा) ( पृ १४२ )
( धारयंति)
( पव्वइय )
( पृ १४२ )
( भिक्खु)
( पव्वज्जा )
( समण )
( प १४२ )
( कोह)
( मोह णिज्जकम्म)
( परिवूढ )
( परिबुड्डू)
( पृ १४२ )
( तत्थ )
( जूह )
(आख्यातुम् ) ( आगार )
( पृ १४३)
( पतिट्ठा)
( अवस्था ) (णपुंसक)
( पृ १४३ )
( पृ १४३ )
( पृ १४३ )
( पृ १४३ )
(सीईभूय )
( रुद्धापित)
( रुद्धापित)
( आयास)
( पृ १४३ )
( उवसम)
संति
संति
संथव
संथव
संथ
संथुणण
संत
संदमाणिका
संदाण
संदीपण
संदेह
संदेह
संघयेत्
संधान
संधसेज्ज
संधारणा
संधावति
संधि
संधि
संधुत
संपओगबहुल संपsar
संपण्ण
परिशिष्ट १
संपण्णदोहला संपत्तमणोरध
संपधूमिय
संपराग
संपराय
संपहारणा
पापा
संपायण
संपिडण
२५ε
( सामायिक )
(समण)
( संथूणण )
( परिगह )
( आइण्ण )
:
( पृ १४३ )
(वंदित)
(थिल्ली)
( पृ १४३ )
( जग्गंतक)
( संशय)
(विति गच्छा )
( पृ १४४)
( पृ १४४)
( अभिहणेज्ज)
(धारणवबहार)
( पधावति )
( संधान)
( पृ १४४ )
( विचल )
(उक्कं चण)
(कंची)
( पृ १४४)
(संपुष्ण दोहला)
( कयत्थ)
(घट्ट)
(जुद्ध)
(कम्म)
(धारणववहार)
( परिग्गह)
( उप्पायण ) (पिंड)
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________________
२६० : परिशिष्ट
संपिडित-सकल
संपिडित संपिहणा संपी संपीति संपीति संपीलित संपुण्णदोहला संपूर्ण संपेहेति संप्रधारितवद् -संप्रेक्षते संबंधि संबद्ध संबृद्ध
संविग्न
(रहस्स) संवच्छरिय (णिसियणा) संवर
(संधि) संवर (समागम)
संवर (मित्ति)
संवर (रहस्स)
संवरबहुल (पृ १४४)
संवरबहुल (सर्व)
संवरित (पृ ११४)
संवरेज्जा (पहारेत्थ)
संविचरित (संपेहेति)
संविचिण्ण (मित्त)
संवित्ति (प्रथित)
संविद् (पृ १४४)
संवुड (आययण)
संवुडबहुल (विसय)
संवेदण (आययण)
संवेल्लित (संजायते)
संशय (परिग्गह)
संशयज्ञान (घट्ट)
संशिलष्ट (पृ १४४)
संसग्गि (संपुण्णदोहला)
संभव
संभव संभवट्ठाण संभवति संभार
(चाउम्मासित)
(अणुण्णा) (पृ १४५) (अहिंसा) (आचार)
(पव्वइय) (संजमबहुल)
(पृ १४५) (पव्वइज्जा)
(पृ १४५) (संविचिण्ण) (पृ १४५)
(ज्ञान). (पृ १४५)
(संजय) (संजमबहुल)
(णाण) (रहस्स) (पृ १४५) (विचिकित्सा) (प्रतिबद्ध)
(अबंभ)
(संधान) (सिद्धउपपत्ति) (उव्वत्तेइ)
(केवल) (पृ १४५) (पृ १४५) (पृ १४५)
(रहस्स) (पृ १४५) (केवल)
संमट्ठ संमय
संसार
संमाणियदोहला संयत संयत संयम
(मुनि)
(पृ १४४)
(धूत) (सर्वर्जु)
संयम
(ही)
संयम संरंभ संरक्खणा संराग संलुक्कई
संसारविप्पमोक्ख संसारेइ संसुद्ध संस्कृत संस्तव संहर्ष संहित सकर्मवीरिय सकल
(पृ १४४) (परिग्गह)
(संगाम)
(आलुक्कई)
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________________
सकल — सन्नाह
-सकल
सकारण
सकिरिय
सक्क
सक्क
सक्क
सक्कत
सक्कार
सक्कारिय
सक्कारेइ
-सक्के इ
सक्त
सग्गुण
-सचित्त
सचेतन
सच्च
- सज्जइ
-सज्जिय
सडइ
सडण
- सद
- सदया
•सण्णवणा
सण्णा
- सण्णा
- सण्णा
सण्णा
सण्णिचय
सणिरुद्ध
सणिहि
सह
सतपत्त
( पृ १४५) (सअट्ठ) सतेरक
( पावय)
सत्त
( इंद)
सत्त
( पृ १४५)
सत्त
( पृ १४६ )
सत्ति
( वंदित)
सत्ति
सत्ति
सत्ति
सत्तिय
( पृ १४६ ) (अच्चिय )
( आढाइ )
(चाएति)
( पृ १४६ ) ( सुसील)
( अणाइलभाव ) ( अनंतरिय )
( पृ १४६ )
( पृ १४६ )
( पृ १४६ )
( पृ १४६ )
( पृ १४६ )
(अलिय )
( कवड)
( आघवणा)
( अ भणिबोहिय)
( मद्द ) (तक्क)
( पृ १४६ )
(सणि हि )
(रहस्स)
( पृ १४७)
(अच्छ)
सत्थ
सत्थिय
सत्व
सत्संयमबद् सदसद्विवेकविकल
सद्द
सद्दहइ
सल
सद्दल
सल
सद्ध
सद्धम
सद्धर्म
सद्धाजणण
सनिमित्त
परिशिष्ट १
सन्त्राण
सन्धि
सन्नतपास
सन्नद्ध
सन्नद्ध
सन्नाह
२६ १
( पदुम) ( काहापण )
( पाण)
( जीवस्थिकाय )
(गिद्ध )
(योग)
( वीरिय)
(जोग)
( अहिंसा)
( सूर)
(सुत्त)
(डिप्फर)
(जीव )
( यत)
(बाल)
(कित्ति)
( पृ १४७ )
(तरच्छ)
(दीविय)
( पृ १४७ )
( साहसिक )
( नियाग)
(सर्वर्ज)
( उबवूह)
(सअट्ट)
( पृ १४७ )
( पृ १४७)
( पृ १४७ )
( रहस्स)
( पृ १४७)
( संगाम)
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________________
२६२
सन्निकासिय
सपज्जाय
सप्प
सप्पभ
सप्पभ
सप्पभ
सप्फ
सबल
सबलीकरण
सब्भाव
सब्भाव
सब्भावदायणा
सब्भूय
सब्भूय
सभाव
भिन्न
सम
समंत
● परिशिष्ट १
समकरण
समजोगि
समण
समण
समण
समण
समण
समण
समतिच्छ्यि
समत्त
समत्ता राहण
समत्थ
समय
(रहस्स)
( पृ १४७) (दुमपुफिया)
( सुक्किल )
( पृ १४७ )
(सेत)
( पदुम)
( पृ १४७ ) ( प डिसेवणा )
( धम्म ) ( णिच्छय)
( आलोयणा )
(संत)
( सच्च)
( धम्म)
(संकीर्ण )
( आगास त्थिकाय )
( सव्वओ)
( झोस)
(समण )
( पृ १४८)
( पृ १४८ )
( भिक्खु )
( उवसम)
( माहण)
( मुणि)
( अतिवत्त)
( समण )
( अहिंसा)
( हट्ठ)
( पृ १४८)
समय
समय
समया
समर
समरवहिय
समवतरन्ति
समवयन्ति
समवाय
समागम
समागम
समाणधम्मिय
समायारी
समारंभ
समारभइ
समारम्भ
समास
समास
समास
समास
समास
समास
समाहि
समाहिबहुल
समाहिबहुल
समाहिमण
समाहिय
समिइ
समित
समित
समिति
समिद्धि
सन्निकासिय
-समिद्धि
(धर्म) (काल)
( सामायिक)
( पृ १४८ )
(रुट्ठ)
( समवयन्ति )
( ( पृ १४८)
(पिंड)
. ( संघात )
( पृ १४८)
( पृ १४८)
( पकप्प)
( संरंभ)
( आरमह )
( पाणवह)
( सखेव )
( उस्सय )
(जह )
( पृ १४६ )
(ओह )
( ओघ )
( अहिंसा)
( पव्वइय )
(संजमबहुल )
( धम्ममण )
( समण )
( अहिंसा)
( पृ १४६ )
(वीर)
( संघात )
( अहिंसा)
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समिध-सवण
परिशिष्ट १ । २६३
समिध समिय समिय समिय समिरीय समीप समीरिइय समुच्छित समुदाण समुदाय समुदाय समुसरण समुस्सय समुस्सय समूह समूह समूह समृद्ध समृद्धीभवन समेर समोसरण सम्पूर्ण सम्मज्जित सम्मत्त सम्मदित सम्मय
(जग्गंतक) सम्मिलन्ति (उवसंत) सम्मोइ (विरत) सम्मोइ (वंतप्प) सम्मोइ (सप्पभ)
सम्यग्दर्शन (अंतिक) सयंपभ (सप्पम) सयंभु (उदग्र) सयंभु
सयक्कतु (समूह) सयण (संहर्ष) सयपत्त (पिंड) सयय
(काय) सया जय (पृ१४६)
सरक (पृ १४६) सरग
(पिंड) सरण (गण) सरण (खात) सरभ (नन्दन) सरस्सती (सुसील) सरिस
(पिंड) सरीर (अशेष) सरोज
(हात) सर्व (सामायिक) सर्व (अतिवत्त) सर्वज्ञ
(थेज्ज) सर्वर्जु (सक्कार) सलाघण (पूयणहि) सलोल (अच्चिय) सल्ल
(आढाइ) सल्लुद्धरण (विट्टिवाय) सवण
(समवयन्ति)
(मित्ति) (समागम) (संधि) (धर्म)
(मंदर) (जीवत्थिकाय) (पितामह) (सक्क) (मित्त) (उप्पल) (पृ १४६) (विरत) (तट्टक) (तट्टक) (भवण) (अहिंसा) (पृ १४६)
(वक्क) (उवम्म)
(काय) (कमल)
(अशेष) (पृ १४६)
(आप्त) (पृ १४६) (उववूह) (चंचल)
(कम्म) (आलोयणा)
(उग्गह)
सम्माण
सम्माणकामय सम्माणिय सम्माणेइ
सम्मावाय
सवण
.
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________________
२६४
सवितृ
सव्व
सव्वओ
:
सव्वकाल
सब्जीव सुहावह
सव्वण्णु सव्वदरिसि
परिशिष्ट १
सव्वजीवसुहावहा ( ई सिपन्भारपुढवी )
(अरह )
(अरह)
(सिद्ध)
सव्वदुक्ख पहीण
सव्वदुक्ख पहीणमग्ग
सव्वभूतसुहावह
सव्वभूयसुहावहा सव्वरी
सव्वदुक्खाणमंतं करेइ
सव्वपाणसुहावह
सव्वपाणसुहावहा (ईसिपब्भारपुढवी )
सव्वभावदरिसि
ससंभम
ससरीरि
ससि
सस्सत
सस्सत
सस्सवापत्ति
सस्सिरीय
सहइ
सहति
सहति
(आदित्य)
( पृ १४९ )
( पृ १४९ )
( सयय)
(दिद्विवाय)
(सिद्धिमग्ग)
(सिज्झइ )
(दिट्ठिवाय)
सव्वसत्तसुहावह
सव्वसत्तसुहावहा ( ईसिपन्भारपुढवी )
( पृ १४६ )
( जीवत्थिकाय )
(अरह) (दिट्ठिवाय)
(ईसिपम्भारपुढवी )
( रयणी)
(दिट्ठिवाय)
(चंद)
(चिर )
(अचल)
( अपातय )
( ओराल)
( पृ १५० )
( समिति)
( तितिक्खति )
सहति
सहय
सहस्सक्ख
सहस्सक्ख
सहस्सपत्त
सहस्सपत्त
सहा
सहा
सहाव
सहित
सहित
सहित
सहिय
सही
सहेउ
साइ
साइम
सागय
सागारिक
सागारिय
साठ्य
साडणा
साणधण
सात
साति
सातिजोग
सातिजोग
सातिजोगकरण
साधन
सवितृ - साधन
( खमति )
( सक्क)
( सक्क)
( इंद)
( उप्पल )
(पदुम)
( नायय)
( मित्त)
( धम्म)
( उवसंत)
(वीर)
(वीर)
(विरत )
( मित्त)
(सअट्ठ)
(उक्कंचण )
( असण)
( पृ १५० )
( पृ १५० )
( पृ १५० )
(माया)
(उस्सग्ग)
( चंडाल )
( पृ १५० )
( अलिय )
(माया)
(मोहणिजकम्म)
( उवधि)
(गुण)
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साधु-सिक्खिय
. साधु साधु साधु साध्यते साध्यते
साम
सासत
सामत्थ
(जोग) (वीरिय) साहण
सासय
सामत्थ
सामत्थ
सामाइय सामाचारी सामान्य सामायिक सामि सामिक सामिणी सामित्त साय
परिशिष्ट १ : २६५ (पृ १५०) सावणमास
(उउमास) (अनगार) सावद्ययोगनिवृत्ति (विरमण)
(संयत) सावनसंवत्सर (ऋतुसंवत्सर) (पृ १५०) सावित
(आरित) (अर्यते) सासण (आगासस्थिकाय)
(णितिय)
(धुव)
(कारण) (योग) साहति
(चाएति) (संजम)
साहम्मिय (समाणधम्मिय) (मेरा) साहरण
(पृ १५१) (ओघ)
साहस (पृ १५०) साहसिक
(पृ १५१) (इस्सर) साहसिय
(पाव) (रिंद) साहा
(पृ १५१) (पत्ति) साहा
(अंग) (आहेवच्च) साहा
(साला) (णिव्वाण) साहु
(तवस्सि ) (पृ १५१) साहु
(भिक्खु) (कयार) साहुकड
(सुकड) (पृ १५१) साहुली
(साहा) (आरभइ) सिंगक
(वच्छक) (आरित) सिंगक
(बालक) (पृ १५१) सिंगबेर
(पृ १५१) (णावा) सिंगिका
(दारिया) (बुड्ढ) सिंचंति
(उच्छोलेंति) (पावय) सिवितालित
(भग्ग) (अणायतण) सिक्ख
(पृ १५१) (कलुस) सिक्खावित्तए (मुंडावित्तए) (आरंभकड) सिक्खाविय (पव्वा विय) (दुक्कड) सिक्खिय
(पृ १५१)
सायण
सार
सारक्खमाण
सारभइ सारित साला सालिका
सावग
सावज्ज
T
सावज्ज सावज्ज सावज्जकड सावज्जमणुट्ठित
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२६६ । परिशिष्ट १
सिखंड-सीह
सिखंड
(णग)
सिग्ध
(पृ१५१) सिलोच्चय (पृ १५१) सिलोच्चय (उक्किट्ठ) सिव
(राहु)
सिव
सिग्ध सिंघाडय सिज्झइ सिणाण सिणावेंति
(मंदर)
(खेम) (सामायिक) (ओराल)
(इट्ठ) (अहिंसा)
(धुवक) (परिकम्मण)
(दास) (चूला)
सिण्ह
सिहरि
सिद्ध सिद्ध सिद्धउपपत्ति सिद्धत सिद्धत्थ सिद्धत्थ सिद्धदरिसि सिद्धान्त सिद्धालय सिद्धावास
(पृ १५२) सिव (पृ १५२) सिव (उच्छोलेंति) सिव (पृ १५२) सिवणाम (पृ १५२) सिव्वण (पृ १५२) सिस्स (पृ १५२) सिहर
(सुत्त) (पृ १५३) सीईभूय
(पृ १५३) सीईभूय (णिकम्मदरिसि) सीउक
(दर्शन) सीत (इसिपन्भारपुढवी) सीतल
सीतल (ईसिपन्भारपुढवी) सीमंतक
(पृ १५३) सीमंतिका (पृ १५३) (थिल्ली) सीमा (मयूर) सीमा (तट्टक) सील
सीलपरिघर (सेज्जा ) सीलमंत (डिप्फर) सीस (पासाण) सीस (गाढीकय) सीस
(मंदर) सीह (कित्ति) सीह
सिद्धि
सीमा
सिद्धिगत सिद्धिमग्ग सिबिका सिरिकंठ सिरिकंसग सिरिफंड सिला सिलातल सिलापट्ट सिलिट्ठीकय सिलुच्चय सिलोग
(१५३) (णिव्वाण)
(तिरीड) (पृ १५३) (णपुंसक)
(सीत) (सिखंड)
(पाली) (पृ १५३)
(वेला) (विहि) (अहिंसा) (अहिंसा) (पृ १५३) (णिडाल) (सिखंड) (सिक्ख) (तरच्छ) (उक्किट्ठ)
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सीह-सुयंग
सीह सीह सीहभंडक सुंठी सुंदरपास सुकड सुकहिय सुक्क सुक्क सुक्कल सुक्किल सुक्ख -सुक्ख - सुख
सुखवर्धन सुगंधिय सुचिम . सुजातपास सुजाया सुठुकड सुणिक्खंत • सुत
(जंबू)
परिशिष्ट १ । २६७ (दोविय) सुदर्शन
(मंदर) (सदूल) सुदिट्ठ
(सुभासिय) (तिरीड) सुद्ध
(पृ १५४) (सिंगबेर) सुद्ध
(केवल) (सन्नतपास) सुद्ध
(अणासव) (पृ १५३) सुद्ध
(विमल) (सुभासिय) सुद्ध
(सेत) (कयार) सुद्धभावि
(सिद्धत्थ) (पृ १५४) सुपतिटक
(तट्टक) (जिम्मंसक) सुपन्नत्त
(पवेइय) (पृ १५४) सुपव्वज्जा
(सुविवेग) (अतिवत्त) सुपुरिस
(परिंद) (गोब्बर)
सुप्पबुद्धा (सात) सुबुद्धिक
(पृ १५४) (शुभवृद्धि) सुबुद्धिमंत
(सुबुद्धिक) (उप्पल) सुभ
(इ8) सुभ
(पृ १५४) (सन्नतपास) सुभग
(सिद्धत्थ) (जंबू) सुभग
(सोम) (सुकड) सुभग
(गड्डिक) (सुविवेग) सुभग
(उप्पल) (अत्तय) सुभत्ता
(इत्ता) (आणा) सुभद्दा
(जंबू) (अहिंसा) सुभासिय
(पृ१५४) (पृ १५४) सुभिक्ख
(धाय) (तंत) सुभिक्ख
(खेम) (ववहार) सुमण
(पुप्फ) (पवयण) सुमण
(मुदित) (धुवक) सुमण
(समण) (मंदर) सुमणा
. (जंबू) (जंबू) सुयंग
(अहिंसा)
. (सेत)
सुत्त.
- सुत्त
-सुत्त
- सुत्थित
- सुदंसण सुदंसणा
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२६८ : परिशिष्ट १
सुयक्खाय-सेल
सुयक्खाय सुयधम्म सुर मरगिरि सुरसम सुरा सुरिंद
१३
सुरूव
(पवेइय) सुहमण (पवयण) सुय
(देव) सुय .(मंदर) सुहि
(स्वर्) सुहित (पृ १५४) सुहिय (सक्क) सुहुम (कंत) सुहुम (सोम) सूइभूय (पृ १५४) सूचीका (सामायिक) सूयते (उम्भिण्ण) सूर (सुभासिय) सूर
(सुसील) सूर (आलीन)
ज
सुरुव सुविवेग सुविहिय सुव्वत्त सुव्वय सुव्वय सुश्लिष्ट सुश्लिष्ट सुसंहत सुसमाहित सुसागय
सूरलेस्सा
(सुसंहत) (पृ १५५)
(धम्ममण)
(विट्ठ) (सुत्त) (नायय) (णिव्वुत)
(मित्त) (खुड्डलक)
(पुप्फ) (अप्पडिबद्ध)
(कडग) (उप्पज्जते)
(वीर) (पृ १५५) (साहसिक)
(धीर) (पृ १५५) (मंदर)
(मंदर) (सिद्धत्थ) (पृ १५५)
(उवसग) (सागारिय). (सागारिय) (सागारिय). (सागारिय) (पृ १५५)
(वेला) (पंडुर) (रुइय).
(णग) (पासाण
सुसाणवित्ति
सुसील सुसुइभूय सुसुणाग
सूरियावत्त (संयत) सूरियावरण (सागय) सेज्जस (चंडाल) सेज्जा (पृ १५५)
सेज्जा (व्हाय) सेज्जातर
(अलस) सेज्जादाता (सामायिक) सेज्जाधर
(हिय) सेज्जायर (णिव्वाण)
(सात) (हियकामग)
(धुवक) (अड्ढ) सेल (सिद्धत्थ) सेल
सुह
सेत सेतु
ह
सेय
सुहकामग सुहत
सेय
सहभागि
सुहभागि
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सेवणाधिकार-स्नेह
परिशिष्ट १ : २६६
(पृ १५६) (पडिकमण), . (ववहार) (आलोयणा) [(फासिय),
सौहार्द
सेवणाधिकार सेवना सेवा सेवित सेसवती सेह सेहाविय सोऊण सोकत्त सोगंधिय सोगपाग सोच्चाण सोभंत सोभंत सोभण सोभते सोभेइ सोम सोम
(अबंभ) सोहि (भजना) सोहि
सोहि (समित)
सोहि (पृ १५५)
सोहिय
सौकरिक (सिक्ख) (पव्वाविय)
स्तब्ध (पृ १५५)
स्तम्भ (दीण) (उप्पल)
स्तोक
स्तोक (अरति)
स्तौति (सोऊण)
स्थगित (पृ १५५)
स्थान (कंत)
स्थान (भद्दग)
स्थान (दिप्पते)
स्थान (फासेइ)
स्थान (बंभण)
स्थान (चंद)
स्थापना (पृ १५५)
स्थापना (जंबू)
स्थित (बंभण) स्थित (बंभण)
स्थित (दुक्खइ) स्थिति (थणंति) स्थिति (कंदण) स्थिति (दुक्खण) स्थिरस्वभाव (रोयमाणी) स्नातक
(पाण) स्निग्ध (चंडाल) स्निग्ध (कल्लाण) स्नेह
(घाट), (धूर्त) (माण) (मित) (ओह) (वन्दते) (संवरित) (पृ १५६) (पृ १५६) (पृ १५६)
(भूमि) (ओवास) (आयतन) (पृ १५६) (निधान) (निषन्न)
सोम
सोमणसा सोमपा. सोमपाइ सोय सोयंति सोयण सोयण सोयमाणी सोवाग सोवाग सोहण
(गत) (पृ १५६)
(जीत)
(धर्म) (अचपल) (विशुद्ध) (अवदात) (श्लक्ष्ण)
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२७०
स्नेह
स्पृशति
स्पृष्ट
स्पर्शना
स्फटिक
स्फटित
स्फाटयति
स्मय
हंतव्व
हंता
इंदोलक
हक्कार
:
स्वभाव
स्वभाव
स्वभाव
स्वर्
स्वरूप
स्वर्ग
स्वामिन्
स्वेच्छाकल्पित
हट्ठ
हट्ठ
(धत )
(प्रोसारेति )
( माण )
स्वप्रवचनप्रतिपन्न (र ( समाणधम्मिय )
चित्त
हण
हति
परिशिष्ट १
हणण
हज्ज
हत्थ कलावग
हत्थखड्डुग
हत्थभंडक
(लोभ)
( प्रत्येति )
( पृ १५६ )
हत्थलहुत्तण
हत्थिक
हत्या
( पृ १५६ )
हनन
(आदर्श) हम्ममाण
(धर्म)
(निसर्ग)
(रोत)
( पृ १५६ )
( णिच्छय)
( स्वर् ) (पति)
( विकल्पित)
( पृ १५६ )
( पृ १५७ ) (अंदोलति )
( पृ १५७)
( पृ १५७ )
( मुदित)
[ ( पृ १५७)
(पहर)
(छिन्नंति)
(पद)
1
( आओसेज्ज)
(केज्जूर)
( पृ १५७ )
( पृ १५७ )
हय
हयतेय
हरति
हरण
हरण- विध्पणास
हरिएस
हरित
हरिस
हरिस
हर्ष
हल
हवइ
हसंति
हसित
हस्सतराय
हापयति
हायति
हार
हास
हाहाभूय
हिंदुय
हिंसति
हिंसविहिंसा
(तुट्ठि)
हरिसवसविसम्प्रमाणहियय ( हट्ठचित्त)
( पृ १५८ )
(लंगल)
(भवति)
हिंसा
हिंसा
स्नेह - हिंसा (अविण्णादाण )
( पृ १५७ )
( पृ १५७ )
(हत्या)
( आउडिज्जमाण)
( पृ १५७)
( पृ १५७ )
( पृ १५८ )
(हार)
(अविण्णादाण )
( चंडाल )
( कण्ह )
( णंदी)
( पृ १५८)
(फुल्ल)
( खडतराय)
( पृ १५८)
(उज्झीयति )
( पृ १५८ )
( मुदित)
( पृ १५८)
( जीवत्थकाय )
( आहणइ )
( पाणवह)
(आकुट्टि)
( घात)
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हिटिम-ह्री
हिटिम
हित हितइच्छिता हिम हिमकूट हिमपटल हिमपुज हिमानि
परिशिष्ट १ : २७१ ( १५८) हीलिज्जमाणी (पृ १५६) (ण) हीलिय
(रुसिय) (पत्ति) हीलेति
(पृ १५६) (सीत) हुतवह
(अग्गि ) (हिमानि) हुतासिणसिहा (पृ १५६) (हिमानि)
(अत्थ) (हिमानि) हेउगोवएस
(पृ१५६) (पृ १५८) हेउवाय
(दिट्टिवाय) (पृ १५८) (अणुण्णा)
(णिदसण) (पृ १५६)
(आय) (निमित्त)
(नियाण) (तितिक्खा)
(पृ १६०) (तिसरा)
(आगम) (पृ १५६) हेय
(अगृहीतव्य) (पृ १५६) ह्रियते
(हार) (इंखिणी) ह्री
(पृ१६०)
हिय
(मूल)
हिय हियकामग हिययगमणिज्ज हिरी हिल्लिरी हीणस्सर हीलणा हीलणा
हेतु
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परिशिष्ट २ विशेष शब्द विवरण
( प्रस्तुत परिशिष्ट में जिन शब्दों के एकार्थक दिए गए हैं, उनको अनुक्रम से गहरे अक्षरों में, तथा ब्रकेट में उन शब्दों का संस्कृत रूप दिया गया है, फिर एकार्थक अभिवचनों की व्याख्या दी गई है ।)
अंग (अङ्ग)
'अंग' शब्द के १५ पर्याय शब्दों का उल्लेख यहां हुआ है'। ये सभी पर्याय समग्र वस्तु के छोटे-बड़े अवयव हैं । कुछ शब्दों का विश्लेषण इस प्रकार है
दसा --- वस्त्र का किनारा ।
प्रदेश ---- स्कन्ध का एक भाग ।
शाखा -वृक्ष का अवयव ।
पर्व – इक्षु का खण्ड | पटल - कमल की पांखुड़ी ।
अंताहार ( अन्ताहार )
-
जैन परम्परा में भोजन ग्रहण के आधार पर भिक्षुओं के अनेक प्रकार किये गये हैं । इनमें अर्थंगत भेद होते हुए भी भोजन की सामान्य विवक्षा के आधार पर इनको एकार्थक माना गया है'"अंताहार-वल्ल, चने आदि सामान्य धान खाने वाला । पंताहार - बचा खुचा अथवा बासी भोजन करने वाला । रूक्षाहार - रूक्षभोजी ।
१. उशाटी प १४४ : पर्यायाभिधानं च नानादेश विनेयानुग्रहार्थम् । २. औपटी पृ ७५ ।
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२७४ ● परिशिष्ट २
तुच्छाहार — तुच्छ, अल्प या असारभोजी । अरसाहार - रसविहीन भोजन करने वाला । विरसाहार - विरस आहार करने वाला । कम्मवरिय (अकर्मवीर्य)
जैन दर्शन में वीर्य / शक्ति के तीन प्रकार माने हैं - बालवीर्यं, पंडितवीर्य, बालपंडितवीर्यं । सूत्रकृतांग चूर्णि में अकर्मवीर्य और पंडितवीर्य को एकार्थक माना है । जो शक्ति कषाय और प्रमाद से संवलित नहीं होती, उससे कर्मबन्ध नहीं होता । वह अकर्मवीर्यं / पंडितवीर्यं कहलाती है ।
अकुसल ( अकुशल )
प्रश्न व्याकरण सूत्र में 'अकुसल' शब्द के पर्याय में चार शब्दों का उल्लेख है । यहां ये शब्द भाषा-विवेक से विकल व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हैं—
अकुशल - कथ्य और अकथ्य का विवेक न करने वाला ।
अनार्य - पापकारी भाषा बोलने वाला ।
अलीकाशा - पापकारी प्रवृत्तियों की आज्ञा देने वाला । अलीकधर्मनिरत---असत्य कथन में संलग्न रहने वाला ।
क्षक्कोस ( आक्रोश )
आक्रोश आदि शब्द क्रोध की विभिन्न अवस्थाओं के अर्थ में समानार्थक हैं । इनका अर्थभेद इस प्रकार है
आक्रोश –— कुपित होकर 'तू मर जा' ऐसे वचन बोलना ।
परुष — कठोर वचन कहना ।
खिसन - 'तू चरित्रहीन है' ऐसे निदावचन कहना ।
अपमान - नीच सम्बोधन से पुकारना ।
तर्जन - तर्जनी अंगुली दिखाते हुए फटकारना ।
१. टीप ४० ।
२. प्रटी प १६० ।
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परिशिष्ट २ । २७५
निर्भर्त्सन–'मेरी दृष्टि से दूर हो जा' इस प्रकार कहकर अपमान करना। त्रासन-पीड़ादायक और भयोत्पादक शब्दोच्चारण करना।
उत्कूजित-अव्यक्त ध्वनि करना, क्रोध में बड़बड़ाना। अक्कोह (अक्रोध)
ये तीनों शब्द क्रोध के अभाव के द्योतक हैं१. अक्रोध-प्रतिकूल परिस्थिति में क्रोध आ जाने पर भी सन्तुलन न
खोना। २. निक्रोध-किसी भी स्थिति में क्रोध न करना । ३. क्षीणक्रोध-क्रोध मोहनीय कर्म का क्षय हो जाना।
वृत्तिकार ने इनको एकार्थक माना है।' अग्गि (अग्नि)
'अग्गि' शब्द के सभी पर्याय अग्नि के स्पष्ट वाचक हैं। सभी नाम उसकी भिन्न-भिन्न विशेषता के द्योतक हैं। कुछ शब्दों का वाच्यार्थ इस प्रकार है१. अग्नि-जो ऊर्ध्व गति करती है।' २. जाततेज--जो प्रारम्भ से ही तेजस्वी हो । ३. हुतवह-हुत/हवन द्रव्य को वहन करने वाली। ४. ज्वलन-सबको जलाने वाली, ज्वलनशील ।
५. पवन-पवित्र करने वाली। अच्चिय (अचित)
___'अच्चिय' आदि शब्द सम्मान व्यक्त करने के अर्थ में समानार्थक हैं । उनका अर्थबोध इस प्रकार है---- १. अर्चना-चंदन, गंध आदि द्रव्यों का लेप करना। २. वंदना-स्तुति करना।
३. पूजा-अक्षत आदि से पूजा करना । १. औपटी पृ २०२ : एकार्था वैते शब्दाः । २. अचि पृ २४५ : अगत्यूवं याति अग्निः ।
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________________
२७६ : परिशिष्ट २
४. मान-उचित सम्मान देना। ५. सत्कार-वस्त्र आदि देकर आदर करना ।
६. सम्मान–बहुमान देना, हार्दिक अनुराग व्यक्त करना। अज्झत्थिय (आध्यात्मिक)
ये सभी शब्द चिन्तन की क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक हैंआध्यात्मिक-अध्यवसायगत चितन । चिंतित-विकल्पात्मक चिंतन । कल्पित--उभयरूप चिन्तन । प्रार्थित-अभिलाषात्मक चिन्तन । मनोगतसंकल्प-वस्तु को प्राप्त करने का मानसिक संकल्प ।
इनमें अर्थभेद होते हुए भी टीकाकार ने इनको एकार्थक माना है।' अणासव (अनास्रव)
'मणासब' आदि शब्द मुनि के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हैं। इनकी अर्थपरम्परा इस प्रकार हैअनाश्रव-नवीन कर्मों के आस्रव से रहित । अकलुष-पाप रहित ।
..-कर्म जल आने वाले छिद्रों को रोकने वाला। अपरिस्रावी । असंक्लिष्ट-चैतसिक क्लेश से मुक्त शुद्ध-निर्दोष ।
इस प्रकार ये सभी शब्द विशुद्ध चेतना की क्रमिक अवस्थाओं के वाचक हैं।
देखें-'संत'। अणुओग (अनुयोग)
___ अनुयोग का अर्थ है-व्याख्या पद्धति । किसी भी पदार्थ के सभी १. विपाटी प ३८ : एतान्यप्येकार्थानि । २. प्रटी प ११३ ।
अछिद्र
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परिशिष्ट २ । २७७
'धर्मों पर विचार व व्याख्या करना अनुयोग है। इनके एकार्थक शब्दों का आशय इस प्रकार है१. नियोग-सूत्र के साथ अर्थ का निश्चित व अनुकूल योग करना । २. भाषा-शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थमात्र कहना। ३. विभाषा-शब्द की विभिन्न पर्यायों के आधार पर अनेक अर्थ
निरूपित करना। ४. वार्तिक-शब्द की समस्त पर्यायों के आधार पर अर्थ निरूपित करना।
विशेषावश्यक भाष्य में भाषा, विभाषा और वार्तिक को एक उदाहरण द्वारा समझाया गया है। वस्तुतः ये सभी शब्द व्याख्या की उत्तरोत्तर अवस्था के द्योतक हैं। जैसे-एक व्यक्ति है। वह इतना मात्र जानता है कि रत्न हैं। दूसरा व्यक्ति उन रत्नों की जाति व मूल्य का ज्ञाता है और तीसरा व्यक्ति इसके साथ-साथ उन रत्नों के गुण-दोष भी जानता है। इस प्रकार भाषक प्रारम्भिक अवबोध देता है, विभाषक उसकी विशेष व्याख्या करता है और वातिककर उसकी सर्वांग व्याख्या
प्रस्तुत करता है। अणुण्णा (अनुज्ञा)
अनुज्ञा का अर्थ है-आचार्य द्वारा अपने उत्तराधिकारी को गण का उत्तरदायित्व सौंपना । आचार्य कहते हैं-वत्स ! मैं आज तुम्हें यह गण, शिष्य, वस्त्र, पात्र आदि सारी वस्तुएं समर्पित करता हूं। आज से तुम इनके स्वामी हो। गुरु का यह वचन-विशेष अनुज्ञा कहलाता है । अनुज्ञा के छह प्रकार निर्दिष्ट हैं-नाम अनुज्ञा, स्थापना अनुज्ञा, द्रव्य अनुज्ञा, क्षेत्र अनुज्ञा, काल अनुज्ञा और भाव अनुज्ञा । _अनुज्ञा के बीस एकार्थक/अभिवचन यहां संगृहीत हैं । व्याख्याकार स्वयं इनके स्पष्टीकरण में संदिग्ध हैं। उनका कहना है कि परम्परा के अभाव में इन एकार्थ अभिवचनों का स्पष्ट अर्थ नहीं बताया जा सकता।' १. नंदीटी पृ १०२। २. विभा १४२५। ३. अनुनंदीटी पृ १७६ : एतेषां च पदानामर्थः सम्प्रदायाभावान्नोच्यते ।
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२७८ परिशिष्ट २
अणुत्तर (अनुत्तर)
अणुत्तर से विशुद्ध तक के शब्द केवलज्ञान के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हैं । केवलज्ञान संपूर्ण ज्ञान है । वह विशुद्ध और अनन्त है । ये सभी शब्द उसकी विशेषताओं के द्योतक हैं ।
अनुत्तर - सर्वोत्तम ।
निर्व्याघात - बाधाओं से अप्रतिहत ।
निरावरण- क्षायिक होने से आवरण रहित । कृत्स्न — सकल ज्ञेय पदार्थों को जानने वाला |
प्रतिपूर्ण – जो अपने आप में पूर्ण है ।
वितिमिर - प्रकाश से युक्त ।
विशुद्ध--- निर्मल ।
इस प्रकार भावार्थ में सभी शब्द उत्कृष्ट अर्थ को व्यक्त करते हैं।
अणुपविट्ठ ( अनुप्रविष्ट )
अणुवि के अन्तर्गत ६ पर्याय शब्दों का उल्लेख हुआ है । लगभग सभी शब्द आत्मलीन व्यक्ति के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हैं । कुछ विशिष्ट शब्दों का अर्थबोध इस प्रकार है-
१. आलीन - कछुए की भांति सब ओर से संवृत, काय चेष्टा का निरोध करने वाला |
२. प्रलीन - विशेष रूप से संवृत अथवा आवश्यकता उपस्थित होने पर यतनापूर्वक शारीरिक प्रवृत्ति करने वाला ।
३. आभ्यन्तरक — भीतर झांकने वाला ।
अतिवत्त ( अतिवर्त)
'अतिवत्त' शब्द के पर्याय में २७ शब्द और १ धातु का उल्लेख है । अतिवत्त शब्द का अर्थ है— बीत जाना, पुराना होना और व्यर्थ होना । इसमें कुछ शब्द पुरानेपन के वाचक हैं जैसे- पुराण, मलित, जीर्ण इत्यादि । निष्फल, ओपुप्फ आदि शब्द व्यर्थता के बोधक हैं । कुछ शब्द समाप्ति के वाचक हैं, जैसे- निष्ठित, कृत, क्षीण, प्रहीण, अतीत १. ओपटी पृ १९५ ।
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परिशिष्ट २
इत्यादि । इस प्रकार ये सारे शब्द क्षीणता की विभिन्न पर्यायों के वाचक
हैं ।
अविण्णादाण ( अदत्तादान )
: २७९
प्रश्नव्याकरण सूत्र में अदत्तादान के तीस पर्याय शब्दों का उल्लेख हुआ है । अदत्त का अर्थ है - चोरी । प्रस्तुत नामों की सूची में चौरिक्य, परहृत, अदत्त, तस्करत्व, अपहार आदि शब्द इसके स्पष्ट वाचक हैं ।
