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एकार्थक माना है ।'
एकार्थक का प्रयोजन
प्राचीन काल में प्रत्येक विषय को बारह प्रकार से समझाया जाता था । उसमें एकार्थक का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा । इस प्रकार कोश ज्ञान अलग से न कराकर विषय के अध्ययन के साथ ही करा दिया जाता था । बृहत्कल्प भाष्य में उल्लेख है कि साधु को विविध भाषाओं में कुशल होना चाहिए, जिससे कि वह जनता को अधिक लाभ पहुंचा सके । '
एकार्थंक का प्रयोजन बताते हुए ग्रन्थकारों ने अनेक स्थलों पर कहा है कि अनेक देशों के शिष्यों के अनुग्रह के लिए एकार्थकों का प्रयोग होता है ।' प्राचीन काल में गुरु के पास विभिन्न देशों के विद्यार्थी उपस्थित होते थे । उन्हें अवबोध देने के लिए एक ही शब्द के वाचक विभिन्न देशों में प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया जाता था, जिससे सभी शिष्य अपनी-अपनी भाषा में उस तथ्य को समझ सकें । यही कारण है कि शास्त्रों में एक अर्थ के वाचक विभिन्न प्रान्तीय शब्दों का संभार स्वत: विकसित होता चला गया। उदाहरणार्थ - दुग्ध, पय, वालु, पीलु और क्षीर ये दूध के एकार्थक हैं । इनमें आज भी वालु (हालु) शब्द कर्नाटक में तथा पीलु (पाल) शब्द तमिलनाडु में दूध का वाचक है । इस प्रकार एकार्थकों से विभिन्न शब्दों के आधार पर भाषा वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक इतिहास का अवबोध भी मिलता है । चूर्णिकार ने स्तुति और स्तव को भिन्न-भिन्न देशों में प्रयुक्त होने वाले एकार्थक माना है । "
एकार्थकों के प्रयोग का दूसरा प्रयोजन यह प्रतीत होता है कि किसी बात पर बल देने के लिए तथा उसकी विशेषता प्रकट करने के लिए भी
१. भटीप १७ ।
२. अनुद्वामटी प ६ : निक्खेवेगट्ठ निरुत्ति विही पवत्ती व केण वा कस्स । तद्दारमेय लक्खणतदरिहपरिसा य सुतत्थो ॥
३. बृभा १२२६ ।
४. जंबूटी प ३३ : नानादेश विनेयानुग्रहार्थ एकार्थिकाः ।
५. नंदीच पृ ४६ : अन्योन्य विषयप्रसिद्धा ते एकार्थवचनाः ।
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