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परिशिष्ट २ । ३६१ मुच्छिय (मूच्छित)
'मुच्छिय' आदि शब्द आसक्ति से होने वाली विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं । जैसे१. मूच्छित-विवेक-चेतना शून्य । २. प्रथित-लोभ के तन्तुओं से बंधा हुआ। ३. गृद्ध-आकांक्षा वाला। ४. अध्युपपन्न-विषयों के प्रति एकाग्र ।'
विपाक सूत्र के टीकाकार ने इनको एकार्थक माना है।' मुम्मुर (मुर्मुर)
मुर्मुर आदि सभी शब्द अग्नि की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को व्यक्त करते हैं । लेकिन समवेत रूप से अग्नि के वाचक होने के कारण एकार्थक
१. मुर्मुर-भस्म मिश्रित कंडे की अग्नि । २. अर्चि-मूल अग्नि से विच्छिन्न ज्वाला अथवा दीपशिखा का अग्र
भाग। ३. ज्वाला-अग्नि से संयुक्त अग्निशिखा । ४. अलात-अधजली लकड़ी।
५. शुद्ध अग्नि-इंधन रहित अग्नि अथवा अयःपिण्ड में प्रविष्ट अग्नि । मेढि (मेढी)
'मेढि' आदि शब्द कुटम्व या समाज के प्रधान व्यक्ति के बोधक हैं । वह व्यक्ति पूरे कुटुम्ब या समाज का आधारभूत होता है, अतः ये
सभी शब्द उसकी गुणवत्ता को द्योतित करते हैं। मोहणिज्जकम्म (मोहनीयकर्म)
ये सभी नाम मोहनीय कर्म की विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं। यहां अवयवों में अवयवी अथवा खड में समुदाय का उपचार कर सभी १. ज्ञाटी प६१। २. विपाटी प ४१ : मुच्छिए ....त्ति एकार्थाः । ३. आप्टे, पृ १२८९ : मेढिा, मेढी, मेथिः।
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