अदत्त ग्रहण में मानव की आकांक्षा, गृद्धि आदि वृत्तियां कार्य करती हैं, अतः कारण में कार्य का उपचार कर अदत्तादान की प्रेरक वृत्तियों को भी अदत्तादान मान लिया गया है । जैसे—- परलाभ, लौल्य, कांक्षा, लालपन, प्रार्थना, इच्छा, मूर्च्छा, तृष्णा, गृद्धि, आदियणा आदि ।
असंयम, अप्रत्यय व अवपीड भी चोरी की ही फलश्रुति है, क्योंकि असंयमी व्यक्ति पदार्थ - प्रतिबद्धता के कारण चोरी करता है । जो चोरी करता है, वह अप्रत्यय - अविश्वास का कारण बनता है तथा जिसका धन चुराया जाता है, उसको पीड़ा होती है । इसलिए अप्रत्यय व अवपीड शब्द भी सार्थक हैं । आक्षेप, क्षेप और विक्षेप भी चोरी के ही वाचक हैं, क्योंकि इनमें दूसरों के धन का प्रक्षेप होता है ।
चोरी माया के बिना नहीं हो सकती, अतः कूट, हस्तलघुत्व, निकृतिकर्म आदि शब्द भी इसके पर्याय हैं ।
अम्मfreete (अधर्मास्तिकाय)
यह लोकव्यापी अजीव द्रव्य है । अधर्म द्रव्य स्थिति / अवस्थिति का माध्यम है । यहां उल्लिखित दो अभिवचनों (अधर्म और अधर्मास्तिकाय) के अतिरिक्त शेष - प्राणातिपात अविरमण से काय-अगुप्ति तक के सारे शब्द अधर्म के द्योतक हैं । अधर्मास्तिकाय के अधर्म शब्द की सदृशता के कारण यहां उनको पर्यायवाची मान लिया गया है ।
अबंभ ( अब्रह्म)
प्रश्नव्याकरण सूत्र में अब्रह्मचर्य के तीस एकार्थक बताए हैं । इनमें कुछ शब्द अब्रह्म की उत्पत्ति के साधन तथा कुछ शब्द उसकी परिणति के द्योतक हैं । मैथुन, संसर्गि, रति, कामगुण आदि शब्द उसके स्वरूप के वाचक हैं । इन शब्दों का अर्थबोध इस प्रकार है
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२८० । परिशिष्ट २
१. अब्रह्म-असत् प्रवृत्ति । २. मैथुन-स्त्री पुरुष का संयोग । ३. चरंत-सभी प्राणियों द्वारा अनुसत । ४. संसगि-~-स्त्री-पुरुष के संसर्ग से होने वाली प्रवृत्ति । ५. सेवनाधिकार-अनेक अनर्थों में प्रवृत्त करने वाला। ६. संकल्प-विकल्प से उत्पन्न होने वाला। ७. बाधन-संयम में अवरोध उत्पन्न करने वाला। ८. दर्प-शरीर की दृप्तता से उत्पन्न होने वाला। ६. मोह-मूढ़ता उत्पन्न करने वाला। वेदमोहनीय के उदय से होने
वाला। १०. मनः संक्षोभ-मानसिक क्षुब्धता पैदा करने वाला। ११. अनिग्रह-मन को उच्छं खल करने वाला। १२. व्युद्ग्रह-दृष्टिकोण का विपर्यास करने वाला। १३. विघात-गुणों का घातक । १४. विभंग-व्रतों को भंग करने वाला। १५. विभ्रम-भ्रान्ति पैदा करने वाला। १६. १७. अधर्म, अशीलता-चरित्र के विपरीत प्रस्थान कराने वाला। १८. ग्राम्यधर्मतप्ति-इन्द्रिय विषयों के उपभोग तथा रक्षण में सदा
आकुल व्याकुल रहने के लिए बाध्य करने वाला। १९. रति-कामक्रीड़ा का प्रेरक । २०. राग–अनुरक्ति बढ़ाने वाला । २१. कामभोगमार-कामभोगों के आसेवन से मृत्यु तक पहुंचाने वाला। २२. वैर-शत्रुता का हेतु । २३. रहस्य-एकान्त में आचरणीय । २४. गुह्य–गोपनीय। २५. बहुमान-अधिक व्यक्तियों द्वारा अनुमत । २६. ब्रह्मचर्यविघ्न-अब्रह्म-विरति में बाधा उपस्थित करने वाला।
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परिशिष्ट २ : २८१
२७. व्यापत्ति-गुणों का नाशक । २८. विराधना—सद्गुणों का नाशक । २६. प्रसंग-आसक्ति का उत्पादक ।
३०. कामगुण-कामदेव की प्रवृत्ति का बोधक ।' अन्भहियतर (अभ्यधिकतर)
____ इनमें प्रथम दो 'अभ्यधिकतर' और 'विपुलतर' ये वस्तु की लंबाई और गहराई की दृष्टि से पूरिपूर्णता/अत्यधिकता के द्योतक हैं । शेष दो शब्द 'विशुद्धतर' और 'वितिमिरतर' ये भाव विशुद्धि की दृष्टि से परिपूर्णता के द्योतक हैं। भिन्न-भिन्न अर्थ के वाचक होने पर भी ये
एकार्थक हैं । अरंजर (अलंजर)
अरंजर शब्द के पर्याय में १२ शब्दों का उल्लेख है। ये सभी विभिन्न आकृति वाले घड़ों की भिन्न-भिन्न जातियों के वाचक हैं । ये सभी मिट्टी से निर्मित होने के कारण, उपादान की समानता से एकार्थक माने गए हैं। कुछेक शब्दों की पहचान इस प्रकार हैकुंडग-कंड के आधार का घड़ा। घटक-छोटा घड़ा। कलश-बड़ा घड़ा। वारक-लघु कलश, सुराही । अरंजर-पानी भरने का बड़ा बर्तन ।
___ उपासक दशा ७/७ में करक, वारक, घट, अलिंजर आदि अनेक प्रकार के मिट्टी के बर्तनों का उल्लेख मिलता है। अरह (अर्हत्)
__ आगमों में अनेक स्थलों पर 'अरह' शब्द के साथ प्रसंगोपात्त उसके पर्याय शब्दों का उल्लेख मिलता है। पंच परमेष्ठी में अरिहन्तों का १. प्रटी प ४३.४४ । २. नंदीटी पृ ३६ : अथवैकाथिका एवैते शब्दाः नानादेशजानां विनेयानां कस्यचित् कश्चित् प्रसिद्धो भवतीत्युपन्यस्ताः ।
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२५२ ● परिशिष्ट २
प्रथम स्थान है । यद्यपि ये सभी शब्द अर्हद् / केवली के द्योतक हैं, लेकिन समभिरूढ नय की दृष्टि से इनकी व्याख्या अलग-अलग की जा सकती
है ।
१. अर्हत्- - अध्यात्म की उच्च भूमिका को प्राप्त ।
२. जिन - कर्म शत्रु को जीतने वाले ।
३. केवली — केवल / सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने वाले ।
४. सर्वज्ञ – भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी विषयों के ज्ञाता, -
त्रिकालज्ञ |
५. सर्वदर्शी — त्रिकालदर्शी, अथवा सब प्राणियों को आत्मक्त् देखने वाले ।
६. जात-- - निसर्गत: शुद्ध
क्षर (अरिन्)
अरि का अर्थ है – शत्रु । कामभेद से इन सभी शब्दों का अर्थ-भेद इस प्रकार है' -
ין
१. अरि-शत्रु 1
२. वैरी - जातिगत वैरी, जैसे--- सर्प और नकुल ।
३. घातक - किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा अपने शत्रु को मरवाने वाला ।
४. वधक - स्वयं मारने वाला ।
५. प्रत्यमित्र - जो पहले मित्र होकर कारणवश फिर अमित्र / शत्रु बन जाये ।
इस प्रकार ये सभी शब्द शत्रुता की उत्पत्ति में साधक अथवा शत्रु के प्रकारों के द्योतक हैं ।
अलिय ( अलीक )
अलीक का अर्थ है -असत्य । यहां इसके तीस अभिवचन दिये गये हैं । वे असत्य की विभिन्न अवस्थाओं और फलश्रुतियों के द्योतक हैं । अनेक शब्द असत्य के हेतु बनते हैं जैसे नूम ( माया ) आदि । वह
१. अनुद्वामटी प १०७ ।
२. जंबूटी प १२३ ।
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परिशिष्ट २ । २८३ कारण में कार्य का उपचार कर उन्हें भी अलीकवाची शब्द मान लिया गया है। उनके अर्थबोध से यह सब स्पष्ट हो जाता है१. शठ-मायावी व्यक्ति का कार्य । २. अनार्य-अनार्य वचन । ३. मायामृषा-माया और मृषा से अनुगत असत्य वचन । ४. असत्क-अयथार्थ का वाचक । ५. कूट-कपट-अवस्तु-असत्य वचन में सत्य का अपलाप, भाषा का
विपर्यय और अभिधेय का अप्रतिपादन । ६. निरर्थक-अपार्थ- अर्थहीन वचन। ७. विद्वेषगर्हणीय-सज्जन व्यक्तियों द्वारा गर्हणीय । ८. अनुजुक-वक्र वचन। ९-१०. कल्कना
-माया युक्त व पापकारी वचन । वञ्चना ११. मिथ्यापश्चात् कृत-मिथ्या होने के कारण अनाश्रयणीय । १२. साति-असत्य वचन अविश्वास का कारण बनता है । १३. अपछन्न-अपने दोषों तथा दूसरों के गुणों को ढंकना। १४. उत्कूल-सन्मार्ग से च्युत करनेवाला (उन्मार्ग की ओर ले जाने
वाला)। १५. आर्त-पीड़ित व्यक्ति द्वारा आश्रित । १६. अभ्याख्यान-झूठा आरोप । १७. किल्विष-पाप का हेतु । १८. वलय-वक्रता का उत्पादक । १६. गहन-सघन वचन जाल । २०. मन्मन-मेंमने की भांति अस्पष्ट भाषण । २१. नूम-माया युक्त वचन । २२. निकृति–माया को छिपाना । २३. अप्रत्यय-अविश्वसनीय भाषण ।
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२४ । परिशिष्ट २
२४. असमय-असम्यक् आचरण । २५. असत्यसंधान-असत्य की परम्परा को चलाना। २७. विपक्ष-सत्य और सुकृत का विपक्षी। २७. अपधीक-निंद्य बुद्धि से उत्पन्न । २८. उपधि-अशुद्ध-माया से सावाद्य भाषण । २६. अपलोप-यथार्थ को छिपाने वाली वाणी ।
इस प्रकार ये सारे अभिवचन असत्य के उत्पादक, पोषक और असद् मार्ग के प्रतिष्ठापक हैं। अवाय (अवाय)
'अवाय' जैन ज्ञानमीमांसा का पारिभाषिक शब्द है। मतिज्ञान के चार भेदों में इसका तीसरा स्थान है। किसी भी पदार्थ के बारे में निश्चयात्मक ज्ञान अवाय है।
नंदीसूत्र में प्रयुक्त 'आवट्टण' आदि शब्द अवाय के एकार्थक माने गए हैं । अभिधान की भिन्नता से वे भिन्न-भिन्न अर्थ के वाचक हैं।' जैसे१. आवर्तन-निश्चित किये हुए अर्थ का आवर्तन करना । २. प्रत्यावर्तन-उसका बार बार प्रत्यावर्तन करना, पुनरावृत्ति करना। ३. अवाय-उस अर्थ को भली भांति जानना। ४. बुद्धि-उसी अर्थ को और अधिक स्पष्टता से जानना। ५. विज्ञान-उस अर्थ को दृढता से जानना ।
उमास्वाति ने इसके निम्न पर्याय शब्दों का उल्लेख किया हैअपगम, अपनोद, अपव्याध, अपेत, अपगत, अपविद्ध, अपनुत इत्यादि ।'
ये शब्द निषेधात्मक हैं। अविराय (अविलीन)
_ 'अविराय' का संस्कृत रूप अविलीन होता है । वि पूर्वक लीच१. नंदीचू पृ ३६ : अवायसामण्णतो णियमा एगठिता चेव, अभिधान
भिण्णत्तणतो पुण भिण्णत्था। २. त० भा० १।१५।
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परिशिष्ट २ । २५५
श्लेषणे धातु को विरा आदेश होता है। हेमचन्द का प्राकृत व्याकरण (४१५६) में पविराय और पविलीण इन दोनों को एकार्थक माना है।
अविध्वस्त इस अर्थ में स्पष्ट ही है । असण (अशन)
अशन, पान, खादिम, स्वादिम आदि शब्द स्पष्ट रूप से अलग अलग अर्थ के वाचक हैं, किन्तु आहार से सम्बन्धित होने से टीकाकार
ने इनको एकार्थक माना है। अहासुत्त (यथासूत्र)
यथासूत्र आदि सभी शब्द व्रत-पालन की विशिष्ट अवस्था के द्योतक हैं । व्रत-पालन में भावों की निर्मलता, विधि का अनुसरण तथा काल-मर्यादा का परिपालन आवश्यक होता है । ये शब्द इसीकी ओर संकेत करते हैं । इनका अर्थबोध इस प्रकार है१. यथासूत्र -सूत्र के अनुसार । २. यथाकल्प-प्रतिमा आदि व्रत की आचार संहिता के अनुसार । ३. यथामार्ग-ज्ञानादि मोक्ष मार्ग का अतिक्रमण न करना अथवा
क्षायोपशमिक आदि भावों का अतिक्रमण न करना । ४. यथातथ्य-स्वीकृत व्रत का व्रत-भावना के अनुसार पालन ।
५. यथासम्यक् - अतिचार रहित समभावना से पालन ।' अहिंसा (अहिंसा)
अहिंसा के साठ नामों का उल्लेख प्रश्न व्याकरण सूत्र में मिलता है । अहिंसा मूल धर्म है। उसके अंगभूत अनेक गुण हैं जैसे-विरति, दया, विमुक्ति, क्षान्ति, समता, धृति, स्थिति, नन्दा, भद्रा, कल्याण, मंगल, रक्षा, अनाश्रव, समिति, शील, संयम, संवर, गुप्ति, यतना, विश्वास अभय आदि । ये सारे अहिंसा के वाचक हैं। अहिंसा के अभाव
में इनका कोई मूल्य नहीं है। अहिंसा है तो ये हैं, अहिंसा नहीं हैं तो १. प्रसाटो प ५१ : परमार्थत एकाथिका एवैते शब्दा इति भेदकल्पनमयुक्तं,
एवं समयमणितनिरुक्तविधिनाऽप्येकार्थत्वमेवैषामिति । २. उपाटी पृ ७३॥
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.२८६ । परिशिष्ट २
इनके अस्तित्त्व का आभास मात्र है। इसी प्रकार अन्यान्य पर्याय भी अहिंसा के ही संपोषक या संरक्षक तत्त्व हैं। कुछेक शब्दों की व्याख्या इस प्रकार है-- १. गति-अहिंसा सम्पदाओं की जननी है। कल्याण के इच्छुक व्यक्ति
इसका आश्रय लेते हैं, इसलिए यह गति है । २. प्रतिष्ठा—यह समस्त गुणों की प्रतिष्ठा-आधारभूमि है। ३. निर्वाण-यह मोक्ष की हेतु है । ४. निर्वृति-यह स्वास्थ्य की हेतुभूत है। ५. शक्ति-यह अन्यान्य शक्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा करती है । ६. श्रुतांग-श्रुतज्ञान से निष्पन्न होने से श्रुतांग है। ७. क्षान्ति-क्षान्ति की उत्पत्ति में हेतुभूत । ८. सम्यक्त्वाराधना-जो सम्यक्त्व में प्रतिष्ठित है। ९. बृहती - सभी धर्मानुष्ठानों में प्रधान । १०. बोधि-बोधि का अर्थ है-सर्वज्ञ धर्म की प्राप्ति । सर्वज्ञ धर्म
अहिंसा प्रधान होता है । ११. बुद्धि-अहिंसा बुद्धि को निर्मल बनाती है, सफल बनाती है,
. इसलिए अहिंसा बुद्धि है । १२. धृति- अहिंसा धृति-चित्त की स्थिरता पैदा करती है । १३. स्थिति-मुक्त स्थिति की प्रापक होने से स्थिति । १४. पुष्टि-पुण्य का उपचय करने वाली। १५. नन्दा-समृद्धि की ओर ले जाने वाली । १६. भद्रा-कल्याणकारी । १७. विशिष्ट दृष्टि-जैनधर्म के विशिष्ट दर्शन की जननी । १८. प्रमोद--प्रमोद भावना को बढ़ाने वाली । १९. समिति - सम्यक् प्रवृत्ति होने से समिति । २०. शीलपरिगृह-चरित्र का स्थान । २१. व्यवसाय-विशिष्ट अध्यवसाय की कारण भूत ।
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परिशिष्ट २ . २८७
२२. यज्ञ-अहिंसा भावदेवपूजा है। २३. यजन-अभयदान की प्रेरक । २४. आश्वास-प्राणियों में विश्वास उत्पन्न करने वाली । २५. अमाघात–किसी भी प्राणी को न मारने का संकला । २६. विमल-पवित्रता की प्रेरक । २७. प्रभासा-दीप्ति की जननी। २८. निर्मलतर-प्राणी को विशेष निर्मल बनाने वाली, स्वयं अत्यन्त
निर्मल । आइण्ण (आकीर्ण)
'आइण्ण' आदि शब्द जन-समवसरण के बोधक हैं। ये शब्द एकत्रित होने वाले देव या मनुष्यों की विभिन्न अवस्थाओं के वाचक हैं१. आकीर्ण-एकत्रित होकर फैल जाना। २. विकीर्ण-अपनी सीमा से बाहर जाकर एकत्रित होना। ३. उपस्तीर्ण-क्रीडा करते हुए एक दूसरे को आच्छादित कर रहना । ४. संस्तीर्ण-परस्पर संश्लेष करना। "५. स्पृष्ट-आसन, शयन, रमण, परिभोग के द्वारा संशिलष्ट होना।
यद्यपि ये शब्द देवक्रीडा के प्रसंग में आये हैं और देव' समूह के विभिन्न अंगों के अभिवाचक हैं, फिर भी समूहगत मन: स्थिति के द्योतक
आउडिज्जमाण (आकुट्यमान)
'आउडिज्जमाण' आदि सभी शब्द पीड़ा देने की विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं। कुछ शब्द वाचिक रूप से पीड़ा देने का बोध कराते हैं, जैसे-तर्जना, ताड़ना आदि । कुछ शब्द शारीरिक रूप से दुःख देने के वाचक हैं, जैसे-परितापन, उपद्रवण इत्यादि।
१. मटी प १५५ : आइन्नमित्यादयः एकार्था अत्यन्तव्याप्तिदर्शनाय ।
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२८८ :
परिशिष्ट २
आओसणा ( आक्रोशना )
'आओसण' आदि शब्द आक्रोश व्यक्त करने की विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं'–
१. आक्रोश — क्रोध करना ।
२. निर्भर्त्सन - भर्त्सना करना ।
३. उद्धसण -- अपमानित करना ।
आगासत्यिकाय (आकाशास्तिकाय)
आकाश के अभिवचन / पर्यायवाची नाम २७ हैं । व्युत्पत्तिगत भिन्नता भगवती टीका में उल्लिखित है ।
१. आकाश -- जिसमें सभी पदार्थ अपने अपने स्वरूप में प्रकाशित होते
हैं ।
२. गगन - अबाधित गमन का कारण ।
३. नभ - शून्य होने से जो दीप्त नहीं होता ।
४. सम — जो एकाकार है, विषम नहीं है ।
५. विषम — जिसका पार पाना दुष्कर है |
६. खह - भूमि को खोदने से अस्तित्व में आने वाला ।
७. विध— जिसमें क्रियाएं की जाती हैं ।
८. वीचि - विविक्त स्वभाव वाला ।
६. विवर - आवरण न होने के कारण विवर ।
१०. अम्बर - माता की भांति जनन सामर्थ्य से युक्त पानी का दान करने
वाला ।
११. अंबरस —– जल को धारण करने वाला ।
१२. छिद्र —-छेदन से उत्पन्न होने वाला |
१३. भुषिर - पोलाल - रिक्तता को प्रस्तुत करने वाला ।
१४. मार्ग - गमन करने का मार्ग ।
१५. विमुख - प्रारम्भिक बिन्दु के अभाव के कारण विमुख ।
१. निरटी पृ १२ : एते समानार्थाः ।
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परिशिष्ट २ : २८
१६. अई-जिससे गति की जाती है । १७. आधार-आधार देने वाला। १८. व्योम-जिसमें विशेष रूप से गमन किया जाता है । १९. भाजन-समस्त विश्व का आश्रयभूत । २०. अंतरिक्ष-जिसके बीच (नक्षत्र आदि) देखे जाते हैं । २१. श्याम-नीला होने के कारण श्याम । २२. अवकाशान्तर-दो अवकाशों के बीच होने वाला। २३. अगम-जो स्थिर है, गमन क्रिया से रहित है। २४. स्फटिक-स्फटिक की भांति स्वच्छ ।
२५. अनन्त-अन्त रहित ।' आघविय (आख्यापित)
___ 'आघविय' आदि शब्द कथन की विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं । इनका विशेष अर्थ इस प्रकार है१. आख्यापित-सामान्य कथन । २. प्रज्ञापित-भेदप्रभेद सहित कथन । ३. प्ररूपित-संदर्भ सहित कथन । ४. दशित-उपमा सहित व्याख्यान । ५. निदर्शित-हेतु, दृष्टान्त आदि के माध्यम से कथन ।
६. उपदर्शित--उपनय, निगमन पूर्वक कथन, मतान्तर का कथन । आणा (आज्ञा)
आज्ञा शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त होता है। जैसे—आदेश देना, उपदेश देना इत्यादि । इसके अतिरिक्त जैन आगमों में वीतराग व्यक्ति के उपदेश के अर्थ में भी आज्ञा शब्द का प्रयोग हुआ है । इसी दष्टि से आज्ञा को ज्ञान और श्रुत भी कहा जा सकता है। जिसके द्वारा जाना जाता है, वह आगम भी आज्ञा का पर्याय है।
१. भटी पृ १४३१ ।
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२९० : परिशिष्ट २ आभिणिबोहिय (आभिनिबोधिक)
आभिनिबोधिक शब्द मतिज्ञान का पर्याय है। इसके पर्याय शब्दों में कुछ-कुछ भेद है, लेकिन समष्टि रूप में सभी मतिज्ञान के वाचक
१. ईहा-वस्तु को जानने की चेष्टा । २. अपोह-ज्ञान का निश्चय । ३. विमर्श-चिन्तन करना । यह ईहा और अवाय की मध्यवर्ती अवस्था
४. मार्गणा-अन्वय धर्म की खोज करना। ५. गवेषणा–व्यतिरेक धर्म की आलोचना। ६. संज्ञा-व्यञ्जनावग्रह के पश्चात् होने वाली बुद्धि । ७. स्मृति–पूर्वानुभूत पदार्थों के आलम्बन से होने वाला ज्ञान । ८. मति-सूक्ष्म धर्मों को जानने वाली बुद्धि । ६. प्रज्ञा-विशिष्ट क्षयोपशम जन्य वस्तु को यथार्थ रूप में जानने वाला
ज्ञान।
इस प्रकार ये सभी शब्द मतिज्ञान की विविध अवस्थाओं के वाचक
आभोग (आभोग)
प्रतिलेखना का अर्थ है--निरीक्षण । जैन पारिभाषिक शब्दावलि में 'प्रतिलेखना' मुनि की एक चर्या है, जिसमें मुनि अपने उपयोग में आने वाली समस्त वस्तुओं का निरीक्षण करता है । यह शब्द उसी अर्थ में रूढ है । यहां उसकी विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक दस पर्याय शब्दों का उल्लेख है१. आभोग-विधिपूर्वक निरीक्षण । २. मार्गणा-किसी को पीड़ा पहुंचाए बिना निरीक्षण । ३. गवेषणा-दोष रहित शुद्ध वस्तु की याचना । १. नंवीटी पृ ५८ : किञ्चिद्भवाद् भेदः प्रदर्शितः, तत्त्वतस्तु मतिवाचका
सर्व एते पर्यायशब्दाः ।
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परिशिष्ट २ : २६१
४. ईहा-शुद्ध वस्तु की अन्वेषणा । ५. अपोह-मुनि द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले पदार्थों में संसक्त ___जीव आदि को यतनापूर्वक अलग करना । ६. प्रतिलेखना-आगमानुसार उसका निरूपण करना, आचरण करना। ७. प्रेक्षण-सावधानी पूर्वक निरीक्षण करना। ८. निरीक्षण-सूक्ष्मता से देखना। ६. आलोचन-मर्यादा पूर्वक निरीक्षण करना । १०. प्रलोकन-सघनता से निरीक्षण करना।' मायट्टि (आत्मार्थिन्)
'आयट्टि' शब्द के पर्याय में ८ शब्दों का उल्लेख है । आत्मार्थी का तात्पर्य है मोक्षार्थी । आत्मा की रक्षा करने वाला ही मोक्षार्थी हो सकता
है । इस प्रकार सभी शब्द आत्मार्थी शब्द के स्पष्ट वाचक हैं। मायाम (आयाम)
यद्यपि आयाम और विष्कम्भ ये दोनों शब्द अलग-अलग अर्थ के द्योतक हैं । आयाम का अर्थ है लम्बाई और विष्कम्भ का अर्थ है चौड़ाई, लेकिन ये दोनों माप के प्रकार हैं । अतः नंदी चूर्णिकार ने इनको एका
र्थक माना है। आयार (आचार)
... 'आयार' शब्द के दस पर्याय यहां संगृहीत हैं। यद्यपि सभी शब्द भिन्न भिन्न अर्थ के वाचक हैं, लेकिन तात्पर्य में सभी आचार अर्थ के वाचक हैं। अतः टीकाकार ने इनको एकार्थक माना है। इनका वाच्यार्थ इस प्रकार है१. आयार-जिसका आचरण किया जाता है ।
२. आचाल-जिससे सघन कर्मों को प्रकम्पित किया जाता है। १. ओनिटी प १२, १३ । २. नंदी चू पृ २५। ३. आटी प ५ : एते किञ्चिद् विशेषादेकमेवार्थ विशिषन्तः प्रवर्तन्ते इत्येकाथिकानि, शक्रपुरन्दरादिवत् ।
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२९२ । परिपिष्ट २
३. आगाल-आत्म प्रदेशों को समस्थिति में स्थित करने वाला। ४. आगर-जो ज्ञान आदि का आकर/खजाना है। ५. आश्वास-जहां व्यक्ति आश्वस्त होता है अथवा सुख की सांस लेता
६. आदर्श-जिसमें व्यक्ति स्वयं को देखता है। ७. अंग-जिसमें भाव आचार की अभिव्यक्ति की जाती है। ८. आचीर्ण-जो आचरित होता है। ६. आजाति-जिसमें ज्ञान आदि उत्पन्न होते हैं। १०. आमोक्ष-कर्म बन्धन से सर्वथा मुक्त करने वाला। आलोयणा (आलोचना)
आलोचना का शाब्दिक अर्थ है--चारों ओर से देखना। साधक अपनी भूलों को विशेष रूप से देखता है, वह आलोचना है। आलो. चना के विविध रूप प्रस्तुत पर्याय-शब्दों में उल्लिखित हैं । उनका आशय इस प्रकार है१. आलोचना-विधिपूर्वक अपनी भूल का गुरु के सामने निवेदन
करना। २. विकटना-अपनी भूल को स्पष्टता व सरलता से स्वीकारना। ३. शोधि-अतिचार मल को धोना। ४. सद्भावदायना-यथार्थ का अभिव्यक्तीकरण । ५. निंदा-आत्मसाक्षी से अपने दोषों की आलोचना करना। ६. गहरे-गुरुसाक्षी से अपने दोषों की निंदा करना। ७. विकूटन-अतिचार गल्ती के अनुबंध का छेद करना।
८. शल्योद्धार-मिथ्यादर्शन आदि शल्यों का निवारण करना। आवस्सग (आवश्यक)
देखें-'आवस्सय'। आवस्सय (आवश्यक)
जो साधु एवं श्रावकों द्वारा अवश्यकरणीय है, वह आवश्यक है । इसका अपर नाम प्रतिक्रमण है। इसके लगभग सभी पर्याय गुणनिष्पन्न
१. आवश्यक-ज्ञानादि गुणों को अथवा मोक्ष को चारों ओर से वश में
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परिशिष्ट २ : २६३ करने वाला अथवा इन्द्रिय, कषाय आदि शत्रुओं को वश में करने
वाला। २. आवासक-गुणों से आत्मा को भावित करने वाला। ३. ध्रुवनिग्रह–अनादि संसार का निग्रह करने वाला। ४. विशोधि-कर्म-मलिन आत्मा को विशुद्ध करने वाला। ५. अध्ययनषट्वर्ग–सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण कायो
त्सर्ग और प्रत्याख्यान-इन छह अध्ययनों से युक्त। ६. न्याय-अभीष्टार्थ की सिद्धि में सहायक । ७. आराधना-मोक्ष की आराधना का हेतु ।
८. मार्ग-मोक्ष तक पहुंचाने का मार्ग। आसंदग (आसंदक)
पादपीठ के अर्थ में 'आसंदग' शब्द के पर्याय में चार शब्दों का उल्लेख है । यद्यपि इन चारों में आकार-प्रत्याकार कृत भिन्नता है लेकिन सभी आसन विशेष का अर्थ व्यक्त करते हैं, अतः ये एकार्थक हैं। निशीथ
चूणि में काष्ठमय आसन्दक का उल्लेख मिलता है। आसुरत्त (आसुरत्व)
___ कोपातिशय को प्रकट करने के लिए 'आसुरत्त' आदि शब्द एका. र्थक हैं । लेकिन इनका अवस्था कृत भेद इस प्रकार हैआसुरत्व-शीघ्र कुपित होना, असुर की भांति कोप करना । रुष्ट-रोष युक्त रहना। कुपित-मानसिक क्रोध । चांडिक्य-चेहरे पर कठोरता के भाव प्रकट होना । मिसिमिसेमाण-क्रोधाग्नि से जलना । इस अवस्था में व्यक्ति की आंखें
व मुंह लाल हो जाता है। आहाकम्म (आधाकर्मन्)
साधुओं को लक्ष्य कर की जाने वाली पचन-पाचन की प्रवृत्ति १. उपाटी पृ १०५ : एकार्थाः शब्दाः कोपातिशयप्रदर्शनार्थाः ।
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परिशिष्ट २
आधाकर्म कहलाती । यह भिक्षा के ४२ दोषों में प्रथम दोष है । आत्मा का हनन करने से आया हम्म ( आत्मघ्न), साधुओं के लिए दोष पूर्ण होने से अधः कर्म तथा संयमी के निमित्त से बनाये जाने के कारण आत्मकर्म आदि इसके पर्यायनाम हैं ।
२६४
आहेवच्च (आधिपत्य )
नेतृत्व के द्योतक 'आहेवच्च' शब्द के पर्याय में ५ शब्द प्रयुक्त हैं ।
इनका अर्थ-भेद इस प्रकार है
१. आधिपत्य - अनुशासन ।
२. पौरपत्य - अग्रगामिता ।
३. भर्तृत्व - संरक्षण व पोषण ।
४. स्वामित्व - स्वामिभाव ।
५. महत्तरकत्व - श्रेष्ठीभाव ।
इंद (इन्द्र)
देखें— 'सक्क' |
इज्जा (दे)
माता के अर्थ में 'इज्जा' शब्द देशी है । उस समय वज्रा आदि विविध प्रकार की देवियां माता के रूप में प्रसिद्ध थीं । चूर्णिकार ने इसका एक अर्थ यज्ञ भी किया है ।'
गर्भ निर्गमन के समय बच्चे का जो आकार होता है वह आकार देवपूजा में होना चाहिए । अनुयोग द्वार सूत्र में इज्याञ्जलि शब्द का प्रयोग उसी रूप में हुआ है । प्राचीन काल में हर पूजा के साथ विशेष प्रकार की देवियां सम्बन्धित रहती थीं, इसलिए संभव है ये चारों शब्द किसी एक देवी विशेष के लिए प्रयुक्त हों ।
इट्ठ (इष्ट)
sg के पर्यायवाची शब्दों का अनेक स्थलों से संग्रहण है । ये पर्यायवाची शब्द भिन्न- २ स्थलों पर भिन्न- २ वस्तु के विशेषण के रूप १. अनुद्वाच् पृ १३ ।
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परिशिष्ट २ । २९५ में प्रयुक्त हैं । औपपातिक सूत्र में 'इट्र' से लेकर हिययपल्हायणिज्ज तक के शब्द वाणी के विशेषण के रूप में एकार्थक हैं। इनका अर्थ-बोध इस प्रकार है१. इष्ट-मन को प्रीतिकर । २. कान्त-कमनीय, सहज सुन्दर । ३. प्रिय-प्रियता पैदा करने वाली। ४. मनोज्ञ--मनोहर, भावों से सुन्दर । ५. मणाम-मन को भाने वाली। ६. मनोभिराम-चिरकाल तक मन को प्रसन्न करने वाली। ७. उदार-महान् शब्द और अर्थ वाली। ८. कल्याण-शुभप्राप्ति की सूचना देने वाली। ६. शिव-उपद्रव रहित, शब्द और अर्थ के दोषों से रहित । १०. धन्य-धन्यता प्राप्त कराने वाली। ११. मंगल-अनर्थ का प्रतिघात करने वाली। १२. हृदयगमनीय-सुबोध, शीघ्र समझ में आने वाली। १३. हृदयप्रल्हादनीय हृदय गत क्रोध, शोक आदि की ग्रंथि को नष्ट
करने वाली। ईसिपग्भारपुढवी (ईषत्प्राग्भारापृथ्वी)
ईषत्प्राग्भारापृथ्वी समय क्षेत्र के बराबर लम्बी चौडी है । उसके मध्य भाग की लम्बाई आठ योजन की है और उसका अन्तिम भाग मक्खी के पंख से भी अधिक पतला है। इसका आकार सीधे छत्ते जैसा है तथा यह श्वेत स्वर्णमयी है। वहां सिद्ध/मुक्त जीव निवास करते हैं अतः सिद्धालय, सिद्धि, मुक्तालय, मुक्ति आदि इसके पर्याय हैं । यह अन्य पृथ्वियों से छोटी है अतः तनु, तनुतरी, आदि नाम हैं। लोकाग्र में स्थित होने से लोकाग्र, लोकान चूलिका भी इसके पर्याय
हैं। यह समस्त देवलोकों से ऊपर है इसलिए इसका एक नाम ब्रह्मा१. औपटी प १३८-३६ : एकाथिकानि वा प्रायः इष्टादीनि वाग्विशेषणा.
