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२८० । परिशिष्ट २
१. अब्रह्म-असत् प्रवृत्ति । २. मैथुन-स्त्री पुरुष का संयोग । ३. चरंत-सभी प्राणियों द्वारा अनुसत । ४. संसगि-~-स्त्री-पुरुष के संसर्ग से होने वाली प्रवृत्ति । ५. सेवनाधिकार-अनेक अनर्थों में प्रवृत्त करने वाला। ६. संकल्प-विकल्प से उत्पन्न होने वाला। ७. बाधन-संयम में अवरोध उत्पन्न करने वाला। ८. दर्प-शरीर की दृप्तता से उत्पन्न होने वाला। ६. मोह-मूढ़ता उत्पन्न करने वाला। वेदमोहनीय के उदय से होने
वाला। १०. मनः संक्षोभ-मानसिक क्षुब्धता पैदा करने वाला। ११. अनिग्रह-मन को उच्छं खल करने वाला। १२. व्युद्ग्रह-दृष्टिकोण का विपर्यास करने वाला। १३. विघात-गुणों का घातक । १४. विभंग-व्रतों को भंग करने वाला। १५. विभ्रम-भ्रान्ति पैदा करने वाला। १६. १७. अधर्म, अशीलता-चरित्र के विपरीत प्रस्थान कराने वाला। १८. ग्राम्यधर्मतप्ति-इन्द्रिय विषयों के उपभोग तथा रक्षण में सदा
आकुल व्याकुल रहने के लिए बाध्य करने वाला। १९. रति-कामक्रीड़ा का प्रेरक । २०. राग–अनुरक्ति बढ़ाने वाला । २१. कामभोगमार-कामभोगों के आसेवन से मृत्यु तक पहुंचाने वाला। २२. वैर-शत्रुता का हेतु । २३. रहस्य-एकान्त में आचरणीय । २४. गुह्य–गोपनीय। २५. बहुमान-अधिक व्यक्तियों द्वारा अनुमत । २६. ब्रह्मचर्यविघ्न-अब्रह्म-विरति में बाधा उपस्थित करने वाला।
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