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(१६) आगमों के मूल पाठ में अनेक स्थलों पर एक शब्द के वाचक अनेक शब्दों का उल्लेख एकार्थक का निर्देश किये बिना किया गया है। उन सबका समावेश भी इस कोश में अनिवार्य प्रतीत हुआ, जैसे—'आइण्ण', 'उक्किट्ठ' 'आसुरत्त' इत्यादि । व्याख्या साहित्य में इन शब्दों की भिन्न भिन्न व्याख्या देते हुए भी इनको एकार्थक माना है। कहीं कहीं शब्द एकार्थक जैसे प्रतीत नहीं होते लेकिन प्राचीन आचार्यों ने उनको एकार्थक माना है, जैसे-अशन, पान, खादिम और स्वादिम-ये चारों शब्द भोज्य वस्तुओं की भिन्नता के बोधक हैं, परन्तु इनको भोज्य वस्तु की अपेक्षा से एकार्थक माना है। इसी प्रकार 'विपरिणामइत्ता' आदि चारों शब्द भिन्नार्थक प्रतीत होते हैं। इन्हें भी विनाश के वाचक होने से एकार्थक माना है ।
एक बार कार्य का निरीक्षण करते हुए युवाचार्य प्रवर ने फरमाया कि व्याख्या ग्रंथों में ग्रंथकार ने किसी शब्द को स्पष्ट करने के लिए उसके वाचक यदि तीन या चार शब्दों का उल्लेख किया है तो उनका समावेश भी इस कोश में हो सकता है । इस दृष्टि से टीका साहित्य का पुनः पारायण किया गया तथा अनेक महत्त्वपूर्ण एकार्थक इस कोश के साथ जुड़ गये। जैसे'फुल्ल' 'अनुकाश' 'आपूरित' 'वर्द्धन' इत्यादि । ___ इस कोश को तैयार होते-होते अनेक बार कार्डों को बदलना पड़ा। अन्तिम रूप देते समय एक ही शब्द से शुरू हाने वाले अनेक कार्ड थे। उसमें छांटना था कि कोई शब्द छूट न जाये तथा पुनरुक्ति भी न हो। प्रारम्भ में हमने क-ग, त-य, र-ल, ण-न आदि व्यञ्जनों के अन्तर वाले एकार्थकों का भी इसमें समावेश किया था, लेकिन पुनश्चिन्तन के पश्चात् उनको छोड़ दिया । क्योंकि सामान्यतः प्राकृत का पाठक इस अंतर को समझ सकता है। जहां प्राकृत भाषा में नियुक्ति, चूणि आदि में एकार्थक आया है और वहो यदि १. (क) भटी प १५५ : आइन्नमित्यादयः एकार्था अत्यन्तव्याप्तिदर्श
नाय । (ख) वही प १७८ : एकार्था वैते शब्दाः प्रकर्षवृत्तिप्रतिपादनाय ।
(ग) उपाटी पृ १०५ : एकार्था शब्दाः कोपातिशयप्रदर्शनार्थाः । २. प्रसाटी प ५१ । ३. जीवटी प २१ : विपरिणामइसा....."एतानि चत्वार्यपि पदान्येकाथिकानि विनाशार्थप्रतिपादकानि नानादेशमविनेयानुग्रहार्थमुपात्तानि ।
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