नीति ।
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२९६ : परिशिष्ट २ : : वतंसक भी है । यह ईषत्/कुछ, झुकी हुई है अतः ईषत् प्राग्भारा ; कहलाती है।' : . ईहा (ईहा)
'अमुकेन भाव्यमिति प्रत्यय ईहा' 'यह ही होना चाहिए' इस प्रकार निश्चयात्मक ज्ञान ईहा है । तत्त्वार्थसूत्र में ऊंह, तर्क, परीक्षा, विचारणा, जिज्ञासा ईहा के पर्यायवाची हैं। प्रस्तुत एकार्थक सामान्य रूप से ईहा के पर्याय हैं, लेकिन अर्थ के विकल्प से इनमें भिन्नता भी है'१. आभोगण-अर्थाभिमुख आलोचना। २. मार्गणा-अन्वय-व्यतिरेक पूर्वक समालोचन । ३. गवेषणा-व्यतिरेक धर्म को छोड़कर अन्वय धर्म के आधार पर
समालोचन । ४. चिंता- पुनः पुनः समालोचन ।। ५. विमर्श-पदार्थ के अनित्य आदि धर्मों का विमर्श ।
___ इस प्रकार सभी शब्द ईहा के अन्तर्गत क्रमिक भूमिकाओं के द्योतक हैं । इन भूमिकाओं को पार करने में अन्तर्मुहूर्त का समय लगता
उउमास (ऋतुमास)
प्रत्येक ऋतुमास ३० दिन का होता है । अतः एक युग के . (१८३०:३०) इकसठ ऋतुमास होते हैं। इसके दो नाम हैं-सावनसंवत्सर और कर्मसंवत्सर । स्थानांग सूत्र में कर्म-संवत्सर की व्याख्या • इस प्रकार है
जिस संवत्सर में वृक्ष असमय में अंकुरित हो जाते हैं, असमय में । फूल तथा फल आ जाते हैं, वर्षा उचित मात्रा में नही होती, उसे कर्म
संवत्सर कहते हैं ।
१. निपीचू पृ ३२ ।
२. त० भा० १११५ । - ३. नंदीचू पृ ३६ : ईहा सामण्णतो एगट्ठतिा चेव, अत्यविकप्पणातो पुण
भिण्णत्था।
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परिशिष्ट २ । २९७ उक्कंचण (उत्कञ्चन)
____ 'उक्कंचण' से 'साइसंपयोग' तक के शब्द माया के एकार्थवाची हैं । टीकाकार ने इन शब्दों का सूक्ष्म विश्लेषण किया है । १. उत्कञ्चन-गुणहीन पदार्थों के गुणों का उत्कर्ष प्रतिपादन करना
जिससे ज्यादा मूल्य प्राप्त किया जा सके। २. वञ्चन-दूसरों को ठगना । ३. माया-छलने की बुद्धि । ४. निकृति-बकवृत्ति से जेबकतरे की तरह व्यवहार करना। ५. कूट-तोल-माप सम्बन्धी न्यूनाधिकता । ६. कपट-वेश बदलकर अथवा भाषाविपर्यय से किसी को ठगना । ७. सातिसंप्रयोग-बहलता से वक्रता का प्रयोग अथवा सातिशय द्रव्य
कस्तूरी आदि में अन्य द्रव्यों की मिलावट । 'सो होइ साइजोगो, दव्वं जं छुहिय अन्नदव्वेसु ।
दोसगुणा वयणेसु य, अत्थविसंवायणं कुणइ ॥' उक्किट्ठ (उत्कृष्ट)
उक्किट्ठ आदि शब्द गति के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हैं । ये सभी शब्द गति-त्वरा के अर्थ में एकार्थक हैं।'
कुछ शब्दों की अर्थवत्ता इस प्रकार है१. उत्कृष्ट - उत्कृष्ट गति से चलना। २. त्वरित शरीर को हिलाते हुए चलना । ३. चंड--आकुल-व्याकुल होकर गति करना। ४. छेक - कुशलता पूर्वक चलना ।
५. सिंह-सिंह के समान बिना आयास के चलना । उखड्डमड्ड (दे)
कुछ शब्द ध्वनि से अपना अर्थ अभिव्यक्त करते हैं। इसे अंग्रेजी
१. ज्ञाटी प ८६ । २. भटी प १७८ : एकार्था वैते शब्दाः प्रकर्षवृत्तिप्रतिपादनाय ।
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२९८ : परिशिष्ट २ __ में 'ओनोमोटोपिया' कहते हैं, जैसे-चमचमाना इत्यादि । उखडुमड
शब्द बार बार के अर्थ में देशी है। उच्चारणमात्र से यह शब्द अपना
अर्थ अभिव्यक्त करता है। उग्गविस (उपविष)
'उग्गविस' आदि चारों शब्द विष की उत्तरोत्तर भयंकरता को घोतित करते हैं१. उग्रविष-दुर्जर विष। २. चण्डविष-शरीर में शीघ्र ही व्याप्त होने वाला विष । ३. घोरविष-आगे से आगे हजारों पुरुषों तक फैलने वाला विष ।
४. महाविष-शीघ्र मारने वाला विष ।' उग्गह (अवग्रह)
___ इन्द्रियायोगे दर्शनान्तरं सामान्यग्रहणमवग्रहः-इन्द्रिय और अर्थ का सम्बन्ध होने पर नाम आदि की विशेष कल्पना से रहित सामान्य ज्ञान को अवग्रह कहते हैं । यह मतिज्ञान का भेद है तथा इस अवस्था में निश्चयात्मक ज्ञान नहीं होता । तत्वार्थ भाष्य में अवग्रह, ग्रह, ग्रहण, आलोचन, और अवधारण को एकार्थक माना है ।'
'उग्गह' के सभी शब्द सामान्य रूप से एकार्थक होने पर भी अवग्रह के विभाग करने पर भिन्न-२ अर्थों के वाचक बनते हैं।'
अवग्रह के दो भेद हैं- व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह । प्रस्तुत एकार्थकों में प्रथम दो व्यञ्जनावग्रह से और तीसरा, चौथा भेद अर्थावग्रह से सम्बन्धित हैं। पांचवा भेद 'मेधा' उत्तरोत्तर विशेष-सामान्य अर्थावग्रह से सम्बन्धित है। विशेष व्याख्या के लिए देखें-नंदीचू पृ ३५।
१. भटी पृ १२३५ । २. तत्त्वार्थ भाष्य १११५ । ३. नंदीच पृ ३५ : ओग्गहसामण्णतो पंच वि णियमा एगद्विता । उग्गहविभागे पुण कज्जमाणे उग्गहविभागंसेण भिण्णत्था भवंति ।
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शुच्चच्छंव (उच्चच्छंद)
जैसे—
१. उच्चच्छंद
२. अनिग्रह - स्वच्छन्दचारी । ३. अनियत - अव्यवस्थित । "
यहां संगृहीत तीनों शब्द स्वच्छंद व्यक्ति के अर्थ में एकार्थक हैं ।
आत्मश्लाघा में प्रवण ।
- उज्जल ( उज्ज्वल )
'उज्जल' आदि शब्द वेदना के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हैं । समवेत रूप में एकार्थक होते हुए भी इन शब्दों में अवस्थाकृत भेद है ।' कुछ शब्दों की अर्थवत्ता इस प्रकार है
प्रचण्ड
उज्ज्वल - वह वेदना जिसमें सुख का अंश भी नहीं हो ।
विपुल -- सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त ।
त्रितुल - मन, वचन और काया तीनों की कसौटी करने वाली ।
परिशिष्ट २
प्रगाढ --- मर्म प्रदेशों में व्याप्त होने वाली ।
कर्कश – कर्कश पत्थर के स्पर्श की तरह आत्मप्रदेशों को प्रभावित करने
वाली ।
• कटुक — कटुक द्रव्य की भांति व्याकुल करने वाली ।
निष्ठुर - प्रतीकार करने में अशक्य ।
चण्ड
}
तीव्र- - अतिशय वेदना |
दुःख - दुःख देने वाली ।
बीहणग — भयोत्पादक ।
दुरहियास -- असह्य वेदना ।
- उज्जुय (ऋजुक)
- रौद्र, शीघ्र ही सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होने वाली ।
: २६६
१. प्रदीप ३१ ।
२. विपाटी प ४१ : उज्जला
ऋजु, अकुटिल और भूतार्थं ये तीनों एकार्थक हैं । भूतार्थ का अर्थ
'दुरहियास त्ति एकार्था एव ।
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३०० : परिशिष्ट २
है-यथार्थ । यथार्थ ऋजु ही होता है। बौद्धसूत्रों में ऋजुता के पर्याय में उजुता, उजुकता, अजिम्हता, अवता अकुटिलता आदि शब्दों
का उल्लेख हुआ है। उट्ठाण (उत्थान)
'उठाण' आदि पांचों शब्द विभिन्न प्रकार के पुरुषार्थ के द्योतक हैं, जैसे१. उत्थान-उठना, चेष्टा करना आदि । २. कर्म-प्रवृत्ति । ३. बल-शारीरिक-सामर्थ्य । ४. वीर्य-जीवनी-शक्ति, आन्तरिक सामर्थ्य । ५. पराक्रम-कार्य-निष्पत्ति में प्रबल प्रयत्न ।
६. पुरुषकार-अभिमान से उत्पन्न पुरुषार्थ । उत्तरकरण (उत्तरकरण)
'उत्तरकरण' आदि चारों शब्द भिन्न भिन्न अर्थ के द्योतक होते हुए भी समवेत रूप से सभी विशुद्धीकरण के अर्थ को व्यक्त करते हैं। अतः चूर्णिकार ने इनको एकार्थक माना है। इनका अर्थ-बोध इस प्रकार
१. उत्तरकरण--व्रत आदि को और अधिक उत्कृष्ट बनाना । २. प्रायश्चित्तकरण-अतिचार लगने पर उसकी आलोचना करना। . ३. विशोधीकरण-- अतिचार आदि दोषों को विशुद्ध करना।
४. विशल्यीकरण-तीनों शल्यों से आत्मा को मुक्त करना। उद्दिट्ट (उद्दिष्ट)
'उहिट्ट' आदि शब्द वर्णन की विविध पद्धतियों के वाचक हैं --- १. उद्दिष्ट- सामान्य रूप से कथन करना। २. गणित-संख्या द्वारा वर्ण्य विषय को निर्दिष्ट करना ।
३. व्यजित-नामोल्लेखपूर्वक कथन करना । १.धसं पृ७८ । २. आवचू २ पृ २५१ ।।
*...
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परिशिष्ट २ । ३०
उप्पल (उत्पल)
"उत्पल' शब्द के पर्याय में जिन शब्दों का उल्लेख हुआ है वे द्रव्यास्तिक नय से सभी पर्यायवाची हैं, लेकिन पर्यायास्तिक नय की अपेक्षा से सभी शब्द कमल की भिन्न-भिन्न जाति और वर्ण के आधार पर व्यवहृत हैं। जैसे१. उत्पल-नीलकमल । २. पद्म-सूर्यविकासी रक्त कमल । ३. कुमुद-चन्द्रविकासी कमल । ४. नलिन-कुछ लाल कमल । ५. सुभग-कमल का प्रकार । ६. सौगंधिक-शरद् ऋतु में होने वाला सुगन्धि कमल । ७. पुण्डरीक-श्वेत कमल । ८. महापुण्डरीक-बड़ा श्वेत कमल । ६. शतपत्र-सौ पत्तों वाला कमल । १०. सहस्रपत्र-हजार पत्तों वाला कमल । ११. कोकनद-रक्त कमल । १२. अरविंद-पंखुडियो के द्वारा जाना जाने वाला। १३. तामरस-पानी में उत्पन्न होने वाला कोई फूल, कमल । १४. भिस-कमलनाल ।
१५. पुष्कल-श्रेष्ठ कमल । उप्पायण (उत्पादन)
भोजन के ४२ दोषों में उत्पादन के दस दोष हैं । भोजन की उत्पत्ति में जो दूषण होते हैं वे उत्पादन दोष कहलाते हैं । ये तीनों
शब्द इसी अर्थ के वाचक हैं। १. औपटी पृ १९४ : उप्पलादीनां चार्थभेदो वर्णादिभिः । २. देसी पृ ३५७ : 'तामरस' जलोद्भवं पुष्पम् । टिप्पण १ 'तामरस
शब्दः म्लेच्छभाषासंबन्धी, न तु आर्यभाषासंबन्धी-इत्येवं मीमांसासूत्रभाष्यकारो जैमिनिमुनिः प्राह स्वभाष्ये (अ १ पा ३ सू १० अधि ५) ।
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३११ । परिशिष्ट २ स्वसय (उपाश्रय)
"उवसग' आदि सभी शब्द स्थानवाचक हैं। इनकी अभिव्यञ्जना भिन्न भिन्न होने पर भी आश्रय देने के आधार पर ये सभी एकार्थक
उवहि (उपधि)
उपधि शब्द के पर्याय में आठ शब्दों का उल्लेख है। सभी शब्द उपधि के विशेष गुणों को व्यक्त करते हैं१. उपधि-जो धारण करता है, पुष्ट करता है । २. उपग्रह-जो समीप से धारण किया जाता है । ३. संग्रह-जिसका संग्रह किया जाता है। ४. प्रग्रह-जिसका विशेष रूप से संग्रह किया जाता है । ५. अवग्रह-जिसको बार-बार ग्रहण किया जाता है। ६. भण्डक-पात्र विशेष, यह भी उपधि है। ७. उपकरण-जो उपकार करता है ।
८. करण-जो संयम-यात्रा में सहायक बनता है। एजण (एजन)
___ कंपन के अर्थ में 'एजण' आदि सात शब्दों का उल्लेख है। ये सभी शब्द हलन-चलन की उत्तरोत्तर अवस्थाओं के द्योतक हैं१. एजन-सामान्य कंपन । २. व्येजन-विशेष कंपन । ३. चालन-इधर-उधर थोड़ा हिलाना । ४. घट्टन-दो वस्तुओं का आपस में संघर्षण । ५. क्षोभण-तीव्रता से क्षुब्ध करना, मथना।
६. उदीरण-प्रबलता से इधर-उधर करना या गति कराना । १. बृकटी पृ ९२५ : एतान्येकार्थानि नानाव्यञ्जनानि पृथगक्षराण्युपाश्रयस्य
मामानि । '२. ओनिटी ५ २०७ : 'तस्वमेवपर्यायाख्ये' इति न्यायात् .........।
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ओयंसि ( ओजस्विन्)
महानता एक और अखण्ड होती है । उसके अनेक कोण हैं । वे कोण अखण्ड महानता को ही परिपुष्ट करने वाले होते हैं। यहां चार कोण ये हैं
१. ओजस्वी - मानसिक अवष्टम्भ वाला ।
२. तेजस्वी - शारीरिक कांति से युक्त । ३. वर्चस्वी
वचस्वी
४. यशस्वी - ख्याति वाला ।
परिशिष्ट २ ३०३
- प्रभावशाली अथवा वचनातिशय से युक्त 1
ओराल (उदार)
'ओराल' शब्द के पर्याय में तेरह शब्दों का उल्लेख है । ये सभी शब्द विपुलता और प्रशस्तता का बोध कराते हैं । अन्तकृतदशा की टीका में ये सभी शब्द तप के विशेषण के रूप में एकार्थक माने गए हैं । इनकी अर्थपरम्परा इस प्रकार है
१. उदार - आकांक्षा / आशंसा रहित तप ।
२. विपुल - दीर्घकालीन तप ।
३. प्रयत- प्रमाद रहित होकर किया जाने वाला ।
४. प्रगृहीत - विशिष्ट व्यक्तियों के द्वारा आचीर्ण ।
५. कल्याण-नीरोगकर ।
६. शिव - कल्याणकारी ।
७. धन्य -- धार्मिक अनुष्ठान के कारण धन्यता से युक्त ।
८. मंगल - पाप को शमित करने वाला ।
६. सीक - सत् परिणाम देने वाला ।
१०. उदग्र- उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त |
११. उदात्त - निस्पृह तप ।
१. अंतटी प २६ : एते तपोविशेषणशब्दा एकार्थाः । अर्थमेवविवक्षायां तु प्रथम शतक विवरणाणुसारेण ज्ञेयाः ।
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३०४ , परिशिष्ट ।
१२. उत्तम-सर्वश्रेष्ठ । १३. महानुभाग-महाप्रभावशाली । ओवीलेमाण (अवपीडयत्)
___ 'ओवीलेमाण' आदि शब्द पीड़ा देने की विभिन्न अवस्थाओं के वाचक हैं । देखें-'आउडिज्जमाण' । ऋतुसंवत्सर (ऋतुसंवत्सर)
देखें-'उउमास'। कंची (काञ्ची)
ये सभी शब्द विभिन्न प्रकार की करधनी (कटि के आभूषण) के वाचक हैं। प्राचीन काल में करधनी पहनने की परम्परा अनेक जातियों में थी और आज भी यह परम्परा प्रचलित है।
देखें-'कडीय' । कंति (कान्ति)
___ कान्ति, दीप्ति आदि शब्द अवस्था भेद से प्रकाश के वाचक हैं।
देखें-'जुइ'। कंदण (क्रन्दन)
देखें-'रोयमाणी'। कक्क (कर्क)
कक्क (वक्क ?) और रत्न-ये दोनों शब्द इन्द्रनील आदि सर्वोत्तम रत्न के लिए प्रयुक्त होते हैं । कक्क (कल्क)
देखें-'माया'। कण्हराति (कृष्णराजि)
__कृष्ण का अर्थ है-काली और राजि का अर्थ है-रेखा। काले - रंग की पुद्गल रेखा को कृष्णराजि कहते हैं । भिन्न-भिन्न स्थितियों के
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परिशिष्ट २ : २० आधार पर इसके आठ नाम हैं। इन नामों की सार्थकता इस प्रकार
मेघराजि-यह काले मेघ के समान कृष्ण वर्ण वाली। मघा )
है-छठी और सातवीं नरक की भांति सघन अंधकारमय । माघवती वातपरिघ-वायु के लिए अर्गला के समान । इसमें से वायु भी प्रवेश
नहीं कर सकती। वातपरिक्षोभ-प्रवेश न देने के कारण वायु को क्षुब्ध करने वाली। देवपरिध-देवताओं के लिए अर्गला के समान ।
देवपरिक्षोभ-देवताओं के क्षोभ का हेतु । कमल (कमल)
देखें-'उप्पल'। कम्म (कर्मन्)
कर्म आत्मा को मलिन करते हैं । इस आधार पर कर्म के कुछ नाम मलिनता के वाचक हैं जैसे-पणग, पंक, मइल्ल, कलुष, मल इत्यादि । कर्म दुःख परम्परा का मूल है अतः कारण में कार्य का उपचार कर खुह, असात, क्लेश, दुप्पक्ख आदि शब्द कर्म के वाचक हैं। संपराय का अर्थ है--संसार । कर्म संसार का कारण है। इसे प्रकम्पित किया जाता है, इसलिए धुत्त भी इसका पर्याय है। मइल्ल, वोण्ण आदि शब्द इसी
अर्थ में देशी हैं। करोडक (दे)
करोडग आदि शब्द विभिन्न प्रकार के छोटे-बड़े कटोरे के वाचक हैं । जैसे-गोल, चपटा, चतुष्कोण कटोरा इत्यादि । कसाय (कषाय) - कषाय का अर्थ है-आत्मा का रागद्वेषात्मक उत्ताप, परिणति ।।
भाव और पर्याय भी आत्म-परिणाम के वाचक हैं । कसिण (कृत्स्न)
'कसिण' आदि चारों शब्द परिपूर्णता के द्योतक हैं१. भटी १२६१ ।
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海口罩 परिशिष्ट २
१. कृत्स्न - सभी दृष्टियों से पूर्ण । २. प्रतिपूर्ण - आत्म-स्वरूप से परिपूर्ण ।
३. निरवशेष – स्व स्वभाव से अन्यून |
४. एकग्रहणगृहीत -- एक शब्द से अभिधेय ।'
काण (दे)
काने व्यक्ति के लिए प्रयुक्त ये तीनों शब्द देशी हैं ।
काय ( काय )
'काय' शब्द के पर्याय में तेरह शब्दों का उल्लेख है । काय का अर्थ है शरीर । शरीर की विभिन्न अवस्थाओं के आधार पर ये पर्याय शब्द बने हैं । जैसे—शरीर पुष्ट होता है इसलिए काय, उपचय, संघात, उच्छ्रय, समुच्छ्रय, देह आदि शब्द इसके पर्याय हैं । यह जीर्ण-शीर्ण होता है, इसलिए शरीर कहलाता है । शरीर प्राण ग्रहण करता है इसलिए प्राणु तथा धोंकनी की तरह श्वास लेता है इसलिए भस्र ( भस्त्रा ) कहलाता है। बुंदी आदि शब्द इसी अर्थ में देशी हैं ।
-काल (काल)
काल, अद्धा और समय- - ये तीनों शब्द पारिभाषिक दृष्टि से भिन्नार्थवाची हैं | समय काल का ही एक सूक्ष्मतम भेद है । व्यवहारिक नय से तीनों शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं । अद्धा शब्द इसी अर्थ में देशी है ।
काहापण ( कार्षापण )
'काहापण' शब्द के पर्याय में चार शब्दों का उल्लेख है । कार्षापण भारत वर्ष का अत्यधिक प्रचलित सिक्का था । मनुस्मृति में इसे पुराण भी कहा है | चांदी के कार्षापण या पुराण का वजन ३२ रत्ती था । खत्तपक ( क्षत्रपक) राजाओं का प्रसिद्ध सिक्का होता था । '
कित्ति (कीर्ति)
कीर्ति आदि शब्द प्रशंसा के अर्थ में एकार्थक हैं । उनका अर्थ१. भटी प १४६ : एकार्थाः वैते शब्दाः ।
२. मनु ८ / १३५-६३६ ।
३. अंवि प्र पृ १३ ।
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परिशिष्ठ २ : ३०७ भेद इस प्रकार है१. कीत्ति-दूसरों के द्वारा गुणकीर्तन, दान, पुण्य आदि से होने वाली
प्रसिद्धि । २. वर्ण-लोकव्यापी यश। ३. शब्द-लोक प्रसिद्धि । ४. श्लोक-ख्याति ।
दशवकालिक सूत्र के टीकाकार हरिभद्र ने क्षेत्र के आधार पर इनका अर्थ भेद किया है, जैसे- सर्व दिग्व्यापी प्रशंसा कीर्ति, एक दिग्व्यापी
प्रसिद्धि वर्ण, अर्धदिग्व्यापी प्रशंसा 'शब्द', तथा स्थानीय प्रशंसा श्लोक है।' कुंडल (कुण्डल)
'कुंडल' शब्द के पर्याय में ११ शब्दों का उल्लेख है। लगभग सभी शब्द कर्ण से प्रारम्भ हैं । बक, तलपत्तक, दक्खाणक, मत्थग आदि शब्द आज अप्रचलित हैं। कुछ शब्दों का आशय इस प्रकार है१. कर्णकोपक-भारी होने से कान को लम्बा करने वाला कुंडल । २. कर्णपीड-कान को पीड़ा पहुंचाने वाला। ३. कर्णपूर-पूरे कान को ढंकने वाला। ४. कर्णकीलक-कान में पहनी जाने वाली बाली ।
५. कर्णलोटक-कान के नीचे लटकने वाले लम्बे झूमके । कुल (कुल) .. देखें-'संघ'। केज्जूर (केयूर)
'केज्जूर' शब्द के पर्याय में ७ शब्दों का उल्लेख है। बाजूबंध के अर्थ में इन शब्दों का प्रयोग हुआ है। लेकिन इनमें आकृतिगत भिन्नता अवश्य है । 'तलभ' कंदूग, परिहेरग आदि शब्द इसी अर्थ में
देशी हैं। १. दसहाटी पृ ४७१।
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३०६ : परिशिष्ट २ केवल (केवल)
- यहां 'केवल' शब्द केवलज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त है । इस ज्ञान में सतत उपयोग रहता है इसलिए इसे अनिवारितव्यापार व अविरहितोपयोग कहते हैं । यह अपने आप में परिपूर्ण है इसलिए एक तथा इसका कभी अंत नहीं होता अतः अनन्त है । विकल्पों से रहित होने से अविकल्पित तथा मोक्ष प्राप्त कराने का साधन होने से नैर्यात्रिक आदि इसके
पर्याय नाम हैं। कोह (क्रोध)
क्रोध शब्द के प्रसंग में दस पर्याय शब्दों का उल्लेख भगवती सूत्र में हुआ है । कलह से विवाद तक के शब्द क्रोध के कार्य हैं। लेकिन कारण में कार्य का उपचार करके इनको टीकाकार ने एकार्थक माना
१. क्रोध- सामान्य अवस्था । २. कोप-क्रोध आने पर स्वभाव से चलित होना। ३. रोष-क्रोध की परम्परा, लम्बे समय तक क्रोध का अनुबन्ध मन में रखना। ४. दोष-स्वयं को अथवा दूसरों को किसी घटना के लिए दोषी ठह
राना अथवा अप्रीति मात्र द्वेष । ५. अक्षमा-दूसरों के अपराध को सहन न करना। ६. संज्वलन-क्रोध से निरन्तर मन ही मन जलते रहना । ७. कलह-जोर जोर से शब्द करते हुए परस्पर अनुचित शब्द बोलना। ८. चांडिक्य-रौद्र रूप धारण करना। जैसे-नसों का फड़कना, आंख __ व मुंह का लाल होना आदि ।
६. भंडण-लकड़ी आदि से लड़ना। १०. विवाद-परस्पर एक दूसरे के लिए निरन्तर आक्षेपात्मक शब्द
बोलना ।'
दोष तक क्रोध मानसिक रूप में रहता है। कलह तक वाचिक तथा १. भटी प १०५१ : क्रोधैकार्था वैते शब्दाः । २. वही १०५१।
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चांडिक्य से विवाद तक के शब्दों में क्रोध शारीरिक स्तर पर उतरने लगता है ।
पाली साहित्य में आघात, परिघात, पटिघ, पटिविरोध, कोप, पकोप, सम्पकोप, दोस, पदोस, चित्तस्स व्यापत्ति, मनोपदोस, कोध, कुज्झना, कुज्झितत्त, दुस्सना, दुस्सितत्त, विरोध, पटिविरोध, चण्डिक्क, असुरोप, आदि शब्द क्रोध के वाचक माने हैं।'
२. अभिनिर्वृत- सभी तरह से प्रशान्त । ३. दान्त - इन्द्रिय-संयम करने वाला ।
खंत ( क्षान्त )
जो विषय और कषायों से शान्त रहता है, वह क्षान्त कहलाता है । यहां ये पांचों शब्द इसी भावना के द्योतक हैं
१. क्षान्त - क्रोध- निग्रह करने वाला ।
४. जितेन्द्रिय - विषयों में अनासक्त ।
५. वीत गुद्धि - जो आसक्तियों से दूर है ।
परिशिष्ट २
खद्ध (दे)
: ३०६
ये पांचों शब्द भोजन के प्रसंग में प्रयुक्त हैं। शीघ्रता के अर्थ में ये सभी एकार्थक हैं । इनका अर्थबोध इस प्रकार है'
खद्ध - जल्दी जल्दी भोजन करना ।
वेगित - ग्रास को शीघ्रता से निगलना ।
त्वरित -- कवल को शीघ्रता से मुंह में डालना ।
चपल - शरीर को हिलाते हुए भोजन करना । साहस - बिना विमर्श किये भोजन करना । खलुंक (दे)
१.
