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( २३ )
यह गाथा 'पाप' और 'कर्म' – दोनों अर्थों में प्रयुक्त है। इसी प्रकार "पतिट्ठा' और 'अवस्था' आदि ।
अनेक एकार्थक एक ही शब्द के आगे उपसर्ग आदि लगने से एक ही अर्थ के वाचक बन गये हैं । टीकाकार ने इनको एकार्थक माना है ।' जैसे -- अक्कोहा निक्कोहा खीणकोहा |
इसी प्रकार 'अमोह', 'अणावरण', 'अगोय' आदि द्रष्टव्य हैं । ऐसे एकार्थकों का प्रयोग अन्य कोशों में देखने को नहीं मिलता ।
प्रस्तुत कोश में पांच अस्तिकाय के एकार्थक अपना विशेष महत्व रखते हैं । 'धम्मत्थिकाय' (धर्मास्तिकाय) के पर्याय में प्राणातिपात विरमण से मन-गुप्ति तक के शब्द धर्म के विविध अंग हैं जो कि धर्मास्तिकाय से सर्वथा पृथग् हैं । लेकिन धर्म शब्द के साधर्म्य से सूत्रकार ने इनको धर्मास्तिकाय के • अभिवचन / पर्याय के रूप में संगृहीत कर लिया है।
प्रस्तुत कोश में आगम ग्रंथों के अध्यायों के एकार्थक नवीनता के परिचायक हैं । 'दुमपुफिया' के एकार्थक के प्रसंग में दशवैकालिक के प्रथम अध्य-यन को जिन जिन उपमाओं से उपमित किया, उनको इस अध्ययन के पर्यायवाची स्वीकृति कर लिया। इसी प्रकार बाहरवें अंग 'दिट्टिवाय' तथा दशवैकालिक के चतुर्थ अध्ययन 'जीवाभिगम' के पर्याय भी ग्रंथकारों ने उसकी वर्ण्य वस्तु के आधार पर स्वीकृत किये हैं ।
प्रस्तुत कोश में अनेक महत्वपूर्ण जैन पारिभाषिक शब्दों के पर्याय संकलित हैं, जैसे – 'तमुक्काय' 'अकम्मवीरिय', 'उक्खोडभंग', 'लघुक' 'द्वितीयसमवसरण आदि ।
प्राकृत भाषा के कुछ शब्द ऐसे होते हैं, जिनके भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं । जैसे– 'संत', 'माण', 'आगार', 'सक्क' आदि ।
'संत' चार अर्थों का वाचक है-तथ्य, शान्त, श्रान्त और सत् । 'माण' दो अर्थों का वाचक है-अभिमान और परिमाण । 'अगार' दो अर्थों का वाचक है - आकृति और घर ।
'सक्क' दो अर्थी का वाचक है— शक्र और शक्य ।
१. औपटी पृ २०२ : एकार्था वैते शब्दाः; अनुद्वामटी प १०७ ।
२. भटी पृ १४३१ ॥
३. दहाटी व १८ ।
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