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२९२ । परिपिष्ट २
३. आगाल-आत्म प्रदेशों को समस्थिति में स्थित करने वाला। ४. आगर-जो ज्ञान आदि का आकर/खजाना है। ५. आश्वास-जहां व्यक्ति आश्वस्त होता है अथवा सुख की सांस लेता
६. आदर्श-जिसमें व्यक्ति स्वयं को देखता है। ७. अंग-जिसमें भाव आचार की अभिव्यक्ति की जाती है। ८. आचीर्ण-जो आचरित होता है। ६. आजाति-जिसमें ज्ञान आदि उत्पन्न होते हैं। १०. आमोक्ष-कर्म बन्धन से सर्वथा मुक्त करने वाला। आलोयणा (आलोचना)
आलोचना का शाब्दिक अर्थ है--चारों ओर से देखना। साधक अपनी भूलों को विशेष रूप से देखता है, वह आलोचना है। आलो. चना के विविध रूप प्रस्तुत पर्याय-शब्दों में उल्लिखित हैं । उनका आशय इस प्रकार है१. आलोचना-विधिपूर्वक अपनी भूल का गुरु के सामने निवेदन
करना। २. विकटना-अपनी भूल को स्पष्टता व सरलता से स्वीकारना। ३. शोधि-अतिचार मल को धोना। ४. सद्भावदायना-यथार्थ का अभिव्यक्तीकरण । ५. निंदा-आत्मसाक्षी से अपने दोषों की आलोचना करना। ६. गहरे-गुरुसाक्षी से अपने दोषों की निंदा करना। ७. विकूटन-अतिचार गल्ती के अनुबंध का छेद करना।
८. शल्योद्धार-मिथ्यादर्शन आदि शल्यों का निवारण करना। आवस्सग (आवश्यक)
देखें-'आवस्सय'। आवस्सय (आवश्यक)
जो साधु एवं श्रावकों द्वारा अवश्यकरणीय है, वह आवश्यक है । इसका अपर नाम प्रतिक्रमण है। इसके लगभग सभी पर्याय गुणनिष्पन्न
१. आवश्यक-ज्ञानादि गुणों को अथवा मोक्ष को चारों ओर से वश में
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