पृ २७१ ।
२. प्रटी प्र १२६ ।
दुष्ट, वक्र आदि के अर्थ में 'खलुंक' शब्द का प्रयोग होता है । जब यह पशु या मनुष्य के विशेषण के रुप में प्रयुक्त होता है तब इसका अर्थ होता है— दुष्ट मनुष्य या पशु, अविनीत मनुष्य या पशु और जब यह
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३१० । परिशिष्ट २
लता, गुल्म, वृक्ष आदि के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है, तब इसका अर्थ वक्र लता या वृक्ष, ठूठ, गांठों वाली लकड़ी या वृक्ष होता है।
देखें-'गंडि'। खिज्जणिया (खेदनिका),
खिज्जणिया' आदि तीनों शब्द प्रताड़ना की ही विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं। जैसेखेदनिका-तिरस्कृत करना। रुंटणिया-रुलाना। यह देशी शब्द है ।
उपलम्भना-उपालम्भ देना, बुरा भला कहना। खीण (क्षीण)
जैन आगामों में पल्योपम को उपमा से समझाया गया है। पल्य/ कोठे के खाली होने के प्रसंग में क्षीण आदि शब्दों का उल्लेख हुआ है। हरिभद्र ने क्षीण, नीरज, निर्मल, निष्ठित आदि सभी शब्दों को एकार्थक
माना है। खोडभंग (दे)
खोडभंग आदि तीनों शब्द देशी हैं। राजकुल के लिए जो स्वर्णमुद्राएं या द्रव्य कर के रूप में देय होता है, उसे खोड कहा जाता है। वह देय द्रव्य व देना खोडभंग है। राजाओं के युग में 'वेढ' (बेगार) देने की परम्परा थी। वह प्रत्येक परिवार के लिए अनिवार्य देनी होती थी। इसी प्रकार राजा के वीर पुरुषों को भोजन आदि देना भी अनिवार्य
माना जाता था। ये तीनों शब्द इसी के द्योतक हैं।' खोरक (दे)
यहां संगृहीत सारे शब्द विभिन्न आकृति वाले कटोरे-खप्पर के द्योतक हैं । दशवकालिक की जिनदासकृत चूणि के एक कथानक के प्रसंग १. उटि पृ १६६। २. अनुद्वाहाटी पृ८५ : एकाथिकानि वैतानि पदानि । ३. निचूभा ४ पृ २८० : खोडं णाम जं रायकुलस्स हिरण्णादि दव्वं दायव्वं
वेट्टिकरणं परं परिणयणं चोरभडादियाण य चोल्लगादिप्पदाणं तस्स मंगो खोडभंगो।
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परिशिष्ट २ । १६ में 'खोरय' (खोरक) शब्द का प्रयोग हुमा है। वह इस प्रकार हैएगम्मि नगरे एगो परिव्वायओ सोवण्णेण खोरएण गहिएणं हिंडति-एक नगर में एक परिव्राजक स्वर्णमय खोरक को लेकर घूम रहा था। यहां
खोरक का अर्थ कटोरा या खप्पर ही होना चाहिए। गंडि (गण्डि)
अविनीत बैल के अर्थ में ये तीनों शब्द प्रयुक्त हैं। गलि शब्द गडि से बना प्रतीत होता है। जो हांकने पर उल्टे मार्ग से जाता है और उछलता कूदता है वह गंडि है।' जो केवल खाता है, न भार ढोता है, न चलता है, वह गलि-दुष्ट बैल होता है । 'मराली' शब्द इसी अर्थ में
देशी है। गंडपक (दे)
'गंडूपक' शब्द के पर्याय में ८ शब्दों का उल्लेख है । ये सभी शब्द पैरों के विविध आभूषणों के बोधक हैं। गड्डिक (दे)
____ भाग्यशाली व्यक्ति के अर्थ में 'गड्डिक' शब्द के पर्याय में चार शब्दों का उल्लेख है। आढ्यक और सुभग ये दोनों शब्द इस अर्थ को स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हैं । 'गड्डिक' और 'पोट्टह'-दोनों शब्द इसी अर्थ में देशी है । ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में जिसके पास गाड़ी होती थी वह भाग्यशाली माना जाता था। 'गड्डिक' शब्द उसी अर्थ का संवाहक प्रतीत होता है।
'पोट' शब्द पेट के अर्थ में देशी है । संभव है जिसे पेट भर भोजन प्राप्त होता था, वह भाग्यशाली होता था। 'पोट्टह' शब्द संभवतः इसी अर्थ की सूचना देता है। १. दशजिचू पृ५५। २. आप्टे पृ६४३ : गुणानामेव दौरात्म्याधुरि धुर्यो नियुज्यते।
असंजातकिणस्कंधः सुखं स्वपिति गौर्गडिः। ३. उशाटी प ४९ : गच्छति प्रेरितः प्रतिपथादिना डीयते च कुर्वमानो
विहायोगमनमनेनेति गण्डिः। ४. वही प ४६ : गिलत्येव केवलं न तु वहति गच्छति वेति गलि।।
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= परिशिष्ट २
व१र
मम ( गण )
गण आदि शब्द भिन्न- २ वर्गों के समूह के द्योतक हैं । कुछ शब्दों
के उदाहरण इस प्रकार है- .
गण - मल्ल आदि गण-समूह |
काय - पृथ्वीकाय आदि ।
स्कन्ध - परमाणुओं का समूह ।
संघात - तीर्थ यात्रा के लिए प्रस्थित व्यक्तियों का समूह । आकुल- राजकुल के आंगन में सम्मिलित जन-समूह |
इस प्रकार ये सभी शब्द समूह के स्पष्ट वाचक हैं ।" गहण ( गहन )
गहन, वन, अरण्य और अटवी - इन चारों शब्दों को कोशकारों एकार्थक माना है । लेकिन क्षेत्र, अवस्था व अवस्थिति से इनका अर्थ-भेद ज्ञातव्य है -
गहन - वह वन जो अत्यन्त सघन हो तथा जिसमें प्रवेश पाना अत्यन्त दुष्कर हो ।
वन - नगर से दूर स्थित तथा जहां एक जाति के वृक्ष हों ।
अरण्य - वैसा जंगल जहां तापस आदि रहते हैं तथा उपासक अपने अंतिम वय में वहां जाकर शेष जीवन व्यतीत करता है ।' अटवी - वह जंगल जहां शिकारी शिकार की खोज में घूमते हैं ।' गुण (गुण)
गुण और पर्याय दोनों द्रव्य में रहते हैं । जो धर्म द्रव्य का सहभाव होता है उसे गुण और जो धर्म क्रमभावी - बदलता रहता है उसे पर्याय कहते हैं । एक दृष्टि से गुण भी पर्याय ही है ।
गुरुक (गुरुक)
प्रायश्चित्त के दो प्रकार हैं— उद्घातिक और अनुद्घातिक ।
१. अनुद्वामटी प ३८-३६ : पर्यायवाचका ध्वनयः ।
२. आप्टे, पृ २१४ : अयंते गम्यते शेषे वयसि इति अरण्यम् । ३. आप्टे पृ ३६ : अन्ति... मृगयाविहाराद्यर्थे वा यत्र ।
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परिशिष्ट २ ३१३
उद्घातिक लघु प्रायश्चित्त है और अनुद्घातिक गुरु प्रायश्चित्त है। मास गुरुक, चतुर्गुरुक आदि अनुद्घातिक प्रायश्चित्त होते हैं। इसके तीन पर्याय नाम हैं ।
१. गुरुक - यह लघु प्रायश्चित्त की अपेक्षा गुरु होता है, बड़ा होता है । - २. अनुद्घातिक — इसको वहन करना ही होता है, इसका उद्घात नहीं होता ।
३. कालक - काल की अपेक्षा से उद्घातिक सान्तर है और अनुद्घातिक निरंतर होता है । इसलिए इसे 'कालक' कहा गया है ।
गोणस (गोनस)
'गोणस' आदि शब्द सर्प की विभिन्न जातियों के वाचक हैं । उनकी विभिन्न आकृतियों के आधार पर ये शब्द प्रचलित हुए हैं। जैसे— १. गोनस - गाय जैसी नासिका वाला सर्प ।
२. मंडली - मण्डलाकृति वाला सर्प ।
३. दर्वीकर - प्रहार आदि के लिए फण का प्रयोग करने वाला सर्प । घट (घट)
घट, कुट, कुम्भ, आदि शब्दों को कोशकारों ने एकार्थक माना है, लेकिन समभिरूढ नय की दृष्टि से व्युत्पत्ति कृत भेद यह है ' -
घट -- जो चेष्टा द्वारा घड़ा जाता है ।
कुट - जो टुकड़े-टुकड़े हो जाता है, अथवा जो विभिन्न आकारों में मोड़ा जाता है । *
कुम्भ - जो कु / पृथ्वी
पर सुशोभित होता है । अथवा जिसे पृथ्वी पर
स्थित कर भरा जाता है ।"
कलश--बड़े पेट वाला घड़ा ।
देखें - 'अरंजर' |
१. बुकटी पृ १३१०-११ ।
२. सूटो २ प ४२७ : पर्यायाणां नानार्थतया समभिरोहणात् 'समभिरूढो, नहीं घटादिपर्यायाणामेकार्थतामिच्छति तथाहि घटनाद् घट
.....
३. अनुद्वामटी प १२५ ।
४. वही प १२५ : कौ भातीति कुम्भः ।
५. नंटि पृ १६० ।
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३१४ : परिशिष्ट २ घट्ट (धृष्ट)
'घट्ट' आदि शब्द परिकर्म के विभिन्न प्रकार हैं। इसका अर्थबोध इस प्रकार है१. घृष्ट-गोबर आदि से लीपना। २. मृष्ट-खड़िया से पोतना । ३. नीरज-रज रहित करना । ४. संमृष्ट-ऊबड़-खाबड़ भूमि को समान करना ।
५. संप्रधूपित-दुर्गन्ध आदि दूर करने के लिए धूप खेना। . घाय (घात)
इसके अन्तर्गत गृहीत सभी शब्द मारने की विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं। १. घात-चोट पहुंचाना। २. वध-लकड़ी आदि से मारना ।
३. उच्छादन-निर्मूल नाश । चाउम्मासित (चातुर्मासिक)
सामान्यतः चतुर्मास चार मास का होता है अतः उसे चातुर्मासिक कहा जाता है। प्राचीन काल में साल का प्रारम्भ चातुर्मास से होता
था अतः वर्षावास का एक नाम सांवत्सरिक भी है। चंडाल (चण्डाल)
प्रस्तुत शब्द कार्य के आधार पर विभाजित चंडाल की विभिन्न जातियों के द्योतक हैंहरिकेश-चण्डाल की जाति । चाण्डाल–फांसी और शूली देने के लिए नियुक्त । श्वपाक-कुत्ते का मांस पकाकर खाने वाला। मातंग-निषिद्ध कार्य करने वाला। बाहिर-गांव के प्रान्तभाग में रहने वाला। पाण-चंडाल के अर्थ में देशी शब्द ।
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परिशिष्ट २ । ३१५
"श्वानधन-कुत्तों को पालने वाला। मृताशा-मृत व्यक्तियों से श्मशान घाट पर प्राप्त होने वाली वस्तुओं
पर जीने वाला। श्मशानवृत्ति-श्मशानघाट पर कार्य करने वाला। नीच-अन्यान्य नीच कार्य करने वाला। ___इस प्रकार कार्यगत विभिन्नता होने पर भी जातिगत एकता के
आधार पर सभी एकार्थक हैं।' चालित्तए (चालयितुम्)
एक प्रकार से ये सारे शब्द मूलस्थान से च्युत करने की विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं। इनका अर्थभेद इस प्रकार हैचालित-स्वीकृत व्रत के प्रति अन्यथा भाव पैदा करना। क्षुभित—कृत संकल्प के प्रति संशय पैदा करना। खंडित-व्रत को आंशिक रूप से खंडित करना। भंजित-व्रत को सम्पूर्ण रूप से तोड़ देना।
विपरिणामित-संकल्प के विपरीत अध्यवसाय करना। 'चित्त (चित्त)
चित्त, मन और विज्ञान-ये तीनों शब्द सामान्य रूप से पर्यायवाची हैं, लेकिन इनमें कुछ अर्थ-भेद भी हैचित्त-चेतना का अंश । मन-मनोवर्गणा के पुद्गलों से उपरंजित पौद्गलिक द्रव्य ।' विज्ञान-विवेक चेतना या विशिष्ट चेतना।
बौद्ध साहित्य में भी चित्त शब्द के पर्याय में चित्त, मन, मानस, हदय, पण्डर, मनायतन, मनिन्द्रिय, विज्ञाण आदि शब्दों का उल्लेख हुआ है।' १. उशाटी प३२४ । २. (क) अनुद्वाचू पृ १३ : चित्त इत्यात्मा।
(ख) वही, पृ १३ : तदेव मनोद्रव्योपरञ्जितं मनः। ३. धसं ३६ ।
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३१६ । परिशिष्ट २ चेयण्ण (चैतन्य)
जैन धर्म-परम्परा में यह मान्यता है कि सभी जीवों में अक्षर (चेतना) का अनन्तवां भाग नित्य उद्घाटित रहता है। यह जीवत्व का नियामक तत्त्व है। यदि यह न हो तो जीव और अजीव में कोई अन्तर नहीं रह पाता। प्रस्तुत प्रसंग में अक्षर का अर्थ है-चैतन्य । उपयोग
चैतन्य की प्रवृत्ति है । इस प्रकार ये तीनों शब्द एकार्थक हैं।' छज्जिय (दे)
छज्जिय आदि तीनों शब्द टोकरी के अर्थ में प्रयुक्त देशी शब्द हैं । आजकल प्रसिद्ध 'छाबड़ी' शब्द छज्जिय का ही अपभ्रंश लगता है। छन्द (छन्द)
छन्द, वेद और आगम भिन्नार्थवाची होने पर भी भावार्थ में एकार्थक हैं। धर्मशास्त्र के छः अंग हैं, उनमें छंद का चौथा स्थान है। जिससे धर्म जाना जाता है वह वेद है तथा जो आप्त पुरुषों से प्राप्त होता है वह आगम है। इस प्रकार तीनों ही शब्द आगम/धर्मशास्त्र के
बोधक हैं। छिद्द (छिद्र)
छिद्र का सामान्य अर्थ है-छेद, विवर । छिद्र का एक अर्थ अवसर भी होता है। छिद्रान्वेषी या घात करने वाला व्यक्ति अनेक प्रकार से छिद्रों (अवसरों) की अन्वेषणा करता है। छिद्र आदि शब्द उसी के द्योतक हैंछिद्र-अकेलापन । अन्तर-अवसर। विरह-एकान्त, विजनस्थान ।
उपासकदशा ८/१६ में रेवती के प्रसंग में ये तीनों शब्द व्यवहृत हैं । रेवती अपनी सौतों की घात के लिए अन्तर्, छिद्र और विरह की
अन्वेषणा करती है। ये तीनों शब्द 'अवसर' के वाचक हैं। छेय (छेक)
कुशल व्यक्ति के लिए यहां छेक आदि शब्दों का उल्लेख हुआ है ।। १. दश जिचू पृ ४६ ।
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परिशिष्ट २::.३१० भिन्न-भिन्न क्षेत्र की कुशलता की दृष्टि से सभी शब्द विमर्शनीय हैं। जैसे-
. १. छेक-७२ कलाओं में पंडित । २. दक्ष-शीघ्र कार्य संपादित करने वाला। ३. प्रष्ठ-वाग्मी, कुशल वक्ता। ४. कुशल-सभी क्रियाओं का सम्यक् ज्ञाता । ५. मेधावी-आपस में अविरोधी तथा पूर्वापर का अनुसंधाता।
६. निपुण-शिल्प आदि क्रियाओं में कुशल ।' जंबू (जम्बू)
जम्बूद्वीप के नामकरण का एक आधार है-जम्बूवृक्ष । इस वृक्ष के बारह पर्यायवाची मिलते हैं। उनकी अभिधा एक है, किन्तु व्यञ्जना से उनकी पर्यायगत भिन्नता भी है१. सुदर्शन-आंखों के लिए मनोहारी । २. अमोघ–फलवान । ३. सुप्रबुद्ध-सदा पुष्पित व फलित । ४. यशोधर-जम्बूद्वीप के नाम का आधारभूत वृक्ष होने के कारण
यशस्वी। ५. सुभद्र-सदा कल्याणकारी। ६. विशाल-विस्तीर्ण । ७. सुजात-शुद्ध उत्पत्ति से युक्त । ८. सुमन अति रमणीय होने के कारण मन को प्रसन्न करने वाला। ६. विदेहजंबू-स्थानगत नाम । १०. सौमनस्य-मन को भाने वाला। ११. नियत-शाश्वत रहने वाला। १२. नित्यमंडित-सदा अलंकृत दीखने वाला।' १. राजटी पु ६३ । २. जीवटी प २६६-३००।
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१८ : परिशिष्ट २ अणसंमद (जनसम्म)
__ये सभी शब्द विभिन्न प्रकार के जन समुदाय और उससे होने वाले कोलाहल के प्रतीक हैं । जनव्यूह, जनसंमर्द, जनोमि, जनोत्कलिका आदि शब्द सामान्यतः जनसमुदाय को अभिव्यक्त करते हैं तथा भिन्नभिन्न स्थानों से आए लोगों का एक स्थान पर मिलन जन-सन्निपात है। कोलाहल के आधार पर जनसमुदाय का बोध होता है, इसलिए जनबोल
व जनकलकल भी इसी के अन्तर्गत पर्याय शब्दों में लिए गए हैं। जण्ण (यज्ञ)
'जण्ण' आदि तीनों शब्द विभिन्न प्रकार के उत्सवों के वाचक हैं। इनका अर्थभेद इस प्रकार हैयज्ञ-नागादि की पूजा का उत्सव । क्षण-जिस उत्सव में अनेक लोगों को भोजन कराया जाता है तथा
दान किया जाता है। उत्सव-इन्द्र, कार्तिकेय आदि का महोत्सव । जल्ल (दे)
ये तीनो शब्द मैल के लिए प्रयुक्त होने वाले देश्य शब्द हैं । । जल्ल-जो आकर पसीने के साथ चिपक जाता है।
मल्ल-स्वल्प प्रयत्न से दूर किया जाने वाला मैल ।'
कमढ-चिकना मैल । जवइत्तए (यापयितुम्)
जवइत्तए और लाढेत्तए-दोनों एकार्थक हैं। लाढेत्तए शब्द । 'लाढ' शब्द से बना प्रतीत होता है। भगवान् महावीर ने लाढ देश में विहार कर अनेक कष्ट सहे थे, अतः आगे चलकर यह शब्द कष्ट-सहने वालों के लिए श्लाघा-सूचक बन गया।' ____ उत्तराध्ययन की बृहद्वृत्ति में लाढे का अर्थ सत् अनुष्ठान से प्रधान किया है।' १. राजटी पृ ३१ २. उटि पृ १८। ३. उशाटी १४१४॥
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परिशिष्ट २ । ३१६ नस (यशस्)
यश का सामान्य अर्थ है-कीति । वर्ण का तात्पर्य है-प्रशंसा तथा संयम का अर्थ है नियंत्रण । व्यवहार टीका में भगवती सूत्र (४१/१६) में आये आयजस का अर्थ आत्मसंयम किया गया है । तथा यश, संयम और वर्ण को एकार्थक माना है।' हरिभद्र ने भी यश शब्द
का अर्थ संयम किया है।' जावंताव (यावत्तावत्)
स्थानांग सूत्र में दस प्रकार के संख्यान/गणित का वर्णन है। इसमें जावंताव (यावततावत) छठा संख्यान है। गुणकार इसका पर्याय नाम है । पहले जो संख्या सोची जाती है, उसे गच्छ कहते हैं। इच्छानुसार गुणन करने वाली संख्या को वाञ्छा या इष्ट संख्या कहते हैं। गच्छ संख्या को इष्ट संख्या से गुणन करते हैं। उसमें फिर इष्ट संख्या मिलाते हैं । उस संख्या को पुनः गच्छ से गुणा करते हैं। तदन्तर गुणनफल में इष्ट के दुगुने का भाग देने पर गच्छ का योग आता है। इस प्रक्रिया को यावत्तावत् कहते हैं। उदाहरणार्थ
कल्पना करें कि गच्छ १६ है, इसको इष्ट १० से गुणा किया१६४१० =१६० इसमें पुनः इष्ट १० मिलाया (१६०+१०=१७०) इसको गच्छ से गुणा किया (१७०४१६=२७२०) इसमें इष्ट की दुगुनी संख्या से भाग दिया २७२०:२०=१३६, इस वर्ग को पाटी
गणित भी कहा जाता है।' जीवत्थिकाय (जीवास्तिकाय)
जीव के अभिवचन/पर्याय २३ हैं। ये जीव की विभिन्न क्रियाओं, अवस्थाओं के आधार पर उल्लिखित हैं, जैसेविज्ञ-जो सब कुछ जानता है । वेद-जो सुख-दुःख का संवेदन करता है।
१. व्यमा ६ टो प ५६ । २. बशहाटीप १८ । यशः शब्देन संयमोऽभिधीयते । ३. स्थाटी ५४७१।
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१२० । परिपिष्ट २
चेता-कर्म पुद्गलों का चय/उपचय करने वाला। जेता-कर्म रिपु को जीतने वाला। रंगण-राग-आसक्ति से युक्त ।। हिंडुक-एक गति से दूसरी गति में जाने वाला। पुद्गल-शरीर आदि पुद्गलों का चय-अपचय करने वाला। मानव-अनादि होने से जो नया नहीं है । कर्ता-कर्मों को करने वाला। विकर्ता-कर्मों का छेदन करने वाला। जगत्-निरन्तर गतिशील। जंतु-जननशील । योनि-दूसरों को उत्पन्न करने वाला। स्वयंभू-स्वयं पैदा होने वाला। सशरीरी-शरीर के साथ रहने वाला । अंतरात्मा-जो चेतनामय है, पुद्गलमय नहीं।
इस प्रकार सभी अभिवचन जीव को परिभाषित करते हैं।'
जीव आदि के लिए देखें-'पाण' । जीवाभिगम (जीवाभिगम)
यह दशवकालिक के चतुर्थ अध्ययन का नाम है। नियुक्तिकार ने इसके सात पर्यायवाची नाम गिनाते हुए उनकी सार्थकता का प्रतिपादन किया है१. जीवाभिगम । इस अध्ययन में जीव और अजीव के लक्षणों का २. अजीवाभिगम सुन्दर निरूपण है । ३. आचार-षड्जीवनिकाय के प्रति मुनि के आचार का निरूपक ।
४. धर्मप्रज्ञप्ति-भगवान् महावीर की धर्म प्रज्ञापना का मूल । .. ५. चारित्र-धर्म-इसमें चारित्र-धर्म महाव्रतों का सांगोपांग वर्णन है ।
६. चरण-मुनि के मूल नियमों का प्रतिपादक । १. भटी पृ १४३२।
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परिशिष्ट १ : ३२॥
७. धर्म-श्रुतधर्म का सारभूत अध्ययन है।
इस प्रकार ये एकार्थक शब्द अध्ययन में प्रतिपाद्य विभिन्न विषयों का अवबोध देते हैं।
दशवकालिक के चतुर्थ अध्ययन में सूत्र और पद्य दोनों हैं। उसमें प्रथम नौ सूत्र तक जीव और अजीव का अभिगम है। दसवें से सत्रहवें सूत्र तक चारित्र धर्म के स्वीकार की पद्धति का निरूपण है। अठारहवें से तेइसवें सूत्र तक यतना का वर्णन है। पहले से ग्यारहवें श्लोक तक बन्ध और अबन्ध की प्रक्रिया का उपदेश है। बारहवें श्लोक से पच्चीसवें
श्लोक तक धर्मफल की चर्चा है। जुइ (द्युति/युति)
'जुइ' आदि शब्द व्यक्ति की समृद्धि व तेजस्विता के द्योतक हैं। ये व्यक्ति की विशिष्ट अवस्था की विभिन्न पर्यायों को अभिव्यक्त करते हुए भी एकार्थक हैं१. द्युति ।
-कांति, इष्ट पदार्थों का संयोग । २. प्रभा-यान वाहन की समृद्धि । ३. छाया-शोभा। ४. अचि–शरीर पर पहने हुए आभूषणों की दीप्ति । ५. तेज-शरीर की तेजस्विता।
६. लेश्या-शरीर का वर्ण । जोग (योग)
जीव और शरीर के साहचर्य से होने वाली प्रवृत्ति 'योग' है। यहां योग शब्द शक्ति/सामर्थ्य के अर्थ में प्रयुक्त है। इनमें कुछ शब्दों का आशय इस प्रकार हैवीर्य-मानसिक शक्ति।
स्थाम-शरीरिक सामर्थ्य ।। १. दशहाटी प १६० : एकाथिका एते शब्दाः । २. भटी प १३२ : एकार्था वैते शब्दाः ।
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३२२ : परिशिष्ट २
पराक्रम-स्वाभिमान से युक्त सामथ्र्य । सामर्थ्य क्षमता। उत्साह-मानसिक संकल्प ।
पालि में विरियारम्भ, निक्कम, परक्कम, उय्याम, वायाम, उस्साह, उस्सोलही, थाम, घिति, असिथिलपरक्कमता, अनिक्खित्तछन्दता, अनिक्खित्त धुरता, धुरसम्पग्गाह, विरिय आदि शब्द एक ही अर्थ में
प्रयुक्त हैं। इसमें अनेक शब्द प्रस्तुत एकार्थक 'जोग' के संवादी हैं। मोस (दे)
झोस का अर्थ है-वह राशि जिससे समीकरण हो जाता है । इस प्रकार समीकरण के अर्थ में यह गणित का देशी पद है । डिव (डिम्ब)
___ "डिम्ब' आदि शब्द उपद्रव के अर्थ में एकार्थक हैं१. डिम्ब-विघ्न । २. डमर-राजकुमार आदि द्वारा उत्पन्न उपद्रव । ३. कलह-वाचिक लड़ाई। ४. बोल-जोर-जोर से बोलकर लड़ना। ५. क्षार-परस्पर ईर्ष्याभाव से कलह करना।
६. वैर-शत्रुता रखना। डिप्फर (दे)
'डिप्फर' आदि शब्द बैठने व सोने के लिए काम में आने वाले आसन विशेष के नाम हैं। यद्यपि इनमें आकार-प्रत्याकार की भिन्नता है, लेकिन आसन की समानता से इनको एकार्थक माना है। इनमें कुछ विशिष्ट शब्दों का अर्थ इस प्रकार है१. डिप्फर-बैठने के आसन के लिए प्रयुक्त देशी शब्द । २. पीढफलक-पलाल अथवा बेंत से निर्मित बैठने का आसन । --
२.धसं पृ७८।
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परिशिष्ट २ : ३२३
३. सत्थिय-स्वस्तिक के आकार का आसन । ४. तलिक(म)-सोने का बिछौना । ५. मसूरक-वस्त्र या चर्म का वृत्ताकार आसन । ६. आशालक–अवष्टम्भ वाला—जिसके पीछे सहारा हो वह आसन । ७. मंचक-दो लट्ठों को बांधकर बैठने के लिए बनाया जाने वाला
आसन । गंदी (नन्दि)
प्रमोद व प्रसन्नता के अर्थ में नंदी शब्द के पर्याय प्रयुक्त हैं । कंदर्प प्रमोद का कारण है अतः कारण में कार्य का उपचार से यह नंदी
का एकार्थक है। गग (नग)
‘णग' शब्द के पर्याय में प्रयुक्त सभी शब्द सामान्यतः पर्वत के एकार्थक हैं । भगवती सूत्र में पर्वत, गिरि, डुंगर, उच्छल (उत्स्थल) भट्ठि (दे) आदि को एकार्थक मानते हुए भी इनमें भेद स्वीकार किया है, जैसेपर्वत–जहां उत्सव मनाये जाते हैं। जैसे वैजयन्त, वैभारगिरि पर्वत
आदि । गिरि–लोगों के निवास के कारण जहां कोलाहल रहता है । जैसे
गोपालगिरि, चित्रकूट आदि । डुगर-शिला समूह से निर्मित अथवा जहां चोर निवास करते हैं । उत्स्थल-रेतीला टीला जो पर्वत के आकार का प्रतीत होता है ।
भट्ठि-धूल से रहित पर्वत ।। णपुंसक (नपुंसक)
निशीथ भाष्य में नपुंसक के १६ भेद प्राप्त हैं
१. भटी पृ ३०६ : पर्वतादयोऽन्यत्रैकार्थतया रूढास्तथापीह विशेषो दृश्यः । २. भटी प ३०६-७ ॥
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३२४
: परिशिष्ट २
१. पंड
२. वातिक
३. क्लीब
४. कुंभी
५. ईर्ष्यालुक
६. शकुनि
७. तत्कर्मसेवी
णमोक्कत ( नमस्कृत)
८. पक्ष- अपक्ष
६. सौगन्धिक
१०. आसक्त
इन सबकी व्याख्या निशीथ भाष्य में प्राप्त है । प्रस्तुत कोश में 'णपु'सक' के एकार्थं नामों में अनेक नाम संवादी हैं । कुछेक शब्दों की व्याख्या इस प्रकार है—
१. चिल्लिक - (चिप्पित) जिसके जन्म से ही अंगुष्ठ व अंगुलियां चढी रहती हैं ।
२. पंडक - महिला स्वभाव वाला, मृदु वाणी वाला, सशब्द मूत्र करने वाला आदि आदि ।
३. वातिक – जिसकी जननेन्द्रिय वायु के कारण स्तब्ध रहती है ।
४. क्लीब - जो शीघ्र स्खलित हो जाता है ।
५. कुंभी - जिसकी जननेन्द्रिय सूजन से युक्त होती है ।
६. ईर्ष्यालुक - बलात् ब्रह्मचर्य का पालन करने के कारण जो नपुंसक हो जाता है ।
७. पाक्षिक - अपाक्षिक - शुक्ल या कृष्णपक्ष में जिसके मोह उदय अति
तीव्र होता है और अपाक्षिक में कम होता है । निरोध करने के कारण कालान्तर में वह नपुंसक हो जाता है |
णाण (ज्ञान)
इस प्रकार अन्यान्य शब्द भी विभिन्न प्रकार के नपुंसकों के वाचक हैं । कुछ नाम उनके स्वभाव की सूचना देते हैं और कुछ उनकी शरीरगत अवस्थाओं के द्योतक हैं ।
विशेष विवरण के लिए देखें - निभा ३५६१-३६०० ।
देखें-- ' अच्चिय' |
११. बचित १२. चिप्पित
१३, मंत्र से वेदोपहत १४. औषधि से वेदोपहत
१५. ऋषि द्वारा शप्त
१६. देव द्वारा शप्त ।
ज्ञान, संवेदन, अधिगम, चेतना और भाव — ये पांचों शब्द ज्ञान
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परिशिष्ट २ 1 ३२५
के वाचक है। जानना, संवेदन करना, सूक्ष्म अध्यवसायों का उत्पन्न होना-ये सारे ज्ञान के ही विविध पर्याय हैं। जीव का लक्षण है -ज्ञान । ज्ञान से व्यतिरिक्त जीव नहीं होता । ये सारी अवस्थाएं जीव - चेतन तत्व में ही पायी जाती हैं ।
तणावा (नौ)
कुछ
जावा शब्द के पर्याय में १४ शब्दों का उल्लेख है । शब्द विभिन्न प्रकार की नावों के वाचक हैं। जैसे - नाव, पोत, तक आदि । नाव तैरने में सहयोगी है, इसी प्रकार नाव के अतिरिक्त अन्य साधन जो तैरने में सहयोगी हैं उनको 'णावा' शब्द के पर्याय के अन्तर्गत लिया गया है । जैसे वेलु (बांस), कुंभ (घड़ा), दृति ( चमड़े की मशक ) आदि, ये सभी तैरने में सहयोगी होने से णावा के पर्याय हैं ।
safe, सालिका आदि शब्द इस अर्थ में देशी हैं ।
+ णिडालमासक ( ललाटमाशक)
'णिडालमासक' का अर्थ है - ललाट पर किया जाने वाला तिलक | सभी शब्द इसके स्पष्ट वाचक हैं। 'अवंग' शब्द संभवत: इसी अर्थ में देशी होना चाहिए ।
निम्मंसक (निर्मासक )
'निम्मंसक' शब्द के पर्याय में अनेक शब्दों का उल्लेख है । जिसका शरीर तपस्या या किसी कारण से सूख कर कांटा हो जाता है, हड्डियों का ढांचा मात्र रह जाता है वह निर्मांसक होता है । अस्थिकलेवर आदि शब्द उसी के वाचक हैं। शुष्क, निशुष्क, परिहीन, अवक्षीण आदि शब्द शरीर की उसी अवस्था के बोधक हैं ।
णिव्वाण (निर्वाण )
'णिव्वाण' शब्द के पर्याय में ५ शब्दों का उल्लेख है । टीकाकार ने इनको 'निर्वाणसुख' का एकार्थक माना है । मोक्ष का सुख बाधा रहित होता है, इसलिए अनाबाध तथा वहां कषायाग्नि शान्त हो जाती है इसलिए शीतीभूतपद भी इसका एक पर्याय है । '
१. आटी प १५०
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३२६ : परिशिष्ट २ . हिस्संकित (निःशंकित)
शंका रहित चेतना के विशेषण के रूप में इन तीनों शब्दों का उल्लेख है।
देखें-'संकित'। णिसीहिया (निषीधिका)
स्वाध्याय-भूमि प्रायः उपाश्रय से भिन्न होती थी। वृक्षमूल आदि एकान्त स्थान को स्वाध्याय के लिए चुना जाता था। वहां जनता के आवागमन का निषेध रहता था। 'निषेध' शब्द से ही नषेधिकी शब्द बना है ऐसा प्रतीत होता है। दिगम्बरों में प्रचलित 'नसिया' शब्द इसी
का वाचक है। तंडि (दे)
__ देखें-'गंडि' । तक्क (तक्र)
छाछ के अर्थ में 'तक्क' शब्द के पर्याय में तीन शब्दों का उल्लेख है । छाछ पानी की भांति पतली होती है अतः उपचार से इसका एक नाम उदग माना है। तथा भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से 'छाछ' शब्द छासि का ही बना हुआ प्रतीत होता है। छासि→छास→छाछ । खानदेश में बोली जाने वाली अहिराणी भाषा में छाछ को आज भी 'छास' कहते
तक्क (तर्क)
तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, विमर्श आदि शब्द ज्ञान की विविध पर्यायों के द्योतक हैं१. तर्क-ईहा से पहले तथा अवाय से पूर्व होने वाला ज्ञान अथवा
अन्वय-व्यतिरेक पूर्वक होने वाला बोध । २. संज्ञा-वस्तु को जानने का सम्यक् बोध । ३. प्रज्ञा--हेयोपादेय का निश्चय करने वाली बुद्धि । ४. मीमांसा-वस्तु के सूक्ष्म धर्म का पर्यालोचन करने वाली बुद्धि।
बौद्ध साहित्य में भी तक्क, वितक्क, सङ्कप्प, अप्पना, व्यप्पना आदि शब्द एक अर्थ में प्रयुक्त हैं।' १. धसं पृ १६ ।
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परिशिष्ट २ । ३२७
तक (दे)
'तट्टक' शब्द के पर्याय में 'अंगविज्जा' में बारह हुआ है । ये शब्द भिन्न- २ आकृति वाले थालों के लगभग सभी शब्द अप्रचलित हैं । संभव है ये शब्द विभिन्न प्रकार के थालों के लिए प्रयुक्त रहे मी थाल को तट्टे कहते हैं ।
तच्चित (तच्चित्त)
शब्दों का उल्लेख
वाचक हैं । आज . विभिन्न देशों में
हों । कन्नड भाषा में आज
1
तच्चित्त आदि शब्द भावक्रिया / तन्मयता के अर्थ को अभिव्यक्त करते हैं । यद्यपि चित्त, मन, लेश्या, अध्यवसाय, करण और भावना - ये सभी शब्द अलग अलग अर्थों के द्योतक हैं, लेकिन यहां सभी शब्द समस्त पद होने से तन्मयता / एकाग्रता के अर्थ में एकार्थक हैं ।'
तत्थ - तत्थ ( तत्र तत्र )
यहां तीन शब्द हैं—–तत्र-तंत्र, देशे-देशे, तस्मिन् तस्मिन् । यद्यपि इन तीनों का अर्थ भिन्न है, फिर भी विस्तार की विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक होने के कारण इन्हें एकार्थक माना है।' ये तीनों शब्द पुष्करणी में अवस्थित कमलों की व्यापकता के बोधक हैं
१. तत्र तत्र - यहां वहां वे कमल व्याप्त थे ।
२. देशे - देशे - कहीं कहीं वे अधिक व्याप्त थे ।
३. तस्मिन् तस्मिन् — उस पुष्करिणी का एक भी भाग ऐसा नही था जो कमलों से व्याप्त न हो ।
12
तमुक्काय ( तमस्काय)
अरुणवरद्वीप जम्बूद्वीप से असंख्यातवां द्वीप है । उसकी बाहरी वेदिका के अन्त से अरुणवर समुद्र में ४२ हजार योजन जाने पर एक प्रदेश ( तुल्य अवगाहन) वाली श्रेणी उठती है और वह १७२१ योजन ऊंची जाने के पश्चात् विस्तृत होती है । वह सौधर्म आदि चारों देवलोकों को घेरकर पांचवे देवलोक ( ब्रह्मलोक ) के रिष्ट नामक विमान प्रस्तट तक चली गई है । यह जलीय पदार्थ है । उसके पुद्गल अंधकारमय हैं, १. अनुद्वामटी प २७ : एकाथिकानि वा विशेषणान्येतानि प्रस्तुतोपयोगप्रकर्ष प्रतिपावनपराणि ।
२. सूटी प २७२ : अत्यादरख्यापनायैकार्थान्येवैतानि त्रीण्यपि पदानि ।
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परिशिष्ट २
इसलिए उसे तमस्काय कहा जाता है । लोक में उसके समान कोई दूसरा अंधकार नहीं है, इसलिए इसे लोकांधकार कहा जाता है । देवों का प्रकाश भी उस क्षेत्र में हतप्रभ हो जाता है, इसलिए उसे देवांधकार कहा जाता है । उसमें वायु प्रवेश नहीं पा सकती, इसलिए उसे वातपरिघ और वातपरिघक्षोभ कहा जाता है । यह देवों के लिए भी दुर्गम है, इसलिए उसे देव-आरण्य और देवव्यूह कहा जाता है ।'
३२८.
