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परिशिष्ट १ : ३२॥
७. धर्म-श्रुतधर्म का सारभूत अध्ययन है।
इस प्रकार ये एकार्थक शब्द अध्ययन में प्रतिपाद्य विभिन्न विषयों का अवबोध देते हैं।
दशवकालिक के चतुर्थ अध्ययन में सूत्र और पद्य दोनों हैं। उसमें प्रथम नौ सूत्र तक जीव और अजीव का अभिगम है। दसवें से सत्रहवें सूत्र तक चारित्र धर्म के स्वीकार की पद्धति का निरूपण है। अठारहवें से तेइसवें सूत्र तक यतना का वर्णन है। पहले से ग्यारहवें श्लोक तक बन्ध और अबन्ध की प्रक्रिया का उपदेश है। बारहवें श्लोक से पच्चीसवें
श्लोक तक धर्मफल की चर्चा है। जुइ (द्युति/युति)
'जुइ' आदि शब्द व्यक्ति की समृद्धि व तेजस्विता के द्योतक हैं। ये व्यक्ति की विशिष्ट अवस्था की विभिन्न पर्यायों को अभिव्यक्त करते हुए भी एकार्थक हैं१. द्युति ।
-कांति, इष्ट पदार्थों का संयोग । २. प्रभा-यान वाहन की समृद्धि । ३. छाया-शोभा। ४. अचि–शरीर पर पहने हुए आभूषणों की दीप्ति । ५. तेज-शरीर की तेजस्विता।
६. लेश्या-शरीर का वर्ण । जोग (योग)
जीव और शरीर के साहचर्य से होने वाली प्रवृत्ति 'योग' है। यहां योग शब्द शक्ति/सामर्थ्य के अर्थ में प्रयुक्त है। इनमें कुछ शब्दों का आशय इस प्रकार हैवीर्य-मानसिक शक्ति।
स्थाम-शरीरिक सामर्थ्य ।। १. दशहाटी प १६० : एकाथिका एते शब्दाः । २. भटी प १३२ : एकार्था वैते शब्दाः ।
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