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समझाया गया है । उदाहरण के लिए इन्द्र शब्द के पर्याय में जब शक्ति को बताना हो तब 'शक' शब्द का प्रयोग होता है और जब ऐश्वर्य बताना हो तब 'इंद्र' तथा पाक नामक शत्रु को नाश करने की मुख्यता को द्योतित करना हो तो 'पाकशासन' शब्द का प्रयोग होगा । इसी प्रकार इन्द्र के अन्य नामों की सार्थकता भी है । (देखें - ' सक्क') । ये सभी शब्द भिन्न-भिन्न प्रवृत्ति के निमित्त से भिन्न होते हुए भी इंद्र अर्थ के वाचक हैं, अतः ये एकार्थक हैं ।'
इस प्रकार एकार्थक / पर्यायवाची शब्द हमारी शब्द- समृद्धि ही नहीं, बल्कि किसी भी पदार्थ या व्यक्ति विषयक पूरी जानकारी प्रस्तुत करते हैं । उदाहरण के रूप में हम 'उवहि' शब्द पर विचार करें। उसके आठ पर्यायवाची शब्द हैं । वे सब 'उपधि' की विभिन्न अवस्थाओं और विशेषताओं के द्योतक हैं । इन पर्याय शब्दों से उपधि का पूरा रूप सामने आ जाता है।"
इसी प्रकार 'दिट्ठिवाय', 'ववहार', 'अहिंसा', 'अदत्तादान' आदि शब्दों के विभिन्न पर्याय संपूर्ण विषय-वस्तु का बोध कराते हैं । एकार्थक संचयन की प्रक्रिया
प्रारम्भ में आगमों के प्राकृत भाषा के साहित्य में जहां 'एगट्ठा' या 'पज्जाया' शब्दों का उल्लेख था उन्हीं एकार्थकों का संकलन किया था किन्तु पुनश्चिन्तन किया गया कि संस्कृत टीका साहित्य में भी अनेक महत्वपूर्ण एकार्थकों का प्रयोग हुआ है तथा चूर्णि साहित्य में भी मिश्रित भाषा के प्रयोग से बहुत एकार्थक विशुद्ध संस्कृत जैसे प्रतीत होते हैं जैसे- घातो हिंसा मारणं दंड अधर्म इत्यनर्थान्तरम्" (सूच् २ पृ ३३८ ) । अतः संस्कृत व्याख्या साहित्य के एकार्थक शब्दों का भी संचयन किया गया, जैसे—रयः वेगः चेष्टाऽनुभवः फलमित्यनर्था-न्तरम् ( आवहाटी १ पृ २९३ ) । इस प्रकार यह संस्कृत और प्राकृत भाषा का सम्मिश्रित कोश है । कोश की परम्परा में संभवतः यह प्रथम कोश है जिसमें संस्कृत और प्राकृत भाषा के शब्दों का एक साथ संकलन है । १. अनुद्वामटी प २४६ : ...परमेश्वर्यादीनि भिन्नान्येवात्र भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तानि....
२. ओनिटी प २०७ : 'तत्वमेवपर्यायैव्र्याख्ये' इति न्यायात् पर्यायान प्रतिपादयन्नाह ।
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