तरच्छ (तरक्ष)
'तरच्छ' आदि शब्द वर्ण, आकार आदि के आधार पर व्याघ्र की भिन्न - २ जातियों के बोधक हैं ।
तितिक्खा ( तितिक्षा)
तितिक्षा, अहिंसा और ही को नियुक्तिकार ने संयम का पर्याय माना है । तथा इसके साथ दया, संयम लज्जा, दुगुञ्छा और अछलना को भी इसी के पर्यायवाची माना है। टीकाकार ने इसकी व्याख्या में यह स्पष्ट किया है कि ये सभी शब्द नाना देश के विद्यायों को अर्थबोध कराने के लिए प्रयुक्त हैं ।'
देखें— 'दया' ।
तिरीड ( किरीट)
प्रस्तुत एकार्थक में मस्तक पर पहने जाने वाले विभिन्न आकृति के मुकुटों का उल्लेख है। कुछ शब्द विभिन्न देशों में प्रसिद्ध मुकुटों के वाचक हैं । सामान्यतः मुकुट और किरीट एकार्थक हैं लेकिन इनमें कुछ अन्तर है । जिसमें तीन शिखर हो वह किरीट तथा चार शिखर वाले को मुकुट कहते हैं ।
तिलोवलद्धीय (तिलोपलब्धिक)
'तिलोवलद्वीय' आदि तीनों शब्द तिल से निष्पन्न खाद्य पदार्थ के वाचक हैं | वर्तमान में इसे तिलपपड़ी कहा जाता है ।
तिसरा (दे)
'तिसरा ' के पर्याय में यहां नौ शब्दों का उल्लेख है । ये सारे शब्द मछली पकड़ने के जाल विशेष के लिए प्रयुक्त होने वाले देश्य शब्द हैं । आज इनकी पहचान दुर्लभ है ।
१. ठाणं पृ ५१० ।
२. उशाटी प १४४ ।
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परिशिष्ट २ । ३२९ तिसला (त्रिशला)
महावीर की माता के लिए आचारचूला में तीन पर्याय शब्दों का उल्लेख है। त्रिशला उनका सर्वप्रसिद्ध नाम है। वे विदेह-जनपद से सम्बन्धित थीं इसलिए विदेहदत्ता तथा सबका प्रिय करने से उनका एक
नाम प्रियकारिणी भी हो गया। तुलना (तुलना)
__ जिससे आत्मा तोली जाये वह तुलना है। यहां तुलना, भावना और परिकर्म को एकार्थक माना है। विशिष्ट साधक (जिनकल्पी) की सहिष्णुता की कसौटी के लिए पांच तुलाएं मान्य हैं। जब साधक उन तुलाओं में उत्तीर्ण हो जाता है तब वह विशिष्ट साधना की ओर अग्रसर होता है । वे पांच तुलाएं ये हैं-तप, सत्व, सूत्र, एकत्व और बल ।। ___तप भावना से साधक क्षुधा पर विजय पा लेता है। सत्त्व भावना से भय और निद्रा को पराजित करता है। सूत्र भावना के अभ्यास से साधक श्रुत को अपने नाम की तरह परिचित कर लेता है और सूत्र परावर्तन के द्वारा कालज्ञान कर लेता है । एकत्व भावना से वह ममत्व का मूलत: नाश कर देता है और बल भावना से शारीरिक बल, मनोबल और धृतिबल का पूर्णतः विकास कर लेता है । इस प्रकार ये
पांच भावनाएं साधक को जिनकल्प साधना के लिए सक्षम बनाती हैं।' 'पिल्लि (दे)
ये चारों शब्द भिन्न-भिन्न आकार वाली पालकी के लिए प्रयुक्त हैं। लेकिन वाहन अर्थ की अभिव्यक्ति करने के कारण ये एकार्थक हैं१. थिल्लि-दो खच्चरों से वाहित यान विशेष, दो घोड़ों की बग्घी'। २. गिल्लि-दो पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली झोलिका । ३. सिबिका-कुटाकार तथा चारों ओर से आच्छादित पालकी। प्रश्न
व्याकरण की टीका के अनुसार हजार पुरुषों द्वारा उठायी
जाने वाली पालकी सिबिका है। ४. स्यंदमानिका-पुरुषप्रमाण पालकी। १. प्रसाटी पृ १२६, १२७ । २. पास पृ ४४६ ।
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| परिशिष्ट २
३३०
थुइ (स्तुति)
स्तुति, स्तवन, वंदन, अर्चना आदि सारे शब्द गुणानुवाद के अभिव्यंजक हैं । कुछेक आचार्यों ने स्तुति और स्तव में आकारगत भेद किया है । उनके अनुसार एक श्लोक से सात श्लोक अथवा तीन श्लोक पर्यन्त जो गुणगाथा की जाती है वह 'स्तुति', और आठवें श्लोक से आगे गुणगाथा को 'स्तव' कहा जाता है। सभी व्याख्याकार इसमें एकमत नहीं हैं ।
लेकिन चूर्णिकार ने स्तुति, स्तवन आदि शब्दों को एकार्थक माना
हैं' ।
धूल (स्थूल)
मोटे व्यक्ति के लिए स्थूल शब्द के पर्याय में १५ शब्दों का उल्लेख । शरीर की स्थूलता, दीर्घता और पुष्टता के आधार पर इन शब्दों का चयन किया गया है । इन शब्दों में वहु और वरढ दोनों शब्द देशी हैं । येज्ज ( स्थैर्य ) ]
विश्वसनीय व्यक्ति के ये पांच गुण हैं। सभी समवेत रूप में एक अर्थ के अवबोधक होने से एकार्थक हैं
स्थैर्य — जो अपनी वाणी पर स्थिर रहता है ।
वैश्वासिक - जिस पर विश्वास किया जा सके । सम्मत - जिसकी बात सबके द्वारा मननीय होती है । बहुमत - लोगों के द्वारा बहुमान प्राप्त । अनुमत - सबके द्वारा समर्थित ।
पेरभूमि ( स्थविरभूमि )
स्थविर की तीन भूमिकाएं हैं जातिस्थविर, श्रुतस्थविर, पर्याय+ स्थविर । ६० वर्ष की आयु वाला जातिस्थविर, स्थानांग व समवायांग को धारण करने वाला श्रुतस्थविर तथा २० वर्ष मुनि-पर्याय पालने वाला पर्याय स्थविर कहलाता है। यहां भूमि का अर्थ है भूमिका । वह जन्म, ज्ञान और दीक्षा पर्याय से अभिव्यक्त होती है ।
१. (क) व्यभा ७।१८३ टी : एकश्लोकादिसप्तश्लोकपर्यन्ताः स्तुतिः । (ख) वही, ततः परमष्टश्लोकादिकाः स्तवाः ।
२. नंदीच पृ ४९ : अन्योन्यविषयप्रसिद्धा ह्येते एकार्थवचनाः ।
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या (दया)
संयम के अर्थ में प्रयुक्त दया के पर्याय में पांच शब्दों का उल्लेख है । दया, संयम आदि संयम के स्पष्ट वाचक हैं। दुगंछा का अर्थ हैपाप के प्रति घृणा तथा अछलना का अर्थ है-सरलता । इस प्रकार से दोनों शब्द भी संयम का अर्थबोध कराते हैं । तितिक्षा, अहिंसा और ही भी संयम के ही वाचक हैं |
देखें - ' तितिक्खा' ।
वी (दव)
दव का अर्थ है - कडछी । इसके पर्याय में चार शब्दों का उल्लेख है । इसमें 'कडच्छी' और 'कवल्ली' दोनों देशीपद हैं। आजकल व्यवहार में प्रयुक्त 'कडछी' शब्द इसी का रूपान्तरण प्रतीत होता है । 'कवल्ली' शब्द कडाही के लिए भी प्रसिद्ध है ।
दारिया (दारिका)
देखें- 'दारय' ।
परिशिष्ट २ 1 ३३१
दास (दास)
नौकरों के अनेक प्रकार रहे हैं। उनमें दास, किंकर आदि प्रमुख हैं । इन सबकी अलग- अलग पहचान है । जैसे
--
१. दास - खरीदा हुआ नौकर, घर की दासी का पुत्र ।
२. प्रेष्य-काम के लिए बाहर गांव भेजा जाने वाला ।
३. भृतक — दैनिक वेतन पर कार्य करने वाला अथवा वह नौकर जो बचपन से ही घर पर पला- पुसा हो ।
४. भागी – आय और हानि का हिस्सेदार ।.
५. किंकर - जो काम के विषय में निरन्तर पूछता रहे 'अब क्या करूं ? अब क्या करूं ?'
६. कर्मकर -- नियत काल में आदेश पालन करने वाला ।'
इस आधार पर प्रस्तुत पर्याय में प्रयुक्त सभी शब्द दास / नौकर के पर्याय के रूप में संगृहीत हैं ।
१. सूटी २ प ३३१ ।
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३३२ । परिशिष्ट २ विट्ठ (दृष्ट)
दृष्ट, श्रुत, ज्ञात आदि शब्द ज्ञान प्राप्त करने की विविध अवस्थाओं के वाचक हैं। दृष्ट पहली अवस्था है तथा उसकी अन्तिम
अवस्था है-उपधारण । आचारांग चूणि में इनको एकार्थक माना है । विट्टिवाय (दृष्टिवाद)
श्रुत के दो विभाग हैं—अंग और अंगबाह्य। अंग बारह हैं। उनमें बारहवां अंग है—दृष्टिवाद। आज यह अप्राप्त है। स्थानांग सूत्र में इसके दस नाम उल्लिखित हैं। वे सारे नाम उसमें प्रतिपादित विषयवस्तु के आधार पर दिये गये हैं। टीकाकार ने उनकी व्याख्या इस प्रकार की है१. दृष्टिवाद-समस्त दर्शनों के मत को प्रकट करने वाला तथा सभी
नयों से वस्तु-बोध कराने वाला। २. हेतुवाद-जिज्ञासाओं का सहेतुक समाधान देने वाला। ३. भूतवाद-यथार्थ तत्त्वों का व्याख्याता। ४. तत्त्ववाद-तत्त्वों का निरूपण करने वाला। ५. सम्यग्वाद-सम्यग् कथन करने वाला। ६. धर्मवाद-द्रव्य की विभिन्न पर्यायों का अथवा चारित्र धर्म की
व्याख्या करने वाला। ७. भाषाविजय (विचय)-भाषा का विवेक देने वाला । ८. पूर्वगत-चौदह पूर्वो का प्रतिपादक । ६. अनुयोगगत-प्रथमानुयोग तथा गंडिकानुयोग का प्रतिपादक । १०. सर्व प्राणभूतजीवसत्त्व सुखावह–संयम का प्रतिपादक होने से सभी
प्राणियों के लिए सुखकर । द्वितीयसमवसरण
चातुर्मास के अतिरिक्त शेष आठ मास का काल द्वितीयसमवसरण कहलाता है। जीण (दीन)
__ ये सभी शब्द दीन दुःखी व्यक्ति की विविध अवस्थाओं के वाचकः हैं। जैसे
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परिशिष्ट २ . ३३३
१. परितन्त-मानसिक व शारीरिक रूप से दुःखी। २. उत्कर्षित-दूसरों के द्वारा तिरस्कृत । ३. चिन्ताध्यानपर-आर्त्त-रौद्र ध्यान में मग्न । ४. अकृतार्थ-जिसका प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
५. शोकात-जो शोक से सदा दुःखी रहता है । दीव (दीप)
'दीव' शब्द के पर्याय में १३ शब्दों का उल्लेख है। सभी शब्द विविध प्रकार की अग्नियां तथा उसके स्थान के वाचक हैं। कुछ शब्दों का अर्थबोध इस प्रकार है१. दीपक-दीया। २. चुडली-उल्का, जलती हुई लकड़ी (दे)। ३. चुल्लक-बड़ा चूल्हा (दे)। ४. विद्य त्-बिजली, अग्नि । ५. आतप-प्रकाश (प्रकाश अग्नि से पैदा होता है अतः कारण में कार्य
के उपचार से यह 'दीव' शब्द का एकार्थक है।) ६. चुल्लि–छोटा चूल्हा (दे)।
७. फुफक-करीषाग्नि (दे)। दीविय (द्वीपिन्) . 'दीविय' आदि सभी शब्द व्याघ्र की विभिन्न जातियों के वाचक
हैं । वर्ण, आकार के आधार पर इनका भेद किया गया है। दोहसक्कुलिका (दीर्घशष्कुलिका)
'दीहसक्कुलिका' आदि शब्द दिवाली और होली आदि पर्वो के अवसर पर बनायी जाने वाली मिठाई के वाचक हैं। यह गुड़ से बनायी जाती थी। आज भी राजस्थान में इन पर्यों पर खजली बनाने का रिवाज है । मीठी खाद्य वस्तु के अर्थ में प्रज्ञापना में 'भिसकंदय' शब्द का उल्लेख है।' जो 'भिसखंटक का संवादी प्रतीत होता है। खाखट्टिका, खोरक, दीवालिका, दसीरिका, मत्थकत आदि शब्द इसी अर्थ में देशीपद हैं। १. प्रज्ञाटी प ५३३ ।
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३३४ : परिशिष्ट २ दुक्ख (दुःख)
कर्म दुःख का कारण है, अत: कारण में कार्य का उपचार कर दुःख और कर्म- इन दोनों को एकार्थक माना है।' बुक्खण (दुःखन)
पीड़ा अनेक रूपों में अभिव्यक्त होती है। यहां 'दुक्खण' आदि शब्द पीड़ा की विभिन्न भूमिक'ओं के बोधक हैं-२ दुःख-इष्ट के वियोग से उत्पन्न दुःख । जूरण-झरना, शारीरिक कमजोरी से समुद्भूत पीड़ा। शोचन-शोक व दीनता से उत्पन्न दुःख । तेपन-अश्रुविमोचन । पिट्टण-लकड़ी आदि से पीटना ।
परितापन-शारीरिक, मानसिक पीड़ा देना। बुट्ठ (दुष्ट)
दुर्बोध्य व्यक्ति के पर्याय में तीन शब्दों का उल्लेख है। इनकी अर्थ परम्परा इस प्रकार है१. दुष्ट–जो दुष्टता करता रहता है । २. मूढ-गुण-दोष के विवेक से विकल ।
३. व्युद्ग्राहित—कदाग्रही द्वारा भिड़काया हुआ । बुद्ध (दुग्ध)
दुद्ध शब्द के पर्याय में ५ शब्दों का उल्लेख है। इनमें कुछ शब्द दूध के लिए प्रयुक्त प्रसिद्ध शब्द हैं। लेकिन 'पीलु' और 'वालु' शब्द दूध के लिए प्रयुक्त देशी शब्द हैं। पीलु और वालु शब्द प्रान्तीय भाषा से आया प्रतीत होता है । कन्नड में दूध को 'हालु' कहते हैं। तमिल में दूध को 'पाल' कहते हैं, अतः पीलु और वालु शब्द संभवतः इन्ही शब्दों के
कोई रूप होने चाहिएं। दुम (द्रुम)
___ 'दुम' शब्द के प्रायः सभी पर्याय वृक्ष के स्पष्ट वाचक हैं लेकिन १. दश्रुच पृ २८ । २. भटी प २७४ ।
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- चूर्णिकार ने व्युत्पत्तिकृत भेद इस प्रकार किया है— द्रुम जो धरती और आकाश के बीच में समाता है । पादप - जो पैरों (जड़ों) से पीता है ।
रुक्ख - जो पृथ्वी से आहार ग्रहण करता है । '
विटपी - जो शाखाओं से सुशोभित होता है अग - जो गति नहीं करता ।
तरु -- जिससे नदी में तैरा जाता है ।
कुह — जो भूमि के द्वारा धारण किया जाता है ।
महीरुह — जो पृथ्वी पर उगता है ।
वच्छ - जो पुत्र की भांति स्नेह से पाला जाता है । रोपक – जिसे पृथ्वी पर रोपा जाता है । भञ्जक — जो काटा जाता है ।"
१. दुमपुष्पिका
२. आहारएषणा ३. गोचर
दुमपुफिया (द्रुमपुष्पिका ) दशवेकालिक सूत्र के वृत्तिकार हरिभद्रसूरि (वि० आठवीं शताब्दी) ने द्रुमपुष्पिका के १४ पर्याय गिनाये हैं
४. त्वक्
५. उंछ
परिशिष्ट २
६. मेष
७. जलूक
८. सर्प
६. व्रण
: ३३१
११. इषु
१२. गोलक
१०. अक्ष
द्रुमपुष्पिका - यह दशवैकालिक सूत्र का पहल' अध्ययन है | इसमें मुनि की भिक्षाचर्या सम्बन्धी सूत्र हैं । उन सूत्रों की भावना के अनुरूप इन शब्दों का चयन किया गया है ।
ये सभी शब्द भोजन की गवेषणा, ग्रहणषणा और परिभोगेषणा अर्थात् भोजन के ग्रहण और उपभोग से सम्बन्धित हैं । इसलिए इन्हें पुष्पिका शब्द के अन्तर्गत गृहीत कर लिया गया है । गोचर शब्द १. निचू २ पृ ३०६ : रुक् पृथिवी तं खातीति रुक्खो ।
२. दशअचू पृ ७, दश
पृ ११ ।
१३. पुत्रमांस १४. पूर्ति - उदक ।
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३३६ , परिशिष्ट २
माधुकरी वृत्ति का द्योतक है । मुनि गाय की तरह अनेक घरों से थोड़ाथोड़ा ले । वह त्वक की तरह असार भोजन ले । वह उंछ-अज्ञातपिण्ड ले । जो स्वामी अशुद्ध भोजन देना चाहे, उसे मृदुता से समझाए । वह सर्प की भांति एक दृष्टि वाला हो। जैसे व्रण पर बिना किसी राग द्वेष से लेप किया जाता है, वैसे ही मुनि भी बिना राग-द्वेष के भोजन करे । जैसे बाण (इषु) लक्ष्य का वेध डालता है, वैसे ही भिक्षु लक्ष्य प्राप्ति के लिए भोजन करे। जैसे लाख के गोले का निर्माण अग्नि से न अति दूर और न अति निकट रखकर ही किया जाता है वैसे ही मुनि-गृहस्थ सहवास से न अति दूर रहे और न अति निकट रहे। मुनि भोजन का अस्वाद लेते हुए निरपेक्ष भाव से 'पुत्र मांस भक्षण' की भांति खाए । मुनि संयम निर्वहण के लिए जैसा मिले वैसा खा ले।'
इन उपमाओं से मुनि की माधुकरी वृत्ति को उपमित किया जाता है। इस दृष्टि से ये दशवकालिक के प्रथम अध्ययन के नाम हैं। देव (देव)
___ 'देव' आदि शब्द देवता के स्पष्ट वाचक होने पर भी इनका निरुक्त कृत अर्थ इस प्रकार हैदेव-जो क्रीड़ा करते हैं अथवा जो दिव/आकाश में रहते हैं। अमर-जो कभी मरते नहीं हैं। (चिरकाल तक स्थायी रहने के कारण
अमर शब्द देव के लिए रुढ है)। सुर-जो अत्यन्त सुशोभित होते हैं । अथवा समुद्र-मंथन के समय
जिन्होंने सुरा का पान किया था। विबुध-जो अवधिज्ञान से विशेष जानते हैं।' देसकालण्ण (देशकालज्ञ)
'देसकालण्ण' आदि सभी शब्द साधु के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हैं । भावार्थ में एक ही व्यञ्जना होने पर भी इनका अर्थभेद इस प्रकार
देशकालज्ञ-देश और काल को जानने वाला। १. दश जिचू पृ ११-१२ : एतेहिं उवम्म कोरइ ति काउं ताणि भण्णंति
नामाणि तस्स अज्झयणस्स । २. दशजिचू पृ १५ : वीवं आगासं तंमि आगासे जे वसंति ते देवा । ३. अचि पृ १७-१८ । ४. सूचू २ पृ ३१२ एगट्टिताई वा सव्वाइं एयाई ।
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• परिशिष्ट २ : ३३
क्षेत्रज्ञ-आत्मा को जानने वाला। कुशल-हित की प्रवृत्ति और अहित की निवृत्ति में निपुण । पंडित-पाप से घृणा करने वाला। व्यक्त-प्रौढ बुद्धि वाला। मेधावी-उपायों को जानने वाला । अथवा मर्यादा तथा मेधा से सम्पन्न । अबाल-मध्यम वय वाला। मार्गज्ञ-सत् मार्ग को जानने वाला। पराक्रमज्ञ-यथार्थ स्थान को प्राप्त करने की कला जानने वाला अथवा
अपनी शक्ति को जानने वाला। दोसीण (दे)
___ 'दोसीण' बासी अन्न के लिए प्रयुक्त होने वाला देशी शब्द है । बासी अन्न वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की दृष्टि से विद्रूप हो जाता है अतः व्यापन्न, कुथित आदि सभी शब्द पर्यायाथिक नय की दृष्टि से
एकार्थक हैं। धम्मस्थिकाय (धर्मास्तिकाय)
यह लोकव्यवस्था के अन्तर्गत लोकव्यापी अजीव द्रव्य है । यह सभी प्रकार की गति और प्रकंपन का माध्यम है । प्रस्तुत प्रसंग में इसके जो अभिवचन गिनाये हैं इनमें दो अभिवचन (धर्म, धर्मास्तिकाय) स्वाभाविक हैं। शेष सारे अभिवचन नामसाम्य के कारण निर्धारित प्रतीत होते हैं । जैसे शब्दकोष में स्वर्ण और धतूरे के सहश नामों का विधान है, वैसे ही धर्म के नामसाम्य से ये अभिवचन उल्लिखित हैं। वास्तव में प्राणातिपात विरमण से कायगुप्ति तक के सारे शब्द धर्म के विभिन्न अंग हैं। धर्म शब्द की
सदृशता के कारण इन्हें धर्मास्तिकाय के पर्याय शब्द मान लिये हैं। .. इसके अतिरिक्त चारित्र धर्म के वाचक सामान्य या विशेष सभी शब्द
धर्मास्तिकाय के अभिवचन हो सकते हैं। १. सूटी ५ २७२। २. भटी प १४३१ : ततश्च धर्मशब्दसाधावस्तिकायरूपस्यापि धर्मस्य प्राणातिपातविरमणादयः पर्यायतया प्रवर्तन्त इति, ये चान्येऽपि तथा प्रकाराः चारित्रधर्माभिधायकाः सामान्यतो विशेषतो वा शब्दास्ते सर्वेऽपि धर्मास्तिकायस्याभिवचनानीति ।
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३३८ : परिशिष्ट २
धम्ममण ( धर्ममनस् )
'धम्ममण' के पर्याय के रूप में ५ शब्दों का उल्लेख है । पांचों शब्द धार्मिक चेतना से युक्त व्यक्ति के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हैं । इनका अर्थबोध इस प्रकार है
१. धर्ममन- धर्म में अनुरक्त ।
२. अविमन - अशून्य चित्त, भावक्रिया से युक्त ।
३. शुभमन - असंक्लिष्ट चित्त वाला ।
४. अविग्रहमन - विकल्प शून्य चेतना वाला ।
५. समाधिमन - रागद्वेष वाला ।
रहित अथवा उपशम प्रधान स्वस्थ मन
धम्मिय (धार्मिक)
धम्मिय शब्द के पर्याय में छह शब्दों का उल्लेख है । धर्म का अनुसरण करने वाला, उससे प्रेम करने वाला, धर्म कहने वाला, प्रतिक्षण धर्म को ही देखने वाला, धार्मिक आचरण करने वाला व्यक्ति धार्मिक ही होता है अतः ये सभी एकार्थक हैं ।
-धर्म (धर्म)
धार्मिक की प्रथम पहचान है— दृष्टि की समीचीनता । आत्मधर्म और आत्मस्वभाव ये दोनों सम्यग्दर्शन के ही वाचक हैं। यहां 'धर्म' शब्द सम्यक दर्शन के लिए प्रयुक्त है ।
धरणा ( धरणा)
ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया के चार घटक हैं-- अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । किसी भी ज्ञान की चिरकाल तक स्मृति बनाये रखना धारणा है । सामान्यतः सभी शब्द एकार्थक होते हुए भी धारण करने की अनेक अवस्थाओं के वाचक हैं'
धरणा - ज्ञात अर्थ को कुछ समय तक स्मृति में रखना ।
धारणा - विस्मृत अर्थ को पुनः स्मृत करना ।
१. टीप १११ ।
२. नंदी च पृ ३७ : सामण्णधारणं पडुच्च णियमा एगठिया, धारणत्यविकपणताए भिण्णत्था ।
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परिशिष्ट २
स्थापना -- ज्ञात अर्थ की समीक्षा कर हृदय में स्थापित करना । प्रतिष्ठा- -ज्ञात अर्थ को उसके भेद-प्रभेद पूर्वक धारण करना । कोष्ठ – सूत्र और अर्थ को चिरकाल तक धारण करना, वह विस्मृत न हो, उस रूप में धारण करना (कोठे में रखे धान की भांति उपदिष्ट अर्थ को सकल रूप में चिरकाल तक धारण करना । ) उमास्वाति ने प्रतिपत्ति, अवधारणा, अवस्थान, निश्चय, अवगम और अवबोध आदि शब्दों को धारणा के पर्याय माने हैं।' धारणववहार ( घारणाव्यवहार )
किसी गीतार्थ आचार्य ने किसी समय किसी शिष्य की अपराध शुद्धि के लिए जो प्रायश्चित्त दिया हो, उसे याद रखकर, वैसी ही परिस्थिति में उसी प्रायश्चित्त विधि का उपयोग करना 'धारणाव्यवहार है । इसके पर्याय शब्दों का आशय इस प्रकार है
१. उद्धारणा - छेदसूत्रों से उद्धृत अर्थपदों को निपुणता से जानना ।
२. विधारणा - विशिष्ट अर्थपदों को स्मृति में धारण करना ।
३. संधारणा- धारण किये हुए अर्थपदों को आत्मसात् करना ।
४. संप्रधारणा - पूर्ण रूप से अर्थपदों को धारण कर प्रायश्चित्तं का विधान करना ।
पुण्ण (दे)
३३८
'धुण्ण' शब्द पाप के अर्थ में प्रयुक्त होने वाला देशी शब्द है ।
ध्रुव ( ध्रुव)
ध्रुव आदि छहों शब्द ध्रुवता के ही बोधक हैं । उनका शब्दगत अर्थभेद इस प्रकार है
१. ध्रुव - अचल |
२. नित्य – सदा एक रूप रहने वाला ।
३. शाश्वत - प्रतिक्षण अस्तित्व में रहने वाला ।
४. अक्षय- - अविनाशी ।
१. तभा १।१५ ।
२. व्यभा १० टी प ३०२ ।
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३४०
परिशिष्ट २
५. अव्यय - एक भी आत्म प्रदेश का जिसमें व्यय नहीं होता । ६. अवस्थित - अनन्त पर्यायों की अवस्थिति । '
घुवक ( ध्रुवक)
'ध्रुवक' का अर्थ है - ध्रुव, निष्प्रकंप, शाश्वत । इसमें शिव, गुत्त ( गोत्र ) भव, अभव ये पर्याय भी हैं। इनमें शिव मोक्ष का, गोत्र संयम का, भव आत्मा का और अभव सिद्धालय का वाचक है । ये सभी शाश्वत हैं, अत: इनका समावेश यहां कर लिया गया है ।
धूत (घूत)
'धुत' और 'धूत' - ये दोनों रूप प्रचलित हैं । 'धुत' साधना की विशेष पद्धति रही है । आचारांग के छठे अध्ययन का नाम 'घुत' है । बौद्ध परंम्परा में अनेक धुतांगों की चर्चा है ।
'घूत' का अर्थ है - वह प्रक्रिया जिससे कर्मों का धुनन किया जाता है । सूत्रकृतांग के चूर्णिकार ने 'धूत (धुत )' के अनेक अर्थ किए हैं—वैराग्य, चारित्र, उपशम, संयम, ज्ञान आदि । ये सारे अर्थ साधना से संबंधित हैं ।
यूतं (घूर्त)
घूर्त शब्द के पर्याय में ६ शब्दों का उल्लेख है । सभी शब्द धूर्त / शठ के विभिन्न प्रकारों के वाचक हैं—
१. धूर्त - जो हिंसा करके ठगता है ।
२.
