SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १४ ) एक ही शब्द भिन्न भिन्न क्षेत्रों, प्रकरणों एवं संदर्भो में भिन्न भिन्न अर्थ का वाचक होता है, जैसे—'उपयोग', 'धर्म', 'आकाश', 'गुण' आदि जैन दर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं। सामान्य अर्थ से इनके अर्थों में भिन्नता है । कोश के माध्यम से भिन्न-भिन्न अर्थों का ज्ञान किया जा सकता है । कोश के बिना अर्थ-ज्ञान कठिन होता है, इसलिए विशिष्ट ज्ञान वृद्धि के लिए कोशों की रचना हुई है। एकार्थक कोश का उत्स भगवती सूत्र के प्रारम्भ में गौतम स्वामी भगवान् महावीर से पूछते हैं-एए णं भंते ! नव पदा कि एगट्टा नाणाघोसा नाणावंजणा ? उदाहु नाणट्ठा नाणाघोसा नाणावंजणा ?–भंते । ये चलमाण चलित आदि नौ पद एकार्थक, नानाघोष और नानाव्यञ्जन वाले हैं अथवा अनेकार्थक, नानाघोष और नानाव्यञ्जन वाले हैं ? भगवान् महावीर ने समाधान देते हुए कहा-'इनमें चलमान चलित, उदीयमान उदीरित, वेद्यमान वेदित और प्रहीयमान प्रहीन आदि चारों पद एकार्थक, नानाघोष व नानाव्यञ्जन वाले हैं।' टीकाकार ने इसी तथ्य को चार विकल्पों के माध्यम से बहुत सुन्दर रूप में निरूपित किया है । जैसे १. एकार्थक-एक व्यंजन वाले-जैसे क्षीर क्षीर आदि । २. एकार्थक-नाना व्यंजन वाले-जैसे क्षीर, पय आदि । ३. अनेकार्थक-अनेक व्यञ्जन वाले-जैसे अर्कक्षीर, गव्यक्षीर, महिषक्षीर आदि । ४. अनेकार्थक-नाना व्यञ्जन वाले-जैसे घट, पट आदि । इसमें दूसरा विकल्प कोश की उत्पत्ति का कारण है । टीकाकार ने चलमान चलित आदि चारों शब्दों में स्पष्ट रूप से आर्थिक विभेद स्वीकार करते हुए भी इनको उत्पाद पर्याय की अपेक्षा से १. मग १/१२ : गोयमा ! चलमाणे चलिए, उदोरिज्जमाणे उदीरिए, देविज्जमाणे वेदिए, पहिज्नमाणे पहीणे-एए गं चत्तारि पदा एगट्ठा नाणाघोसा नाणावंजणा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016050
Book TitleEkarthak kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages444
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy