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परिशिष्ट २ । ३५३
किन्तु एक दूसरे से सम्बद्ध होने से ये समानार्थक हैं । इनका क्रमिक अर्थबोध इस प्रकार है
१. स्पृष्ट – उचित समय में व्रत का सम्यक् स्वीकरण ।
२. पालित — सतत सम्यक् उपयोग से उसका पालन ।
३. शोधित - अतिचार वर्जन तथा अन्य क्रियाओं से शोधन करना ।
४. तीरित - व्रत पालन की उत्कृष्ट अवस्था प्राप्त करना ।
५. कीर्तित - - उसके बारे में दूसरों को कहना |
६. आराधित — उक्त प्रकारों से व्रत की सम्यक् आराधना । ' फुडण (स्फुटन )
१. स्फुटन - स्वत: ही वस्तु का दो भागों में विभक्त होना । २. भञ्जन - - टुकड़ों में विभक्त करना ।
३. छेदन - छेदना ।
४. तक्षण- - कुल्हाडी आदि से काटना |
५. विलुञ्चन - शरीर के रोम आदि खींचना |
बंभण (ब्राह्मण)
इसमें संग्रहीत ब्राह्मणवाची शब्द गुणों से, ज्ञान से और क्रियाओं से सम्बन्धित हैं, जैसे - कृतयज्ञ, यज्ञकारी, प्रथमयज्ञ, यज्ञमुंड, अग्निहोत्र, आहिताग्नि, अग्निहोत्ररति आदि शब्द क्रिया से संबंधित हैं । वेद, वेदध्यायी, वेदाभ्यासी, वेदपारग आदि शब्द ज्ञान से सम्बन्धित हैं । ब्रह्मऋषि, ब्रह्मज्ञ, प्रियब्रह्म आदि शब्द गुणवाची हैं ।
कुछ शब्द पेय पदार्थ के आधार पर भी निर्मित हैं । ब्राह्मण को सोमरस पीने वाला माना जाता है, अतः सोमपा, सोमपाइ, सोमनाम आदि शब्द भी ब्राह्मण के लिए प्रयुक्त हैं ।
सामान्यतः विप्र और द्विज ब्राह्मण के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं लेकिन जो ब्राह्मणजाति में पैदा होते हैं वे विप्र तथा उस जाति में उत्पन्न होकर योग्य वय में यज्ञोपवीत धारण करने वाले द्विज कहलाते हैं ।
१. प्रटी प ११३ |
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