नैकृतिक - माया करके ठगने वाला ।
३. स्तब्ध - आश्चर्य में डालकर धोखा देने वाला ।
४. लुब्ध - लोभ दिखाकर ठगने वाला |
५. कार्पटिक - साधु के वेश में ठग ।
६. शठ - वेश बदलकर लोगों को धोखा देने वाला ।
१. भटी प ११६ 1
२. सूचू १ पृ १६२ : धुअं वैराग्यं चारित्रं उपशमो वा संजमो णाणादि वा । ३. अचि ८८ धूर्वति हिनस्ति धूर्तः ।
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नन्दि (नन्दि )
नन्दी और शास्त्र — इन दोनों शब्दों को बृहत्कल्प में एकार्थक माना है' । प्रत्यक्षतः ये दोनों शब्द भिन्न-भिन्न अर्थों के वाचक हैं | नन्दी का अर्थ है - मंगल | शास्त्र अर्थात् ग्रन्थ । ग्रन्थ / शास्त्र मंगलकर होते हैं, अतः इनको एकार्थक माना है । अथवा नन्दी सूत्र में लगभग सभी शास्त्रों का उल्लेख है, इसलिए भी इन दोनों शब्दों को एकार्थक माना जा सकता है ।
नववधू ( नववधू )
नववधू शब्द के पर्याय में तीन शब्दों का उल्लेख है । जिसने प्रसव नहीं किया है अथवा गर्भ धारण नहीं किया है, वह भी नववधू ही है । - नस्समाण ( नश्यत् )
'नस्समाण' शब्द के पर्याय में सात शब्दों का उल्लेख है । लगभग सभी शब्द समवेत रूप में नष्ट होने के अर्थ में प्रयुक्त हैं ।
-- नायय ( ज्ञातक )
देखें - 'मित्त' ।
निगमण (निर्गमन )
'निग्गमण' आदि चारों शब्द गण से बहिर्भूत होने के अर्थ में पर्याय -
वाची हैं । '
निज्जामय (निर्यामक)
परिशिष्ट २ : ३४१
नियमक - नौका चालक ।
कुक्षिधार - नौका के विभिन्न कार्यों में नियुक्त नौकर ।
गब्भेल्लय - नौका में छोटे बड़े कार्य करने वाला । (दे)
इस प्रकार ये सभी शब्द नौका संचालक के वाचक होने से एकार्थक हैं ।
निgिi ( निष्ठितार्थ)
'निट्ठियट्ठ' आदि शब्द सिद्ध अवस्था प्राप्त व्यक्तियों के लिए
१. बुकटी पृ ११ ।
२. व्यभा टीप १२४ ।
३. ज्ञाटी प १४३ ।
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३४२: परिशिष्ट २
૬૪૨
प्रयुक्त हैं। सभी शब्द उनकी विभिन्न विशेषताओं को व्यक्त करते हैं जैसे—--
निष्ठितार्थ - अपने लक्ष्य को प्राप्त ।
निरेजन - निश्चल ।
नीरज - कर्म-रज से मुक्त |
निर्मल - पवित्र ।
वितिमिर — केवल ज्ञान से आलोकित ।
विशुद्ध - कर्मों की विशुद्धि से प्रकर्ष स्थिति को प्राप्त ।
नियाग ( नियाग)
नियाग का अर्थ है -- मोक्ष । सद्धर्म मोक्ष का साधन है । अन्तिम अवस्था में साधन ही साध्य के रूप में परिणत हो जाता है, अतः ये तीनों शब्द एकार्थक हैं ।
निव्वाण (निर्वाण )
देखें – 'अणुत्तर' ।
निस्सोल ( निश्शील )
'निस्सील' आदि शब्द व्रत-संवर रहित ( असंयमी ) व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हैं। चारों शब्दों की क्षेत्र सीमा भिन्न होते हुए भी समान अर्थ को व्यक्त करते हैं
निश्शील - ब्रह्मचर्य आदि व्रत से रहित ।
निर्व्रत — अहिंसा व्रत अथवा अणुव्रतों से रहित ।
निर्गुण - क्षान्ति आदि दस श्रमण गुणों से विकल । निर्मर्याद - आचार सम्बन्धी मर्यादा से रहित ।
नील (नील )
नील के दो अर्थ हैं -- काला और नीला । यहां नील शब्द काले रंग का प्रतीक है । अंधकार और रात्रि का रंग काला है, अतः गुण के साधर्म्य से इन दोनों शब्दों को काले रंग का पर्याय माना है ।
१. औपटी पृ २१७ ।
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परिशिष्ट २ : ३४३ भय का एक बड़ा कारण है-अंधकार और कालिमा। अतः उत्रास को भी उपचार से इसका पर्याय मान लिया है । पंडिय (पंडित)
_ 'पंडिय' आदि चारों शब्द आचारांग में मुनि/ज्ञानी के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हैं। वाच्यार्थ अलग होने पर भी भावार्थ में सभी एक ही अर्थ को व्यक्त करते हैं१. पंडित--ज्ञेय को जानने वाला। २. मेधावी-मर्यादावान् तथा मेधा/बुद्धि से सुशोभित । ३. निष्ठितार्थ-अर्थ के अन्तिम छोर तक पहुंचने में समर्थ ।
४. वीर-कर्म विदारण करने में कुशल । पच्चंतिक (प्रात्यन्तिक)
प्रस्तुत एकार्थक में ग्राम के अन्तराल-बाहिर रहने वाले अनेक प्रकार के व्यक्तियों तथा जातियों का उल्लेख है। वे प्रायः नीच कर्म करने वाले होने के कारण उनकी परिगणना म्लेच्छ के अंतर्गत की गयी है। इनकी अर्थ-परम्परा इस प्रकार है१. प्रात्यन्तिक-गांव के बाह्य भाग में रहने वाले मातंग, चांडाल
आदि। २. दस्यु-आयतन-चोरों की पल्लियां । ३. म्लेच्छ-बर्बर, शबर, पुलिन्द्र आदि म्लेच्छ जातियों की वसतियां। ४. अनार्य-साढ़े पच्चीस आर्य देशों के व्यतिरिक्त देशों वाले व्यक्तियों
के निवास स्थान । ५. दुःसंज्ञाप्य-मंद बुद्धि वाले व्यक्ति । ६. दुःप्रज्ञाप्य-ऐसे व्यक्ति जिनको समझाना अत्यन्त दुष्कर होता है।
ये सारे स्थल तथा व्यक्ति म्लेच्छवत् हैं, इसलिए इन्हें म्लेच्छ के अन्तर्गत माना है। पज्जोसवण (पर्युपशमन)
इसका अर्थ है-पर्युषणा के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर १. आटी प २५२....."न तेषु म्लेच्छस्थानेषु......।
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३४ : परिशिष्ट २
घूमते रहते हैं और वर्षाकाल में चार महीनों तक एक स्थान पर अवस्थित हो जाते हैं । यह अवस्थान-काल पर्युषणा कहलाता है । इसके आठ पर्याय नाम हैं। उनका अर्थ-बोध इस प्रकार है१. पर्यायव्यवस्थापन–पर्युषणा के दिन मुनि अपनी दीक्षा पर्याय का व्यवस्थापन करता है। जैसे-मुझे प्रव्रज्या ग्रहण किये इतने वर्ष हो
गये। २. पर्युपशमन-ऋतुबद्ध काल के द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव आदि
पर्याय होते हैं। मुनि वर्षावास में इन सबका त्याग करता है और वर्षावास के योग्य पदार्थों को ग्रहण करता है। ३. परिवसना-एक स्थान पर चार मास तक वास करना । ४. पर्युषणा-ऋतुबद्ध विहार से निवृत्त होकर वर्षाकाल को अत्यन्त
निकट जानकर एक स्थान पर वास करना । ५. वर्षावास-वर्षाकाल के लिए एकत्र वास करना। ६.प्रथमसमवसरण-वर्ष का प्रथम दिन होने, अनेक मुनियों का एक साथ रहने तथा धर्म परिषद् के जुड़ने का प्रथम दिन होने से भी
इसे प्रथमसमवसरण कहते हैं। ७. स्थापना-वर्षाकाल के कल्प की स्थापना करना। ८. ज्येष्ठावग्रह-ऋतुबद्ध काल में एक स्थान पर एक मास का निवास
उत्कृष्ट काल होता है, किन्तु वर्षावास का ज्येष्ठ-बड़ा काल चार
मास का होता है। पडिसेवणा (प्रतिसेवना)
प्रतिसेवना जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ हैअतिचार का सेवन, व्रतों में दोष लगाना ।
विराधना, स्खलना, उपघात, अशोधि आदि शब्द इसके स्पष्ट वाचक हैं । शबलीकरण का तात्पर्य है-व्रतों को दोषों से चितकबरा
करना। पत्ति (पत्नी)
'पत्ति' शब्द के पर्याय में कुछ शब्द पत्नी शब्द के वाचक तथा कुछ शब्द स्त्रीवाचक हैं। पत्नी, वधू, उपवधू आदि शब्द पत्नी के बोधक हैं। स्त्री, पद्मा, अंगना, महिला, नारी, प्रिया आदि शब्द सामान्यता
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परिशिष्ट २ 1 ३४५
स्त्रियों के बोधक हैं । ईश्वरी, स्वामिनी – ये शब्द स्त्री की आढ्यता के द्योतक हैं । इसी प्रकार इष्टा, कान्ता, प्रिया आदि उसकी प्रियता की ओर संकेत करते हैं । स्त्री स्वभावतः लज्जालु होती है अतः 'विलिका' भी उसका एक पर्याय है । 'मणामा' और 'पोहट्टी' इसी अर्थ में देशी है । म (पद्म)
'पदुम' के पर्याय के अन्तर्गत १७ शब्दों का उल्लेख है । सामान्यतः एकार्थक होते हुए भी इनमें जाति एवं वर्णगत भेद है । 'सप्फ', 'तणसोल्लिक', 'कोज्जक' आदि शब्द पद्म के लिए प्रयुक्त होने वाले देशी शब्द हैं । 'इंदीवर' नील कमल का और 'पाटल' रक्त कमल का द्योतक है । देखें – 'उप्पल' |
परिगह (परिग्रह )
परिग्रह का अर्थ है -स्वीकरण । सैद्धान्तिक दृष्टि से परिग्रह का अर्थ है - मूर्च्छा, आसक्ति । लौकिक भाषा में परिग्रह से तात्पर्य है— पदार्थों का संचय | सूत्रकार ने इसके तीस नाम गिनाये हैं जिनमें परिग्रह, संचय, चय, उपचय, निधान, संभार, आकर, संकर, पिंड, संरक्षण आदि शब्द संग्रह और उपचय के वाचक हैं क्योंकि धन का ही संग्रहण, उपचय और संरक्षण किया जाता है । इस आधार पर इन सबको परिग्रह माना गया है ।
महेच्छा, प्रतिबंध, लोभात्मा, आसक्ति, अमुक्ति, तृष्णा, असंतोष आदि शब्द परिग्रह को पुष्ट करने वाली अथवा आदमी में परिग्रह बुद्धि उत्पन्न करने वाली वृत्तियां हैं, अतः कारण में कार्य के उपचार से ये शब्द परिग्रह के वाचक हैं । कुछ शब्द परिग्रह से उत्पन्न विषम स्थितियों के वाचक हैं, जैसे— परिग्रह कलह का भाजन होने से कलिकरंड कहलाता है । परिग्रही व्यक्ति हमेशा खेदखिन्न रहता है इसलिए परिग्रह का एक नाम आयास भी है । परिग्रह परिचय बढाता है अतः संस्तव, धन-धान्य का विस्तार करने से प्रविस्तार, तथा अत्यागभाव होने से परिग्रह को अवियोग भी कहते हैं । इस प्रकार ये तीस नाम परिग्रह, परिग्रह वृत्ति और परिग्रह परिणाम के द्योतक हैं ।
यवयण (प्रवचन)
वस्तु में दो धर्म होते हैं—-सामान्य और विशेष । सामान्य अभेद का
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३४६ : परिशिष्ट २
और विशेष भेद का प्रतिपादक है। टीकाकारों ने सामान्य धर्मों केआधार पर भी शब्दों को एकार्थक माना है । '
आवश्यक निर्युक्ति में सूत्र, अर्थ और प्रवचन तीनों को एकार्थक मानते हुए भी भिन्न-भिन्न रूप से इनके ५-५ एकार्थक दिये हैं ।' सूत्र व्याख्येय और अर्थं व्याख्यान होने से दोनों भिन्नार्थक हैं, किन्तु प्रवचन का अंग होने से एकार्थक भी हैं । भाष्यकार ने इसी बात को फूल HTT कली के माध्यम से समझाया है । अर्थ और अनुयोग — ये दोनों एकार्थंकशब्द हैं ।' विशेष व्याख्या के लिए देखें - विभामहेटी पृ ५०४-५०७ ।
देखें - 'सुत्त', 'अणुओग' ।
पवेइय ( प्रवेदित)
'पवेइय' आदि तीनों शब्द सम्यक् प्ररूपण के अर्थ में प्रयुक्त किये गये हैं । इनका सूक्ष्म अर्थ-भेद इस प्रकार हैप्रवेदित-अच्छी तरह ज्ञात, विविध रूप से कथित ।
-
सुआख्यात -- भली-भांति विवेचित ।
सुप्रज्ञप्त - अनुभव के आधार पर कथित । *
पव्वइय ( प्रव्रजित )
।
प्रव्रजित का अर्थ है - दीक्षित अर्थात् मुनि । जो मुनि होता है वह संयम, संवर तथा समाधि से युक्त होता ही है। मुनि का शरीर परुष, कठोर और स्निग्धता से शून्य होता है तथा मन भी स्नेह शून्य होता है अतः वह रुक्ष कहलाता है अथवा जो कर्ममल का अपनयन करता है, वह लूष या रूक्ष है । वह संसार का पार पाने के कारण तीरार्थी कहलाता है। मुनि श्रुताध्ययन के साथ तपस्या करता है इसलिए उपधानवान्, विभिन्न तपस्याओं में रत रहने के कारण तपस्वी और कर्मक्षय के लिए उद्यत रहने के कारण दुखः क्षपककहलाता है । "
१. विभामहेटी पृ ५०६ ।
२. विभा १३६६ : एगट्टियाणि तिन्नि उ पवयण सुत्तं तहेव अत्यो य । एक्केक्स्स य एत्तो नामा एगट्टिया पंच ॥
३. विभामहेटी पृ ५०६ : अर्थ: व्याख्यानमनुयोग इत्यनर्थान्तरम् ।
४. दशजिचू पृ १३२ ।
५. स्थाटी प १७४ ।
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व्यव्वाविय ( प्रव्राजित)
'पव्वाविय' आदि चारों शब्द प्रव्रज्या की उत्तरोत्तर अवस्था के
द्योतक हैं । इनका अर्थबोध इस प्रकार है— प्रव्राजित - शिष्य के रूप में स्वीकार करना । मुण्डापित - शिष्य बनाना, दीक्षित करना । सेधितव्रतों का आरोपण करना ।
शिक्षापित - सूत्र और अर्थ की वाचना देना । पाण (प्राण)
प्राण आदि शब्द जीव तत्त्व के वाचक होने पर भी इनमें जातिगत भेद है । जैसे
प्राण-द्वीन्द्रिय आदि । भूत - वनस्पति |
परिशिष्ट २ ३४७
सत्त्व - पृथ्वी, अप् आदि ।
जीव -- पञ्चेन्द्रिय प्राणी ।
प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूताश्च तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्वा उदीरिताः ॥ देखें - 'जीवत्थि काय' ।
पाणवह (प्राणवध)
प्रस्तुत प्रकरण में प्राणवध के लगभग सभी नाम गुण निष्पन्न हैं । ये सभी नाम प्राणवध की भावना के निकट तथा उसकी विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं । प्रत्यक्षतः जीवहिंसा के द्योतक न होने पर भी उसकी ओर अभिमुख करने वाली प्रवृत्तियों के वाचक होने से एकार्थंक हैं । जैसे - 'जीवितान्तकरण' 'व्युपरमण' 'उन्मूलना' 'परितापनआस्तव', निर्यापना, घातना, मारणा, उपद्दवण, विच्छेद, आरंभ, समारंभ 'कटकमर्दन' आदि शब्दों को कार्य में कारण का उपचार मानकर एकार्थक मान लिया है । प्रस्तुत नामों की सूची में तीसरा नाम है - अवीसंभ ( अविश्रम्भ) अर्थात् अविश्वास । प्राणवध में प्रवृत्त व्यक्ति जीवों के लिए अविश्वसनीय बन जाता है अतः अविश्वसनीयता भी एक दृष्टि से हिंसा ही
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३४८ । परिशिष्ट २
है । पांचवा नाम है-अकृत्य । जितने भी अकृत्य-अकरणीय कार्य हैं के हिंसा के द्योतक हैं, क्योंकि उनमें मानसिक, वाचिक या शारीरिक हिंसा रहती है । दुर्गति का कारण होने से दुर्गति प्रपात, वज्र की भांति कठोर व अधोगमन का हेतु होने से वज्ज (वज्र) नाम भी सार्थक है। इसे वर्ण्य भी कहा जाता है, क्योंकि हिंसा विवेकी व्यक्तियों के द्वारा वर्जनीय है । हिंसा गुणों की विराधक होने से 'गुणानां विराधना' कहलाती है ।
अपुण्य प्रकृतियों की वृद्धि के कारण पापकोप और उन प्रकृतियों के प्रति लोभ बढ़ाने से पापलोभ भी इसके पर्याय हैं।
प्रस्तुत प्रकरण में इसका एक नाम है-मच्चु (मृत्यु)। आचारांग में भी हिंसा को मृत्यु कहा है, क्योंकि हिंसा आयुष्य कर्म को प्रभावित करती है, अतः प्राणवध के 'आयुष्यकर्मस्य भेद' आदि नाम भी गुण
निष्पन्न हैं। पादव (पादप)
देखें-'दुम'। पामुद्दिका (पादमुद्रिका)
'अंगविज्जा' में 'पामुद्दिका' शब्द के पर्याय में पांच शब्दों का उल्लेख है । ये पांचों शब्द पैरों के आभूषण के वाचक हैं। इन शब्दों का आशय इस प्रकार है१. पादमुद्रिका-पैरों में पहने जाने वाली अंगूठी या बिछुवे । २. वर्मिका-जालीदार आभूषण । ३. खिखिणिका-चलते समय आवाज करने वाला आभूषण पायजेब
__ आदि । _____ इसी प्रकार 'पादसूचिका', 'पादघट्टिका' आदि शब्द भी पैरों के
भिन्न-भिन्न आभूषणों के नाम हैं । पाव (पाप)
'पाव' शब्द के पर्याय प्राणवध के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। तथा उपचार से रौद्र कार्य करने वाले पापी के लिए भी इन शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है। इनमें अर्थभेद होते हुए भी क्रूरता व हिंसक वृत्ति की सर्वत्र समानता है
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परिशिष्ट २ । ३४६ पाप-पाप प्रकृति के बन्धन का हेतु होने से पाप तथा पाप प्रकृति का
सेवन करने से पापी। चंड-कषाय की उत्कटता से चण्ड । रौद्र-क्रूर कार्य करने वाला। क्षुद्र-अघम व द्रोही। साहसिक-बिना विचारे कार्य करने वाला। अनार्य-जो आर्य श्रेष्ठ कर्मों से दूर है । निघृण-जिसमें पाप के प्रति घृणा नहीं है । नृशंस-दयाहीन । महाभय-जिससे प्रतिपल भय बना रहे । प्रतिभय-प्रत्येक प्राणी जिससे भयभीत रहे । बीहणक-दूसरों को भयभीत करने वाला (दे)। त्रासनक-आकस्मिक भय पैदा करने वाला जिससे शरीर व मन में
कंपन पैदा हो जाये। निरपेक्ष-दूसरों के प्रति उदासीन ।
निर्द्धर्म-श्रुत, चरित्र आदि धर्म से रहित । निष्करुण-करुणा रहित, कठोर हृदय वाला ।' पावय (पापक)
प्रस्तुत प्रसंग में संगृहीत सभी शब्द अप्रशस्तमनोविनय के वाचक
१. पापक-अशुभ चिन्तन करने वाला। २. सावद्य-गहित कार्य में प्रवृत्त । ३. सक्रिय-मानसिक संताप पैदा करने वाली क्रियाओं में प्रवृत्त । ४. सोत्क्लेश-शोक आदि से अनुगत । ५. आस्नवकर-आस्रवों से संवलित ।
६. छविकर-प्राणियों को पीड़ा पहुंचाने की प्रवृत्ति से युक्त । १. प्रटी प ५।
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३५० : परिशिष्ट २ .. ७. भूताभिशंकन-प्राणियों के लिए भयावह । पासाण (पाषाण)
'पासाण' शब्द के पर्याय में तेरह शब्दों का उल्लेख है। कुछ शब्द पत्थर के स्पष्ट वाचक हैं। मणि, वज्र आदि शब्द पत्थर के रूपान्तरण हैं । पर्वतक, गिरिक, मेरुक आदि शब्द शिलाखण्ड के वाचक हैं । मरुभूमि की कठोर मिट्टी पत्थर के समान कठोर होती हैं। उसे मरुभूतिक कहा जा सकता है। इस प्रकार सभी शब्द पाषाण के विभिन्न रूपान्तरण
पासादिय (प्रासादीय)
'पासादिय' शब्द के पर्याय के रूप में चार शब्दों का उल्लेख है। ये चारों ही अत्यधिक सुन्दरता को व्यक्त करने वाले विशेषण हैं।' जैसे१. प्रासादीय-मन को प्रसन्न करने वाला। २. दर्शनीय-चक्षु को आनन्द देने वाला। ३. अभिरूप-सदा मनोज्ञ रहने वाला।
४. प्रतिरूप-असाधारण रूप । पिट (पिण्ड)
"पिण्ड' शब्द के एकार्थक में बारह शब्दों का उल्लेख है। यद्यपि ये सभी शब्द प्रतिनियत व भिन्न-भिन्न समूहों के वाचक हैं, लेकिन सामान्य रूप से समूह अर्थ के वाचक होने से इन सभी को एकार्थक माना है
१. पिण्ड-बहुत चीजों को मिलाकर एक पिण्ड बनाना। २. निकाय- भिक्षुओं का समूह ।
३. समूह-मनुष्यों का समुदाय । १. सूटो प १८२ : चत्वारोऽप्यतिशयरमणीयत्वल्यापनार्थमुपात्ताः । २. राजटी है। ३. यद्यपि पिडादयः शब्दाः लोके प्रतिनियत एव संघात विशेष रूढाः, तथापि
सामान्यतो यद् व्युत्पत्तिनिमित्तं संघातत्वमात्रलक्षणं तत् सर्वेषामप्यविशिष्टमिति कृत्वा सामान्यतः सर्वेऽपि पिण्डादयः शब्दा एकाथिका उक्ताः न कश्चिद्दोषः।
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४. समवाय-- वणिकों का समूह ।
५. समवसरण - तीर्थंकरों की परिषद्, अनेक वादियों का मिलन -स्थल |
६. निचय — सूअर आदि पशुओं का संघात ।
७. उपचय - पूर्व समूह में वृद्धि होना ।
८. चय
- ईटों की रचना, दीवार आदि बनाना ।
परिशिष्ट २ 3 ३५१
६. युग्म - दो पदार्थों का मिलना ।
१०. राशि - ढेर |
* पितवण्ण ( पीतवर्ण)
'पितवण्ण' और पीतक ये दोनों शब्द पीले रंग के स्पष्ट पर्याय हैं । पद्मकेशर व तिगिच्छ ( पराग ) का रंग पीला होता है अतः इनको भी पीतवर्ण का पर्याय माना है ।
पितामह (पितामह)
'पितामह' शब्द के पर्याय में चार शब्दों का उल्लेख है । ये सारे शब्द ब्रह्मा के द्योतक हैं । इनका आशय इस प्रकार है
ब्रह्म - जिसमें सारी सृष्टि वृद्धिगत होती है । '
स्वयंभू -- जो स्वयं पैदा होता है ।
प्रजापति - समस्त सृष्टि का स्वामी तथा उसका पालनकर्ता ।
पीणणिज्ज ( प्रीणनीय )
आहार का एक कार्य है— शरीर को पुष्ट करना । विभिन्न प्रकार के आहार शरीर के रस, धातु, मांस आदि को पुष्ट करते हैं, इसलिए समवेत रूप में इन्हें एकार्थक माना है
१. प्रीणनीय -- सप्त धातुओं को सम करने वाला ।
२. दीपनीय - दृप्त करने वाला, जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाला । ३. दर्पनीय - बलवर्धक ।
४. मदनीय — कामोत्तेजक ।
५. बृहणीय-- शरीर को उपचित करने वाला ।
१. अचि पू ५२ : बृहन्ति वर्धन्ते चराचराणि भूतान्यत्र ब्रह्मा ।
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३५२ । परिशिष्ट २ पूयणट्ठि (पूजनार्थिन्)
पूजा, यश, मान और सम्मान-इन चारों में शब्दगत अर्थभेद होने पर भी सामान्यतः ये एकार्थक हैं । अक्षत आदि से अर्चना करना पूजा है । वाचिक स्तुति करना यश, वंदना करना, आने पर खड़ा होना मान तथा वस्त्र आदि देना सम्मान है। इस प्रकार सम्मान व्यक्त करने
के अर्थ में चारों शब्द एकार्थक हैं । पोग्गलत्थिकाय (पुद्गलास्तिकाय)
भगवती सूत्र में षड्द्रव्य के अभिवचन के प्रसंग में पुद्गलास्तिकाय के अभिवचनों का उल्लेख है । इसमें प्रारम्भ के दो शब्द-पुद्गल और पुद्गलास्तिकाय-ये इसके वास्तविक पर्याय हैं । शेष द्विप्रदेशीस्कन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशीस्कन्ध तक के सारे शब्द पुद्गल की विभिन्न
अवस्थाओं के वाचक हैं। प्रकृति (प्रकृति)
प्रकृति, प्रधान और अव्यक्त-ये तीनों शब्द एकार्थक माने गए हैं। सांख्य के २४ तत्वों में प्रधान तत्त्व को प्रकृति एवं अव्यक्त भी कहा है। मूल तत्व होने से सांख्य दर्शन में प्रकृति को प्रधान तत्त्व माना है । इसे अव्यक्त भी कहा जाता है क्योंकि महान् आदि व्यक्त तत्त्वों की तुलना में वह अव्यक्त है । महान् आदि विकृतियों की तुलना में प्रकृति शब्द
व्यवहृत होता है। इस प्रकार तीनों शब्दों के अभिवचन सार्थक हैं । प्रथमसमवसरण (प्रथमसमवसरण)
चातुर्मास का प्रथम दिन सावन बदी एकम होता है । यह धर्म परिषद् के एकत्रित होने का प्रथम दिन है तथा इसी दिन से जैन संवत् शुरु होता है, अत: वर्षावास को प्रथमसमवसरण कहते हैं । अवग्रह का अर्थ है-स्थान । ज्येष्ठ अर्थात् प्रधान । चातुर्मास साधुओं के लिए एक स्थान पर रहने का सबसे बड़ा काल होता है अतः इसे ज्येष्ठावग्रह कहते हैं । चातुर्मास में मुनि एक स्थान पर चार महीने रहता है और शेष आठ महीने वह कहीं पाच दिन, कहीं दस दिन और कहीं एक मास रह सकता है। चार मास वह कहीं नहीं रह सकता है।
चार मास का काल ज्येष्ठ बड़ा होता । अतः इसे ज्येष्ठावग्रह कहते हैं। फासिय (स्पृष्ट)
‘फासिय' आदि सातों शब्द व्रत-पालन की उत्तरोत्तर अवस्थाएं हैं,
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परिशिष्ट २ । ३५३
किन्तु एक दूसरे से सम्बद्ध होने से ये समानार्थक हैं । इनका क्रमिक अर्थबोध इस प्रकार है
१. स्पृष्ट – उचित समय में व्रत का सम्यक् स्वीकरण ।
२. पालित — सतत सम्यक् उपयोग से उसका पालन ।
३. शोधित - अतिचार वर्जन तथा अन्य क्रियाओं से शोधन करना ।
४. तीरित - व्रत पालन की उत्कृष्ट अवस्था प्राप्त करना ।
५. कीर्तित - - उसके बारे में दूसरों को कहना |
६. आराधित — उक्त प्रकारों से व्रत की सम्यक् आराधना । ' फुडण (स्फुटन )
१. स्फुटन - स्वत: ही वस्तु का दो भागों में विभक्त होना । २. भञ्जन - - टुकड़ों में विभक्त करना ।
३. छेदन - छेदना ।
४. तक्षण- - कुल्हाडी आदि से काटना |
५. विलुञ्चन - शरीर के रोम आदि खींचना |
बंभण (ब्राह्मण)
इसमें संग्रहीत ब्राह्मणवाची शब्द गुणों से, ज्ञान से और क्रियाओं से सम्बन्धित हैं, जैसे - कृतयज्ञ, यज्ञकारी, प्रथमयज्ञ, यज्ञमुंड, अग्निहोत्र, आहिताग्नि, अग्निहोत्ररति आदि शब्द क्रिया से संबंधित हैं । वेद, वेदध्यायी, वेदाभ्यासी, वेदपारग आदि शब्द ज्ञान से सम्बन्धित हैं । ब्रह्मऋषि, ब्रह्मज्ञ, प्रियब्रह्म आदि शब्द गुणवाची हैं ।
कुछ शब्द पेय पदार्थ के आधार पर भी निर्मित हैं । ब्राह्मण को सोमरस पीने वाला माना जाता है, अतः सोमपा, सोमपाइ, सोमनाम आदि शब्द भी ब्राह्मण के लिए प्रयुक्त हैं ।
सामान्यतः विप्र और द्विज ब्राह्मण के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं लेकिन जो ब्राह्मणजाति में पैदा होते हैं वे विप्र तथा उस जाति में उत्पन्न होकर योग्य वय में यज्ञोपवीत धारण करने वाले द्विज कहलाते हैं ।
१. प्रटी प ११३ |
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३५४ : परिशिष्ट २ बहुजनाचीणं (बहुजनाचीर्ण)
। ये तीनों शब्द 'जीतव्यवहार' के द्योतक हैं। अनेक गीतार्थ आचार्यों द्वारा आचीर्ण विधि को 'जीत' कहा जाता है। उसी विधि को परम्परा से व्यवहृत करना अथवा अपनी बहुश्रुतता से उस विधि के आधार पर अन्य विधि प्रवर्तित करना 'जीत' व्यवहार कहलाता है। ये तीनों शब्द इसी भावना के प्रतीक हैं। यह युगानुकूल परिवर्तन की प्रामाणिकता की
ओर संकेत करता है। बालक (बालक)
बालक शब्द के पर्याय में आठ शब्दों का उल्लेख है। इनमें कुछ शब्द अन्य जाति (पशुजाति) के बच्चों के वाचक हैं, जैसेपिल्लक-कुत्ते का बच्चा (दे)
तर्णकका बछड़ा।
वत्सक कलभ-हाथी का बच्चा ।
___इन सभी शब्दों को अवस्थागत समानता से बालक के पर्याय में
माना है। अंत (भदन्त)
'भंत' आदि शब्द ईश्वर तुल्य व्यक्ति के अर्थ में प्रयुक्त हैं । इनका आशय इस प्रकार हैभदन्त-जो भद्र/कल्याण और सुख से युक्त है। भयान्त-जिसने भय/त्रास का अन्त कर दिया है। भवान्त-जिसने संसार का अन्त कर दिया है।
('भंत' शब्द के संस्कृत में भदन्त, भयान्त और भवान्त आदि रूप बन जाते हैं।) भय (भय)
दुःख, मृत्यु, अशांति और अनर्थ का कारण है-भय, इसलिए कारण में कार्य का उपचार करके इन शब्दों को भी भय का पर्याय माना है । यद्यपि संस्कृत के कोशकारों ने भय के पर्याय में इन शब्दों का उल्लेख नहीं किया है लेकिन चूर्णिकार एवं टीकाकारों ने अनेक स्थलों पर इन्हें
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परिशिष्ट २ : ३५५
एकार्थक माना है। भवण (भवन)
आकार प्रकार में भेद होते हुए भी 'भवण' आदि चारों शब्द घर. के अर्थ में एकार्थक हैं । जैसे१. भवन–चतुःशाल आदि । २. गृह-सामान्य घर। ३. शरण-तृण आदि से बनी झोंपड़ी। ४. लयन-पर्वत को खोदकर बनाया गया घर अथवा पत्थर से निर्मित
घर ।
भिक्खु (भिक्षु)
“भिक्खु' शब्द के पर्याय में तेंतीस शब्दों का उल्लेख हुआ है। प्रवृत्ति लभ्य दृष्टि से सभी शब्द भिक्षु के पर्याय हैं लेकिन व्युत्पत्ति लभ्य (समभिरूढ नय की दृष्टि से सभी शब्द भिन्न-भिन्न अर्थ के वाचक हैं। कुछ शब्दों का तात्पर्य इस प्रकार है१. तीर्ण-संसार समुद्र को पार करने का इच्छुक । २. वायी-षड्जीवनिकाय का रक्षक । ३. द्रव्य-शुद्धचैतन्य स्वरूप । ४. मुनि--ज्ञानी। ५. प्रज्ञापक-धर्मदेशना देने वाला। ६. पाषण्डी--अनेक दर्शनों का ज्ञाता, पाप से पलायन करने वाला। ७ ब्राह्मण-ब्रह्मचर्य में रत । ८. श्रमण-श्रम करने वाला, सम रहने वाला तथा अच्छे मन वाला। ६. निर्ग्रन्थ-बाह्य और आभ्यन्तर ग्रंथि से मुक्त । १०. तपस्वी-तपस्या में रत। ११. क्षपक-कर्म-क्षय करने वाला। १२. भवान्त-संसार प्रवाह का अन्त करने वाला। १. आचू पृ २६ : भयं दुक्खं असातं मरणं असंति अणत्थाणमिति एगट्ठा।
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परिशिष्ट २
