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विक्रम सम्वत् २०३६ का मर्यादा महोत्सव नाथद्वारा की ऐतिहासिक धरा पर हुआ । महोत्सव की समाप्ति के पश्चात् कार्य करने वालों की एक गोष्ठी आयोजित की गयी। और उसका अन्तिम निष्कर्ष था कि कार्य गतिमान किया जाये और उसे अन्तिम रूप दिया जाये। युवाचार्य प्रवर ने फरमाया-यदि कार्य में बिलम्ब होगा तो 'कालं पिबति तद्रसम्' वाली कहावत चरितार्थ होगी। युवाचार्यश्री के इस कथन ने कार्य की महत्ता को और अधिक उजागर कर दिया।
वि. स. २०४० । इस बार मुनिश्री दुलहराजजी को आगम कार्य के लिए लाडनूं भेजा गया। मुनिश्री ने एक दिन ग्रन्थागार में आगम कोश कार्य को देखा । तीन वर्षों के कार्य का निरीक्षण कर आपने कहा-कार्य बहुत हुआ है । अब इसे अंतिम रूप देकर समेटना आवश्यक है। यदि मेरा. इसमें यत् किञ्चित् सहयोग अपेक्षित हो तो मैं इसके लिए प्रस्तुत हूं"। हमारा उत्साह बढ़ा और सभी कार्यरत साध्वियों एवं समणियों की गोष्ठी आयोजित की गयी। सर्वप्रथम एकार्थक कोश, निरुक्त कोश और देशी कोश को अन्तिम रूप देने का निर्णय हुआ। कार्य का दायित्व जिन जिन पर बाया उन्होंने अपना पूरा समय तद् तद् कार्य के लिए समर्पित कर दिया और जो कार्य एक महा अरण्य-सा प्रतीत होता था वह कुछ ही महीनों में पूरा होने लगा।
निरुक्त कोश का कार्य साध्वी सिद्धप्रज्ञाजी एवं निर्वाणश्रीजी ने सम्पन्न किया।
देशी शब्दकोश का कार्य साध्वी अशोकश्रीजी और साध्वी विमल प्रज्ञाजी ने प्रारंभ कर दिया ।
मुझे एकार्थक कोश को संपन्न करना था और मैं इसमें दत्तचित्त हो गई । कार्य आगे बढ़ा और आज उसकी संपन्नता पर मुझे हर्ष हो रहा है ।
__ सर्वप्रथम मेरा भक्ति भरा प्रणाम उन आगम पुरुष प्राचीन आचार्यों को है जिन्होंने श्रुत-परम्परा को समृद्ध किया है ।
परमश्रद्धय, शक्तिस्रोत आचार्यप्रवर एवं युवाचार्यश्री का वात्सल्यपूर्ण आशीर्वाद मेरी साधना का संबल है। मैं उनकी प्रभुता और महानता के प्रति प्रणत हूं, क्योंकि इसमें जो कुछ है, वह उन्हीं का अवदान है। मैं तो मात्र निमित्त बनी हूं। पुनः पुनः उन पावन चरणों में अपनी कोमल अभिवन्दनाएं प्रस्तुत करती हूं और कामना करती हूं कि उनका स्नेहपूरित आशीर्वाद
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