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३०६ : परिशिष्ट २ केवल (केवल)
- यहां 'केवल' शब्द केवलज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त है । इस ज्ञान में सतत उपयोग रहता है इसलिए इसे अनिवारितव्यापार व अविरहितोपयोग कहते हैं । यह अपने आप में परिपूर्ण है इसलिए एक तथा इसका कभी अंत नहीं होता अतः अनन्त है । विकल्पों से रहित होने से अविकल्पित तथा मोक्ष प्राप्त कराने का साधन होने से नैर्यात्रिक आदि इसके
पर्याय नाम हैं। कोह (क्रोध)
क्रोध शब्द के प्रसंग में दस पर्याय शब्दों का उल्लेख भगवती सूत्र में हुआ है । कलह से विवाद तक के शब्द क्रोध के कार्य हैं। लेकिन कारण में कार्य का उपचार करके इनको टीकाकार ने एकार्थक माना
१. क्रोध- सामान्य अवस्था । २. कोप-क्रोध आने पर स्वभाव से चलित होना। ३. रोष-क्रोध की परम्परा, लम्बे समय तक क्रोध का अनुबन्ध मन में रखना। ४. दोष-स्वयं को अथवा दूसरों को किसी घटना के लिए दोषी ठह
राना अथवा अप्रीति मात्र द्वेष । ५. अक्षमा-दूसरों के अपराध को सहन न करना। ६. संज्वलन-क्रोध से निरन्तर मन ही मन जलते रहना । ७. कलह-जोर जोर से शब्द करते हुए परस्पर अनुचित शब्द बोलना। ८. चांडिक्य-रौद्र रूप धारण करना। जैसे-नसों का फड़कना, आंख __ व मुंह का लाल होना आदि ।
६. भंडण-लकड़ी आदि से लड़ना। १०. विवाद-परस्पर एक दूसरे के लिए निरन्तर आक्षेपात्मक शब्द
बोलना ।'
दोष तक क्रोध मानसिक रूप में रहता है। कलह तक वाचिक तथा १. भटी प १०५१ : क्रोधैकार्था वैते शब्दाः । २. वही १०५१।
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