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परिशिष्ट २ : ३४३ भय का एक बड़ा कारण है-अंधकार और कालिमा। अतः उत्रास को भी उपचार से इसका पर्याय मान लिया है । पंडिय (पंडित)
_ 'पंडिय' आदि चारों शब्द आचारांग में मुनि/ज्ञानी के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हैं। वाच्यार्थ अलग होने पर भी भावार्थ में सभी एक ही अर्थ को व्यक्त करते हैं१. पंडित--ज्ञेय को जानने वाला। २. मेधावी-मर्यादावान् तथा मेधा/बुद्धि से सुशोभित । ३. निष्ठितार्थ-अर्थ के अन्तिम छोर तक पहुंचने में समर्थ ।
४. वीर-कर्म विदारण करने में कुशल । पच्चंतिक (प्रात्यन्तिक)
प्रस्तुत एकार्थक में ग्राम के अन्तराल-बाहिर रहने वाले अनेक प्रकार के व्यक्तियों तथा जातियों का उल्लेख है। वे प्रायः नीच कर्म करने वाले होने के कारण उनकी परिगणना म्लेच्छ के अंतर्गत की गयी है। इनकी अर्थ-परम्परा इस प्रकार है१. प्रात्यन्तिक-गांव के बाह्य भाग में रहने वाले मातंग, चांडाल
आदि। २. दस्यु-आयतन-चोरों की पल्लियां । ३. म्लेच्छ-बर्बर, शबर, पुलिन्द्र आदि म्लेच्छ जातियों की वसतियां। ४. अनार्य-साढ़े पच्चीस आर्य देशों के व्यतिरिक्त देशों वाले व्यक्तियों
के निवास स्थान । ५. दुःसंज्ञाप्य-मंद बुद्धि वाले व्यक्ति । ६. दुःप्रज्ञाप्य-ऐसे व्यक्ति जिनको समझाना अत्यन्त दुष्कर होता है।
ये सारे स्थल तथा व्यक्ति म्लेच्छवत् हैं, इसलिए इन्हें म्लेच्छ के अन्तर्गत माना है। पज्जोसवण (पर्युपशमन)
इसका अर्थ है-पर्युषणा के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर १. आटी प २५२....."न तेषु म्लेच्छस्थानेषु......।
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