ये सभी नाम भिक्षु के विभिन्न गुणों के आधार पर प्रचलित हैं । पाषण्डी, मुनि, प्रज्ञापक, बुद्ध, विदु आदि शब्द भिक्षु की ज्ञान चेतना को व्यक्त करते हैं । इसी प्रकार व्रती, क्षान्त, दान्त, विरत, यति, प्रव्रजित, संयत, साधु, तपरत, संयमरत आदि शब्द संयम चेतना के द्योतक हैं । तथा मुक्त, अगार, तीर्ण, द्रव्य, निर्ग्रन्थ, भवान्त, क्षपक, तीरार्थी आदि शब्द साधु की मोहरहित वीतराग चेतना के आधार पर प्रचलित हैं । भीय (भीत)
३५६
भयभीत के अर्थ में चारों शब्द एकार्थक हैं। इनका आशय इस प्रकार है—
भीत — डरपोक |
त्रस्त - क्षुब्ध, एवं भय के कारण पसीने से तरबतर ।
उद्विग्न-चिन्ता से भयभीत ।
भूमि (भूमि)
देखें - 'थेरभूमि' |
मेसण ( भेषण)
'भेसण' आदि शब्द भयभीत करने के अर्थ में प्रयुक्त हैं
१. भेषण - डराना ।
२. तर्जन — अंगुली निर्देश पूर्वक डांटते हुए भयभीत करना ।
-
३. ताडन - लकडी आदि से पीटते हुए डराना ।
भोज्ज (भोज्य)
भोज और संखडि – ये दोनों जीमनवार के प्रतीक हैं। 'संखडि' जीमनवार के अर्थ में प्रयुक्त देशी शब्द हैं । संखडि शब्द का शाब्दिक अर्थ है - हिंसा । जीमनवार में हिंसा होती है, इसलिए इसे 'संखडि' कहा जाता है । इसका दूसरा अर्थ संस्कृति भी किया जा सकता है, क्योंकि भोज आदि में अन्न का संस्कार किया जाता है— पकाया जाता है।
१. विपाटी प ४३ : भीया
२. दस. पृ ३६२ ।
इति भयप्रकर्षाभिधानायैकार्थाः ।
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परिशिष्ट २ । ३५७
मंबर (मन्दर)
___मंदर पर्वत के एकार्थकों का अनेक स्थलों से संग्रहण किया गया है। इन सब नामों की अर्थ-परम्परा इस प्रकार हैमंदर-मंदर देव के योग से प्रचलित नाम । मेरु-मेरु देव के कारण प्रचलित नाम । मनोरम-देवताओं के मन को प्रसन्न करने वाला। सुदर्शन-स्वर्णमय एवं रत्नमय होने से दर्शनीय । स्वयंप्रभ-रत्नों की बहुलता से स्वयं प्रकाशी । "गिरिराज-समस्त पर्वतों में मूर्धन्य तथा तीर्थकरों का अभिषेक होने से
गिरिराज । रत्लोच्चय--अनेक प्रकार के रत्नों का समूह । शिलोच्चय-जिस पर पांडुशिलाओं का उपचय है। लोकमध्य-समस्त लोक का मध्यवर्ती । लोकनाभि-लोक की नाभि के समान अवस्थित । अच्छ-पवित्र । अस्त-सूर्य आदि ग्रह-नक्षत्र इससे अन्तरित होकर अस्त होते हैं। सूर्यावर्त-सूर्य-चन्द्र आदि जिसकी प्रदक्षिणा करते हैं। सूर्यावरण-सूर्य-चन्द्र आदि नक्षत्र जिसको आवेष्टित करते हैं। उत्तम-सर्वश्रेष्ठ । उत्तर-भरत आदि क्षेत्रों के उत्तर में स्थित । दिशादि-सभी दिशाओं का आदि/प्रारम्भ बिन्दु । अवतंस-समस्त पर्वतों का मुकुट । धरणिकील-पृथ्वी की धुरी।
धरणिशृंग-पृथ्वी पर सबसे ऊंचा। महव्वय (महावय)
'महन्वय' शब्द के पर्याय में इक्कीस शब्दों का उल्लेख है। महावय से क्षीणवंश तक के लगभग सभी शब्द बूढे व्यक्ति के स्पष्ट वाचक १. सूर्यटी प ७८ : मंदरादयः शब्दा परमार्थतः एकाथि कास्ततो भिन्नाभि
प्रायतया प्रवृत्ताः।
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३५८ । परिशिष्ट २
हैं । लेकिन क्षीण, निष्ठित, परिमलित, परिशुष्क, परिशटित आदि शन्दः
वृद्धावस्था से होने वाली परिणतियों के द्योतक होने से एकार्थक हैं। महापउम (महापद्म)
___ आगामी चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर महापद्म (श्रेणिक का जीव) सन्मति कुलकर की पत्नी भद्रा की कुक्षि में जन्म लेंगे। जब उनका जन्म होगा तब शतद्वार नगर में बहुत विशाल पमों की वर्षा होगी, इसलिए बालक का नाम 'महापद्म' रखा जाएगा। कुमारावस्था में देव उनका सहयोग करेंगे, अतः उनको 'देवसेन' कहा जायेगा। राजा होने के पश्चात् उनका मुख्य वाहन विमल, चतुर्दन्त हस्तिरत्न होगा, इसलिए उनका नाम 'विमलवाहन' रखा जायेगा। इस प्रकार ये तीनों ही नाम
सार्थक-गुणनिष्पन्न हैं।' माण (मान)
___ मान के एकार्थक के प्रसंग में भगवती सूत्र में बारह नामों का उल्लेख है । यद्यपि सामान्य रूप से ये सभी एकार्थक हैं, लेकिन प्रत्येक शब्द मान की उत्तरोत्तर अवस्था को प्रकट करते हैं।' १. मान-अभिमान की सामान्य अवस्था । २. मद-प्रसन्नता से होने वाला उत्कर्ष भाव । ३. दर्प-सफलता पर होने वाला अहंकार अथवा उन्मत्तता
(मदोन्मत्तता)। ४. स्तम्भ-खम्भे की भांति अकड़कर रहना । ५, गर्व-शारीरिक स्तर पर विशेष रूप से दिखाई देने वाला अहंकार ।
जैसे-नाक फूलना, गर्दन कड़ी रहना आदि । ६. अत्युत्क्रोश-दूसरों के सामने अपने गुणों का कीर्तन करना और स्वयं
को श्रेष्ठ बताना। इस स्थिति में अहं वाणी में प्रकट होने
___ लगता है। ७. परपरिवाद-दूसरों की निंदा करना व उनकी विशिष्टता का अपलाप
करना। ८. उत्कर्ष--अभिमानवश अपनी समृद्धि व ऐश्वर्य का दिखावा करना। १. स्था १/६२। २. भटी पृ १०५१ : मान इति सामान्य नाम मदादयस्तु तद्विशेषाः।
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परिशिष्ट २
६. अपकर्ष - अहंकारवश ऐसा कार्य करना जिससे दूसरों की होनता
दिखाई दे |
१०. उन्नत - विनय - विमुखता अथवा नीति-न्याय से विमुख होना ।
११. उन्नाम- अभिमानवश नमन न करना ।
1 ३५६
१२. दुर्नाम - श्रद्धेय के प्रति अकड़ाई से नमन करना ।
स्तम्भ आदि शब्द मान के कार्य हैं, लेकिन वस्तुतः ये सभी मान के एकार्थक हैं ।
बौद्ध साहित्य में १० क्लेशवस्तु में मान को क्लेश माना है तथा उस प्रसंग में मान के वाचक अनेक शब्दों का उल्लेख है, जैसे—मान, मञ्जना, मञ्ञितत्त, उन्नति, उन्नम, धज, सम्पग्गाह, केतुकम्यता आदि । माया (माया)
'माया' शब्द के पर्याय में यहां पन्द्रह शब्द उल्लिखित हैं । यद्यपि ये सभी शब्द माया के कार्य रूप में उद्धृत हैं, लेकिन उपचार से टीकाकार ने इनको एकार्थक माना है ।"
१. माया - सामान्य अवस्था ।
२. उपधि - दूसरों को ठगने के विचार से उसके पास जाना ।
३. निकृति - किसी को ठगने के लिए पहले उसके प्रति आदर करना अथवा एक माया को छिपाने के लिए दूसरी माया करना ।
४. वलय - वक्र आचरण, व्यंगपूर्ण वचन बोलना ।
५. गहन --- दूसरा समझ न सके ऐसा सघन शब्दजाल रचना |
६. नूम -- दूसरों को ठगने के लिए अधम से अधम बर्ताव करना । (दे) ७. कल्क - हिंसात्मक उपायों से ठगना ।
८. कुरूप – माया व षड्यंत्र करने वाले व्यक्ति का चेहरा घबराहट व बैचेनी से कुरूप हो जाता है अतः माया का एक अर्थ कुरूप है ।
१. भटी पू १०५१ : स्तम्भादीनि मानकार्याणि मानवाचका वैते ध्वनयः । २. संपू २७१-७२ ।
१. भटी पृ १०५२ : मायैकार्थाः वैते ध्वनयः ।
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३६. । परिशिष्ट २
६. जिह्म-बगुले की भांति वंचनापूर्ण व्यवहार करना । १०. किल्बिष-किल्विषी देव की भांति कपटपूर्ण आचरण करना । ११. आचरण-किसी को छलने के लिए नाना प्रकार की कपटपूर्ण चेष्टाएं
करना। १२. गृहन-कपटाई करके अपने स्वरूप को छिपाना । १३. वंचन-दूसरों को पूरी तरह ठगना । १४. प्रतिकुञ्चन-दूसरों द्वारा सरलभाव से कहे वचन का खंडन करना
तथा अपनी असत्य बात को अच्छे शब्दों में प्रस्तुत
करना । १५. सातियोग-मिलावट करना व कूट-माप-तौल करना।
प्रस्तुत एकार्थक में माया, उपधि और निकृति तक के शब्दों में मानसिक माया, वलय और गहन में वाचिक माया तथा नूम से साति
योग तक के सभी शब्दों में माया कार्यरूप में परिणत हो जाती है । मित्त (मित्र)
स्वजन आदि मित्र के अन्तर्गत ही होते हैं। अतः स्वजन के विभिन्न अंग ज्ञाति, सम्बन्धी आदि को भी मित्र के अन्तर्गत लिया है। इन शब्दों की अर्थवत्ता इस प्रकार हैमित्र-स्नेही। ज्ञाति-समान जाति वाला। निजक-पितृव्य आदि निकट सम्बन्धी । सम्बन्धी-सास, श्वसुर आदि । परिजन-दास-दासी आदि । वयस्क-समान वय का मित्र। . सखा-हर क्रिया साथ में करने वाला। सुहृद्-हमेशा साथ में रहने वाला तथा हितकारी सलाह देने वाला। सांगतिक --संगति मात्र से होने वाला मित्र । घाडिय-सहयोगी (दे)।
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परिशिष्ट २ । ३६१ मुच्छिय (मूच्छित)
'मुच्छिय' आदि शब्द आसक्ति से होने वाली विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं । जैसे१. मूच्छित-विवेक-चेतना शून्य । २. प्रथित-लोभ के तन्तुओं से बंधा हुआ। ३. गृद्ध-आकांक्षा वाला। ४. अध्युपपन्न-विषयों के प्रति एकाग्र ।'
विपाक सूत्र के टीकाकार ने इनको एकार्थक माना है।' मुम्मुर (मुर्मुर)
मुर्मुर आदि सभी शब्द अग्नि की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को व्यक्त करते हैं । लेकिन समवेत रूप से अग्नि के वाचक होने के कारण एकार्थक
१. मुर्मुर-भस्म मिश्रित कंडे की अग्नि । २. अर्चि-मूल अग्नि से विच्छिन्न ज्वाला अथवा दीपशिखा का अग्र
भाग। ३. ज्वाला-अग्नि से संयुक्त अग्निशिखा । ४. अलात-अधजली लकड़ी।
५. शुद्ध अग्नि-इंधन रहित अग्नि अथवा अयःपिण्ड में प्रविष्ट अग्नि । मेढि (मेढी)
'मेढि' आदि शब्द कुटम्व या समाज के प्रधान व्यक्ति के बोधक हैं । वह व्यक्ति पूरे कुटुम्ब या समाज का आधारभूत होता है, अतः ये
सभी शब्द उसकी गुणवत्ता को द्योतित करते हैं। मोहणिज्जकम्म (मोहनीयकर्म)
ये सभी नाम मोहनीय कर्म की विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं। यहां अवयवों में अवयवी अथवा खड में समुदाय का उपचार कर सभी १. ज्ञाटी प६१। २. विपाटी प ४१ : मुच्छिए ....त्ति एकार्थाः । ३. आप्टे, पृ १२८९ : मेढिा, मेढी, मेथिः।
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३६२ । परिपिष्ट २
को मोहनीय की संज्ञा दी गयी है। कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । इनमें क्रोध के दस, मान के ग्यारह, माया के सतरह और लोभ के चौदह-इस प्रकार चार कषायों के ५२ भेद मोहनीय के पर्याय मान लिए गये हैं। इसके अतिरिक्त भगवती सूत्र में क्रोध आदि चारों कषायों के भिन्न भिन्न पर्याय शब्दों का उल्लेख मिलता है जो प्रायः इन शब्दों से समानता रखते हैं।
विशेष व्याख्या के लिए देखें-'क्रोध', 'मान', 'माया' और 'लोभ'। रज्ज (राज्य)
राज्य, देश और जनपद-ये तीनों शब्द वसति के वाचक हैं। १. राज्य-सम्पूर्ण राष्ट्र । २. देश-प्रान्त । ३. जनपद-प्रान्त की ईकाई (जिला) ।
इसके अतिरिक्त ग्राम, नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन, आकर, आश्रम, संवाह, सन्निवेश आदि शब्द भी वसति के प्रकार हैं। ये सभी शब्द यद्यपि क्षेत्ररचना की दृष्टि से भिन्न-भिन्न
हैं, लेकिन वसति के रूप में इनको एकार्थक माना है। रयस् (रयस्)
रय का अर्थ है-वेग। चेष्टा, अनुभव और फल इसी अर्थ के वाचक हैं । वृत्तिकार ने इन्हें एकार्थक माना है।' इनको एकार्थक मानने
का रहस्य सुबोध नहीं है। रहस्स (ह्रस्व)
_ 'रहस्स' शब्द के एकार्थक के रूप में तेवीस शब्दों का उल्लेख है। यहां 'संपिडित' 'सन्निरुद्ध' आदि शब्द ह्रस्व अर्थ के अन्तर्गत लिये गए हैं। जो रोका हुआ होगा, वह एकत्रित होने के कारण विस्तृत नहीं होगा। इसी दृष्टि से आकुंडित (आकुञ्चित), संवेल्लित (दे) आदि शब्द जो संवृत या संकुचित के अर्थ में हैं, वे भी अल्प या ह्रस्व के ही द्योतक
१. आवहाटी १ पृ २६३ ।
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राग (राग)
राग का अर्थ है – अनुराग, लोभ, आसक्ति । यहां गृहीत कुछ शब्द आसक्ति की मंदता और कुछ शब्द उसकी तीव्रता के द्योतक हैं । जैसे -- मूर्च्छा, स्नेह, गृद्धि, अभिलाषा आदि शब्द आसक्ति की तीव्रता की ओर संकेत करते हैं ।
देखें - 'लोभ' |
राहु ( राहु )
भगवती में राहु के नौ नाम उल्लिखित हैं । इनमें दर्दुर, मकर, कच्छप आदि कुछ नाम पशुवाची हैं। राहु एक देव है । उसके विमान पांच वर्णों के हैं- कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत । राहु के अभिवचनों की सार्थकता अन्वेषणीय है । शब्दकल्पद्रुम में उसके अनेक नामों का उल्लेख है – राहु, तमस, स्वर्भानु, सैहिकेय, विधुन्तुद, अस्रपिशाच, ग्रहकल्लोल, उपप्लव, शीर्षक, उपराग, कृष्णवर्ण, कबन्ध, अगु, असुर आदि । राहु के प्रत्यधिदेवता का नाम सर्प है । और राहु का वर्ण कृष्ण है।' इस प्रकार कृष्ण सर्प उसका पर्याय वन
जाता है । इसी प्रकार
अन्यान्य शब्द भी उसकी विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक होने चाहिए । रुण्ण ( रुदित)
१. रुदित - रोना, आंसू बहाना ।
२. रटित- सिसकते हुए रोना । गुजराती भाषा में रोने के अर्थ में 'रडे छे' - ऐसा प्रयोग होता है ।
३. क्रंदन -- इष्ट वियोग में क्रन्दन के साथ रुदन ।
परिशिष्ट : ३६३
४. रसित - सूअर की भांति करुणोत्पादक शब्द करते हुए रोना ।
५. करुणविलपित - करुण विलाप करना ।
---
देखें - 'रोयमाणी ' ।
-रोयमाणी ( रुदती )
'रोयमाणी ' आदि शब्द रुदन की विशेष अवस्थाओं के द्योतक हैं ।
जैसे—
१. शक भा ४ पृ १६० । २. टीप १६७ ।
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३६४ । परिशिष्ट २
१. रुदन-रोना। २. क्रन्दन-क्रन्दन के साथ रुदन । ३. तेपन-भय और पसीने से मिश्रित रुदन । ४. शोक-शोक व दु:ख के साथ निरन्तर रुदन । ५. विलपन-विलाप एवं छाती पीटते हुए रोना।
देखें—'रुण्ण' । लघुक (लघुक)
देखें-'गुरुक' । लता (लता)
जैन परम्परा में इन्द्रिय विजय के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की तपस्याएं की जाती थीं । उनको इन्द्रियविजय तप कहा जाता था। उसका क्रम इस प्रकार हैपहले दिन दो प्रहर करना, दूसरे दिन एकासन, तीसरे दिन विगयवर्जन, चौथे दिन आचाम्ल, पांचवे दिन उपवास ।
इस प्रकार एक-एक इन्द्रिय विजय के लिए पांच दिनों तक यह तप करना होता था। यह पांच दिनों की एक लता, श्रेणी या परिपाटी
होती थी।' लट्ठ (लब्धार्थ)
'लढ' आदि शब्द अर्थ-ग्रहण करने की क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक हैं। लेकिन समवेतरूप में वे एक ही अर्थ को अभिव्यक्त करते हैं । जैसे१. लब्धार्थ-श्रवण के द्वारा अर्थ को जानना । २. गृहीतार्थ-अर्थ का अवधारण करना । ३. पृष्टार्थ-संशय होने पर पूछना। ४. अभिगतार्थ-अर्थ का सम्यक् अवबोध करना।
५. विनिश्चितार्थ-तात्पर्म को समझ कर हृदयंगम कर लेना। १. प्रसाटी प ४३५।
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परिशिष्ट २ । ३६
लखमईय (लब्धमतिक)
मति का अर्थ है बुद्धि, श्रुति का अर्थ ज्ञान तथा संशा का अर्थ मानसिक अवबोध है । इस प्रकार ये तीनों शब्द ज्ञानार्थक हैं। लोभ (लोभ)
लोभ के पर्याय शब्दों में यहां सोलह शब्दों का उल्लेख है । ये सभी शब्द लोभ की उत्तरोत्तर अवस्था के द्योतक हैं।' इन शब्दों का अर्थबोध इस प्रकार हैइच्छा—किसी वस्तु के प्रति अभिलाषा । मूर्छा-प्राप्त वस्तु की रक्षा का प्रयत्न । कांक्षा-अप्राप्त की प्राप्ति का प्रयत्न । गृद्धि प्राप्त विषयों में आसक्ति । तृष्णा-अतृप्ति भाव । भिध्या-विषयों के प्रति दृढ़ अभिनिवेश । अभिध्या-पदार्थासक्ति के कारण अपने संकल्प से डिगना। आशंसना-प्रिय व्यक्ति की भौतिक समृद्धि की कामना । प्रार्थना- दूसरों की समृद्धि की याचना। लालपन-खुशामद करके इष्ट वस्तु की मांग करना । कामाशा-इष्ट रूप तथा शब्द प्राप्ति की विशेष इच्छा। भोगाशा-इष्ट गंध, रस और स्पर्श के संयोग की इच्छा । जीविताशा-जीने की उत्कट अभिलाषा। मरणाशा-विपत्ति में मरने की इच्छा । नन्दीराग-भौतिक समृद्धि की सर्वात्मना प्रबल आसक्ति ।
धम्मसंगणि में 'लोभक्लेश' के प्रसंग में लोभ के वाचक अनेक शब्दों का उल्लेख है । उसमें कुछ शब्द भगवती में निर्दिष्ट लोभ के एकार्थक के संवादी हैं जैसे-राग, नंदी, नन्दीराग, इच्छा, मुच्छा, अन्झोसान, गेधि, संग, पणिधि, आसा, आसिसना, रूपासा, लाभासा, धनासा, जीवितासा,
पत्थना, अभिज्झा इत्यादि। १. भटी पृ १०५२-५३ : लोम इति सामान्यं नाम, इच्छावयास्तव विशेषाः ।
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३६६ : परिशिष्ठ २ लोमसिका (दे)
'लोमसिका' आदि शब्द विभिन्न प्रान्तों में ककड़ी के अर्थ में प्रयुक्त देशी शब्द हैं । ककड़ी शब्द 'कक्कुडिगा' शब्द का बदला रूप प्रतीत होता है । 'संगलिका' शब्द यद्यपि फली के अर्थ में प्रसिद्ध है लेकिन यहां ककड़ी
के लिए प्रयुक्त है। लोलुग
लोलुग का अर्थ है---प्रगाढ । जो प्रगाढ होता है वह अधिक होता ही है अतः प्रगाढ को भृश भी कहा जाता है । और अव्यवच्छिन्न होने के
कारण उसका एक नाम निरन्तर भी है। वंझा (वन्ध्या)
___ 'वंझा' आदि शब्द एक दृष्टि से बांझ के द्योतक हैं। १. वन्ध्या-जो कभी प्रसव नहीं करती। २. अजनयित्री-जो प्रजनन नहीं करती अथवा जिसकी सन्तान जीवित
नहीं रहती। ३. जानुकूर्परमाता-जो हीन अंग होने के कारण संतान का प्रसव नहीं
___ करती।
इस प्रकार तीनों शब्द भावार्थ में एक अर्थ के वाचक हैं। वंदणग (वन्दनक)
'चंदणग' शब्द के पर्याय में ५ शब्दों का उल्लेख है। ये पांचों शब्द वंदना की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के वाचक होने पर भी एकार्थक हैं।' इनका अर्थबोध इस प्रकार हैवंदनक-प्रशस्त मन, वचन और काया से गुरु का अभिवादन व स्तुति
करना। चितिकर्म-दान आदि देकर सम्मानित करना। कृतिकर्म-विधिपूर्वक नमन आदि करना। पूजाकर्म-अक्षत आदि से पूजा करना।
विनयकर्म-विनय करना। वंदित (वंदित)
देखें- 'अच्चिय' तथा 'थुइ' । ११. प्रसाटी प २६ : वंदनकस्य इमानि भवन्ति पञ्चैव नामानि ।
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परिशिष्ट २ : ३६७ वक्क (वाक्य)
_ 'वक्क' के एकार्थक में बारह शब्दों का उल्लेख है । कुछ शब्दों की अर्थध्वनि इस प्रकार है१. वचन---जो अर्थ को अभिव्यक्त करता है। २. गिरा-जो भाषा वर्गणा के पुद्गलों का भक्षण करती है।' ३. सरस्वती-जो स्वरयुक्त होती है । ४. भारती-जो अर्थभार को धारण करती है । ५. गो-जो मुख से निःसृत होकर लोकान्त तक पहुंच जाती है । ६. भाषा-जो बोली जाती है । ७. प्रज्ञापनी—जिसके द्वारा अर्थबोध किया जाता है। ८. देशनी-जो अर्थ का देशन/कथन करती है । ६. वाग्योग-जीव की वाचिक प्रवृत्ति । १०. योग-शुभ और अशुभ का योग करने वाली । वध (वध)
_ 'वध' आदि शब्द पीड़ित करने के अर्थ में समानार्थक हैं। पीड़ित करने के साधनों की भिन्नता होने पर भी इनमें पीड़ा की समानता है१. वध--यष्टि आदि से मारना। २. बन्धन-बांधना। ३. ताडन-पीटना। ४. अंकन-तप्त लोहे की शलाका से चिन्हित करना। ५. निपातन-गड्ढे आदि में फेंकना।
६. विधात-चोट पहुंचाना । ववण (वपन)
__'ववण' आदि शब्द बीज-वपन की विवध प्रक्रियाओं के द्योतक
१. वपन-सामान्यतः बीज बोना। १. पशअचू पृ १५६ : वक्क एगठिताणि। .
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३६८ : परिशिष्ट २
२. रोपण-अंकुर आदि को पुनः रोपना । जैसे शालि धान्य भादि । ३. प्रकिरण-बीजों को इधर उधर बिखेरना। ४. परिशाटन-कलमें लगाना ।
यहां वपन शब्द का अर्थ है-कुछ लाभ देने वाला। ये चारों शब्द एकार्थक हैं।' यवहार (व्यवहार)
संघ व्यवस्था की दृष्टि से निर्मित आचार संहिता जिसमें कर्तव्य और अकर्तव्य तथा प्रवृत्ति-निवृत्ति का निर्देश हो, वह व्यवहार कहलाती है। व्यवहार के ५ भेद हैं—आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत । भाव व्यवहार के ये पर्याय नाम हैं१. सूत्र-अर्थ की सूचना देने वाले पूर्व अथवा छेदसूत्र । २. अर्थ-सूत्र का अभिधेय स्पष्ट करने वाला। ३. जीत-अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा आचीर्ण । ४. कल्प-संथम पालन करने में शक्ति प्रदाता । ५. मार्ग-शुद्धि का साधन । ६. न्याय-मोक्ष का साधन । ७. इप्सितव्य-मुमुक्षुओं द्वारा वांछित । ८. आचरित-महान व्यक्तियों द्वारा आचरित ।
ये आठों पर्याय 'व्यवहार' के विषय-वस्तु तथा प्रतिपाद्य के वाचक हैं। बाम (वाम)
वाम का अर्थ है-प्रतिकूल । वामावृत्त, वामायार, वामशील आदि शब्द प्रतिकूल शील व आचार के अर्थ में प्रयुक्त हैं। इनमें वामपक्ष, वामदेश, वामभाग आदि शब्द दाहिने भाग के वाचक हैं। तथा अपसव्य
आदि शब्द संस्कृत कोशों में भी वाम के अर्थ में प्रयुक्त हैं । अप्पग्ध शब्द १. व्यभा १ टी प ५ : वपनशब्दस्य प्रदानलक्षणोऽर्थः सथितः ।......
शब्दचतुष्टयमेकार्थ, एकार्थप्रवृत्ताः परस्परमेते पर्यायाः । २ व्यभा १ टी प६ ।
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परिशिष्ट २ : ३६६
संभवतः इसी अर्थ में देशी होना चाहिए। वितर्क (वितर्क)
देखें-'तक्क' । पडू (वृद्ध)
वृद्ध, श्रावक और ब्राह्मण ये तीनों शब्द आज भिन्न-२ अर्थ के वाचक हैं। प्राचीन साहित्य में ये तीनों शब्द प्रौढ़ आचार वाले श्रावक के लिए प्रयुक्त थे। अनुयोग द्वारा चूणि में ब्राह्मण के लिए वृद्धश्रावक
शब्द का उल्लेख हुआ है।' शोषि (शोधि)
धर्म आत्मशोधि का कारण है, अत: कारण में कार्य का उपचार करके यहां धर्म ओर शोधि को भाष्यकार ने एकार्थक माना है। . संकित (शंकित)
'संकित' आदि तीनों शब्द संदिग्ध चेतना के द्योतक हैं। इनका अर्थबोध इस प्रकार हैं१. शंकित-लक्ष्य के प्रति संशयशीलता । २. कांक्षित-कर्तव्य के प्रतिकूल सिद्धान्तों की आकांक्षा । ३. विचिकित्सित-फल के प्रति संदेह । ___भगवती सूत्र में इन तीनों शब्दों के साथ इन दो शब्दों का प्रयोग इसी अर्थ में हुआ है। भेदसमापन्न-लक्ष्य के प्रति मन में द्वधभाव उत्पन्न होना । कलुषसमापन्न-मतिविपर्यास ।
' धम्मसंगणि में, कंखा, कंखायना, कंखायितत्त, विमति, विचिकिच्छा द्वेलहक, धापथ, संसय, अनेकसंग्गाह, आसप्पना, परिसप्पना, अपरियोगाहना, थम्भितत्त, आदि का एक ही अर्थ में प्रयोग हुआ है।'
१. अनुवाचू पृ १२ ॥ २. व्यमा १० टी प६७। ३. ध प २५६.६०।
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३७०
संख (शंख)
शंख सफेद होता है । इसके पर्यायवाची ८ शब्द हैं । ये सभी शब्द श्वेतवर्ण के द्योतक हैं, अतः वर्णसाम्य के कारण ये एकार्थक हैं ।
संघ (संच)
: परिशिष्ट २
संघ आदि चारों शब्द श्रमणसमुदाय को व्यक्त करने वाले हैं । लेकिन इनमें संख्याकृत भेद है
संघ - गण समुदाय ।
गण - कुल समुदाय ।
कुल- गच्छ समुदाय ।
गच्छ--- एक आचार्य का परिवार ।
-संजत ( संयत )
इसके अन्तर्गत गृहीत संयत, विमुक्त आदि छहों शब्द संयमी व्यक्ति की भावधारा के द्योतक हैं। जो व्यक्ति संयमी होता है वह बाह्य आकर्षणों से विमुक्त होता है, अनासक्त होता है । पदार्थ के प्रति तथा शरीर के प्रति उसकी मूर्च्छा नहीं होती । वह ममकार तथा स्नेहबंधन से मुक्त होता है ।
-संजय (संयत )
अनगार या साधु के विशेषण के रूप में आगमों में अनेक स्थलों पर 'संजय' आदि शब्दों का उल्लेख हुआ है
संयत — सतरह प्रकार के संयम में अवस्थित |
विरत - पापों से निवृत्त भिक्षु, अथवा बारह प्रकार के तप में अनेक प्रकार से रत ।
प्रतिहतपापकर्मा - ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों को हत करने वाला । प्रत्याख्यातपापकर्मा- - आस्रव द्वारों को निरुद्ध करने वाला ।
अर्थभेद करते हुए भी चूर्णिकार जिनदास ने इनको एकार्थक माना
है
इसके अतिरिक्त अक्रिय, संवृत तथा एकान्तपंडित भी संयमी १ दश जिचू पृ १५४ : अहवा सव्वाणि एताणि एगट्ठियाणि ।
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परिशिष्ट २ : ३७१
व्यक्ति के अर्थ को व्यक्त करते हैं। संत (सत्)
सत्, तत्व, तथ्य, अवितथ और सद्भूत ये सारे शब्द सत्य-यथार्थ के द्योतक हैं । जो तथ्य होता है वह यथार्थ ही होता है।' संत (शान्त)
'संत' आदि शब्द शान्त के अर्थ में प्रयुक्त एकार्थक हैं। इनका अर्थभेद इस प्रकार हैशान्त-कषायमंदता। प्रशान्त-कषाय के उदय को विफल करने वाला। उपशान्त-कषायों को उदय में भी नहीं लाने वाला। परिनिर्वत-कषाय के पूर्ण नष्ट हो जाने पर चैतसिक स्वास्थ्य का
धनी। अनाश्रव-प्राणातिपात आदि आस्रव से रहित । अमम--ममकार रहित । अकिंचन--अपरिग्रही । छिन्नस्रोत–संसार प्रवाह के उद्गम मिथ्यात्व आदि स्रोतों से रहित । निरुपलेप-कम लेप से रहित ।
___ इस प्रकार ये सभी शब्द निर्मलता की उत्तरोत्तर अवस्था के वाचक हैं। संत (श्रान्त)
___ 'संत' आदि तीनों शब्द थकान के अर्थ में प्रयुक्त हैं।' श्रान्त---शारीरिक थकान । तान्त-मानसिक थकान । परितान्त-शारीरिक और मानसिक थकान । १. ज्ञाटी प १८४ : एकार्था वैते शब्दाः । २. औपटी पृ ६६ : प्रशमप्रकर्षाभिधानायैकार्थम् । ३. उपाटी पृ १११ : एते समानार्थाः ।
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पाह
३७२ : परिशिष्ट २ संदाण (सन्दान)
किसी तपस्या या साधना के प्रतिफल में भौतिक ऋद्धि सिद्धि की आकांक्षा करना संदान/बंधन है । निदान, पर्व आदि इसी के पर्याय है। संबुद्ध (संबुद्ध)
___ संबुद्ध, पंडित व प्रविचक्षण ये तीनों शब्द ज्ञानी व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हैं । चूर्णिकार ने एकार्थक मानते हुए भी इनका सूक्ष्म अर्थभेद किया हैसंबुद्ध-बुद्धि-सम्पन्न, सम्यग् दर्शन युक्त । पंडित-परित्यक्त भोगों के प्रत्याचरण में दोषों को जानने वाला,
सम्यग् ज्ञान से युक्त । प्रविचक्षण-पाप से विरत, सम्यक् चारित्र से युक्त ।' संयत (संयत)
जो सतरह प्रकार के संयम से संवृत है वह संयत, जो साधनाशील है वह साधु तथा जिसके सभी द्वन्द्व समाहित हो चुके हैं वह सुसमाहित
है। इस प्रकार ये तीनों शब्द मुनि के पर्याय हैं। संरंभ (संरम्भ)
संरभ आदि तीनों शब्द हिंसा की क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक हैं। इनका आशय इस प्रकार हैसंरंभ-वध का संकल्प करना । समारंभ-परितापित करना।
आरंभ-वध करना। सक्क (शक)
'सक्क' शब्द के पर्याय में बारह शब्दों का उल्लेख है जो अर्थभेद रखते हुए भी भिन्न-भिन्न प्रवृत्ति के निमित्त से इन्द्र के अर्थ में रूढ हैं
१. शक्र—-शक्ति सम्पन्नता का द्योतक । १. दशजिचू पृ. ६२ तथा दशहाटी प ६६ । २. स्थाटी प ३८४ ।। ३. अनुद्वामटी प २४६ : प्रत्येकं भिन्नाभिधेयान् प्रतिपद्यते, भिन्नप्रवृत्ति...
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२. देवेन्द्र -- देवों का इन्द्र |
३. देवराज — देवों के मध्य सुशोभित होने वाला ।
४. मघवा — मच मेथ को वश में रखने वाला ।
परिशिष्ट २
५. पाकशासन -- पाक नामक शत्र पर शासन करने वाला ।
६. शतक्रतु - सौ यज्ञ सम्पन्न करने वाला । जैन परम्परा के अनुसार कार्तिक सेठ के भव में सौ उपासक प्रतिमाओं का पालन करने से शतक्रतु ।
७. सहस्राक्ष- इन्द्र के ५०० मंत्री होते हैं । वह उनकी हजार आंखों से देखता है । अथवा हजार आंखों से जितना देखा जाता है वह अपनी दो आंखों से देख लेता है, अतः सहस्राक्ष ।
८. वज्रपाणि - हाथ में वज्र रखने वाला ।
8. पुरंदर - पुर नामक राक्षस का दारण करने वाला ।
१०. दक्षिणार्धलोकाधिपति ।
११. एरावणवाहन - एरावण नामक हाथी के वाहन वाला । १२. सुरेन्द्र - सुर / देवों का इन्द्र ।
सक्कार ( सत्कार )
'सक्कार' शब्द के पर्याय में सात शब्दों का उल्लेख है । ये सभी शब्द सम्मान अभिव्यक्त करने की भिन्न- २ रीतियों के द्योतक हैं, जैसे—
२. सम्मान- -स्तुतिवचन, चरणस्पर्श आदि ।
३. कृतिकर्म – वन्दन करना ।
-
: ३७३
१. सत्कार—'सक्कारा पवरवत्थमाईहिं' - किसी को आदरपूर्वक भोजन, वस्त्र आदि देना ।
४. अभ्युत्थान- सामने जाना अथवा आदरणीय व्यक्ति के सम्मान में खड़े होना ।
५. अंजलि प्रग्रह - हाथ जोड़ना ।
६. आसनाभिग्रह - आसन पर बैठने का आग्रह करना ।
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३७४ परिशिष्ट २
७. आसनानुप्रदान — आदरणीय व्यक्ति का आसन एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना ।
सणिहि (सन्निधि)
सन्निधि आदि शब्द संग्रह के द्योतक हैं । लेकिन इन शब्दों में पदार्थ कृत भेद द्रष्टव्य है । जैसे—
सन्निधि - दूध, दही आदि विनाशी द्रव्यों का संग्रह | सन्निचय - अविनाशी द्रव्यों का संग्रह ।
निधि - सुरक्षित पूंजी ।
निधान - भूमिगत खजाना । सट्टूल ( शार्दूल )
शार्दूल, सिंह और चिल्लल— ये
तीनों शब्द सिंह की भिन्न -२
जातियों के द्योतक हैं । 'चिल्लल' शब्द चीते के अर्थ में देशी पद है ।
समण ( श्रमण )
देखें—'भिक्खु' ।
समर (समर)
इसमें संगृहीत पांचों शब्द कलह, युद्ध के द्योतक हैं
१. समर - घनघोर युद्ध ।
२. संग्राम - रण ।
३. डमर - राजकुमार आदि के द्वारा उत्पन्न उपद्रव । ४. कलि – सामान्य लड़ाई, मानसिक क्षोभ ।
५ कलह - वाचिक लड़ाई ।
सागाfरय (सागारिक)
सागारिक का अर्थ है - गृहस्थ । वह साधुओं को शय्या / वसति का दान करता है अतः वह शय्यातर है । ये सारे शब्द मुनि को वसति का दान करने के कारण शय्यातर के वाचक हैं ।
सामायिक ( सामायिक )
सामायिक का अर्थ है - वह प्रवृत्ति जिसमें समता का लाभ होता
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परिशिष्ट २ । ३७५ है । समता, प्रशस्तता, शांति, सुख, अनवद्यता और पवित्रता-ये सारे शब्द सामायिक की निष्पत्तियां हैं, अतः कारण में कार्य का उपचार कर इनको भी सामायिक का पर्याय मान लिया गया है। यद्यपि ये शब्द पुनरुक्त जैसे लगते हैं किन्तु यहां पुनरुक्ति दोष नहीं है।
___ आवश्यक नियुक्ति में चार प्रकार की सामायिकों के पर्याय दिये गये हैं। इसके साथ साम, सम और सम्म आदि शब्दों को सामायिक
का एकार्थक माना है। सिक्खिय (शिक्षित)
___सिक्खिय' आदि शब्द ज्ञानप्राप्ति की क्रमिक भूमिकामों के द्योतक हैं। इनकी अर्थ-परम्परा इस प्रकार है१. शिक्षित-शिक्षा प्राप्ति की मान्य अवस्था में आदि से अन्त तक
पढ़ना। २. स्थित-पढे हुए ज्ञान का अविस्मरण, सतत स्मृति और माचरण । ३. जित-शान का निरन्तर परावर्तन कर उसे अत्यन्त परिचित कर
लेना। ४. मित-पठित ज्ञान का विस्तार से अनुस्मरण । ५. परिजित–पठित का क्रम से या व्युत्क्रम से परावर्तन करने की
क्षमता। सिग्ध (शीघ्र)
शीघ्र आदि सारे शब्द शीघ्रता की विशेष अवस्थाओं के द्योतक
देखें-'उक्किट्ठ'। सिद्ध (सिद्ध)
.. सिद्धि का अर्थ है-लक्ष्य प्राप्ति । जो लक्ष्य प्राप्त कर लेता है, वह सिद्ध है। सिद्ध के एकार्थक शब्द लक्ष्यप्राप्ति की ही विभिन्न अवस्थाओं के वाचक हैं। कुछ शब्दों की अर्थवत्ता इस प्रकार है
१. सिद्ध-ऋद्धियों से युक्त। १. आवनि ८६१-६४ । २. विभामहेटी पृ ३४६ । ३. ज्ञाटी प ६१ : शीघ्रादीनि एकाथिकानि शीघ्रतातिशयख्यापनार्थानि ।
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३७६ । परिशिष्ट २
२. परंपरगत–जो उत्कृष्ट-उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त हो गये हैं। ३. असंग-सभी बन्धनों से मुक्त । ४. अशरीरकृत-अशरीरी। ५. निष्प्रयोग-प्रवृत्ति रहित । ६. बुद्ध-केवल ज्ञान सम्पन्न । ७. मुक्त-कर्मबन्धन से मुक्त ।
८. परिनिर्वृत-कर्मकृत विकारों से वियुक्त होने से शान्त । सीईभूय (शीतीभूत)
कषायों के उपशमन के अर्थ में सभी शब्द एकार्थक हैं।' शीतीभूत-कषायाग्नि का उपशमन । परिनित-कषाय की ज्वाला को शांत करना।
उपशांत-राग-द्वेष की अग्नि का उपशमन । - प्रल्हादित-कषाय के परिताप का उपशमन कर शांत रहना। सीलमंत (शीलमद्)
व्रती व्यक्ति के अर्थ में इन तीनों शब्दों का उल्लेख है। लेकिन इनका अर्थभेद इस प्रकार है१. शील-चारित्र ।
२. गुण-ज्ञान। .. ३. व्रत-महाव्रत, गुणवत आदि ।' सुक्क (शुष्क)
'सुक्क' पद के पर्याय में ६ शब्दों का उल्लेख है । ये सभी शब्द कृश व्यक्ति की विभिन्न पर्यायों के द्योतक होने पर भी समवेत रूप से समान अर्थको व्यक्त करते हैं। कुछ शब्दों की अर्थ-परम्परा इस प्रकार है। शुष्क-खून की कमी से शुष्क आभा वाला । भुक्ख-भोजन की कमी से दुर्बल । यह देशी शब्द है । निर्मास-मांस की कमी से कमजोर । १. सूटी प १५० : एकाथिकानि वैतानीति । २. उशाटी प३८५।
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परिशिष्ट २
३७७
किटिकटिकाभूत-मांस क्षय से उठने-बैठने में हड्डियों का चरमराना । अस्थिचर्मावनद्ध ---- केवल हड्डियों का ढांचा वाला ।
धम निसंतत - शरीर में केवल नाड़ियों का जाल मात्र दिखाई देना । यह शब्द तपस्वी के विशेषण के रूप में बहुलता से प्रयुक्त होता है ।
सुत ( सूत्र )
सुत्त शब्द के दो अर्थ हैं - ज्ञान, आगम । यह समवेत रूप में शास्त्र या आगम का वाचक है । इन शब्दों की अर्थ- परम्परा इस प्रकार है—
१. श्रुत --- गुरु से सुना हुआ ज्ञान ।
२. सूत्र - मूल आगम वाक्य |
३. ग्रन्थ - ग्रंथ रूप में ग्रथित ।
४. सिद्धान्त - तथ्य का अन्त तक निर्वाह करने वाला ।
५. शासन - धर्म की अनुशासना देने वाला ।
६. आज्ञावचन - तीर्थंकर या केवली द्वारा प्रतिपादित वाक्य |
७. उपदेश -- हित अहित का विवेक देने वाला ।
८. प्रज्ञापन — तत्त्व का यथार्थ बोध देने वाला |
६. आगम - आचार्य - परम्परा से प्राप्त ।
सुद्ध (शुद्ध)
'सुद्ध' आदि सभी शब्द शुभ्रता / निर्मलता के द्योतक हैं। दिवस प्रकाश की दृष्टि से शुभ्र होता है और आकाश नीरज होने से प्रसन्न - शुभ होता है । इस प्रकार 'अतिविशुद्ध' वितिमिर, शुचिम आदि सभी शब्द शुभ्रता व निर्मलता की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं । देखें --- 'सेत' |
सुरा (सुरा)
सुरा, मेरक आदि मादक रस मदिरा के ही विभिन्न प्रकार हैं । १. अनुद्वामटी प ३४-३५ एकाथिकानि तत्वतः एकार्थविषयाणि नानाघोषाणि पृथग्भिन्नोदात्तादि स्वराणि नानाव्यञ्जनानि पृथग्भिन्नाक्षराणि नामधे - यानि पर्यायध्वनिरूपाणि भवन्ति ।
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३७८
परिशिष्ट २
जैसे --
सुरा - पिष्ट आदि द्रव्य से निष्पन्न मदिरा ।
मेरक-सुरा को पुनः सन्धान करके जो सुरा तैयार की जाती है । मादक रस- - इसके अन्तर्गत सभी मादक रस जाते हैं ।'
सुसील (सुशील)
देखें- 'सीलमंत' 'निस्सील' |
सेज्जा ( शय्या)
सेज्जा शब्द के पर्याय में नौ शब्दों का उल्लेख है । ये सभी शब्द बैठने अथवा सोने के भिन्न भिन्न आकार के आसनों के द्योतक हैं । लेकिन जातिगत समानता से इन्हें पर्यायवाची मान लिया है । इनमें कुछ.. शब्द विशिष्ट अर्थवत्ता के संवाहक हैं । जैसे-
१. शय्या - शरीर प्रमाण बिछोना ।
२. खट्वा - नीवार आदि से निर्मित पलंग ।
३. वृषी-तापसों का कुश आदि से बना आसन ।
४. आसंदी - कुर्सी ।
५. पेढिका काष्ठ निर्मित बैठने का बाजोट ।
६. महिशाखा - भूमी का वह साफ-सुथरा भाग जो बैठने के काम आता
है ।
७. सिला - शिला / पत्थर से निर्मित आसन ।
८. फलक — लेटने का पट्ट अथवा पीढा ।
-
६. इट्टका - ईंट से निर्मित आसन ।
सेत (श्वेत)
देखें— 'सुद्ध' ।
स्वर् (स्वर्)
स्वर्ग के बोधक यहां छह शब्दों का उल्लेख है । इनमें कुछ शब्दों का आशय इस प्रकार है
जिसके सुखों का वर्णन किया जाता है वह स्वर्ग है । वह देवताओं का निवासस्थान होने से सुरसद्म तथा त्रिदशावास कहलाता हैं ।
१. दशहाटी प १८८
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परिशिष्ट २ : ३७६ तीसरा लोक होने के कारण त्रिविष्टप तथा त्रिदिव भी स्वर्ग का प्रसिद्ध
नाम हैं। हंता (हत्वा)
हिंसा की उत्तरोत्तर भूमिकाओं का वर्णन प्रस्तुत एकार्थक में हुमा है। लेकिन समवेत रूप में सभी शब्द एक ही अर्थ को व्यक्त करते हैं। हनन-लकड़ी आदि से मारना । छेदन-लोढे मादि से दो टुकड़े करना । भेदन-शूल बादि से छिन्न-भिन्न करना । लोपन-शरीर के अवयव का लोप करना । विलोपन-त्वचा उधेड़ना।
अपद्रावण-प्राण-वियोजन करना। हक्कार (हक्कार)
देखें-'रोयमाणी' । हट्टचित्त (हृष्टचित्त)
हृष्टचित्त-आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता, अथवा बाहर से पुलकित होना । तुष्टचित्त-संतोष से उत्पन्न खुशी, मान्तरिक प्रसन्नता।' आनन्दित-स्मित हास्य एवं सौम्यता। नन्दित-समृद्धि से प्राप्त प्रसन्नता। प्रीतिमन-प्रीतियुक्त प्रसन्नता। परमसौमनस्यिक-परम प्रसन्न मन वाला। हर्षवशविसर्पदहृदय-हर्ष से उत्फुल्ल हदय वाला।
प्रसन्न मानसिक स्थिति में तरतमता होने पर भी टीकाकार ने इनको एकार्थक माना है।' १. उशाटी प ४४१ हृष्टाः बहिः पुलकादिमन्तः, तुष्टा आन्तरिक प्रीति
भाजः। २. (क) औपटी ५४३ : सर्वाणि चैतानि हष्टाविपदानि प्रायः एकार्थानि । (स) मटी प ११९ : एकाधिकानि वैतानि प्रमोदप्रकर्षप्रतिपादनार्था
नीति।
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३८० : परिशिष्ट २
हत्यिक ( हास्तिक)
अंगविज्जा में 'हत्यिक' शब्द के पर्याय में ५ शब्दों का उल्लेख है । ये पांचों शब्द कटक- -कङ्गन के बोधक हैं ।
कुछ शब्दों का अर्थबोध इस प्रकार है
}
हास्तिक
हत्यिक
चक्रक मिथुनक -- गोलाकार जोड़ा ।
कंगण - हाथ को सुशोभित करने वाला आभूषण ।
हय ( हत )
ये सभी शब्द प्रहार करने के अर्थ में एकार्थक हैं लेकिन इनका अवस्थाकृत भेद इस प्रकार है
हत - शस्त्र आदि से घात करना ।
मथित -- भूमि पर पछाड़ना । घात - - मर्मस्थानों पर प्रहार करना । विपतित-भूमि पर डालकर घसीटना ।
- हाथ में पहना जाने वाला |
हयतेय ( हततेज)
'हयतेय' आदि पांचों शब्द विनष्ट तेज वाले व्यक्ति के विशेषण के रूप में एकार्थक हैं । इनकी अर्थ - परम्परा इस प्रकार है
हत तेज - आवरण आदि के कारण तेज रहित होना । नष्टतेज — स्वतः ही तेज का नष्ट होना ।
-अव्यक्त तेज, जलने आदि से तेज समाप्त होना ।
भ्रष्टतेजलुप्ततेज-तेज का लुप्त हो जाना । विनष्टतेज-तेज का सर्वथा विनाश ।
--
हिय ( हित )
हित आदि शब्द प्रतिपाद्य विषय पर बल देने वाले हैं । साधारण-तथा इन शब्दों में हितकारी अर्थ ही ध्वनित होता है लेकिन प्रत्येक शब्द की अर्थभिन्नता इस प्रकार है
१. भटी पृ १२५७ : एकार्था वैते शब्दाः ।
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परिशिष्ट २ : ३८१
हित-अपाय रहित । शुभ-पुण्यकर। क्षम-औचित्यकर। निःश्रेयस–निश्चित कल्याणकर ।
आनुगमिक-भविष्य में निरन्तर कल्याणकारी। होलणा (हीलना)
'हीलणा' आदि शब्द तिरस्कार करने के अर्थ में प्रयुक्त हैं । अभिव्यञ्जना में अर्थभेद होते हुए भी ये समान अर्थ में प्रयुक्त हैं। हीलना-जाति आदि से अवहेलना करना । अथवा जाति से बहिष्कृत
करना। तर्जना-तर्जनी अंगुली दिखाते हुए डांटना। ताडना-थप्पड़ मारना।
गर्हणा-गर्हणीय लोगों के सामने निंदा करना।' होलिज्जमाणी
देखें-'हीलणा'। हेरगोवएस (हेतुकोपदेश)
जो अवबोध हेतु/कारण से होता है वह हेतुकोपदेश संज्ञा कहलाती हैं। विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव हित की प्रवृत्ति और अहित की निवृत्ति इसी संज्ञा से करते हैं। जैसे चींटी गंध के आधार पर वस्तु का ज्ञान कर लेती है । यह प्रायः वार्तमानिकी संज्ञा है।
१. मोपटी पृ १९५॥
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परिशिष्ट ३
धातु-अनुक्रम (प्रस्तुत परिशिष्ट में उपसर्ग और धातुबों के बीच का निर्देश + से म करके - चिह्न से किया गया है तथा दीर्घ ऋ के टाईप प्रेस में न होने से ह्रस्व ऋ का प्रयोग किया है । जैसे-तृ, पृ, द, शृ आदि ।)
अंचेति-अञ्चू गती। अंदोलति-आन्दोलण बोलने । अक्कोसति-आ-क्रुशं माह्वानरोदनयोः । अज्झोववज्जइ-अधि-उप-पदिच गती। अट्यते-अट गतो।। अणुपालेइ-अनु-पलण रक्षणे । अणुसंचरइ-अनु-सम्-चर गती। खण्हेते-अशश् भोजने। अतिवाहयन्ति-अति-वहीं प्रापणे । अस्थयति-अर्थणि उपयाचने । अपकडति-अप-कृषं कर्षणे । अन्मुट्ठिज्जइ-अभि-उद्-ष्ठां गतिनिवृत्तौ । अभिगच्छइ-अभि-गम्लगती। अभिप्पायंति-अभि-प्र-आ-इंण्क् गती । अभिलसइ-अभि-लषी कान्ती। अभिसन्दध्यात्-अभि-सम्-दुधांग्क् धारणे दाने च । अभिहणति-अभि-हनंक हिंसागत्योः । अर्थापयति-अर्थणि उपयाचने । बीते-मर्द गतियाचनयोः । अर्यते-ऋप्रापणे। अवतरति-अव-तृ प्लवनतरणयोः । अवमण्णति-अव-मनूयि बोधने । अहिट्ठयति-अधि-ष्ठां गतिनिवृत्ती । अहिधावति-अधि-धावूग् गतिशुद्ध्योः ।
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३८४ : परिशिष्ट ३
अहियासेइ-अधि-बहि मर्षणे । आइक्खइ-आ-चक्षिक व्यक्तायां वाचि । आओडावेइ-आङ्-खोटण क्षेपे। आओसेज्ज-आ-क्रुशं आह्वानरोदनयोः । आकड्ढ–आ-कृषं कर्षणे। आखोटयति--आङ्-खोटण क्षेपे । आख्यापयति-आ-ख्यांक प्रकथने । आग्राहयति-आ-ग्रहीश् उपादाने । आचिक्खति--आ-चक्षिक व्यक्तायां वाचि । आढाइ-आ-दृङत् आदरे । आणेति-आ-णींग प्रापणे । आदियति-आ-दांम् दाने । आपिबति-आ-पां पाने । आयरइ-आ-चर गतौ । आरभइ-आ-रभि राभस्ये । आराहेइ-आ-राधं संसिद्धौ । आरुभति-आ-रुहं जन्मनि । आलुक्कई-आ-लोकङ् दर्शने । आलोइज्जइ-आ-लोचुङ् दर्शने । आवहंति-आ-वहीं प्रापणे । आवीलए-आ-पीडण् आघाते । आसाएइ-आ-स्वादि आस्वादने । आसारेइ-आ-सृ गतौ । आहण इ-आ-हनं हिंसागत्योः । उक्कड्डति-उद्-कृषं कर्षणे । उक्कोसेज्ज-उद्-क्रुशं आह्वानरोदनयोः । उक्खणाहि-उद्-खनूग् अवदारणे । उच्छल्लिज्जति-उद्-चल गतौ । उच्छुभ-उद्-क्षुभश् संचलने । उच्छोलेंति-उद्-क्षलण शोचे (दे)। उज्जोएइ-उद्-द्युति दीप्ती।
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परिशिष्ट ३ : ३८
उज्झीयति-उज्झत् उत्सर्गे। उत्तरति-उद्-तृ प्लवनतरणयोः । उत्तुदति-उद्-तुदींत व्यथने । उत्क्षिप्यति-उद-क्षिपंच प्रेरणे । उत्पादयदि-उद्-पदिच् गती। उत्प्रेक्षते-उद्-प्र-ईक्षि दर्शने । उत्सृजति-उद्-सृजिच् विसर्गे । उद्दवेति-उद्-द्रांक् कुत्सितगतौ । उपनीयते-उप-णींग प्रापणे । उपपदरिसिते-उप-प्र-दृशृप्रेक्षणे । उपपद्यते-उप-पदिच् गतौ ।। उपलभते-उप-डुलभिष् प्राप्तौ । उप्पज्जते-उद-पदिंच गती। उप्पाडेहि-उद्-पट गती। उवणामेति-उप-णमं प्रह्वत्वे । उवयंति-उप-यांक गतौ । उवेइ-उप-इंण्क् गतौ। उवेहति-उद्-प्र-ईक्षि दर्शने । उव्वत्तेइ--उद्-वृतुङ् वर्तने । उव्वियंति-उद्-ओविप् भयचलनयोः । ओधावति-अव-धावग् गतिशुढ्योः । ओभासेइ-अव-भासि दीप्तौ । ओभासेज्ज-अप-भाषि च व्यक्तायां वाचि । ओसारेति-अव-सृ गती। कंखइ-काक्षु कांक्षायाम् । कंदति-ऋदु रोदनाह्वानयोः । कंपेति—कपिङ् चलने। कड्डिति-कृषं कर्षण। कत्ताहि-कृतत् छेदने। कधेति-कथण वाक्यप्रबंधे। कामयंति-कमूङ् कान्तौ ।
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३८६ । परिशिष्ट ३
किट्टते-कृतण संशब्दने। किरियंति-डुकृग् करणे। किलामेज्ज-क्लमूच ग्लानौ । कोडंति-क्रीड़ विहारे। कोलंति-क्रीड़ विहारे । कुच्छति-कुत्सिण अवक्षेपे। कुब्वइ-डुकंग करणे, कुवं करणे। क्रमति-क्रम पादविक्षेपे। खमइ-क्षमौच सहने । खाति-खाद भक्षणे। खोभेइ-क्षुभश् संचलने । गच्छति-गम्लगती। गरहति-गहण विनिन्दने । गलइ-गलिण् स्रावणे। गिज्झइ-गृधूच् अभिकांक्षायाम् । गिण्हाति-ग्रहीश उपादाने । गुणेति-गुण आमन्त्रणे । गृहाति-ग्रहीश् उपादाने । घट्टेइ-घट्टण् चलने । 'घडइ-घटिष् चेष्टायाम् । घुमति-घूर्णत् भ्रमणे। चञ्चूयते-चर गती। चयंति-त्यजं हानी। चरति-चर गती। चाएति-शक्लुट्' शक्ती । चालेइ-चल कम्पने । चितेहिति-चितुण् स्मृत्याम् । छडु-छर्दण् वमने छिदति-छिपी द्वैधीकरणे । १.धातु पृ ३६४ आगमिकधातु । २. प्रा.४८६ शकेश्चय-तर-तीर-पारा।
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परिशिष्ट ३ : ३७ छिन्नति-छिपी द्वैधीकरणे, गुंक्-हिंसायाम् । छुभति-क्षुभश् संचलने । जंपति-कथण' वाक्यप्रबन्धने । जहेज्ज-ओहांक त्यागे। जाणइ-मांश् अवबोधने । जूरइ-खिदिप्' दैन्ये। जेमेति-जिमू अदने। जोत्तेज्ज-युजण्-सम्पर्चने । ज्ञाप्यते-ज्ञांश् अवबोधने । टिट्टियावेइ (दे)। ठवेति-ष्ठां गति निवृत्तौ। डझति-दहं भस्मीकरणे । णमंसइ–णमं प्रह्वत्वे । णामेति-णमं प्रह्वत्वे । णाहिति-ज्ञांश् अबबोधने । णिकड्डति-नि-कृषं कर्षणे । णिक्खुस्सति-निर्-क्रुशं आह्वानरोदनयोः । णिज्झायति-निर्-ध्ये चिंतायाम् । णिद्धावति-नि-धावूग् गतिशुद्योः । णिरिक्खति-निर्-ईक्षि दर्शने । णिलिक्खति-निर्-ईक्षि दर्शने । जिल्लवेति-निर्-लूग्श्-छेदने, निस्-सृ'-गतो ? णिसरति-नि-सृजिच् विसर्गे। णिहेति-नि-दुधांग्क् धारणे । णीहरति-निर्-हग हरणे। णूमें ति (दे)
१. प्रा ४/२ कथेवज्जर पज्जरोप्पाल पिसुण-संघ-बोल्ल-चव-जम्प-सीसा
साहाः। २. प्रा ४/१३२ खिदेमॅरविसूरी। ३. प्रा ४/७६ निस्सरेोहर-नील-धाड-वरहाडाः।
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परिशिष्ट ३
पोल्लति - क्षिपींत्' प्रेरणे । णोल्लसति — क्षिपिच प्रेरणे ।
१८८ :
तक्केइ — तर्क विचारे ।
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तज्जेति तर्जिण् संतर्जने ।
तवेंति—तपं सन्तापे ।
तसंति - सैच् भये । तालेति-तडण् आघाते । तितिक्खइ -- तिजि क्षमानिशानयोः ।
तिप्पइ - तिपृङ् क्षरणे । तीरेइ - तृ - प्लवनतरणयोः । तुट्ठा एति - (दे ) ? तुदति —तुदींत् व्यथने ।
थणंति - स्तन शब्दे । दयामो- दयि रक्षणे । दिप्पते — दीपैचि दीप्ती । दीसति — दृशं प्रेक्षणे ।
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दुक्ख इ – दुःखण तत्क्रियायाम् ।
दुरुहइ – दु-रुहं जन्मनि । इज्जति-दु- गती |
देति — डुदांग्क् दाने । धाडेति — निस् सृ गतौ । धारयति - धृग् धारणे । धावति — धावूग् गतिशुद्ध्योः । निअच्छंति - नि-यमूं उपरमे । निंदति - णिदु कुत्सायाम् । निग्गच्छति — निर्गम्लृ गतौ । निच्छोडेज्ज - निर्-छुट्-छेदने । निर्णीयते--निर्-णींग् प्रापणे । निप्पीलए – निस्- पीडण् आघाते ।
१. प्रा ४ / १४३ क्षिपेर्गलत्याड्डक्ख सोल्ल-पेल्ल-णाल्ल- छुह-हुल- परी- घत्ताः । २. प्रा ४/७६ निस्सरेणीहर- नील-घाड-वरहाडा : ।
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परिशिष्ट ३ : ३८९
निब्भच्छेज्ज-निर्-भत्सिण संतर्जने। . निविशति-नि-विशंत् प्रवेशने । निव्वंजीयंति-निर्-वि-आ-अजौप्-व्यक्त्यादौ निष्पाद्यते-निस-पदिंच गती। निसृजति-नि-सृजिच् विसर्गे। पंउजेज्जा-प्र-युज पी योगे। पंतावेज्ज--प्र-अम् गतौ। पक्खति-पक्षण परिग्रहे। पक्खते-दृश प्रेक्षणे। पगासेति-प्र-काशृङ् दीप्ती । पच्चति-दुपची पाके । पच्चाणेति-प्रति-आ-णींग्-प्रापणे । पच्छति-प्रछंत् जीप्सायाम् । पडइ-पत्लु-गतो पडिक्कमिज्जइ-प्रति-क्रमू पादविक्षेपे । पण्णवेइ-प्र-ज्ञांश् अवबोधने । पत्तियइ-प्रति-इंण्क् गतौ। पत्थयति-प्र-अर्थणि उपयाचने। पधावति-प्र-धावूग् गतिशुद्धयोः । पधोवेति-प्र-धून' विधूनने । पन्नायति-प्र-ज्ञांश् अवबोधने । पभासेइ-प्र-भासि दीप्तो । पमिलायति-प्र-म्लैं गात्रविनामे । पयाति-प्र-यांक गती। पर्यालोचयति-परि-आ-लोचङ् दर्शने । परिक्कमिज्ज-परि-भू पादविक्षेपे। परिघमति-परि-धूर्णत भ्रमणे । परिचेट्ठति-परि-चेष्टि चेष्टायाम् । परिच्चयंति-परि-त्यजं हानी । परिच्छिदति-परि-छिपी द्वधीकरणे । परिजाणेइ-परि-ज्ञांश् अवबोधने । १. प्रा ४/५६ धूगेधुवः।
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३६० , परिशिष्ट ३
परितप्पइ-परि-तपं सन्तापे । परितालेति-परि-तडण मापाते । परिधावति-परि-धावूग् गतिशुन्योः । परिनिव्वाइ-परि-निर्-वांक गतिगन्धनयोः । परिभवति-परि-भू-सत्तायाम् । परिभासति-परि-भाषि च-व्यक्तायां वाचि । परियट्टति-परि-अट गती। परियत्तेइ-परि-वृतुङ् वर्तने । परिवत्तते-परि-वृतुङ् वर्तने । परिवहेति-परि-व्यथिष् भयचलनयोः । परिहायति-परि-ओहांक त्यागे । परुवेइ-प्र-रूपण रूपक्रियायाम् । पलुक्कइ-प्र-लोकृङ् दर्शने । पविद्धसति-प्र-वि-ध्वसूङ अवलंसने । पवीलए-प्र-पीडण् गहने । पव्वइज्जा-प्र-व्रज गती। पव्वहेति-प्र-व्य थिए भयचलनयोः । पवेदेमि-प्र-विदिण् चेतनाख्याननिवासेषु । पहर-प्र-हृग हरणे। पाटयति-पट गती। पालेइ-पलण् रक्षणे। पावइ-प्र-आप्लृट् व्याप्ती । पासइ-दृशप्रेक्षणे । पियइ-पां पाने । पीडइ-पीडण् गहने। पीहेइ-स्पृहण ईप्सासाम् । पूरेइ-पृश् पालनपूरणयोः । पेक्खति-प्र-ईक्षि दर्शने । पेहति-प्र-ईक्षि दर्शने । प्रचोदयति-प्र-चुदण् संचोदने । प्रत्येति-प्र-इंणक गतौ ।
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परिशिष्ट ३ । ३६१
प्रभाति-प्र-भांक दीप्तौ। प्रविशति-प्र-विशंत् प्रवेशने । प्रेरयन्ति-प्र-ईरण क्षेपे । फंदेइ -स्पदुङ् किञ्चिच्चलने । फरूसेज्ज-पृश् पालनपूरणयोः । फासेइ-स्पृशत् संस्पर्श ।। फुडीकज्जंति-स्फुट-डुकृग् करणे । बंधेज्ज-बन्धंश् बन्धने । बीभिति-जोभीक् भये । बुज्झइ-बुध अवगमने । बेति--ब्रग्क व्यक्तायां वाचि । भंज-भञ्जोंप आमर्दने । भक्खति-भक्षण अदने । भणति-भण शब्दे । भमते-भ्रमू चलने । भवति-भू सत्तायाम् । भासते-भासि दीप्तो। भासेइ-भाषि च व्यक्तायां वाचि । भिदति-भिदृपी विदारणे। भुंजते-भुजप् पालनाभ्यवहारयोः । मंतेहिति-मन्त्रिण गुप्तभाषणे । मग्गइ-मार्गण् अन्वेषणे । मन्नंतिमनयि बोधने । मरिसेति-मृषीच तितिक्षायाम् । महेज्ज--मन्थ हिंसासंक्लेशयोः । मिणइ-मीण मतौ। मिणति–माङ क मानशब्दयोः । मुच्चइ---मुचण् प्रमोचने । मुज्झइ-मूर्छा मोहसमुच्छाययोः । मोहेति-मुहीच वैचित्ये । युज्यते-युज पी योगे। रज्जइ---रजी रागे।
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३९२ : परिशिष्ट ३
रमंति-रमि क्रीडायाम् । रीयति-रीच् स्रवणे, रीश् गतिरेषणयोः । रुंभेज्ज-रुधृपी आवरणे । लज्जामो-ओलस्जैति वीडे । लन्भति-डुलभिष् प्राप्तो। ललंति-ललिण ईप्सायाम् । लुक्कइ–लोकङ् दर्शने । लेसेज्ज—श्लिषच आलिगने । वंदइ-वदुङ् स्तुत्यभिवादनयोः । वक्कमंति-अव-क्रमू पादविक्षेपे । वन्दते-वदुङ स्तुत्यभिवादनयोः। वज्त्तेज-वृतुङ्व र्तने । वप्फति-(दे) वमेंति--टुवमू उगिरणे । वयंति-व्रज गती। वर्णयति-वर्णण वर्णक्रियाविस्तारगुणवचनेषु । वासेइ-वासण उपसेवायाम्, वसं निवासे ? विउक्कमंति-वि-उद्-क्रम पादविक्षेपे । विउट्टिज्जइ-वि-कुट्टण कुत्सने छेदने च । विकड्डति-वि-कृषं कर्षणे । विकत्ताहि-वि-कृतैत् छेदने । विच्छिदति-वि-छिदृपी द्वधीकरणे । विच्छुभ-वि-क्षुभश् संचलने । विज्झीयति-वि-उज्झत् उत्सर्गे । विद्धसति—वि-ध्वंसूङ् अवस्रंसने । विधावति-वि-धावूग् गतिशुद्धयोः । विनयन्ति-वि-णींग प्रापणे । विप्परिचे?ते-वि-परि-चेष्टि चेष्टायाम् । विप्परिवतते-वि-परि-वृतुङ वर्तने । विभयंति-वि-भञ्जओप् आमर्दने । विभावेमि-वि-भू सत्तायाम् ।
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परिशिष्ट ३ । ३६३
विलग्गइ-वि-लगे सङ्गे। विलुपति--वि-लुप्लुती छेदने । विशति-विशंत् प्रवेशने । विशेषयति-वि-शिष्लप विशेषणे विसोधेति-वि-शुधंच शौचे। विहण-वि-हनंक हिंसागत्योः । वोसिरति-वि-उद् सृजिच् विसर्गे। वृणीते-वृश संभक्तो। वृणोति-वृग्ट वरणे । संकुयंति-सम्-कुचत् संकोचने । संघट्टेज्ज–सम्-घट्टण चलने संचारयन्ति-सम्-चर गतौ । संचालयन्ति--सम्-चलण भृतौ । संचिट्ठते-सम्-ष्ठां गतिनिवृत्ती । संजमंति-सम्-यमू उपरमे। संजायते-सम्-जनैचि प्रादुर्भावे । संधंसेज्ज–सम्-ध्वंसूङ् अवस्रंसने । संधयेत्–सम्-धे पाने । संधावति-सम्-धावूग गतिशुद्धयोः । संपेहेति-सम्-प्र-ईक्षि दर्शने । संप्रेक्षते-सम्-प्र-ईक्षि दर्शने । संभवति–सम्-भू सत्तायाम् । संलुक्कइ-सम्-लोकङ् दर्शने । संवरेज्जा-सम्-वृग्ट वरणे । संसारेइ-सम्-सृ गती। सक्कारेइ-सद्-डुकृग् करणे । सक्के इ-शक्लट शक्तो। सज्जइ---षजं सङ्गे । सडइ-शट रुजाविशरणगत्यवशातनेषु । सद्दहइ ---श्रद्-डुधांग्क धारणे । समवतरन्ति--सम्-अव-तृ तरणप्लवनयोः।
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३९४ : परिशिष्ट ३
समवयन्ति–सम्-अव-इंण्क् गतौ । समारभइ-सम्-आ-रभिं राभस्ये । सम्माणेइ-सम्-मानण् पूजायाम् । सम्मिल न्ति-सम्-मिलत् श्लेषणे । सहति-षहि मर्षणे। साध्यते-साधंट संसिद्धौ । सिंचंति-षिचीत् क्षरणे। सिज्झइ-षिधंच संराद्धौ । सिणावेंति-व्णांक शौचे । सूयते-धूक प्रसवैश्वर्ययोः । सोभते-शुभि दीप्तौ। सोयइ-शुच शोके । स्तौति-ष्टुग्क् स्तुतौ । स्पृशति-स्पृशंट संस्पर्शे । स्फाटयति-स्फट विशरणे । शृणोति-श्रृंट् श्रवणे । हणंति-हनंक हिंसागत्योः । हरंति-हग हरणे। हवइ-भू सत्तायाम् । हसंति-हसे हसने । हायति-ओहांक् त्यागे। हिंसति-हिसुण हिसायाम् । हीलेति-हीलण निन्दायाम् ।'
१. धातु पृ३६४ : लौकिक धातु ।
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शुद्धाशुद्धि-पत्र
पृ संख्या
अशुद्ध खीणक्कोहे
बा
रइ-अरई अप्पियववहार ऋ-सरजुल कर्म
खीणकोहे वा रइ-अरई अप्पियववहारिय ऋजु-सरल कर्म
५२
सुभगा
सुभगो
मूल एकार्थक अक्कोह अत्तव अधम्मत्थिकाय अप्पियववहार ऋजु कम्म गड्डिक जंबू णिम्मज्जित थिल्ली पंडुर परिग्गह पव्वाविय पासादिय पासादिय पिच्च
१०२
१०२
जीव ३/७०० अंवि थिल्लि पंडुर आयर प्रवाजित अभिरूवे पडिरूवे पिच्चिय कुट्टितो विणओ वातिककर समारंभे सपज्जाय सिद्धार्थ
अवि थिल्ली पडुर आयार प्रवजित अभिरुवे पडिरुवे पिच्च कुट्टित्तो विणआ वार्तिकर सरंमाभे सप्पज्जाय सिद्धार्थ सोह खड्डुगं हायपति
१०३
१०५
१३६
१४४
१४७
पूया व्यक्तिकर संरंभ सप्पज्जाय सिद्धार्थ सोह हत्थखड्डुग हायपति हार
सोहि
१५७ १५८
खडुगं हापयति ह्रियते
हित्यते
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( ३६६)
पृ संख्या १५६ १६१ १६३ १६६
मूल एकार्थक हुतासिणासिहा परिशिष्ट १
अप्रसूता परिशिष्ट १ अविधिपरिहारि परिशिष्ट १ चितिकम्म णिम्मल परिशिष्ट १
१७३ १६२ १६८ २०५ २१० २३५ २४६ २४६ २५७ २६१ २६२ २६८ ३०० ३०२
अशुद्ध हुतासिणासिहा कोष्टक अट्ट्यते नववधू अधिसंधान संजमतवय खीणक्कोह वंदग निट्टियट्ठि दकादर भत्त्थ लप्पमाण अधम्मधिकाय सउज्जाय सद्धम सखेव सरगिरि उठ्ठाण उवसय
शुद्ध हुतासिणसिहा कोष्ठक अट्यते नववधू अभिसंधान संजमतवड्ढय खीणकोह वंदणग निट्ठियट्ठ दकोदर भत्थ लुप्पमाण अधम्मत्थिकाय सउज्जोय सद्धर्म संखेव सुरगिरि उट्ठाण उवसग
परिशिष्ट १
समास परिशिष्ट १ परिशिष्ट २ परिशिष्ट २
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